दिल्ली की क्षत-विक्षत आत्मा

Memoir of Uma Anant 6
-उमा अनन्त

अंग्रेजों की चालबाजियाँ, काइयांपन, शोषण और हमारी आत्मा तक में लगाई गई सेंध भारतीयों के मन में मुक्ति के लिये तड़प, खलिश और छटपटाहट आखिर रंग लाई। आज सम्पूर्ण भारत में आजादी के जश्न मनाये जा रहे थे। बीच-बीच में दंगों की आहटें भी दस्तक दे रही थीं। विभाजन ने कई गहरे दर्द दिये थे। शरीर के जख्म तो शायद भर भी जाते पर मन पर लगे जख्म नासूर बनकर  मन की गहराइयों में पैठ बना चुके थे। आजादी का मूल्य परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उस देश को चुकाना ही पड़ता है। भारतीयों के अंग-अंग से रिसता नासूर इन घावों से अब भी सिहर-सिहर कर रिस रहा था।
(Memoir of Uma Anant 6)

दिल्ली में सब ओर पाकिस्तान से आये शरणार्थी अपने जीने की वजह तलाश रहे थे। दिल्ली अब पहले जैसी नहीं थी। सरोजिनी नगर, मालवीय नगर, लाजपत नगर के अतिरिक्त विभिन्न स्थानों पर कई कैम्प लगाये गये थे। आजादी नियामत है, पर वे सभी जानते थे कि ‘शाम अंधेरी अगर नहीं होती, ऐसी रोशन सहर नहीं होती।’

विभाजन अगर अपने घर की चहारदीवारी के बीच किया जाय तो वह भी दर्द देता है, यह तो देश का विभाजन था। कलम अब भी सिसक-सिसक कर रिसती रही। साहित्य समाज का दर्पण है, यह भी तो एक कटु सत्य है। नायाब लेखनी ने लिखा-  रास्तों पे बह रहा है आज पानी की तरह, खूने इंसा इससे पहले इस कदर सस्ता न था। कुर्रतुल-एन-हैदर ने ‘आग का दरिया’ उपन्यास लिख कर दर्दे बयां कर दिया।

सरदार अली जाफरी की विभाजन पर लिखी नज़्म हालात का हाले बयां करती हुई कहती है- अदब से आओ कि गालिब की सरजमी है यां, अदब से आओ कि ‘मीर’ का मजार यहाँ निजामुद्दीन-औ-चिश्ती के आएताने हैं। झुका दो तेगों के सारे बारागाहे रह़मत में फिर विचलित होकर कहते हैं। वहाँ बहिन है कोई, कोई भाई, कोई अज़ीज़ पुराने वादा-परस्तों की याद़गार कोई। विभाजन पर कई कलमें भीग उठीं।
(Memoir of Uma Anant 6)

‘ए ट्रेन टू पाकिस्तान’ का लेखक खुशवंत सिंह का नायक नहा-धोकर अमृत चखकर अपनी प्रेमिका के लिये प्राण- उत्सर्ग करने से भी नहीं हिचकिचाता। साहित्यकार जब रोता है, उसके लेखन में रेशे-रेशे को जलाकर एक रचना का सृजन होता है। हम सब एक विचलित दर्शक की तरह यह सब देखते रहते हैं किन्तु साहित्यकार अपने अन्तस से उठे झंझावात से उलझते हुए भी मौन नहीं रह सकता, उसकी कलम और भी पैनी हो जाती है। इसी दौर में ‘गर्म हवा’ जैसी फिल्में भी देखने को मिली।

‘मंटो’ का ‘टोबा टेक सिंह’ विभाजन पर सिर पटक-पटक कर मर गया। हैरां था वह, अरे यह क्या हो रहा है? पागल टोबा टेक सिंह खून के आँसू बहाता बिखर गया। हाँ, यह सच है साहित्यकारों की कलम हाले़ बँया करती रही पर फिर भी भारत माँ की आजादी तो सर्वोपरि है। अमृता प्रीतम कवि वारिस साह से प्रश्न करती है ‘‘एक हीर की मृत्यु पर तूने इतना बड़ा ग्रंथ रच डाला, पर विभाजन की त्रासदी पर लाखों मौतों पर तेरी जुबान चुप क्यों है?’’ तू अपनी कब्र से झाँक कर देख, ये सब क्या हो रहा है…??

आज अक्खां वारिस साह नू
वे तू कब्रां विच्यो बोल
ते अज किताबे इश्क दा
कोई अगला वऱका खोल
इक रोई सी धी पंजाब दी
तें तू लिक्ख-लिक्ख मारे बैन
अज लक्खां धीयाँ रोनियाँ
तैनू वारिस साह नू कैन
उठ, दर्द मंदा दे या दर्दिया
हुण तक अपना पंजाब
अज वेले लाशां विच्छियाँ
तेल हू दी भरी चनाब

इस्मत चुग़ताई, ख्वाजा अहमद अब्बास, कृष्णा सोबती की तरह कई कलमें हाले बयां करती रहीं। विभाजन की प्रतिक्रिया से अब भी देश का माहौल जूझ रहा था। स्थिति अब भी सामान्य नहीं थी। कहीं-कहीं राख के नीर्चे ंचगारी अब भी सुलग रही थी। तभी महात्मा गाँधी की हत्या के समाचार ने देश को झकझोर कर रख दिया। बिड़ला-भवन के परिसर में प्रवचन के लिये जाते ‘बापू’ को किसी ने गोलियों से छलनी कर दिया था। समय मानो एकाएक थम-सा गया था। गाँधी तो एक विचारधारा थे। उसके शरीर को गोलियों से खामोश करने की क्या जरूरत थी। ये मेरी समझ से बाहर था।
(Memoir of Uma Anant 6)

रेडियो से लगातार गाँधी जी की मृत्यु का समाचार सुनाई पड़ रहा था। सुनकर रक्त मानो धमनियों में जम गया था। उस रात शायद ही किसी एक-दो घर को छोड़कर किसी घर में चूल्हा जला हो। माँ, कह रही थीं ‘‘मत रो, सुबह तक खब़र आयेगी, महात्मा गाँधी की साँसें चलने लगी हैं…’’ एक सौ बीस साल तक जीने की इच्छा रखने वाला हाड़-माँस का बना दुबली काया का शरीर, निष्चेष्ट-प्राण-हीन हो चुका था। लोग रो रहे थे, रो रहे थे बस रो रहे थे। कुछ हृदयगति रुकने से मृत्यु-पाश में बँध चुके थे। गाँधी जी का परिवार अथाह-समुद्र के समान बड़ा था- बस सिसकियाँ ही सुनाई पड़ रही थी। सभी नि:शब्द थे। जर्रा-जर्रा हाहाकार कर रहा था। आर्तनाद करते शब्द भी विफल हो चुके थे। उस समय के हालात को शब्दों में भी बाँध सकने में विफल हूँ। कैसे कहूँ, वो तो सबका ‘बापू’ था। अजीबो-गरीब इंसान था। महानता की चादर ओढ़ने वाला इंसान नहीं था। अपनी दुर्बलता को भी प्रकट करने से नहीं हिचकिचाता था।

रेडियो पर लगातार भारी आवाज में निधन का समाचार चल रहा था। दिल्ली कई बार बसी, कई बार उजड़ी- फिर बस गई- पर इस बार तो दिल्ली की आत्मा तक क्षत-विक्षत हो गई थी। अजर-अमर होते हुये भी तार-तार, टुकड़े-टुकडे़ हो गई, उसका जर्रा-जर्रा लालिमा लिये आकाश तक को गहरा गया था। उस दर्दनाक रात में शायद ही कोई सो सका हो।
(Memoir of Uma Anant 6)

गाँधी जी की शव यात्रा देखने के लिये मेरे आग्रह पर मुझे एक ऊँची इमारत पर ले जाया गया जहाँ से मैं राष्ट्रपिता के आखिरी दर्शन कर पाऊँ। गाँधी जी का चेहरा सफेद-सा पड़ चुका था। शव के साथ नेहरूजी, पटेल जी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी तथा कृपलानीजी थे। भीड़ का समुद्र था। न केवल मनुष्य बल्कि पक्षी भी चहचहाना भूल गये थे। भीड़ का समुद्र अपने आँसुओं से धुंधली आँखों से सब कुछ धुंधला और अस्पष्ट-सा दिखाई दे रहा था। राष्ट्रपिता की शवयात्रा असंख्यों पुत्रों के कांधे पर थी। ऐसा सौभाग्य सबके नसीब में नहीं होता…।

मैंने गाँधी जी को जिस दिन मंदिर मार्ग के पास हरिजन बस्ती में पहली बार देखा था, उस दिन उनका मौन था। मौन अपने अन्तस को टटोलने में सार्थक होता है। अपना आत्म-निरीक्षण मनुष्य को नई उर्जा से भर देता है। मनुष्य अपने भीतर की शुचिता, कलुषता और वर्जनाओं पर ध्यान केन्द्रित करता है- लौटते हुए अपने बड़े भाई कृष्णापाद से मौन पर चर्चा सुनती रही लेकिन आज तो राष्ट्रपिता बापू ‘चिर मौन’ धारण किये हुए थे। पूरी भीड़ मौन थी। पशु-पक्षी, वृक्ष गहरे मौन थे। यह ‘मौन संवेदना’ शोक में बदल चुकी थी कि लोग आते गए और कारवां बनता गया। सहस्त्रों उस शव यात्रा में मौन श्रद्धांजलि दे रहे थे। आँसू सूख चुके थे, मस्तिष्क जड़ हो गया था। आघात बहुत गहरा था।
(Memoir of Uma Anant 6)

उमा अनन्त, 27 न्यू प्रगतिशील अपार्टमेंट, वसुन्धरा एन्क्लेव, अपोजिट-वसुन्धरा प्लाजा, नई दिल्ली-96

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