संस्मरण: दादा-दादी की दुनियाँ में

गीता गैरोला

गतांक से आगे
दादा जी गाँव के प्रधान थे, उनकी माँ उस गाँव की पहली पढ़ी लिखी ब्वारी आई। माँ को बिना कहानी उपन्यास पढ़े नींद नहीं आती थी। उसके लिए कहानी उपन्यासों का जुगाड़ पिताजी करते। उनकी बहू पढ़ी-लिखी कहानी उपन्यास पढ़ने की शौकीन हैं दादाजी को इस बात का गर्व होता। वे जब भी गाँव से पेंशन लेने पौड़ी जाते हमारे लिए संतरे की फाँक वाली लेमनजूस और बहू के लिए पत्रिकाएँ उपन्यास जरूर लाते। पत्रिकाओं और उपन्यासों के शौकीन दादाजी भी बहुत थे। उस जमाने में दादाजी के पास कर्मभूमि, गढ़वाली, ब्लिटज, अखबार और मायापुरी सरिता जैसी पत्रिकाएँ डाक से आया करती थीं।

सुबह मुँह अंधेरे उठकर दादा जी स्टोव में सबके लिए चाय बनाते। दादी, बिस्तर में ही माँ को चाय देती। बच्चों के लिए दूध गरम करना, दिशा जंगल से आकर पूरे घर में झाडू लगाना भी दादा जी का काम होता। दीदी और कृष्णा का मुँह धुलाते कुल्ला पिचकारी करवा दूध पिलाते। इस बीच माँ और दादी गाय, बैलों को घास-पानी देती, गोबर निकालती, पंदेरे से पानी लाती, धान झंगोरा कूटती। सबके अपने नियम, अपने काम, दीदी और मैं दादा जी के आगे पीछे चपर-चपर बाते बनाते। इसी बीच दादाजी ऊन का बना आसन बिछा कर संध्या करते। पानी से भरे ताँबे के पंचपात्र को आचमनी से धीरे-धीरे मंत्रोच्चारण करते हिलाते हाथों की उंगलियों में जनेऊ  लपेट आँखें बंद कर मुँह ही मुँह में मंत्रों का उच्चारण करते। पंचपात्र का पानी पीने हम भी उनके सामने बैठे रहते। उस समय दादा जी के मुँह से केवल शिश-शिश सुनाई देता। थोड़ा समझदार होने पर पता चला कि सुबह शाम बिना नागा वे विष्णु सहस्त्र नाम का पाठ करते हैं। जब भी बच्चे अंधेरे कमरे में जाने से डरते वो कहते जिस घर में सुबह-शाम विष्णु सहस्त्र नाम का जाप होता हो वहाँ कैसा डर। सड़क से पाँच-छ: किलोमीटर की चढ़ाई पर बसे उस दूर-दराज के गाँव में कभी बिजली आयेगी ऐसा किसने सोचा था। दूर-दूर तक बिजली की रोशनी की कल्पना भी नहीं थी, शाम घिरते ही हम सब बच्चे घरों के अंदर दुबक जाते। बच्चों को अंधेरे से बहुत डर लगता। माँ और चाची भीमल के केड़ो (पतली लकड़ी) को जलाकर गाय, भैसों को दुहते उन्हें घास-पानी देकर ओबरे में बंद कर देते। जानवरों को खुले में बाहर रखने से बाघ का डर रहता। बाघ जब चाहे किसी जानवर को खूटे से उठा ले जाता। गाय और भैंस के छोटे बच्चों को उठाना ज्यादा आसान था। इसलिए गाय, भैसों की गोठ के दरवाजों को मोट-मोटे गिन्डो से ढाँप देते। एक बार पिताजी कहीं से एक छोटा सा भोटिया कुत्ते का बच्चा ले आये। सब बच्चों के लिए तो वह खिलौना हो गया। कृष्णा ने उसका नाम भोटू रखा। अब दिनभर आगे-आगे मैं और पीछे-पीछे भोटू। शाम घिरते ही सबके के साथ भोटू भी कमरे में बंद हो जाता। बड़े होने पर भोटू बाघ से भी खतरनाक हो गया। दादाजी ने उसके गले में कांटेदार पट्टा बाँध दिया। जिससे भोटू बाघ से बचा रहे पर कांटेदार पट्टा भी बेचारे भोटू को बाघ से नहीं बचा पाया। एक दिन भोर का तारा उगते समय दादी ने भोटू की भौं-भौं की जगह कूँ-कूँ जैसी रोने की आवाज सुनी और दादी समझ गई भोटू आज बाघ के पेट में गया। सब लोग उसी समय दरवाजा खोल कर बाहर निकले। भोटू-भोटू आवाज दी पर उनकी आवाज सिलड़ी के डान्डे से टकराकर उन्हीं तक वापिस आ गई। भोटू होता तो पलट कर उनके पैरों में कूँ-कूँ करता लिपटता।

मैं और सरू आँख खुलते ही भोटू-भोटू करते रोज की तरह छज्जा में आये किसका भोटू। भोटू को तो बाघ चट कर गया था। दादी बाहर उदास खड़ी थी बोली बाबा भोटू तो गया। बाघ की जड़ मरे उठा ले गया भोटू को।

कृष्णा का रोना शुरू हुआ शाम तक रूका ही नहीं। कभी भोटू की जगह में बैठती उसकी जंजीर सहलाती कभी भोटू को उढ़ाने वाला चुगंटा देखती। कभी उसके खाने वाला एलम्युनियम का डिब्बा।

धूप चढ़ने पर दूर-दूर तक खेतों में चक्कर लगा आई। क्या पता बाघ ने कहीं कुछ निशानी छोड़ी हो। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि भोटू को बाघ ने खा लिया है।

भोटू के डर से इस खोले में आने की कोई हिम्मत नहीं कर पाता था। दो-चार खेत ऊपर से ही लोग घाद देते भारै अपणु कुकर बांधो (भाई अपना कुत्ता बाँधों)। जब भोटू मोटी जंजीर से बँधता तब जाकर कोई उस खोले में आता। जितनी देर अजनबी मेहमान बैठा रहता। भोटू राम जी लगातार भौंक-भौंक कर जान हलकान किए रहते। अपनी भी और मेहमान की भी। गन्दे कपड़े वालों की तो खैर नहीं होती। साफ-सुथरे कपड़े पहन कर आये मेहमान को भोटू जी थोड़ा राहत भी दे देते। चाचा जी और पिताजी चाहे एक साल बाद घर आते। भोटू महाराज दस-बीस खेतों को फलांगते उनके पैरों से लिपटा-चिपटी करते उछलते कूदते आगे-आगे दौड़ लगाते घर पहुँच कर सूचना दे देते कि परदेशी घर आ गये।
Memoir: In the world of grandparents

गाँव की पूर्वी सीमा से लगे गाँव मिर्चोड़ा में मांइयों (जोगिनों) की एक मढ़ी थी। मढ़ी की माइयाँ अक्सर भिक्षा लेने कृष्णा के घर भी आया करती। उन्हीं माईयों के मढ़ी में दादा जी की चचेरी बहन पिप्पी भी जोगन बन कर रहती थी। हम उन्हें माई बुड्डी कहते। माइयों की मढ़ी से पिप्पी बुड्डी के अलावा किसी का उस खोले में झांकना भी भोटू सह नहीं पाता। भोटू पिप्पी माई के आगे-पीछे मोटी सी झबरी पूँछ हिलाता ऐसे घूमता कि बुड्डी उसे गले लगा-लगा कर प्यार करती।

कहती अपने मालिक की भुली को पहचान गया तू बाकी माइंयां पिप्पी बुड्डी की आड़ लेकर ही उस खोले में आ पाती।

घर की सब औरतें पिप्पी बुड्डी को माई जी कहकर बुलाती। दादा जी उनका नाम लेते थे। जब भी माई जी अपनी चेलियों के साथ आती एक दो दिन जरूर रुकती। उनका डेरा छोटी दादी के बंद बरामदे में लगता। वही पर बैठती, वहीं खाती, वहीं पर सोती। घर के अन्दर आने को कभी तैयार छूती नहीं होती जब भी दादा जी कहते पिप्पी ये तेरा घर है अंदर आ।

माई जी कहती दादा माइयों का कोई घर नहीं होता। घर में ही रहना होता तो माई क्यों बनती

कृष्णा की जिज्ञासा उसे माई जी के आसपास डुलाती रहती। बाहर देहरी में भोटू गोल-गोल आँखों को घूमाता, पूँछ हिलाता रहता और अन्दर कृष्णा माई जी के पास कभी उनका चिमटा छूती, कभी कमन्डल। कभी उनके गंजे सिर पर हाथ फेर कर करकरे बालों को छूती। दादी उसे हाथ पकड़ कर वहां पर से उठाती आँख दिखाती पर मजाल  है जो वो माई जी के पास से सरक जाये। माई जी बच्चों का लाड़ करती, भिक्षा में जो भी अच्छी खाने की चीजें मिलतीं उन्हें बाँट देतीं। बस उसकी छोटी सी समझ में ये नहीं समा पाता कि जब माई दादा जी की बहिन है तो गंजी होकर गेरूवे झगोले क्यों पहनती है। ये मेंरे घर के अंदर क्यों नहीं आती। भिक्षा क्यों मांगती है। एक दिन मैंने माई जी से पूछ ही लिया, बुड्डी तू भिक्षा क्यों मांगती है? मांगना तो बुरी बात है न

माई जी को झटका सा लगा। उनकी आँखे भर आई।  बोली  ”किस्मत में लिखा था इसलिए भिक्षा मांगती हूँ।” हाथ से माथा ठोककर इशारे से समझा दिया।

माई जी की भरी-भरी आँखों और कपाल को छूते हाथ ने दिन-भर कृष्णा को परेशान कर दिया। हजारों प्रश्न थे जिनके जवाब ढूँढे बिना उसे चैन कहां मिलता।

रोज की तरह उस दिन रात को वो दादी को अपने सिर से धकेल कर बिस्तर में ले गई चल कथा सुना। जब तू कथा सुनाएगी तभी नींद आयेगी।

दादी ने रोज की तरह सुना दीदी की कथा लगानी शुरू की ही थी कि कृष्णा ने उसका मुँह अपने हाथ से बंद कर दिया चुप रोज वही सुना दीदी ढोलका पुटुक (सुना दीदी ढ़ोल के अंदर) वाली कथा मत लगा। दूसरी कथा लगा दादी ने धीरे से उसका हाथ अपने मुँह से हटाया और बोली कहां से लाऊँ  रोज नई कथा। कृष्णा ने रोज की तरह अपना सिर दादी की छाती में घुसा कर उसे धीरे से धकेला (ये उसका दादी से गुस्सा होने का अपना ही तरीका था) और बोली अच्छा ये बता पिप्पी बुड्डी माई क्यों बनी।

दादी ने लालटेन के पीले धुंधले उजाले में न जाने कौन सा सिरा टटोलने की कोशिश की। कृष्णा ने उतावली से जिद की बहाने मत बना तू सुना पिप्पी बुड्डी की कहानी

दादी ने गहरी सांस ली अरे बाबा निर्भागी पिप्पी माई की क्या कथा-क्या बात। तेरे दादा जी की चचेरी बहन है पिप्पी। नाम तो उसका प्रभा रखा था पर सबकी जुबान पर पिप्पी चढ़ा और अब हो गई वो पिप्पी माई। हमारे जमाने में 12-13 बरस में लड़कियों के ब्याह हो जाते थे, पिप्पी पर भी फेरों का कलंक लगना था, सो लगा। एक बार जो सुसराल गई तो विधवा हो कर ही मैत लौटी। उस जमाने में गाँव के गाँव हैजा से खत्म हो जाते थे। ऐसा रोग फैला कि पिप्पी के ससुराल का पूरा परिवार निगल गया, ये छोरी पता नहीं कैसे बच गई रोग से। निर्भागी छोरी कहां जाती बाबा। औरतों के दो ही ठिकाने एक मैत और दूसरा सासुर। वहां कोई जिन्दा ही नहीं था। कौन रखता छोरी को। वापिस मैत आ गई। गरीबी का जमाना था। मैतियों (मायके वाले) की मजबूरी। कहां भेजे नादान छोरी को, घर के कोने में पड़ी रहेगी। पहाड़ की बेटियों की दो रोटी और दो जोड़ी कपड़ा किसी को भारी नहीं पड़ता। घास, लकड़ी, खेती पानी के काम के लिए जितने हाथ हों वही कम।
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जवान होती प्रभा ऐसी जगमगाती जैसे धार में जून (चांद)। सिन्दूरी रंगत वाले गालों में दोनों तरफ चवन्नी भर गड्डे पड़ते। पन्द्रह, पच्चीसी की उमर नहीं जानती कि उसे कहां खिलना है और कहां नहीं खिलना। पिप्पी विधवा थी तो क्या उमर तो अपना रंग जी खोल के बिखेर रही थी। परिवार के नातेदार उसे देख कर उसांसे भरते निर्भागी छोरी जवान हो गई। किस काम की इसकी जवानी। ये भी हैजा से मर ही जाती तो क्या जो सूना हो रहा था। कहते है न मनिख के मन और है दाता के मन और। दीप्पी की नियति भी उसे कंही और ले गई। दीप्पी की बड़ी दीदी दो छोटे बच्चों को छोड़कर मर गई। दो बच्चों की देख रेख करने के लिए दीप्पी के अलावा और कौन हो सकती थी। मैत वालों ने कुछ दिन दोनों बच्चे दीप्पी के पास मायके में ही रखे। पर दूसरों की जिम्मेदारी कब तक ली जा सकती थी। यही तय किया गया कि दीप्पी दोनों बच्चों के पालन-पोषण के लिए अपनी दीदी की ससुराल में ही रहेगी। इसमें पिप्पी को पूछने की न किसी ने जरूरत महसूस की और ना हीं पूछा। क्या थी वो। अपने माँ बाप, भाईयों, भाभियों पर बोझ ही थी न। सबने सोचा कुछ दिनों के लिए बला टली। पिप्पी के लिए भी अपना समय काटने के लिए यही ठीक था। सिर छिपाने को छत, दो समय का खाना और आगे पीटे लिपटते-चिपटते दो नन्हें बच्चे।

बच्चों के मोह में फंसी पिप्पी को पता ही नहीं चला कि बच्चों के साथ उसकी मन की डोर कब जीजा के साथ भी जुड़ गई। जीजा को बच्चों की आया के साथ अपना दिल बहलाने के लिए खूबसूरत सा खिलौना मिल गया। इस रिश्ते को नाम न तो जीजा ने दिया और न ही उसके मायके वालों ने कोई कोशिश की। जाने कितने जाड़े और कितनी बरसातें निकल गई। बच्चे जवान हो गये। दिप्पी 15 से 30 वर्ष की हो गई। गाँव परिवार के लोगों को अब याद आया कि पिप्पी उस गाँव और उस घर में बिना किसी रिश्ते के रह रही हैं। दिप्पी का प्यार उसकी मेहनत और उसकी जिन्द्गी के सबसे ऊर्जावान सालों का हिसाब याद करने की न तो जरूरत पड़ी और न ही किसी ने ध्यान दिया और एक दिन पिप्पी को उस घर से निकाल दिया गया। कहाँ जाती पिप्पी। एक ही ठिकाना था मायका, वहीं आ गई। पर इस बार के आने में और पहली बार के आने में फर्क था। पिप्पी की उम्र का फर्क परिस्थितियों से हारने का फर्क थां तब एक नादान बच्ची जैसे मैत से भेजी गई, वैसी ही वापस आई थी। आज दीप्पी की नादानी समय के अन्तराल में खो गई थी। तक एक बच्ची आई थी आज एक औरत आई है। एक औरत का आना मायके वाले कैसे सहते। सबको अपनी इज्जत दिप्पी के पैरों तले दबी दिखाई दी। अब दिप्पी के सामने एक ही रास्ता बचा था। जो दिन-रात व्रत (उपवास) लेकर तुलसी, पीपल की पूजा तक जाता था।

जितनी दीप्पी उपवासी रहकर अपने देह को सुखाती गई उतनी ही परिवार की इज्जत बढ़ती गई।
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एक दिन मिर्चोड़ा की बड़ी माई जी गाँव में भिक्षा लेने आई और दिप्पी को साथ ले गई। बड़ी माई जी ने दिप्पी को अपनी चेली बनाकर दीक्षित कर दिया। दिप्पी के काले घने बाल काट कर उसे गंजा कर दिया गया। उसको गेरूवे रंग में रंगकर संन्यासी बना दिया। किसी घर की विधवा बेटी संन्यास ले ले, ये उस परिवार को आस-पास के गाँवों में प्रतिष्ठित कर देता था। तब से दिप्पी माई बन गई। कौन जाने माया, मोह बंधनों से मुक्त हुई या नहीं । पर मायके वाले गाँव में भिक्षा के लिए आना उसका नियम था। भिक्षा के बहाने अपने भाई बंधुओं से मिलने का लालच भी होता ही होगा। दिप्पी बुड्डी की कहानी सुनते-सुनते कृष्णा रोने लगी। नाक सुड़कते हुए बोली माई को वो बच्चे याद नहीं करते होंगे।

कुजाण (कौन जाने) बाबा। पर दिप्पी ने दुबारा उस रास्ते पैर नहीं रखा। ठीक ही तो किया दिप्पी ने । उस समय पहाड़ी गाँवों की कई जवान विधवा लड़कियों को परिवार के लोग सन्यास लेने को मजबूर कर देते थे। इसीलिए दो चार गाँवों के बीच में एक न एक माइयों की मढ़ी होती थी। जिसमें एक गुरू माई के साथ उनकी आठ दस चेलियाँ रहती। ये सब आसपास के गाँवों की जवान सुंदर लड़कियाँ होती। जिन्हें उनके परिवार वाले जिम्मेदारी से बचने के लिए माई बनने के लिए मजबूर कर देते एक बार दादा जी के साथ कृष्णा को भी मिर्चोड़ा गाँव की मढ़ी में जाने का मौका मिला। दादा जी ने बड़ी माई जी का माई जी नमो नारायण कह कर अभिवादन किया। कृष्णा ने माई जी के चरण स्पर्श किये। माई जी ने उसे बहुत प्यार किया। माई जी की चेलियों ने स्वादिष्ट दाल-भात खिलाया। मढ़ी से विदा होते समय माई जी ने उसे एक रुपया दिया। जो उस समय बहुत बड़ी राशि होती थी। घर आते ही कृष्णा ने दादी के पास अपना रूपया जमा कर दिया। इस तरह जमा किये गये पैसे का बच्चे पूरा हिसाब रखते और र्कांलका तथा खैरालिंड के मेले में खर्च करने के लिए मांगते। दिप्पी माई जी की कथा लगाते-लगाते दादी को नींद आने लगी। उसे ऊँघते देख कृष्णा ने झकझोरा दादी तू सो गई। अब दूसरी कथा लगा ढाडू छोरे की। दादी ने उसकी पीठ पर एक धौल जमाई चुप सो जा बुलाऊँ कुणा बूट कुणाबूट का नाम सुनते ही वो जोर से दादी से लिपट गई। अपने दोनों हाथ दादी के गले में डाल दिये जिससे कुणाबूट खींच ना सके।

पता नहीं वो कुणाबूट क्या होता था पर उसका डर सब बच्चों को काफी बड़े होने तक सताता रहा।

अपने बचपन से दादा जी की मृत्यु होने तक कृष्णा ने अपने घर में कभी कोई अंधविश्वास और ढोंग ढकोसले नहीं देखे। वह रोज नियम से सुबह शाम संध्या करते। इसमें रोज स्नान का ढोंग नहीं था। देश काल और परिस्थिति के हिसाब से वे अपने जीवन के नियम बदल देते। कृष्णा के पांचों भाई-बहन हट्टे-कट्टे तंदुरूस्त थे। गाँव में लोगों के बच्चों को छल होता, भूत लगता, राख मंत्रित कर उनकी रखवाली की जाती। उनके साथ कभी ऐसा नहीं किया गया। दादाजी  इन बातों पर विश्वास ही नहीं करते थे। उनका कुल देवता नरसिंह हैं। कहते हैं नरसिंह बिना डौर थाली बना के जागर लगाए और बलि दिए नहीं मानता । परंतु कृष्णा के घर में न कभी डौर थकुली बजी न कोई देवता नचाया गया और न ही कभी किसी भी तरह की बलि दी गई। अप्रैल-मई के महीने गेंहूँ की फसल होने के बाद सबसे पहले कुल देवता के लिए नए गेंहूँ के आटे का रोट बनता। दूध फूल और श्रीफल से देवता की  पूजा होती। उसके बाद ही नई फसल के अन्न को कोई खा सकता था। दादा जी नरसिंह और ग्राम देवता भैरव की पूजा रोट दूध फूल श्रीफल चढ़ा कर बहुत श्रद्धा से करते। वह कहते जो देवता किसी जीव की हत्या करके खुश होता हो वह देवता नहीं राक्षस हैं। दुनिया के सभी जीव ईश्वर ने बनाए हैं, उन्हें मारने का अधिकार हमें किसने दिया।

सभी बच्चों की तरह कृष्णा और उसकी दीदी की भी भूत की कहानियां सुनने का बड़ा चाव होता। वे दादी से अक्सर भूत की कहानियां सुनाने की जिद करते। दादी भूत के किस्सो की खान थी। उन किस्सों में उसके स्वयं के देखे झूठे सच्चे भूतों के किस्से भी शामिल होते।
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भूत की एक कहानी पूरे पहाड़ों की दादा नानियों ने अपने बच्चों को सुनाई होगी- एक बार एक औरत सुबह होने के भ्रम में रात को ही धान कूटने लगी। मिझान से कूटते हुए आमतौर पर सांसों को नियंत्रित करने के लिए औरतें हुशा-हुशा या ऐसी ही कई तरह की आवाजें मुंह से निकालती हैं। वह औरत भी धमाधम कूटते हुए मुंह से आवाज निकाल रही थी, तभी उसे लगा कि सामने वाली पहाड़ी से किसी ने जोर से किलकारी मारी। देखते-देखते किलकारी की आवाज नजदीक आने लगी। औरत समझ गई कि अयेड़ (भूतनी) की आवाज है। वह दौड़ कर गाय के खूटें से चिपक कर छिप गई, कहावत है, गाय के पास भूत नहीं आते। अयेड़ (भूतनी) उरख्याली (ओखली) में औरत को न पाकर गुस्सा हो गई। उसने पूरे धान बिखेर दिये, अभी यखम है अभी कख ग्यै (अभी पर थी अभी कहां गई) बोलती जाती और धान की छट्टी-बट्टी लगाती जाती। इतने में सुबह हो गई। सुबह होते ही भूतनी गायब हो गई। औरत अयेड़ के जाने के बाद ही गोठ से बाहर आई। ये किस्सा किसके साथ, कब घटा कुछ पता नहीं। कहा जाता है किसी की दादी की दादी की नानी के साथ ऐसा हुआ था।

उन्हें ऐसी कहानियां बहुत भाती और बहुत डराती, शाम का झुटपुटा होते ही सब बच्चे घरों में दुबक जाते, मैं डर के मारे तो खटले के नीचे पैर नहीं लटकाती। कहीं कुणाबूट पैर ही न पकड़ ले। दादा जी ऐसी कहानियाँ सुनाने पर बहुत गुस्सा करते।  बच्चों को ऊंटपटांग बातें सुना कर डराती हैं। वह कहते भूत-प्रेत कुछ नहीं होता, जिस घर में सुबह शाम संध्या होती हो वहां पर ईश्वर का वास होता है। उन्हें ज्योतिष पर बहुत विश्वास था। वह कहते जिसके गृह हीन हो जाते हैं वही व्यक्ति तरह -तरह की कल्पनाओं से डरता है। वह ऐसा ही एक किस्सा सुनाकर हमारे विश्वासों को बढ़ाने की जुगत करते। दादा के पिताजी तारादत जी ज्योतिष के विद्वान थे। एक बार वे किसी पंडित के साथ ग्वालियर राजा के दरबार में गए, बहुत महीनों से राज्य में वर्षा नहीं हुई थी। अकाल के डर से राजा चिन्तित थे राजा ने उनके ज्योतिष ज्ञान की परीक्षा लेने की ठानी। राजा ने कहा आप उत्तराखंड के पंडित हैं, बताइये वारिश कब होगी। तारा दादा जी ने अपनी गणित विद्या के आधार पर कहा, आज शाम को अवश्य होगी। आसमान में दूर-दूर तक बादल का एक छींटा तक नहीं था, वारिश होने के कोई आसार नहीं थे, अचानक ही शाम को पश्चिम से बादल घिरे और रात होने तक ताबड़ तोड़ पानी बरसने लगा। राजा ने पंडित जी की गणत विद्या का सम्मान किया और आजीवन पांच रूपए प्रतिमाह पेंशन बांध दी।

इन्हीं पंडित तारादा का पेट सावन भादों के चौमास में खराब हो गया। सब लोग दिशा जंगल खेतों में जाते थे, वो भी गए। घर के ऊपर वाले खेत में बरसात के दिनों में एक छवाया (पानी का स्त्रोत) फूटता था, ये पानी मार्च अप्रैल तक रहता। इसी धारे में तारादा जी कुल्ला पिचकारी करने जा रहे थे कि उन्हें आडू के पेड़ के नीचे कुछ हिलता दिखाई दिया। उन्होंने गौर से देखा, दो हाथ और एक सिर जोर-जोर से हिल कर उन्हें बुला रहे हैं। किसका गणत और किसके मंत्र, डर से वे सब भूल गये। पंडित जी जैसे-तैसे घर पहुंचे और बेहोश हो गए। मुंह से झाग निकलने लगा। परिवार के लोगों ने समझा इन्हें भूत का छल लग गया। देवता का पश्वा बुलाया गया। राख मंत्रवाई गई। थोड़ी देर बाद तारादा जी के भिचे दांत खुल गए। उन्हें होश आ गया। वो ठहरे ज्ञानवान मनिख। सोचा कुछ तो ऐसा था जिससे मैं डर गया। एक बार वहीं पर जाकर देखना चाहिए, उस जगह गए। क्या देखते हैं आडूं के पेड़ के नीचे एक बड़ा मार्सा (चौलाई) का पेड़ है। उसकी फुनगी में लगी बाल हवा से झूम रही है। बगल दो चौड़े पो हवा के साथ मस्त दायें बाएं हिलते ऐसे लग रहे हैं, जैसे कोई बुला रहा हो। उन्हें स्वयं के डर पर बहुत हंसी आई उन्होंने सबको समझाया भूतप्रेत कुछ नहीं था मेरा बहम ही मुझे छल बन कर डरा गया। दादी के कुणाबूट और भूतप्रेतों के किस्सों से उपजा बच्चों के मन का डर भगाने के लिए दादा जी ने ये किस्सा पता नहीं कितनी बार सुनाया होगा।

सबके दिल दिमाग में दादी के भूतों वाले किस्से ज्यादा जगह बना गए और दादी का कुणाबूट बड़े होने पर भी गाहे-बगाहे कृष्णा को डरा देता था। कुणाबूट का वही डर बाद में उनके बच्चों के काम भी आया।
Memoir: In the world of grandparents
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