संस्मरण – महान व्यक्तियों के दर्शन

उमा अनन्त

प्रधानमंत्री निवास पर बच्चे अपने प्रिय चाचा नेहरू के जन्मदिवस पर उन्हें बधाई देने की तैयारी में थे। बाबा ने मुझसे पूछा कि तुम भी इस आयोजन में भाग लेना चाहती हो। प्रधानमंत्री निवास में बच्चे कतार में खड़े थे। बारी-बारी से चाचा नेहरू के माथे पर तिलक लगाकर उनका अभिवादन कर रहे थे। जब मेरी बारी आई तो अति उत्साह में मैंने चाचा नेहरू के गालों पर भी थाली में रखा लाल रंग लगा दिया। क्षण भर के लिए यहाँ उपस्थित सभी लोग हतप्रभ रह गये। मैं समझी मुझसे कुछ गलत हो गया है। तभी चाचा नेहरू ने जोर से ठहाका लगाते हुए मेरे गालों पर भी लाल रंग लगा दिया और सिर पर हाथ रखकर स्नेह से थपथपाने लगे। जो हिदायतें बच्चों को दी गई थीं, उनसे मैं अनभिज्ञ थी क्योंकि मै उस समूह में बाद में शामिल हुई। हॉल से बाहर निकलकर मैं एक खंभे के पास इन्तजार कर रही थी कि मेरे घर लौटने का क्या बन्दोबस्त किया गया है। तभी चाचा नेहरू ने मुझे देखा और हरि जी से कहा, ‘‘अरे इसे अपना संग्रहालय दिखा दो, इसे जो चीज पसंद आये दे देना।’’ (Meeting with Nehru)

ऐसे अभूतपूर्व संग्रहालय को मैं चकित दृष्टि से देख रही थी। विभिन्न देशों के राजनयिकों की समय-समय पर दी गईं भेंट मुझे हैरान कर रही थी। हरिजी ने पूछा, ‘‘तुम्हें कुछ लेना है?’’ सामने दक्षिण-भारत की एक लम्बे फ्राक वाली गुड़िया, जिसकी आँखों में गहरा काजल लगा था और सिर पर सुनहरा मुकुट बहुत ही सुन्दर लग रहा था, हाथ लगाने पर नृत्य की मुद्रा में नाचती प्रतीत होती थी, हिल-हिल कर नाचती गुड़िया की तरफ मैंने इशारा किया। हरिजी ने वह गुड़िया मुझे दे दी। अगले दिन मैं सातवें आसमान पर थी। अपने स्कूल में संग्रहालय की गुड़िया और जन्मदिन की पूरी कहानी सबको सुनाकर मैं प्रसन्नता में डूबी रही।

मेरे बड़े भाई कृष्ण कुमार महात्मा गाँधी जी के परम भक्त थे। गाँधी जी हरिजन बस्ती में एकत्रित जन समुदाय के लिये प्रवचन किया करते थे। मैं अपने बड़े भाई को ‘कृष्णदा’ कहा करती थी। मैंने अत्यन्त हठ करते हुए आग्रह किया, ‘‘मैं भी गाँधी जी की प्रार्थना सभा में तुम्हारे साथ जाऊंगी।’’ बड़ी मुश्किल से दादा मुझे साथ ले जाने को राजी हुए। उनकी साइकिल में बैठकर मैं भी हरिजन बस्ती पहुँची। सभा में एकत्रित लोग आतुरता से गाँधी जी की प्रतीक्षा कर रहे थे। दादा ने धीमे स्वर में बताया, गाँधी जी मनु और आभा के कंधे का सहारा लेकर प्रार्थना सभा की ओर आ रहे हैं। (Meeting with Nehru)

सम्पूर्ण वातावरण ‘रामधुन’ से गुंजायमान हो उठा। ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये जे, पीर पराई जाने रे’ भजन जो गाँधी जी को अत्यन्त प्रिय था, सम्पूर्ण वातावरण को आह्लादित कर रहा था। मैं अपलक गाँधी जी को देख रही थी। मैं एक ऐसे विराट व्यक्तित्व को देख रही थी, जिसका अनुभव वही कर सकता है, जिसने साक्षात् उस सादगी की मूर्ति को देखा हो।

उस दिन बापू का मौनव्रत था। दुर्भाग्यवश मैं उनकी आवाज सुनने से वंचित रही। जिसका मुझे जीवन भर अफसोस रहेगा। कृष्णदा दोबारा मुझे अपने साथ ले जाने को राजी नहीं थे। रघुमल विद्यालय की प्रधानाचार्या सुश्री सरला डैंग कठोर अनुशासन में विश्वास रखती थीं। छात्राओं के बहुमुखी विकास के लिए सदैव तत्पर रहती थीं। दस छात्राओं का समूह बनाकर मेरे साथ संसद की कार्य प्रणाली देखने के लिए भेज देती थीं। इन छात्राओं के प्रवेश का इंतजाम सिक्योरिटी विभाग के लोग मेरे पिताजी की आज्ञानुसार संसद की दर्शक दीर्घा में बैठने की अनुमति प्रदान करते थे। दीर्घा में बैठकर महान विभूतियों के दर्शन करना एक अनोखा अनुभव था। वहीं पर कुर्सी पर श्वेत खादी की साड़ी में एक महिला को देखा करती थी, जो सदन की कार्यवाही होने तक बाहर दरवाजे से कुर्सी सटाकर बैठी रहती थीं। पिताजी ने बताया कि ‘‘ये मणिबेन पटेल हैं, सरदार बल्लभ भाई पटेल की अस्वस्थता के कारण उनकी प्रतीक्षा करती हैं।’’ मेरी प्रिय अध्यापिका श्रीमती वर्मा कहती थीं, ‘‘उमा चाहे कोई पक्ष का हो या विपक्ष का, देश के प्रति उनके योगदान को झुठलाया नहीं जा सकता। इसमें बच्चे, बूढ़े, स्त्री-पुरुष, नवयुवक-नवयुवतियों के बलिदान की असंख्य गाथाएँ जुड़ी हैं।’’ (Meeting with Nehru)

मैंने विद्यालय द्वारा आयोजित संगीत, कविता, नाटक आदि की प्रतियोगिताओं में भाग लेना शुरू कर दिया था। ‘महान यात्रा’ संगीत-नाटिका में मुझे उस कठिन क्षणों की भावाभिव्यक्ति को प्रस्तुत करना था। मैं बहुत मनोयोग से उन क्षणों को अभिव्यक्त करने में सफल रही। राजपाट, सौन्दर्य की प्रतिमा पत्नी यशोधरा और नवजात शिशु राहुल को त्याग ‘शाश्वत सुख’ की खोज में निकल जाना बहुत आसान नहीं था। भावाभिनय में नि:सन्देह मैं सफल रही थी।

आज सुबह जब हरिजी पिताजी से मिलने उनके कमरे में आये तो मैं उनके जलपान करने तक कमरे के बाहर ही प्रतीक्षा करती रही। पिताजी से मुलाकात के बाद बाहर निकलते ही उनकी दृष्टि मुझ पर पड़ी तो उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘कुछ कहना चाहती हो?’’ मैंने कहा, ‘‘हरि जी, मैं एक बड़े विचारक और दार्शनिक, सर्वपल्ली श्री राधाकृष्णन जी के दर्शन करना चाहती हूँ।’’ हरिजी ने उत्तर दिया कि अपने पिताजी से इस विषय में बात करनी चाहिये। मैं आँखें नीची कर खड़ी रही। तभी हरिजी ने कहा, ‘‘ठीक है, मैं तुम्हारे पिताजी से इस विषय में बात करूंगा।’’ (Meeting with Nehru)

बात इतनी जल्दी बन जायेगी, उसकी मुझे इतनी जल्दी उम्मीद नहीं थी। हरि जी ने कहा, ‘‘सोमवार को तैय्यार रहना, तुम्हें उपराष्ट्रपति जी की ‘स्ट्डी में पहुँचाना है।’’ मैं मन ही मन अपनी प्रिय अध्यापिका श्रीमती वर्मा को याद कर रही थी, जिन्होंने मुझे इस महान व्यक्ति के दर्शन करने की प्रेरणा दी। अपने पिताजी के साथ मैंने उनके कमरे में प्रवेश किया। दीवान पर कमर टिकाये राधाकृष्णन जी मेरे सामने थे। उनके आसपास दीवारों पर किताबें ही किताबें देखकर मैं अभिभूत हो उठी। मैं सामने के सोफे के किनारे पर सिकुड़ कर बैठी थी, तभी उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’ मैंने उत्तर दिया, ‘‘मेरा नाम उमा पंडित है।’’ तुम्हें पता है उमा, मुझमें नाम याद रखने की अद्भुत क्षमता है। आज से दस साल बाद भी तुम मुझसे मिलने आओगी कि मैं गंगाप्रसाद की बेटी हूँ, मैं तुम्हें तुम्हारे नाम से ही पुकारूंगा। हाँ, सोफे पर रिलैक्स होकर बैठो। फिर उन्होंने अपने विषय मेें बताया कि घर की र्आिथक स्थिति ठीक नहीं थी फिर भी पिताजी ने मुझे लूथर्न मिशिन स्कूल में पढ़ाया। दर्शन शास्त्र में एम.ए. किया। तुम्हें पता है उमा, मैंने 20 वर्ष की आयु में अपना पहला ग्रंथ लिखा। वेदों और उपनिषदों का गहराई से अध्ययन किया। संस्कृत और हिन्दी भाषा को बड़े मनोयोग से पढ़ा। स्वयं द्वारा लिखे ग्रन्थों के विषय में भी विस्तार से बताया। कुछ क्षण सोचने के बाद उन्होंने कहा, ‘‘उमा, तुम्हारे पिता में मानवीयता के सभी गुण विद्यमान हैं, जो उन्हें श्रेष्ठ बनाते हैं। राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री निवास और दिल्ली के संस्थानों में उन्हें बहुत आदर की दृष्टि से देखा जाता है।’’  मैंने अपने पिता की ओर निहारा और मेरा मस्तक श्रद्धा से नत था। अगला प्रश्न उन्होंने मुझसे किया, ‘‘तुमने अपने जीवन के ध्येय के बारे में क्या सोचा है?’’ मैंने उत्तर दिया, ‘‘मैं पढ़ने-लिखने में बेहद रुचि रखती हूँ, मैं एक टीचर बनना चाहती हूँ।’’ मेरा उत्तर सुनकर उन्होंने स्पष्ट किया कि उमा, ‘टीचर’ का प्रोफेशन इसलिये मत चुनना कि तुमने कही और नौकरी न मिलने पर इस प्रोफेशन को मजबूरी में चुन लिया। एक अच्छी टीचर बनकर भी हमेशा ‘स्टूडेंट’ बने रहना, उन्नति करना, इस प्रोफेशन का सम्मान रखना। मैं अभिभूत थी। मैं एक महान टीचर के सामने उनके विचारों को आत्मसात कर रही थी। मैं बहुत सौभाग्यशाली थी कि मुझे विश्व के महान विचारक और दार्शनिक से संवाद का मौका मिला था। फिर उन्होंने पिताजी से बातचीत शुरू की। बातचीत में मृदुला साराभाई और कृष्णा हथिसिंह का नाम लिया, जिनके नामों से मैं अनभिज्ञ थी। चार-पाँच मिनट तक दोनों के बीच बातों का आदान-प्रदान चलता रहा। 25 मिनट की इस मुलाकात में 20 मिनट मेरे लिये थे।
आखिर में उन्होंने, मेरी ओर मुखातिब होते हुए मुझसे कहा, ‘‘उमा, कभी भी कष्ट में हो तो मुझसे जरूर कहना।’’ उस धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले महान व्यक्तित्व की बातचीत से मैं जितना कुछ समझ सकी, उसी का सारांश यहाँ र्विणत है।
(Meeting with Nehru)

क्रमश:

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