मैं और उत्तरा

Me & Uttara Nand Kishore Hatwal

वर्ष 1991 का नवम्बर माह। रमाकान्त बेंजवाल ने मुझे बताया कि नैनीताल से ‘उत्तरा’ पत्रिका छप रही है, उसके सदस्य बन जाओ। मैं सदस्य बन गया और 1992, जनवरी-मार्च का अंक मुझे डाक द्वारा प्राप्त हुआ। तब मैं रा.इ.का. छिनका में शिक्षक था। डाक से आने वाली हिंदी की कुछ लघुपत्रिकाएं, बुग्याल, हिलांस, धाद, नैनीताल समाचार आदि के साथ अब उत्तरा भी जुड़ गई थी।
(Me & Uttara Nand Kishore Hatwal)

उत्तरा के बाहर से ‘महिला पत्रिका’ पढ़ा तो लगा इसमें भी कढ़ाई, बुनाई और अचार बनाने की विधि होगी, बुनाई विशेषांक निकलेगा। महिला पत्रिका के नाम पर ऐसी ही छवि बनाई गई थी। उत्तरा का पहला ही अंक पढ़ा तो एक अलग तेवर दिखा, अलग-सा स्वाद लगा। उन दिनों पढ़ने की सामग्री सीमित ही उपलब्ध होती थी। छिनका में नियमित दैनिक अखबार भी नहीं था। पढ़ने-जानने की भूख के चलते उत्तरा को विषय सूची से लेकर अंतिम पन्ने तक पढ़ जाता।

कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़ाव और पढ़ने-लिखने की आदत के कारण महिला सशक्तीकरण, महिला अधिकार, स्त्री-चेतना और स्त्री-विमर्श को लेकर मेरा एक दृष्टिकोण विकसित होने लगा था। प्रगतिशील जनवादी साहित्य में यह विमर्श प्रमुखता के साथ आने लगा था। यद्यपि मुझे बचपन और किशोर वय से ही स्त्रियों को लेकर कुछ परम्परागत विश्वास, धारणा और रिवाज अच्छे नहीं लगते। हमारे दौर में स्कूली शिक्षा और पाठ्यक्रमों में भी यह विषय और विमर्श शामिल नहीं था। साहित्यिक पत्रिकाओं का स्त्री-विमर्श मुझे बड़ा विस्तृत अपनी पहुंच और पकड़ से बाहर, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का सैद्घान्तिक-सा, सोचने, समझने, पढ़ने और चर्चा-परिचर्चा का उच्च स्तरीय चिंतन लगता था। इसका कोई स्थानीय और व्यावहारिक स्वरूप भी हो सकता है, यह धारणा उत्तरा ने मेरे अंदर विकसित और मजबूत की। उत्तरा ने मेरे अंदर स्त्री विमर्श के विविध और व्यावहारिक पहलुओं की समझ पैदा करने में मदद की। इस बड़े और महत्वपूर्ण विमर्श के छोटे-छोटे आयामों को दिखाया। उदाहरण के लिए वर्ष 1991 में गढ़वाल में भूकम्प आया। बहुत हायतौबा हुई। सभी अखबार, पत्र-पत्रिकाओं में नुकसान, राहत, बचाव कार्य, सरकारी असफलता, पक्ष-विपक्ष और भ्रष्टाचार का मुद्दा छाया रहता। लेकिन उत्तरा में इस पूरी आपदा को स्त्रियों के नजरिये से देखने की जो कोशिश दिखी, उसने मेरे दिमाग की एक और खिड़की खोल दी। मुझे लगा कि पहाड़ में नुकसान, राहत, बचाव, सरकारी असफलता, पक्ष-विपक्ष, भ्रष्टाचार के साथ-साथ आपदाओं को देखने का ये भी एक नजरिया होना चाहिए। अप्रैल-जून 1992 के अंक में पुष्पा चौहान का एक लेख ‘गढ़वाल में भूकम्प के दौरान महिलाओं की स्थिति’ सहित और भी बहुत कुछ था, जिसमें यह नजरिया प्रतिबिम्बित हुआ और आगे के अंकों में ऐसा होता रहा।

प्रो़ शेखर पाठक को मैं जानता था। ‘पहाड़’ से मेरा परिचय हो चुका था। मैं आजीवन सदस्य भी बन चुका था। 91 या 92 में दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल के किसी कार्यक्रम में उनसे मुलाकात भी हो चुकी थी। बहुत बाद में पता चला कि उत्तरा और पहाड़ एक ही घर से निकलते हैं और उमा भट्ट शेखर पाठक की पत्नी हैं। उत्तरा से जुड़ी कमला पंत, नंद नंदन पाण्डे जी की पत्नी हैं। उन्होंने अपना सरनेम नहीं बदला। यह मुझे स्त्री स्वतंत्रता, चेतना, स्वावलम्बन और सशक्तीकरण का एक व्यावहारिक उदाहरण लगा। विमर्शों को सिद्घान्तों और कागजों से उठाकर अपने जीवन में उतारने का जैसा उपक्रम लगा। यह दृष्टि उत्तरा से ही मुझे मिली। मुझे याद है जब नंदनंदन पाण्डे हमारे जे.डी़ थे, किसी शिक्षक साथी ने उत्तरा से जुड़ी महिलाओं के विवाह के बाद भी अपने सरनेम न बदलने की अजीब और उटपटांग व्याख्या की थी तो मैं उन्हें अच्छे से ‘धो’ पाया था।

उत्तरा में छपने वाली सामग्री का स्थानीय से लेकर ग्लोबल तक का विस्तार प्रभावित करता। जाति, धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र और देश से आगे बढ़कर उत्तरा का दुनिया के किसी भी कोने में अन्याय झेल रही स्त्री के पक्ष में दिखना, धर्म, सम्प्रदाय, कानून, संविधान, रीतिरिवाज, परम्पराएं, साहित्य जो भी स्त्रियों के प्रतिकूल हो, उस पर उंगली उठाना, सवाल खड़े करना उत्तरा को विशिष्ट बनाता।

उस दौरान मैंने लोकसाहित्य पर कार्य शुरू कर दिया था। लोककथाएं, लोकगीत, जागर, आणे-पखाणे आदि। लोकसाहित्य पर गोविन्द चातक, शिवानंद नौटियाल, मोहनलाल बाबुलकर, त्रिलोचन पाण्डे, देवसिंह पोखरिया आदि विद्वानों की पुस्तकें पढ़ रहा था या पढ़ चुका था। उत्तरा के बीच के पृष्ठ पर लोकसाहित्य और उस पर टिप्पणियां छपती थीं। उनमें लोकसाहित्य को स्त्रियों के नजरिये से देखना, स्त्रियों के पक्ष की पड़ताल करना और लोकसाहित्य में स्त्रियों की महत्ता वाला नजरिया लोकसाहित्य की परम्परागत व्याख्याओं से हटकर होता था। स्त्रियों के बारे में अपने देश के कानून, संविधान, दुनियां के अजब-गजब कानून, परम्पराएं और रीति-रिवाजों की जानकारियां और अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियों की जानकारी उत्तरा के माध्यम से ही प्राप्त होतीं।
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जनवरी-मार्च 1992 के प्रथम आवरण पर छपी अनिल शर्मा की ‘परजीवी की तरह’ और नवीन चन्द्र लोहनी की ‘उस दिन तक चाहिए आग’ कविताओं की पहली पंक्ति पढ़ते ही मेरे अंदर उतर गई थी। आगे की पंक्ति दर पंक्ति मेरे अंदर समाती रही। ‘हर चीज नहीं फेंकी जा सकती उखाड़ कर’, ‘परजीवी की तरह’ कविता की इस पहली लाइन को समझने के लिए मुझे दूसरी-तीसरी पंक्ति पढ़ने तक इंतजार नहीं करना पड़ा। ‘लोहार के आंफर की तरह धधकती तेरी छाती।’ यह पहली पंक्ति थी ‘उस दिन तक चाहिए आग’ कविता की। इस पंक्ति को समझने के लिए मुझे आगे की पंक्तियों पर निर्भर नहीं रहता पड़ा। ऐसा नहीं हुआ कि पूरी कविता पढ़कर समझने की कोशिश करूं। जैसा कि उन दिनों मैं अक्सर किया करता। ऐसा लगा कि किसी ने मेरे अंदर के उमड़-घुमड़ को जुबान दे दी। ‘उत्तरा’ के अंकों में छपने वाली कविता-कहानियां सहजता से अंदर प्रवेश कर जातीं। चाहे वह स्थानीय लेखकों की हों या स्थापित राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के लेखकों की। शायद इसका एक कारण यह भी रहा हो कि इनका संदर्भ मेरे अंदर विद्यमान रहता। स्थानीय रचनाकारों की कविताएं मेरे आसपास की हवा-पानी में उगी होतीं सो सहजता से अंदर उतर जातीं। उन दिनों मैं हिंदी कविताओं के बारे में, हिंदी की अच्छी कविताओं और कवियों को पढ़ने और उनको समझने का प्रयास करता, कुछ लिखने की कोशिश भी करता था। कुछ समझ में आती थी और कुछ सिरे से निकल जाती। जो कविताएं समझ में आ जातीं, अच्छी लगतीं तो उन्हें पढ़कर लगता कि कविताओं के इस स्तर को छू पाना हमारे लिए नामुमकिन है।

अप्रैल-जून 1992 में आवरण पर छपी दिनेश उपध्याय की कविता पढ़कर मुझे लगा कि यह मेरी ही लिखी कविता है। बिल्कुल जैसा मैं सोच रहा हूं वैसा ही। मैंने अपनी कापियां-पन्ने टटोले तो इसी मिजाज की आठ-दस पंक्तियां मेरी लिखी मिलीं।

उस समय तक मैं ‘कविताएं’ या कहूं कविताओं जैसा खूब लिखता था। गढ़वाली-हिंदी दोनों में। कुछ एक स्थानीय अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में छपी भी थीं। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने के कारण मेरी कुछ धारणाएं, मान्यताएं विकसित हुईं थीं। अच्छी कविता और खराब कविता के फर्क की थोड़ी-बहुत कच्ची-पक्की समझ बनने लगी थी। छिनका में किसी तरह की साहित्यिक चर्चा-परिचर्चा या कविताओं को शेयर करने का कोई वातावरण नहीं था, न कोई साथी था और न ही मेरे अंदर ऐसा खुलापन कि बता सकूं मैं कविताएं लिखता हूं। कविताएं लिखना, कवि होना मुझे कुछ अलौकिक-पारलौकिक जैसा लगता। अपने आप को कवि होने जैसी उच्च श्रेणी में नहीं रख पाता।

तो उत्तरा में छपी दिनेश उपाध्याय की कविता को पढ़ने के बाद उन आठ-दस पंक्तियों को मैंने ठोकना-पीटना शुरू किया। उत्तरा की खुराक लेते हुए उन दिनों कुछ कविताओं का जन्म हुआ और वे मैंने उत्तरा को भेज दीं। जुलाई-सितम्बर 1992 के प्रथम आवरण पर मेरी कविता छप गई- ‘मैं एक पहाड़ी औरत’। विस्फोट हो गया मेरे अंदर। उत्तरा में मेरी कविता और रेखांकन भी? वह भी आवरण पर? इसे उमा भट्ट निकालती हैं और वह प्रोफेसर हैं। साथ में शीला रजवार, कमला पंत, बसंती पाठक। इसमें गिर्दा भी हैं और कमल जोशी भी। बहुत बड़े-बड़े लोग हैं। साहित्य के धुरंधर। नैनीताल-अल्मोड़ा का नाम लेते ही सुमित्रानंदन पंत, शैलेश मटियानी, मनोहर श्याम जोशी, शिवानी, मृणाल पाण्डे, हिमांशु जोशी, पंकज बिष्ट, इलाचंद्र जोशी, बटरोही, शेखर पाठक, गिर्दा से नीचे कुछ आता ही नहीं था ध्यान में। उत्तरा के लोग इनके साथ उठने-बैठने वाले हुए। उत्तरा का स्तर बहुत उच्चकोटि का है।

हिरोशिमा-नागाशाकी की तरह मेरे अंदर दूसरा विस्फोट हुआ अक्टूबर-सितम्बर 1992 के अंक से। उत्तरा के अंतिम आवरण पर मेरी ‘बेटी’ कविता छपी थी और साथ में मेरा बनाया रेखांकन भी। बाकी कसर बी.मोहन नेगी ने पूरी की, ‘‘उत्तरा का ये अंक मिला? अंतिम कवर पर तुम्हारी कविता छपी है। मुझे तो बोरा (श्री बंधु बोरा) जी ने बताया। तो आज ये अंक आ भी गया।’’

बी़ मोहन नेगी बहुत सम्मानित और घनिष्ठ थे। उन दिनों वे गोपेश्वर में एक चित्रकार और साहित्यकार के रूप में स्थापित हो चुके थे। हमारे सबसे बड़े मार्गदर्शक और दिशा-निर्देशक होते थे। गर्मजोशी से मिलते और बस लिखने-पढ़ने की बातें करते। वे रचनाओं पर दो टूक टिप्पणी के लिए भी जाने जाते थे। उनके पास पत्रिकाओं, साहित्य और साहित्यकारों की बहुत सारी जानकारियां होती थी। उन दिनों मेरा छिनका से गोपेश्वर जाने का एक उद्देश्य बी़ मोहन नेगी से मिलना भी होता था।

‘‘पिछले अंक में तुम्हारी ‘मैं पहाड़ी औरत’ छपी थी।’’ उन्होंने कहा। उनका इतना कहना भी मुझे छू गया। पहली बार ही किसी के मुंह से मैं अपनी कविता के बारे में सुन रहा था और कवि होने के एहसास से गुजर रहा था। मैं मंदिर की तरफ जा रहा था और वे पुलिस लाइन की तरफ। अपनी दिशा बदलते हुए उन्होंने कहा, ‘‘चलो, चाय पीते हैं कहीं पर।’’ और हम मंदिर मार्ग पर चलते हुए हिलभ्यू में बैठ गये।

इस अवधि में उन्होंने उत्तरा, पहाड़, नैनीताल समाचार, बुग्याल, हिलांस, धाद, आदि बहुत सारी पत्रिकाओं के बारे में बहुत सारी जानकारियां दी। बहुत सारे साहित्यकारों को वे व्यक्तिगत रूप से जानते थे, उनके बारे में चर्चा की। खराब कविताओं पर, अच्छी कविताओं पर, प्रयास के अंकों पर। मेरे लिए ये सब जानकारियां दुर्लभ और बेशकीमती होती थीं।
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अंत में उन्होंने मेरी ‘बेटी’ कविता की चार लाइनें भी सुना दी। अगर वे सिर्फ कहते कि कविता अच्छी है तो मुझे विश्वास नहीं आता। लेकिन उनके सुनाने से मेरे मन में यह धारणा बनी कि उनको कविता अच्छी लगी इसलिए उनके अंदर उतरी है।

छिनका लौटा तो मेरा दिमाग थोड़ा खराब हो चुका था। फीचर और लेखों को लेकर नैनीताल समाचार ने पहले से मुझे ‘सटका’ रखा था। दो-चार लेख छप चुके थे। ऊपर से राजीव लोचन साह का पत्र भी मुझे आ चुका था कि ‘‘तुम अच्छा लिखते हो। तुम्हारी दृष्टि से मैं प्रभावित हुआ। आप नैनीताल समाचार के लिए नियमित लिखा कीजिए।’’ और अब उत्तरा ने मेरे साथ ये ‘सलूख’ कर दिया था। मेरी कविता भी और स्कैच भी छाप दिये साथ-साथ।

…और फिर उमा भट्ट का पोस्ट कार्ड भी आ गया।

अब कोई ताकत नहीं थी जो मुझे रोक दे। असल में हर रचनाकार के आत्मावलोकन के अपने मापदण्ड, अपनी जिद और पूर्वाग्रह होते हैं। खुद के रचनाकर्म से मुझे जल्दी संतोष नहीं मिलता। मिलता भी कैसे? जो भी, जितना भी उपलब्ध हुआ बड़े-बड़े, अच्छे महान साहित्यकारों को भी पढ़ने का मौका मिला, उनकी रचनाओं से अभिभूत रहता, मेरे अंदर के किसी कोने में वे जमा रहतीं। उनकी तरह अच्छा लिखना चाहता इसलिए अपना लिखा हुआ तो मुझे मजाक लगता। कई बार मुझे लगता है कि अपने बारे में थोड़ा-बहुत गलतफहमी अच्छी भी होती है। इससे ऊर्जा मिलती रहती है। मेरे अंदर ऐसा नहीं था इसलिए आत्मविश्वास की कमी बनी रहती। उत्तरा में कविता छपने से मेरा आत्मविश्वास आसमान छूने लगा। पहाड़ की स्त्रियों, बेटियों को लेकर मेरे अंदर का जमा-पका घाव धीरे-धीरे रिसकर कविताओं के रूप में कागज पर उतरने लगा। उत्तरा से प्राप्त दृष्टि और समझ ने मेरा देखा-भोगा मेरे हिस्से के पहाड़ की नारी जीवन की जटिलताओं को ‘कविता’ के  रूप में गढ़ने में मदद पहुंचाई। एक-दो साल की अवधि में मैंने ‘बेटियां’ शीर्षक से आठ-दस कविताएं लिखीं, जिनमें से कुछ उत्तरा में छपी। उन्हीं कविताओं में से एक कविता ‘बोये जाते हैं बेटे, उग आती हैं बेटियां।’ काफी चर्चित हुई। उत्तरा से तीन कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद ‘मानुषी’ में भी छपा। उत्तरा में नियमित छपने लगा था, कहानी, व्यंग्य, लेख, साक्षात्कार, पत्र, रेखांकन आदि। बहुत सारी रचनाएं मैंने सिर्फ उत्तरा के लिए लिखीं, सिर्फ उत्तरा के लिए रेखाचित्र बनाए।
(Me & Uttara Nand Kishore Hatwal)

मेरा मानना है कि मेरे साथ जो ‘हादसा’ हुआ, इसी प्रकार के मिलते-जुलते ‘हादसे’ मेरे हम उम्र, मेरे जैसे बहुत से साथियों के साथ हुए होंगे। जो ‘बर्ताव’ उत्तरा ने मेरे साथ किया, ऐसा शत-प्रतिशत कइयों के साथ किया होगा। बाद तक भी करती रही होगी। इस कारण मेरे जैसों की पूरी फौज खड़ी की उत्तरा ने। इसमें महिलाएं ज्यादा हो सकती हैं। लेकिन उत्तरा ने महिलाओं-पुरुषों को समान वर्दी पहनाई। लिंगानुसार कोई भर्ती नहीं। इस फौज में कुछ बेहद शार्प शूटर बने तो कुछों की बंदूकें दाएं-बाएं भी चलती रही होंगी। कुछ कर्नल-जनरल तक भी पहुंचे। कुछ हवलदार बन कर ही रिटायर हुए होंगे। लेकिन ऐसा नहीं होता कि हवलदार रिटायर हो गया तो कमजोर हो जाता है। ताकत तो उसके अंदर बरकरार रहती है।

उत्तराखण्ड में ऐसी आग सुलगाने में नैनीताल समाचार भी कम नहीं रहा। मेरा सीना जल रहा है तेरा सीना भी जले। दुष्यंत कुमार जी माफ करेंगे। बीच-बीच में इस आग में घी ‘पहाड़’ डालता रहा। ‘पहाड़’ ने एक अलग तरह से सुलगा के रखा सबको। बेचैन बनाए रखा। आज बहुत बड़ी संख्या में उत्तराखण्ड के पत्रकार-साहित्यकार, कलाकार, आन्दोलनकारी, सोशियल एक्टिविस्ट अपनी स्पष्ट, साफ, आधुनिक और जनपक्षीय दृष्टि के साथ देश दुनिया में सक्रिय हैं। इनमें बहुत बड़ी संख्या में उत्तराखण्ड के इन ‘शिविरों’ से निकले हुए लोग हैं। हमारे पीछे, नयी पीढ़ी में भी बहुत सारे लड़के-लड़कियां काफी अपडेटेड होकर नई तकनीकी और क्षमताओं से काम करते हुए दिख रहे हैं। इन मामलों में शत-प्रतिशत पुरानी पीढ़ी के इन्फैक्सन होते हैंं।
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एक छोटी-सी पत्रिका कितने बड़े ‘काण्ड’ कर जाती है! सूरज को क्या पता कि उससे कौन-कौन रोशनी पाकर पल-खिल रहा है, बढ़ रहा है। यह हिसाब-किताब रखना सूरज का काम भी नहीं। उसका जो काम है वह बखूबी कर रहा है। हम भी मां-बाप, घर-परिवार, औपचारिक शिक्षा-दीक्षा देने वाले स्कूलों और गुरुजनों को ही याद करते हैं। जिंदगी के रास्तों में मिले अचानक के ऐसे तूफानों को नहीं देख पाते जो अपनी रौ में हमें उड़ा ले जाते हैं।

-नंद किशोर हटवाल

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