मां का बैंक एकाउण्ट

कैथरीन फार्वेस

जब भी मेरी कहानी किसी पत्रिका में प्रकाशित होती है और उसका पारिश्रमिक आता है, मैं माँ को बहुत याद करती हूँ। क्यों?… अभी बताऊंगी।

कॉलेज के दिनों से ही मुझे लिखने का शौक था। मैं कहानियाँ लिखती थी और विभिन्न प्रसिद्ध पत्रिकाओं में छपने के लिए भेजती थी, जहाँ से कुछ दिनों बाद कहानी भेजने के लिए धन्यवाद! खेद है, अस्वीकृत की जा रही है, छपी हुई एक चिट के साथ कहानी मेरे पास वापस आ जाया करती थी।

धीरे-धीरे मैं निराश होने लगी। मुझे लगा- मैं बेकार ही कागज काले कर रही हूँ। लेकिन माँ निराश नहीं हुई। वह निराश होना जानती ही न थी।

एक शाम पापा ने ‘शाम का अखबार’ पढ़ते हुए बताया- ”सुप्रसिद्ध उपन्यास और कहानी लेखिका मिस फ्लोरेंस डाना मूरहैड हमारे शहर में एक लेक्चर टुअर पर आई हुई हैं। अपना इंटरव्यू देते हुए उन्होंने कहा- सफलता प्राप्त करने वाले लेखक के लिए सबसे अधिक आवश्यक चीज है- ईमानदारी…”और भी बहुत कुछ, खाना-वाना बनाने के बारे में इत्यादि-इत्यादि। अगली ही सुबह माँ- मुझे बताए बिना-मेरी तीन-चार ‘अस्वीकृत’ कहानियाँ लेकर मिस मूरहैड के होटल जा पहुँची।

मिस मूरहैड ने अपनी कलाई-घड़ी की ओर देखते हुए कहा- ”देखिए, मैं इस समय जल्दी में हूँ। आज शाम ही मैं सैन फ्रेंसिस्को से जा रही हूँ। मैं आपकी बेटी की कहानियाँ पढ़कर उन पर अपनी राय नहीं दे सकती। मुझे यह कहने के लिए भी माफ़ कीजिएगा, मैं बिना छपी कोई चीज नहीं पढ़ती।”

लेकिन माँ ने तो हार स्वीकार करना सीखा ही नहीं था। मिस मूरहैड से मेरी ‘अप्रकाशित, अस्वीकृत’ कहानियाँ वापस लेते हुए माँ ने कहा- ”मैंने अखबार में आपके बारे में यह भी पढ़ा था- खाने के लिए तरह-तरह के जा़यकेदार व्यंजन कैसे बनाए जाते हैं, इस विषय में भी आप बहुत दिलचस्पी रखती हैं।”

लापरवाही के साथ मिस मूरहैड बोलीं- ”हाँ, अलग-अलग तरह के खाने बनाने के तरीकों पर मैंने दो-तीन किताबें लिखी हैं। आजकल मैं इसी विषय पर नई किताब तैयार करने के लिए सामग्री एकत्र कर रही हूँ।”

बिना देर किए माँ ने कहा- ”मुझे भी कई तरह के बिल्कुल नए व्यंजन बनाने आते हैं। मैं नार्वे की हूँ। मैं अलग तरह के कई नॉरवेजियन खाने बनाना जानती हूँ। उन्हें कैसे बनाया जाता है, ये बात मैंने आज तक किसी को नहीं बताई है- अपनी बहनों तक को नहीं।”

इसके बाद जो हुआ वह संक्षेप में,

माँ एक घंटे मिस मूरहैड के कमरे में बैठी कई प्रकार के स्वादिष्ट नॉरवेजियन खाने तैयार करने की विधि उनकी नोट-बुक में लिखती रहीं और मिस मूरहैड मेरी ‘अप्रकाशित’ कहानियाँ ध्यान से पढ़ती रहीं।
(Mama’s Bank Account by Kathryn Forbes)

जब माँ लिख चुकी तब उनसे अपनी नोट-बुक लेते हुए मिस मूरहैड ने कहा-”आप की दी हुई जानकारी के लिए धन्यवाद। इस बीच मैंने आपकी बेटी की कहानियाँ पढ़ लीं। आपकी बेटी लिखना जानती है। उसमें प्रतिभा है। लेकिन वह उन्हीं घटनाओं के बारे में लिखती है जिन्हें वह दूसरी कहानियों या उपन्यासों में पढ़ चुकी है। इसीलिए उसकी कहानियों में नवीनता बिल्कुल नहीं दिखाई पड़ती है। वह इस शहर की, अपने आस-पास की, अपने परिचितों के सुख-दुख की, या जीवन में हुई ऐसी घटनाओं की, जिन्होंने उसके मन को छुआ है, या उसे देर तक सोचने के लिए विवश किया है,… हाँ, और दूर क्यों जाएँ, अपने ही परिवार के जीवन संघर्षों की कहानियाँ क्यों नहीं लिखती?… आपकी बेटी को चाहिए, वह पढ़ी हुई किताबों से नहीं, जीवन से प्रेरणा लेकर लिखे। तभी उसकी कहानियों में प्राण आयेंगे और वे सजीव लगेंगी।”

यह कहने की आवश्यकता नहीं कि माँ ने ही वे सारी बातें मुझे बतलाई थीं। सुनकर मुझे लगा, मैं अब तक गलत रास्ते पर चल रही थी। मिस मूरहैड ने सही दिशा की ओर संकेत कर दिया है। मैंने निश्चय किया कि अब जो लिखूंगी वह अपने अनुभवों के आधार पर लिखूंगी।

तो, सबसे पहले माँ की ही कहानी।

ये बहुत ही विचित्र बात है जब भी मैं माँ के बारे में सोचती हूँ, माँ मुझे हमेशा चालीस साल की ही दिखाई पड़ती हैं, हर शनिवार रात खाने की मेज के पास बैठी, पापा की तनख्वाह के पैसों को गिनती हुई और उसकी छोटी-बड़ी ढेरियाँ लगाती हुई। पाइप पीते हुए खड़े पापा से माँ कहती- ”लार्स! जरा बच्चों को बुला लो। उन्हें भी पैसों की सही कीमत मालूम हो जानी चाहिए।”

पापा हमें आवाज देते और हम चारों-बड़ा भाई नेल्स, मैं (कैटरीन), मेरी छोटी बहिनें क्रिस्टीन और डैगमेर-पहली मंजिल से भागते हुए आते और माँ की मेज के पास इकट्ठे हो जाते (जिस समय की यह कहानी है, उन दिनों कागज के नोटों का अधिक प्रचलन नहीं था।)

माँ चाँदी के डालरों की बड़ी ढेरी नेल्स की ओर सरकाती हुई कहती- ”ये मकान-मालिक के लिए” नेल्स माँ की बात दोहराता हुआ वह ढेरी मेरी और सरका देता और मैं भी ”ये मकान-मालिक के लिए” कहकर ढेरी छोटी बहिन क्रिस्टीन की ओर बढ़ा देती।

क्रिस्टीन भी यही बात दोहराती हुई पैसे पापा को सौंप देती। पापा यही बात एक कागज पर लिखते और उसी कागज में मकान मालिक को दिए जाने वाले पैसे लपेटकर मेज के दूसरे कोने में रख देते।

अगली ढेरी राशन और घर के दूसरे जरूरी सामान वाले दुकानदार की होती। माँ उस ढेरी को, नेल्स को, नेल्स मुझे, मैं क्रिस्टीन को और क्रिस्टीन उसे पापा के हवाले कर देती। पापा यही बात कागज पर लिखकर उस रकम को उसी कागज में लपेट देते और पहली ढेरी के पास रख देते।

माँ तब सोचने लगती। ध्यान जाते ही कहती- ”हाँ, ये आधा डॉलर कैटरीन के जूतों में सोल लगवाने के लिए।”
(Mama’s Bank Account by Kathryn Forbes)

तब क्रिस्टीन को याद आता और वह भी अपनी माँग पेश करती- ”माँ, टीचर ने कहा है, इस हफ्ते मुझे एक नई कॉपी की जरूरत होगी।”

माँ दस सेंट उसे देते हुए कहती- ”इन्हें खाना नहीं।”

”नहीं माँ।” क्रिस्टीन बहुत सावधानी से पैसों को अपने रूमाल में लपेट लेती।

बचे हुए पैसों को माँ समेट लेती और लकड़ी की एक छोटी-सी गुल्लक में डालकर कहती- ”इस हफ्ते के सब खर्चे निबट गए।” तब अपने दोनों हाथ झाड़ती हुई बहुत संतोष के साथ कहती- ”ठीक है। अब हमें बैंक नहीं जाना पड़ेगा।”

हर शनिवार रात यही सुखद कार्यक्रम होता। एक-आध खर्चे कम हो जाते और दो-एक नए खर्चे माँ के सामने आ जाते। माँ बिल्कुल भी चिन्ता नहीं करती। पापा की तनख्वाह के पैसों से सब खर्चे निबटा देती। अगर कुछ पैसे बचते तो अपनी लकड़ी की गुल्लक में डाल देती और फिर मुस्कुराती हुई कहती- ”अच्छी बात है ये। अब हमें बैंक नहीं जाना होगा।”

एक दिन छोटी डैगमेर ने क्रिस्टीन से पूछा- ”क्रिस्टीन, माँ का बैंक कहाँ है?”

क्रिस्टीन ने बतलाया- ”शहर में जहाँ बड़ी दुकानें हैं।”

”वह कैसा दीखता है?”

”बड़ी ऊँची बिल्डिंग की तरह।”

”जेल की तरह।”

”नहीं-नहीं”, क्रिस्टीन ने कहा- ”जेल की तरह बिल्कुल नहीं।”

”तो फिर माँ हर हफ़्ते ये क्यों कहती है- ”ठीक है। अब हमें बैंक नहीं जाना होगा।” डैगमेर ने फिर पूछा।

”क्योंकि अगर हम घर के खर्चे पूरे करने के लिए बार-बार बैंक जाकर वहाँ से अपने जमा किए हुए पैसे निकालते रहेंगे तो फिर बैंक में हमारे सारे पैसे खत्म हो जाएंगे और तब हम मकान-मालिक को घर का किराया नहीं दे सकेंगे। और हमें मिसेज़ जेन्सन की तरह अपने सारे सामान के साथ घर से बाहर निकाल दिया जाएगा।”

घर से निकाल दिये जाने की बात सुनकर डैगमेर डर गई, लेकिन उसकी शंका का समाधान नहीं हुआ। उसने फिर पूछा- ”लेकिन हमने बैंक में पैसा कब रखा था?”
(Mama’s Bank Account by Kathryn Forbes)

नेल्स ने आगे बढ़कर कहा- ”ये बात तो माँ को मालूम होगी।… शायद बहुत पहले… क्यों माँ?”

”हाँ। लेकिन तुम लोग चिन्ता क्यों करते हो?” माँ ने शांतिपूर्वक कहा- ”बैंक में हमारे पास काफी पैसा है। तुम्हें डरने की कोई जरूरत नहीं।”

ये बात नहीं कि हमारे नियमित खर्चे के अलावा माँ के सामने अचानक आ जाने वाले नए खर्चे नहीं उठ खड़े हुए। नेल्स हाईस्कूल में जाने लगा। छोटी डैगमेर के कान का ऑपरेशन हुआ। हमारे किराएदार तीन-चार महीनों के किराए के रूप में माँ को नकली चैक दे गए (जिसे माँ ने चुपचाप जला दिया)। अंकल क्रिश के निधन पर हमें दूर यूकिया शहर जाना पड़ा। पापा की फैक्टरी में हड़ताल हो गई जो चार हफ्ते चली। लेकिन इन आकस्मिक परेशानियों में भी माँ के चेहरे पर एक शिकन तक नहीं आई।

हम लोग भी घर पर आई नई परेशानियों का सामना करने के लिए, अपनी समझ के अनुसार कुछ न कुछ करते रहते। एक दिन नेल्स ने कहा- ”मैं अपनी क्लासें खत्म होने के बाद ‘डिल्लन‘स’ की जनरल मर्चेंट की दुकान में पार्ट-टाइम काम करने लगूंगा।”

पापा ने ओठों में दबा हुआ सुलगता पाइप निकालते हुए कहा- ”मैं पाइप पीना बंद कर दूंगा।”

”और मैं हर शुक्रवार की रात मैक्सवेल परिवार के बच्चों को सम्भाल लिया करूंगी क्योंकि वे लोग हर शुक्रवार रात नाटक देखने जाते हैं… कैटरीन मेरे साथ होगी।” क्रिस्टीन ने उत्साहपूर्वक कहा।

माँ ये सब सुनती। कागज पर हिसाब लगाती और अगर देखती कि ऐसा करने पर भी पूरा नहीं पड़ रहा है तो अपनी गुल्लक खोलती। उसमें रखे हुए पैसे निकालकर उन्हें भी जोड़कर फिर हिसाब लगाती। उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती। बचे पैसे गुल्लक में डालकर बंद कर देती और बहुत इत्मीनान से कहती- ”चिन्ता की कोई बात नहीं। सब ठीक हो गया है। अब हमें बैंक नहीं जाना पड़ेगा।”

इस तरह दिन निकलते चले गए। दिन, हफ़्तों में, हफ़्ते महीनों में और महीने वर्षों में परिवर्तित हो गए। हमें पता भी नहीं चला कि हम बड़े हो गए। हम अपने-अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते गए। मैं बी.ए. की पढ़ाई के साथ-साथ कहानियाँ भी लिखती रही, प्रकाशित होने के लिए नहीं, केवल अभ्यास के लिए। बहुत दिनों बाद ऐसी ही एक कहानी मैंने उन दिनों को याद करते हुए लिखी जब छोटी डैगमेर के कान की हड्डी अचानक बढ़ गई और वह दर्द से तड़पने लगी। उसे अस्पताल ले जाया गया जहाँ तत्काल उसका ऑपरेशन हुआ। माँ डैगमेर को देखना चाहती थी, लेकिन डाक्टर ने उन्हें यह कहकर अंदर जाने से रोक दिया- ”आप अपनी बच्ची को चौबीस घंटे बाद, कल शाम के समय ही देख सकेंगी। उससे पहले नहीं।”

मैं पहले ही कह चुकी हूँ- माँ निराश होना जानती ही न थी। वह घर हो या बाहर सदैव ऐपरन पहने रहती थी। बाहर जाने के लिए कपड़े उसी ऐपरेन के ऊपर ही पहनती थी। मैं अस्पताल में माँ के साथ थी। माँ ने अपनी हैट और कोट उतारकर मुझे पकड़ाया और कहा- ”तुम इन्हें लेकर चुपचाप सामने की बैंच पर बैठ जाओ।”
(Mama’s Bank Account by Kathryn Forbes)

माँ ने इधर-उधर देखा। कॉरीडोर में उन्हें पानी की बाल्टी और मॉप (लम्बे बांस वाला झाड़न) दीख गया। माँ ने तत्काल उन्हें उठाया और ड्यूटी वाली नर्स से यह कहते हुए कि ”फर्श कितने गंदे हैं अस्पताल के फर्श तो हमेशा साफ रहने चाहिए।” गीले मॉप से फर्श साफ करने शुरू कर दिये। नर्स ने उन्हें अस्पताल की नई सेविका समझा और मुस्कुराकर पूछा- ”तुम देर तक काम नहीं कर रही हो?”

माँ ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया और उसी तरह फर्श साफ़  करती-करती दूसरी ओर बढ़ गई।

पन्द्रह-बीस मिनट बाद माँ बाल्टी और मॉप लिये मुस्कुराती हुई आई। उन चीजों को कोने में रख वह मेरे पास आई और अपना हैट-कोट पहनती हुई प्रसन्नता से बोली- ”मैं डैगमेर से मिल आई। वह अब ठीक है। चिन्ता की कोई बात नहीं है।”

मैं आश्चर्य के साथ अपनी विजय पर मुस्कुराती माँ को देर तक देखती रही, क्योंकि अस्पताल के नियमों के अनुसार ऑपरेशन के चौबीस घंटे बाद तक किसी भी बाहरी आदमी या रिश्तेदार को मरीज से मिलने नहीं दिया जाता। लेकिन माँ माँ थी। वह अपनी बेटी से मिले बिना कैसे रह सकती थी? हाँ, तो इसी घटना के आधार पर मैंने एक कहानी लिखी, ‘माँ और अस्पताल’ और उसे प्रकाशित होने के लिए एक पत्रिका में भेज दिया।

दो-एक महीने बीत गए। एक शाम मुझे पत्रिका से एक पत्र मिला। मैंने डरते-डरते उसे खोला। मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मैंने देखा कि उसमें मेरी कहानी के स्वीकृत होने की सूचना के साथ, कहानी के पारिश्रमिक का चेक भी रखा है।

घर के सब सदस्यों को बहुत खुशी हुई। क्रिस्टीन ने पूछा- ”तुम इतने पैसों का क्या करोगी कैटरीन?”

मैंने बताया- ”मैं माँ के लिए गर्म कोट खरीदूंगी। उनका पुराना कोट बदरंग हो गया है।”

”और गर्म कोट खरीदने के बाद जो पैसे बचेंगे उनका क्या करोगी?”

”मैं माँ को दे दूंगी। माँ उन्हें बैंक में जमा कर देंगी।” मैंने जवाब दिया।

नेल्स ने कहा- ”पहले इस चैक को बैंक में जमा तो कर दो। जब ये कैश हो जाएगा, तब ये पैसे निकालकर माँ के लिए गर्म कोट खरीद लेना।”

”हाँ ठीक है” – मैंने चैक माँ को देते हुए कहा- ”माँ, आप कल शहर जाकर इसे बैंक में अपने एकाउण्ट में जमा करा दीजिएगा।”

माँ ने चैक उलट-पलटकर देखा और कुछ क्षण चुप रहकर बोली- ”बच्चो, मैंने तुम से जिन्दगी में एक ही झूठ कहा है- और वह भी इसलिए, कि तुम्हारे मन में ये डर न रहे कि तुम लोग सुरक्षित नहीं हो।… सच बात यह है कि मेरा बैंक में कोई एकाउण्ट नहीं है… मैंने आज तक कभी भी बैंक में कदम नहीं रखा है।”
(Mama’s Bank Account by Kathryn Forbes)

रूपान्तर : सत्येन्द्र शरत्

लोकगंगा, जनवरी-फरवरी 2014 से साभार

उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika