साहस व एकजुटता की मिसाल मलेथा का आन्दोलन

चन्द्रकला

बुनियादी हक-हकूकों का संघर्ष हो, जल, जंगल, जमीन के संघर्ष अथवा कोई जनान्दोलन, इनमें महिलाओं की हिस्सेदारी अहम होती है। विशेषकर उन महिलाओं की जो सीधे उत्पादन से जुडी़ होती हैं। उत्तराखण्ड की महिलाएं भी आन्दोलनों में न केवल भागीदारी करती हैं बल्कि अगुवा की भूमिका में भी नजर आती हैं। चिपको आन्दोलन हो या नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन, उत्तराखण्ड राज्य विरोधी आन्दोलन हो या माफिया विरोधी अथवा अन्य किसी भी प्रकार के आन्दोलन, उत्तराखण्ड की महिलाएं इन आन्दोलनों का केन्द्रक रही हैं। आज भी जिन हिस्सों की जनता अपने हकों की खातिर संघर्षरत है वहां महिलाओं की महत्वपूर्ण भागीदारी दिखती है।

उत्तराखण्ड में शराब माफिया व जंगल माफियाओं के बाद भू-माफिया व खनन माफियाओं का कारोबार तेजी से फैला है। उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद जमीनों की खरीद-फरोख्त में जितनी तेजी आयी, उससे दुगनी तेजी से खनन व स्टोन क्रेशरों का जाल नदी-घाटी के गांवो के आस-पास फैलता ही जा रहा है। खेतीयोग्य जमीन हो या आबादी वाला क्षेत्र, नदियों को खोखला कर सालभर क्रेशरो का संचालन किया जाने लगा है। मशीनों का शोर व गांव, बस्ती, गली-मोहल्लों व सड़कों पर अन्धाधुन्ध गति से भागते, धूल उड़ाते रेता-बजरी से भरे डम्पर, मानवजीवन के लिए घातक बनते जा रहे हैं।

कुमाऊँ में रामनगर के वीरपुर लच्छी के ग्रामीण हों या टिहरी गढ़वाल में श्रीनगर के मलेथा के ग्रामीण, इन दिनों क्रेशर मालिकों की दबगंई, मनमानी के खिलाफ निरन्तर संघर्षरत हैं। सरकार व पुलिस प्रशासन की छत्रछाया में फलते-फूलते इन कम्पनी मालिकों के अवैध धन्धों की जब भी मुखालफत की, ग्रामीणों को लाठी-डण्डे, दमन व मुकदमें झेलने पडे़ हैं। वीरपुर लच्छी में ग्रामीणों के लम्बे संघर्ष के बाद क्रेशर मालिक सोहन सिंह का क्रेशर तो सीज कर दिया गया है, लेकिन गाँव की जमीन पर जबरदस्ती डम्पर चलाकर आतंक मचाने, डम्पर के पत्थर से 17 वर्षीय स्कूली छात्रा पूजा की मौत व मालिक के गुण्डों द्वारा आन्दोलन के अगुवा कार्यकर्ताओं पर किये गये जानलेवा हमले के खिलाफ कोई सख्त कारवाई नहीं की गयी है। इसके विपरीत प्रशासन जहाँ मुखर आवाजों को धीमा कर रहा है, वहीं आन्दोलनकारी कोर्ट-कचहरी में उलझते नजर आ रहे हैं।

मलेथा उत्तराखण्ड का एक ऐतिहासिक गाँव है। वीर माधोसिंह भण्डारी की यह धरती, उनके त्याग-बलिदान व परिश्रम की बदौलत ही आज तक हरी-भरी बनी हुई है। आज से 400 वर्ष पूर्व माधोसिंह ने चन्द्रभागा नदी से नहर बनानी शुरू की, जब पहाड़ सामने आ गया तो उन्होंने पहाड़ को खोदकर 110 मीटर की सुरंग बनायी और मलेथा की धरती तक पानी पहुँचाकर ग्रामीणों को जीने का मकसद दिया। माधोसिंह भण्डारी का नाम आज भी लोगों की जुबान पर गीतों व लोकगाथाओं में जिन्दा है। आज जहाँ एक ओर पहाड़ों की अधिकांश भूमि पानी के अभाव में बंजर होती जा रही है और ग्रामीण मैदानों की ओर पलायन को मजबूर हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर 550 परिवारों व 500 एकड़ की उपजाऊ  जमीन वाले मलेथावासियों के गाँव में पर्याप्त फसल होती है। बासमती चावल, दालें व अन्य अनाज की पैदावर, जानवरों के लिए चारा व गाड़ का पानी इस गाँव को आदर्श बना देता है। यही कारण है कि इस गाँव मे पलायन का प्रतिशत बहुत ही कम है। लेकिन स्थानीय दलाल व सरकारी अमला इस गाँव को मॉडल के रूप में विकसित करने के बजाय मानवहीन बनाने की तैयारी कर रहे हैं।

मलेथा गाँव के ग्रामीण मलेथा संघर्ष समिति के बैनर तले अगस्त 2014 से अपना आन्दोलन चलाये हुए हैं। धरना जूलूस, ज्ञापन, भूख हड़ताल, आमरण अनशन से गुजरते हुए आन्दोलनकारी अभी भी, जून 2015 बीतने को है, सड़कों पर हैं, क्योंकि उनकी जायज मांग को मानने के बजाय शासन दमन पर उतारुहै। आन्दोलन में ग्रामीणों का आपसी सामंजस्य व एकजुटता देखने योग्य है। परिवार व आन्दोलन दोनों भूमिकाओं को बखूबी निभाती यहाँ की महिलाएं सभी के लिए मिसाल बनती जा रही हैं। इन महिलाओं की जीवटता व हिम्मत के फलस्वरूप सरकार को चार क्रेशरों को बन्द कराने का आदेश देना पड़ा। किन्तु पाँचवा क्रेशर, जो कि कांग्रेसी विधायक विक्रम सिंह नेगी का है, का लाइसेंस आज तक रद्द नहीं हो पाया है। अब आन्दोलनकारियों के खिलाफ सरकारी दमन भी तेज होता जा रहा है, लेकिन ग्रामीण किसी भी हालत में आन्दोलन तब तक जारी रखने पर डटे हैं, जब तक कि पांचवा क्रेशर बन्द न करवा दिया जाय। गाँववालों का मानना है कि गाँव के ऊपरी चोटी पर लगा यह क्रेशर न केवल इस खुली घाटी को धूल व गर्द से भर कर वातावरण को प्रदूषित करेगा बल्कि इससे सांस सम्बन्धी बीमारियों का खतरा भी बढे़गा। जंगल, खेती, चारा-पत्ती धीरे-धीरे नष्ट होने लगेंगी। पानी के स्रोतों के सूखने का खतरा तो होगा ही, भूस्खलन का खतरा भी बढ़ जायेगा।

सरकारी नियमानुसार, किसी एक जिले में मात्र 10 स्टोन क्रेशर लगाये जा सकते हैं। कीर्तिनगर में पहले ही 8 स्टोन क्रेशर काम कर रहे हैं, ऐसे में मलेथा गाँव की उपजाऊ  जमीन पर क्रेशर लगाने की अनुमति देना सरकार की कोई मजबूरी है या फिर सरकार दबाव में है, ये वही जाने। यदि सरकार क्रेशर लगवाने के बजाय इस क्षेत्र में खेती को उद्योग के रूप में स्थापित करने का प्रयास करती तो इस इलाके में रोजगार बढ़ता, पलायन रुकता और वास्तविक विकास की तस्वीर उभर कर सामने आती। लेकिन सरकार की वास्तव में मंशा का सवाल होता है।

लेकिन लगभग एक वर्ष होने को है, मलेथा की जुझारू महिलाएं आज भी पूरे जोश व साहस के साथ इस सघंर्ष को, आन्दोलन को आगे बढ़ाने में जुटी हुर्ई हैं। माधो सिंह भण्डारी की विरासत अपने जल- जगंल-जमीन को दलालों के लालच का शिकार नहीं होने देना चाहती हैं ये महिलाएं। मलेथा में यह छोटे-से मुद्दे से शुरू हुआ आन्दोलन महिलाओं के अथक परिश्रम, साहस, अद्भुत संयोजन से ही आज तक टिका हुआ है। बिना रुके, बिना थके, अपने साथ बूढे़-जवान-बच्चों को समेटतीं ये जहाँ एक ओर धरने को जारी रखे हुए हैं, आमरण अनशन तक में शामिल हो रही है और पुलिस की लाठियां व अपमान झेल रही है, उसके साथ-साथ ही अपने घर-परिवार की देखभाल, खेत-खलिहान, घास-लकड़ी लाने, जानवरों की देखभाल भी बेहतर तरीके से कर रहीं हैं। धरने पर समर्थन देने आए लोगों के लिए चाय, खाने व रहने की व्यवस्था भी इन्हीं के जिम्मे है।

जब सीता देवी को आमरण अनशन के ग्यारहवें दिन व हेमन्ती देवी को दसवें दिन उठा दिया गया तब समीर रतूडी़ व ग्राम प्रधान शूरवीर सिंह अनशन पर बैठे।मलेथा के धरने में इस तरह व्यवस्था की गयी है कि गांव की बुजुर्ग महिलाएं कुछ पुरुषों के साथ जहां रात में धरना स्थल पर बैठती हैं, वहीं गावं की जवान महिलाएं, बहू व लड़कियां बारी-बारी से दिन में धरना स्थल की बागडोर सम्भलती हैं। इन महिलाओं का मानना है कि हमारे खेत-खलिहान बर्बाद करने वालों के खिलाफ लडा़ई जारी रहेगी। महिलाओं की एकजुटता व लगन का एक पहलू यह भी है कि मलेथा संघर्ष समिति का जो धरना स्थल है वहाँ करीब एक वर्ष पहले दो बहनों का सिलाई सेन्टर चलता था। अब जहाँ दोनों बहनें आन्दोलन की अगुवा पंक्ति में खडी़ हैं वहीं दुकान आन्दोलन का आश्रय स्थल बनी हुई है। महिलाओं की एकजुटता का नतीजा ही है कि क्रेशर मालिकों को जमीन देने वाले परिवारों के साथ गाँववालों ने सामाजिक व्यवहार तोड़ लिया है।

पिछले दिनों आन्दोलनकारियों पर पुलिस द्वारा लाठी चार्ज किया गया और मुकदमें लगा दिये गये हैं। मलेथा के निवासी विकास विरोधी नहीं है लेकिन वे अपनी धरती व जिन्दगी का विनाश नहीं चाहते, इसलिए पांचवे क्रेशर को हटाये जाने पर ही धरना समाप्त करने पर अड़े हुये हैं। भूख हड़ताल, आमरण अनशन जारी है। पुलिस एक आन्दोलनकारी को उठाती है तो दूसरे उसकी जगह ले लेते हैं।

इतने संगठित रूप से चल रहे इस आन्दोलन को यदि व्यापकता प्रदान करते हुए सम्पूर्ण उत्तराखण्ड के माफिया की लूट व टुकडे़-टुकडे़ में चल रहे विरोध प्रदशनों को एकजुटकर बुनियादी हक-हकूकों से जोड़ते हुए आस-पास के गांवों-कस्बों की जनता को संगठित किया जाता, तो यह छोटी-सी लड़ाई एक मील का पत्थर साबित होती। इस दिशा में 2-3 मई को मलेथा में सम्मेलन कर इस दिशा में प्रयास तो किया गया, लेकिन वह मूर्त रूप नहीं ले पाया और जिस तरह भी सही, आज मलेथा का आन्दोलन जहाँ पर पहुँचा है, वहाँ जनपक्षधर ताकतों को इस आन्दोलन के साथ खडे़ होने की जरूरत है।

कोई भी आन्दोलन यदि सीमित होता चला जाता है अथवा नेता व प्रशासन की खींचतान व भटकाव का शिकार हो जाता है तब निराशा उत्पन्न होती है। ऐसे में अपना सर्वस्व दांव पर लगाने वाली महिलाएं ही सबसे ज्यादा आहत होती हैं। हालांकि पुरुष समाज द्वारा मातृशक्ति का दर्जा देकर उन्हें औरत होने की सीमा में बाँध दिया जाता है, और उनके योगदान को कत्तव्र्य मान लिया जाता है। लेकिन महिलाएं अपनी भूमिका से पीछे नहीं हटतीं। यहाँ पर भी यह दिखाई दे रहा है।

मलेथा का आन्दोलन नित नये मोड़ ले रहा है। यह किस दिशा में जायेगा, अनिश्चितता बनी हुई है, लेकिन महिलाएं ईमानदारी व मजबूती से जुटी हुईं हैं। क्योंकि महिलाओं के लिए तो वर्तमान संघर्ष है और निर्माण भविष्य, फिर चाहे अपने लिये हो या समाज के लिए।