मलाला : देखना है जोर कितना बाजू ए कातिल में है

विनोद पांडे

17 वर्षीय मलाला युसुफजई को वर्ष 2014 का नोबेल शांति पुरस्कार मिलने से संसार भर में विभिन्न लोग अलग-अलग वजहों से खुश हैं। पाकिस्तान के पख्तूनिस्तान इलाके के स्वात घाटी की इस बालिका का संबध उस इलाके के प्रभावशाली युसुफजई परिवार से है। उनके पिता जियाउद्दीन युसुफजई स्वात में कई विद्यालयों की श्रृंखला चलाते हैं। मलाला बचपन से एक डाक्टर बनना चाहती थी पर उसके पिता उसमें एक नेता के गुण देखते थे। मलाला पाकिस्तान के उन खुशकिस्मतों में से थी जो अच्छी शिक्षा प्राप्त कर रही थी। पर इसी बीच पाकिस्तान में तालिबानी आंतक ने न केवल स्वात जैसी खूबसूरत घाटी को तबाह कर दिया था बल्कि अपने कट्टरपंथी तेवरों के साथ महिला शिक्षा के विरुद्ध धमकियां शुरू कर दी थीं। जिससे उसकी शिक्षा पाने की उम्मीदों को भी धक्का लगने लगा था। ऐसे में मलाला के अनुसार उसके सामने दो विकल्प थे। पहला यह कि वह चुपचाप बैठ कर मारे जाने का इंतजार करे और दूसरा यह कि अपने अधिकारों के लिए आगे आये और तब मारी जाय। उसने दूसरा विकल्प चुना। जब उसने दूसरा विकल्प यानी तालिबानी फरमानों का विरोध कर स्कूल जाकर शिक्षा जारी रखने का विकल्प चुना तो उसके मन की दृढ़ता और त्याग की केवल कल्पना ही की जा सकती है।

मलाला के दृढ़-निश्चय को इस बात से भी समझा जा सकता है कि उसने सितम्बर 2008 यानी 11 साल की उम्र में कहा था कि तालिबान मुझे शिक्षा के अधिकार से वंचित करने की हिम्मत कैसे कर सकता है? उसके अप्रत्याशित विरोध के कारण उसे तालिबान से  धमकियां मिलनी शुरू हुईं तो 2009 से उसने कुछ समय के लिए गुल मकई नाम से बालिकाओं की शिक्षा के लिए बी0बी0सी0 में ब्लॉग लिखने शुरू किये। ताकि अपने मिशन के लिए जमीन तैयार की जा सके। उसके इरादों की धमक से परेशान तालिबान ने जब वह महज 13 वर्ष की थी तो उसके विरुद्घ मौत का फरमान जारी कर दिया। दूसरी ओर उसके प्रयासों के लिए 2011 में उसका इंटरनेशनल चिल्ड्रन पीस प्राइज के लिए नामांकन हुआ। इसी वर्ष उसे पाकिस्तान नेशनल पीस पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस निहत्थी बालिका के एकाकी आंदोलन से पराजित तालिबान ने आखिर 9 अक्तूबर 2012 को उसे स्कूल बस से घर आते समय गोली मार दी। गोलियां उसके सिर में मारी गयीं। उसके साथ ही उसकी दो सहेलियां भी गंभीर रूप से घायल हुईं। इच्छा शक्ति के बल पर उसने मौत से भी टक्कर ली, उसका पेशावर के एक अस्पताल में इलाज शुरू हुआ जहां उसके खोपड़ी के हड्डी का एक भाग भी काटना पड़ा ताकि मस्तिष्क को क्षति से बचाया जा सके। उसे चिकित्सकीय कौमा में रखा गया। उसके बांये चेहरे को लकवा मार चुका था। उसका बाकी इलाज इंग्लैण्ड के बरमिंघम में हो पाया। अंतत: मार्च 2013 में पूरी तरह स्वस्थ होकर अपने संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए वह फिर तैयार हो गयी।

इस बालिका के संघर्ष को दुनियां भर से अब व्यापक समर्थन मिलने लगा था। 10 अक्तूबर 2013 को उसे विचारों की स्वतंत्रता के लिए यूरोपियन यूनियन के प्रतिष्ठित सखारोव पुरस्कार से नवाजा गया तो इसी वर्ष देश-विदेश के अनेक सम्मान उसके पराक्रम को मान्यता देने के लिए मिले और विश्व में सबसे प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार  के लिए भी उसका मनोनयन हुआ, जो उसे 2014 में मिला। इस तरह 17 वर्ष की उम्र में नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाली वह विश्व की सबसे कम उम्र की व्यक्ति बन गयी। शिक्षा के आधार पर दुनियां को बदलने का ख्वाब पाले यह बालिका मानती है कि एक बालिका, एक शिक्षक, एक कलम, एक किताब दुनियां को बदल सकते हैं।  महिलाओं की प्रगति में बाधक सामाजिक व्याधियों से निबटने के लिए दुनियां को एक राह दिखाने वाली इस वीरांगना को हम सलाम करते हैं। साथ ही उसके संघर्ष की भारत के संदर्भ में मायने ढूंढने की भी जरूरत है।
Malala: Let’s see how much power the murderer has in his side.

भारत में प्रत्यक्षत: कोई तालिबान न हो पर महिला उपेक्षा व भेदभाव की मानसिकता ने हमारे देश की करोड़ों बालिकाओं के जीवन और समाज की खुशियों को लगातार छीना है। महिला शिक्षा की सबसे बड़ी बाधा निश्चित रूप से गरीबी है। देश का पंगु शिक्षा तंत्र जब गरीब बालिकाओं तक पहुंचता है तो वह प्रभावहीन ही दिखता है। 1996 में पब्लिक पोर्ट ऑन बेसिक ऐजुकेशन में यह प्रकाश में आया था कि 44 प्रतिशत स्कूलों में खेल के मैदान नहीं हैं, 54 प्रतिशत स्कूलों में पीने का पानी नहीं है, 72 प्रतिशत में पुस्तकालय नहीं है, 84 प्रतिशत में शौचालय नहीं हैं आदि। यह पोर्ट निजीकरण के दौर के शुरूआत की है। वैश्वीकरण व निजीकरण के इस दौर  में सबसे ज्यादा नुकसान सरकारी शिक्षा व सरकारी चिकित्सा में हुआ है। इसी तरह सार्वजनिक परिवहन के निजीकरण व अव्यवस्था से भी गरीबों की शिक्षा में बुरा असर पड़ा है।  इस रिपोर्ट के 18 साल बीत जाने के बाद  शिक्षा व्यवस्था में सुधार के बजाय बिगाड़ ही ज्यादा आया है। असर(एनुवल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) नाम के संगठन की 2009 की रिपोर्ट में यह पाया गया कि ग्रामीण इलाकों में 50 प्रतिशत स्कूलों में शौचालय नहीं है, जहां शौचालय हैं वे काम के नहीं है और 10 में से 4 में बालिकाओं के लिए पृथक शौचालय नहीं हैं। इसके अतिरिक्त परिवहन की उपयुक्त व्यवस्था महिला शिक्षिकाओं की कमी, असुरक्षा, यौन हिंसा की आशंका जैसे कई सामान्य कारण बालिकाओं के स्कूल छोड़ने के कारण बनते हैं। इस तरह की परिस्थितियों से बालिकाएं प्रारंभ से ही बराबरी के संविधान सम्मत अधिकार से वंचित होकर  एक गैर बराबरी की स्थिति में गिरने के लिए मजबूर हो जाती हैं। असर के 2013 की रिपोर्ट में शौचालयों का प्रतिशत 53 तक आंका गया है। पर शिक्षा की गुणवत्त्ता पर गंभीर प्रश्न खड़े किये गये हैं जैसे- ग्रामीण क्षेत्रों के कक्षा 8 के 25 प्रतिशत बच्चे कक्षा 2 के गद्य को पढ़ नहीं पाते, कक्षा 3 के 26 प्रतिशत बच्चे सामान्य घटाना नहीं कर पाते, इसी तरह कक्षा 2 के — प्रतिशत बच्चे 9 तक अंकों की ठीक से पहचान नही पाते आदि। साथ ही रिपोर्ट में यह भी पाया गया है कि ग्रामीण अंचलों मे 6 से 14 आयु वर्ग के 31 प्रतिशत बच्चे प्राइवेट स्कूलों में प्रवेश ले रहे हैं। यह आंकडे़ हमारी शिक्षा व्यवस्था की असफलता व गरीब को शिक्षा से वंचित करने के रूप में देखी जा सकती है।

शिक्षा तंत्र के प्रति लापरवाही व भ्रष्टाचार के परिणाम हमारे देश में यहीं पर समाप्त नहीं होते हैं। एक ओर शिक्षकों की उपलब्धता व योग्यता में लगातार ह्रास हो रहा है। दूसरी ओर शिक्षा तंत्र के समग्र भ्रष्टाचार से शिक्षक ही अब यह तय करता है कि क्या पढ़ाया जाय क्या नहीं? शिक्षा में प्रारंभिक स्तर से ही निजीकरण कैसे हावी हो गया व उससे कैसे निबटा जाय यह भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। देश में ट्यूशन संस्कृति ने अजीब किस्म की जटिलताएं और विकृतियां ला दी हैं। असर में यह पाया गया कि कक्षा 1 के 25 प्रतिशत बच्चे स्कूल के बाद ट्यूशन की शरण लेते हैं। ये सारी सूचनाएं शिक्षा की उपलब्धता के साथ गुणवत्ता की समस्या की ओर ही संकेत देती हैं।

एक गरीब व्यक्ति तमाम आर्थिक कठिनाइयों के बाद भी अपने बच्चे को स्कूल यह सोचकर भेजता है कि शिक्षा उसे गरीबी से बाहर निकालने का माध्यम होगी। पर वह यह नहीं जानता कि उसकी गाढ़ी कमाई किस तरह और किसकी लापरवाही व भ्रष्टाचार से लुट रही है। नेताओं के विकास के ऐजेंडे में न जाने सार्वजनिक शिक्षा कहां पर है किसी को पता नहीं। भारत में शिक्षा के अधिकार जैसे कानूनों  के बाद भी गरीब अभी भी शिक्षा से दूर है।

मलाला के संघर्ष का जिक्र करना सार्थक होगा जब हम उसके संघर्ष का भारत के संदर्भ में कुछ अर्थ निकालें।  गरीबों को शिक्षा से वंचित करने वाली ताकतों को नष्ट करना होगा। इसके लिए भारत में भी गरीब विशेषकर बालिकाओं के जीवन स्तर सुधारने में उपयोगी शिक्षा दिलवाने के लिए मलाला प्रयास तो करने ही पड़ेंगे।
Malala: Let’s see how much power the murderer has in his side.

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