लछमा- कहानी

पार्वती जोशी

विवाह के बाद जब मैं अपनी ससुराल चम्पावत आई, तो डर रही थी कि पता नहीं, वहाँ का माहौल कैसा होगा, बच्चों की परीक्षाओं की वजह से जेठानी भी हमारे विवाह में सम्मिलित नहीं हो पाई थी, तो सोचा कौन मुझे उस घर के रीति-रिवाज, रहन-सहन, बतायेगा। लेकिन जब सास से मिली तो सारा डर गायब हो गया। वे तो अभी जवान थीं। वे कोमल स्वभाव की थी, बहुत स्नेहिल और हर कार्य में निपुण थीं। शादी के तीन-चार दिनों में मैं उनसे घुल-मिल गई। उन्होंने मुझे घर के नियम-कायदे व रहन-सहन से परिचित करा दिया। विवाह के बाद पन्द्रह दिन ही मैं वहाँ रही। ये दिन कैसे कटे, पता ही नहीं चला। मेरा कॉलेज खुलने वाला था, इसलिए मुझे पिथौरागढ़ वापस जाना था। जाने के दो दिन पहले मेरी सास ने कहा, ”चल बहू आज मैं तुझे अपने खेत दिखा लाती हूँ।” मैं तुरन्त तैयार हो गई।

जब हम अपने मकान से तीन-चार खेत ऊपर पहुँचे, वहाँ एक झोपड़ी देखकर मैंने उनसे पूछा, ”ईजा, ये किसकी झोपड़ी है?” उन्होंने जवाब दिया, ”ये गोपिया की ईजा की झोपड़ी है। उसका बेटा हमारे घर में काम करता था। पिछले साल ही उसे पागल कुत्ते ने काटा और वह पागल होकर मर गई।” मैंने कहा, ”आजकल तो उसका इलाज हो जाता है। इंजेक्शन लगाने से पागल कुत्ते का काटा ठीक हो जाता है। उसके घरवालों ने उसका इलाज क्यों नहीं कराया?” उन्होंने कहा, ”अरे दुल्हैणी वह तो मर जाना चाहती थी, इलाज कराने को तैयार ही नहीं हुई। तुझे क्या बताऊँ, वह क्या थी, क्या हो गई। वह हमारे गाँव की नही थी, यहाँ उसे शरण मिली थी, कहकर वे घर की ओर मुड़ गईं। जाड़ों के दिन थे। बाहर कड़ाके की ठंड पड़ रही थी, रात को खाना खाकर सब सोने चले गये। सास और मैंने चूल्हे चौके का सारा काम निबटाया और आग के पास बैठकर हाथ सेंकने लगे। मैंने गोपिया की ईजा की पूरी कहानी सुनाने के लिए उनसे विनती की। तब उन्होंने विस्तारपूर्वक पूरी कहानी अपने शब्दों में मुझे सुनाई। उन्होंने कहा, ”जब पूरा इलाका गोपिया की ईजा को बदचलन मानता था, तब भी मैंने उसके आचरण पर कोई टीका टिप्पणी नहीं की। उसके जीवन की परिस्थितियाँ ही ऐसी बन गई थीं कि उसके साथ ये सब अनहोनी घटित हुई। मेरी सास की सहायता का कोई अन्त नहीं था। उन्होंने गोपिया की ईजा की हर सम्भव मदद की। इसलिए उसने बिना कुछ छुपाए अपनी पूरी कहानी उन्हें बताई थी। मेरी सास उसके बारे में  सब कुछ जानती थी। उनकी याददाश्त गजब की थी। उन्होंने मुझे बताया कि धान गाँव चम्पावत के ही गुमदेश में है। वहाँ मड़गाँव के पाण्डे भी रहते हैं वहीं लछमा की शादी हुई। उसका मायका गंगनौल में था। अच्छा खाता-पीता ससुराल। कमाऊ पति, दो दुधारू गायें, बैलों की शानदार जोड़ी खूब खेत-खलिहान, फलों के बगीचे और सास-ससुर भी जवान, उसे बेटी की तरह प्यार करने वाले। लछमा को तो जैसे कुबेर का खजाना ही मिल गया हो, वह थी भी बहुत सुन्दर। गोरी, चिट्टी, लाल गाल, सुतवाँ नाक, लाल गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ। मेरी सास ने आगे बताया कि जब लछमा उनके गाँव में रहने लगी और उससे उनकी अच्छी बोल-चाल हो गई तो उन्होंने उससे पूछा था कि ”लछमा तेरे होंठ इतने लाल कैसे हैं तू इनमें कुछ लगाती है क्या? तब उसने उन्हें बताया कि मेरे जन्म के समय जब मेरी माँ ने नाल काटी तो उसका खून मेरे होठों पर लगा दिया, इसलिए इतने लाल हैं। मेरी माँ ने बाद में मुझे बताया था। लछमा काम भी बहुत करती थी। अपने सास-ससुर की सेवा तो तन-मन से करती थी।

उसका पति खिमिया तो लछमा का दीवाना ही हो गया। जब वह सुबह के समय पीतल के बड़े गिलास में अदरक की गटबटी चाय लेकर आती तो जबरदस्ती उसकी अंगुलियों को छू देता। वह शर्माकर भाग जाती। शादी के लिए पन्द्रह दिन की छुट्टी लेकर आया था। छुट्टियाँ बीतने पर भी उसका फौज में वापस जाने का मन नहीं था। उसके ईजा-बाबू ने उसे समझाते हुए कहा, देख खिमिया तेरी कुल पन्द्रह साल की नौकरी है, उसमें से सात साल बीत गये हैं, बचे आठ साल, वे भी जल्दी ही बीत जायेंगे। तू अपनी नौकरी में वापस जा, दुल्हैणी का हम ध्यान रखेंगे। तब वह किसी तरह जाने को तैयार हुआ। लछमा का आकर्षण उससे किसी तरह छूटता ही नहीं था। इसलिए साल के दो महीनों की छुट्टियाँ घर में ही बिताता था। घर में भी लछमा के चारों ओर चक्कर काटता रहता। दो सालों में उसकी दो बेटियाँ भी हो गईं। जितनी खूबसूरत वह थी, उससे भी खूबसूरत उसकी बेटियाँ जानकी और भगवती थीं।

पन्द्रह सालों की नौकरी पूरी कर, जब खिमिया घर वापस आया, तब भी वह तैंतीस साल का गबरू जवान था। वह अठारह साल में ही सेना में भर्ती हो गया था। उसकी दोनों बेटियाँ अब स्कूल जाने लगी थीं। खेती-बाड़ी, घर-गृहस्थी, सास-ससुर की सेवा और बच्चों की अच्छी परवरिश में व्यस्त रहने पर भी लछमा के सौन्दर्य में कोई कमी नहीं आई थी। किन्तु खिमिया चाहता था कि वह उसे पूरा समय दे। जबसे रिटायर होकर घर आया था, पत्नी के प्रति उसका आकर्षण और बढ़ गया था। वह इतनी व्यस्त रहती थी कि उसे अधिक समय नहीं दे पाती थी। एक तो सास-ससुर बूढ़े हो रहे थे, ऊपर से दो-दो बेटियों की माँ होने का दंश अब कभी-कभार उनके कड़वे बोल के रूप में उसे डँसने लगा। वे सोचते थे कि अब खिमिया का वंश कैसे चलेगा। खिमियाँ रंगीले स्वभाव का था। पत्नी की अवहेलना ने उसे विद्रोही स्वभाव का बना दिया। इस बीच उसका धौन गाँव की ही किसी लड़की से प्रेम हो गया। वह लछमा की अवहेलना करने लगा। उसकी उपेक्षा से वह अत्यन्त दुखी हो गई। अब वह उसे और समय देने की कोशिश करती लेकिन वह उसकी परवाह नहीं करता था। जब किसी प्रकार भी वह काबू में नहीं आया, तो अपने मन की व्यथा वह धौन गाँव के ही एक ठेकेदार के सामने प्रकट करने लगी। मनुष्य का स्वभाव ही है कि वह मन में बोझ लेकर नहीं जी सकता, उसे कोई-न-कोई सहारा तो चाहिए ही। धीरे-धीरे लछमा का आकर्षण उस ठेकेदार के प्रति बढ़ने लगा। न जाने उस ठेकेदार से या अपने पति से वह गर्भवती हो गई। गाँव वाले कानाफूसी करने लगे। खिमियाँ को भी इस बात का पता चल गया। सास-ससुर तो चाहते ही थे कि घर की इज्जत बची रहे। हो सकता है इस बार वह पुत्र को जन्म दे। बेटे का वंश चलाने के लिए वे पोते का मुँह देखना चाहते थे। किन्तु उनके बेटे ने उनकी एक न सुनी। दोनों बेटियों को अपने पास रखकर उसे ऐसी ही अवस्था में घर से बाहर निकाल दिया। वह कितना रोई-गिड़गिड़ाई किन्तु वह उसके प्रति बहुत कठोर हो गया। जितना उसने उससे प्रेम किया था, अब उतनी ही नफरत करने लगा। उसी अवस्था में वह अपने मायके गंगनौल गई। किन्तु वहाँ भी उसकी बदनामी की खबर पहुँच चुकी थी। उन्होंने भी उसे सहारा नहीं दिया, दर-दर भटकती हुई वह अपने एक रिश्तेदार से सहारा लेने पिथौरागढ़ के गुरना नामक गाँव में पहुँच गई, वहाँ भी उसे पनाह नहीं मिली।
(Lachma Story)

गुरना गाँव के ही पास एक मन्दिर है, जहाँ पर आती-जाती हुई गाड़ियाँ भेंट चढ़ाने के लिए रुकती हैं, उसी मंदिर के प्रसाद से उसने अपनी और उदर में पल रहे शिशु की रक्षा की। वही एक वृक्ष के नीचे उसने पुत्र को जन्म दिया। वह तो गाँव वालों और मन्दिर के पंडित जी का भला हो, जिन्होंने ऐसे मौके पर जच्चा-बच्चा दोनों की रक्षा की।

लछमा को खाना व बच्चे को दूध व वस्त्र दिये। मन्दिर के पंडित जी ने ही उसका नामकरण करके गोपाल नाम रखा। कुछ दिन ऐसे ही बिताकर वह वापस चम्पावत आ गई। वहाँ जिस गाँव में उसकी बेटी का विवाह पक्का हुआ था, उसी गाँव में जाकर उसने अपने होने वाले दामाद के घर में शरण ली। उसका परिवार गाँव का प्रतिष्ठित परिवार था। लछमा से उन्हें कोई शिकायत नहीं थी। होने वाला दामाद बहुत नेक और समझदार था। उसने अपने माता-पिता को समझाकर अपनी होने वाली सास को घर में शरण दे दी। अब गोपाल उनकी छत्र-छाया में पलने लगा। वह उनके गाय-भैंसों को दुहती, उनको चारा-पानी देती, जंगल व खेतों से घास काट लाती, लकड़ियाँ तोड़ लाती। खेती के काम में भी उनकी मदद करने लगी। उनके लिए तो वह बहुत बड़ा सहारा बन गई। गोपाल को भी अच्छा भोजन व दूध-दही खाने को मिलने लगा, इससे उसकी तन्दुरस्ती भी अच्छी हो गई। लेकिन वाह ही किस्मत!  सुख तो जैसे उसके भाग्य में लिखा ही नहीं था, उसके वहाँ रहने की खबर किसी तरह धौन गाँव पहुँच गई। खिमियाँ तो आग बबूला हो गया। उसने वहाँ खबर भेजी कि यदि लछमा और उसका बेटा वहाँ रहेंगे तो वह अपनी बेटी जानकी का विवाह उस घर में नहीं करेगा। अपनी इज्जत बचाने के लिए न चाहते हुए भी उन्हें लछमा को बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा फिर भी वह उसी गाँव में रहते हुए तीन-चार घरों में काम करके अपना और अपने बेटे का पेट पालने लगी। बीच-बीच में दूसरे गाँवों में भी जाकर काम करती थी।

लेकिन उसकी सुन्दरता ही उसकी दुश्मन बन गई। वह एक बार फिर से गर्भवती हो गई। उस गाँव के लोगों को पता चला कि वह माँ बनने वाली है, तो उसे बहुत प्रताड़ित किया, किसी ने भी उसकी मजबूरी को जानने की कोशिश नहीं की और उसे गाँव से बाहर निकाल दिया। मेरी सास ने बताया कि तब रोती हुई वह हमारे गाँव आई थी। हमारे ग्राम प्रधान ने उसे अपने घर में शरण दे दी। यहाँ वह उनके खेत व गौशाला का सारा काम करने लगी। लछमा गुणवान थी तथा कामचोरी बिल्कुल नहीं करती थी। ग्राम प्रधान की पत्नी तो उससे बहुत खुश हो गई। वह अपने पुराने कपड़े उसके लिए तथा अपने बच्चों के कपड़े गोपाल के लिए दे देती थी। किन्तु लछमा की गर्भावस्था किसी से छिपी नहीं रही। यद्यपि उसकी वजह से उन्हें बहुत सहूलियत हो गई थी किन्तु उनके घर में बच्चे थे, उन पर बुरा असर न पड़े यह सोचकर उन्होंने उससे घर छोड़कर जाने के लिए कह दिया। अब वह करे तो क्या करे? कहाँ जाय? मायका, ससुराल अपने-पराये सब छूट गये।

अकेली होती तो गंडकी (गिण्या गाड़) नदी का सहारा लेती किन्तु गोपाल को किसके सहारे छोड़े, यही सब सोचकर उसने गोपाल का हाथ पकड़ा और हमारे गाँव के ही पास में खड़पातल के देवदार के जंगल (देरानी) है, वहाँ रहने लगी, गाँव की जवान बहुएँ घास व लकड़ी  लेने जंगल जाते समय चोरी छुपे कुछ खाना, अनाज व पुराने कपड़े देने लगीं उसे। मेरी सास ने बताया कि उन्हें तो कोई टोकने वाला नहीं था, इसलिये खुलेआम लछमा की मदद करने लगीं। वे मोटी-मोटी रोटियाँ और सब्जी बनाकर उसे दे आती थीं। साथ में गोपाल के लिये दूध भी दे आतीं।

जिस दिन लछमा को प्रसव पीड़ा उठने लगी, गाँव की औरतों ने बहुत सहृदयता दिखाई। उसी जंगल में एक देवदार के पेड़ के नीचे धोतियाँ व चादरों का पर्दा बनाकर लछमा ने पुत्री के रूप में अपनी चौथी सन्तान को जन्म दिया। गाँव की बहुओं ने मिलकर उसका नाम सरस्वती रखा। सरस्वती (सरू) भी उसके अन्य बच्चों की ही भाँति खूबसूरत थी।

जब लछमा की बेटी हो गई, तो उसके भाग्य से या पता नहीं क्या चमत्कार हुआ कि हमारे गाँव वालों को उस पर बहुत दया आ गई। ग्राम प्रधान के घर में काम की कोई कमी नहीं थी, घर की औरतों व गाँव की बुजुर्ग महिलाओं के समझाने पर उन्होंने उसे फिर से काम पर रख लिया। कुछ समय बाद उन्होंने हमारे घर के थोड़ा ऊपर अपनी ही जमीन में उसके लिए एक झोपड़ी बना दी। हमारा गाँव एक सम्पन्न गाँव है इसलिए वहाँ लछमा के लिए न काम की कमी थी, न खाने-पीने की। अब जाकर उसे एक स्थाई निवास मिला।
(Lachma Story)

जब गोपाल बड़ा हुआ तो, हमारे घर में काम करने लगा। अब तक लछमा की दोनों बड़ी बेटियों का विवाह चम्पावत के ही सम्पन्न घरों में हो चुका था। इसी को कहते हैं किस्मत का लेख। एक ओर उसकी दोनों बेटियाँ सम्पन्न घरों में राज कर रही थीं, दूसरी ओर लछमा और उसके दोनों मासूम बच्चे दूसरों के घरों में काम करके अपना पेट पाल रहे थे।

चौदह-पन्द्रह वर्ष का होते-होते गोपाल बहुत सी बातें समझने लगा था। उसके दोस्तों ने उसे उसकी माँ के अतीत के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बता दिया। जो गोपाल बचपन में भोला-भाला मासूम बच्चा था, वही अब उद्दण्ड हो गया। वह काम से भी नजरें चुराने लगा, चोरियाँ करने लगा। अपनी माँ के लिए उसके मन में नफरत पनपने लगी।

किन्तु उसने हमारे घर में काम करना नहीं छोड़ा। उसकी माँ ग्राम प्रधान के घर के काम के अलावा गाँव के अन्य घरों में भी काम करती। इसके बदले लोग उसे अनाज और पैसा दोनों देते। ग्राम प्रधान के पास खेतों की कोई कमी नहीं थी इसलिए उन्होंने लछमा को कुछ खेत अनाज बोने के लिए भी दे दिए। अब वह मेहनत करके उन खेतों में अनाज बोती जिससे उनके घर में खाने-पीने की कोई कमी नहीं रहती। गाँव वाले जो भी मेहनताना उसे देते, वह उन पैसों को ग्राम प्रधान की माँ के पास जमा कर देती। गाँव-घरों में बैंक का काम इसी प्रकार चलता है। धीरे-धीरे उसने सरस्वती के विवाह के लिए धन एकत्र करना शुरू किया। फिर छोटे-छोटे गहने भी बनवा लिए।

गाँव वाले साल भर के खाने के लिए अनाज जमा कर लेते हैं, उसके लिए उनके घरों में लकड़ी के बड़े-बड़े बॉक्स, जिन्हें वे भकार बोलते हैं और निगाल (रिंगाल) की बेंत के कोरंगे होते हैं जिन्हें बाहर से मिट्टी व गोबर से लीपते है, जिससे अनाज में कीड़ा न लगे। सालभर के लिए इनमें अनाज सुरक्षित रहता है। लछमा भी अपने सालभर के खाने के लिए अनाज सुरक्षित रखने लगी। उसके मन में था कि यदि अचानक सरू की शादी कहीं पक्की हो गई तो वह किस-किसके आगे हाथ फैलायेगी। वह बहुत खुद्दार थी।

दूसरी ओर गोपाल ने अपनी माँ की परवाह करनी छोड़ दी। अब वह आवारा लड़कों के साथ मिलकर जुआ खेलने लगा, उसके लिए आस-पास के इलाके में घूमकर खेतों से अनाज, फल तथा अन्य वस्तुएँ चोरी करके बाजार में बेचने लगा। धीरे-धीरे अपनी माँ के जमा किए अनाज में हाथ साफ करने लगा। और एक दिन सारा अनाज और लछमा के जमा किए पैसे लेकर वहाँ से भाग गया। बहुत दिनों बाद पता चला कि सब पैसे जुए में हारकर वह चम्पावत के ही किसी होटल में बर्तन मलने का काम करता है। वहाँ भी वह अधिक समय तक नहीं टिक पाया और एक दिन होटल मालिक ने उसे चोरी करते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया। पुलिस की मार के डर से वह वहाँ से भाग गया और चम्पावत छोड़कर तड़ी पार हो गया।

दु:खों से तो लछमा का गहरा नाता जुड़ गया था इसलिए इस विपत्ति को भी सहन कर गई और सरस्वती के विवाह के लिए फिर से धन एकत्र करने में जुट गई। जब कुछ धन एकत्र हो गया तो चौदह साल की ही सरस्वती का विवाह टनकपुर के किसी गाँव में कर दिया। गोपाल टनकपुर से आगे नेपाल की सीमा में महेन्द्रनगर में किसी कपड़े की दुकान में काम करने लगा। पुलिस के भय से अपनी बहन के विवाह में नहीं आया। सरस्वती के विवाह में गाँव वालों ने लछमा की बहुत मदद की, बिना माँ-बाप की बेटी समझकर उसे अच्छा दान-दहेज देकर गाँव की बेटी की तरह ही विदा किया।

अब लछमा के जीवन में बेटी के बिना खालीपन-सा आ गया। काम अभी भी उतना ही करती, किन्तु किसी से भी अधिक बात नहीं करती थी, चुपचाप काम करती और फिर अपनी झोपड़ी में जाकर सो जाती। अपने बीते हुए जीवन के बारे में सोचती, जिस उम्र में आजकल लड़कियों का विवाह भी नहीं हो पाता, उसी उम्र में उसने स्वर्ग-नर्क सब देख लिया। वह सोचती, अब मेरे जीने का क्या उद्देश्य है? बेटा होकर भी नहीं है, बेटी का विवाह हो चुका है, पति की वह परित्यक्ता है इसलिए दोनों बड़ी बेटियाँ भी उससे नफरत करती हैं। अब वह जिए तो किसके लिए जिये? भगवान ने और समय भले ही उसकी एक न सुनी हो, किन्तु इस बार उन्होंने बिल्कुल भी अनसुनी नहीं की। एक दिन लकड़ियाँ लेने जंगल जा रही थी कि जमकेश्वर के जंगल में एक पागल कुत्ते ने उसे काट लिया। उसने घाव में गीली मिट्टी भर दी और धोती का एक किनारा फाड़ कर उसे बाँध दिया। उसे पता नहीं था कि वह कुत्ता पागल है इसलिए उसने उस घाव की ओर ध्यान ही नहीं दिया।
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गाँव की ही एक स्त्री को जड़ी-बूटियों का ज्ञान था, उसने कुछ पत्तियों को घिसकर उसके घाव में बाँध दिया। धीरे-धीरे वह घाव पकने लगा। असहनीय पीड़ा होने लगी। लेकिन उसने तो अपने जीवन में कैसे-कैसे घाव सहे थे, इसलिए इस दर्द की कोई परवाह नहीं की। उसकी बेटी सरस्वती इतनी छोटी-सी उम्र में ही माँ बनने वाली थी किन्तु उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था। लछमा वहाँ जा नहीं सकती थी क्योंकि धीरे-धीरे वह पागलों की तरह व्यवहार करने लगी थी। मेरी सास ने मुझे बताया कि अन्तिम समय में वह अपने घर के दहलीज के बाहर गर्दन लटकाकर कुत्ते की तरह भौकने लगी थी, फिर भी वे उसे रोज खाना और चाय देने जाती थीं। एक दिन उसके कष्टदायी जीवन का अन्त हो गया।

दूसरी ओर सरस्वती प्रसव का दर्द सहन न कर सकी और एक मृत बालक को जन्म देकर प्रसव के दौरान चल बसी। उधर महेन्द्रनगर जाकर भी गोपाल ने जुआ खेलना नहीं छोड़ा अब वह मादक पदार्थों की तस्करी भी करने लगा। भारत, नेपाल सीमा तस्करी के लिए बदनाम है। वह महेन्द्रनगर से बनबसा, ब्रह्मदेव मण्डी आदि सीमावर्ती इलाकों में इन वस्तुओं को लाता एवं ले जाता है। बहन व माँ की मृत्यु का भी उसे पता नहीं चला।

एक दिन पैसों के लेन-देन में अपने साथियों के साथ उसका झगड़ा हो गया बाद में सुना कि वहीं किसी ने उसकी हत्या कर दी। तीनों का कितना दु:खद अन्त हुआ अपनी सास के मुँह से पूरी कहानी सुनने के बाद मेरा अबोध मन बहुत भारी हो गया और मैं सोचने लगी- वाह रे हमारा पुरुष प्रधान समाज, जहाँ स्त्री-पुरुष दोनों के लिए अलग-अलग मापदण्ड हैं। लछमा और खिमियाँ ने ठाट-बाट से अपना जीवन जिया। पत्नी को घर से निकालने के बाद उसने दूसरी स्त्री को अपने घर में रख लिया। हमारे कुछ समाजों में दूसरी स्त्री रखने की परम्परा है, उसे नौली कहा जाता है। उसने अपनी दोनों बेटियों का विवाह सम्पन्न घरों में किया। दूसरी ओर लछमा ने अपने पति को सबक सिखाने के लिए जब दूसरी ओर दिल लगाया तो वह जीवन भर दर-दर भटकी। उसका और उसके दोनों निर्दोष बच्चों का कितना दुखद अन्त हुआ।
(Lachma Story)
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