कविताएँ: श्रीरंग

प्रेम करती लड़कियाँ

हमारे मुहल्ले में
एक लड़की ने प्रेम किया
घूमी स्कूटर पर प्रेमी के साथ
देखी फिल्म
खायी चाट, इडली, ढोसा, दही-बड़ा
और कर लिया एक दिन घर से भागकर
प्रेम विवाह……
हमारे मुहल्ले में
खूब र्चिचत रहा यह पे्रम प्रसंग
किन्तु जीते जी मर गई वह लड़की
माँ के लिए
पिता के लिए
भाई बहनों के लिए
सम्बन्धियों, पड़ोसियों, सहेलियों के लिए…..
हमारे मुहल्ले में
एक दिन आयी ये खबर
मारी गयी वह
हुए
सब दुखी लड़की का हस्र सुनकर
पर सबकी थी सलाह
यही कि, जो हुआ सो हुआ
अब होगा क्या
होनी थी सो हुई
और सब कुछ हो गया रफा-दफा…..
हमारे मुहल्ले में
कई लड़कियाँ प्रेम कर रही हैं
‘यह सब कुछ जानते हुए भी’
तुम कह सकते हो कि
वे आत्महत्या कर रही हैं प्रेम नहीं
लेकिन यह भी कि
मरने से कब डरती हैं
प्रेम करती लड़कियाँ….।

ये कैसी चुप्पियाँ हैं

खिड़कियाँ चुप हैं
जिनके पर्दे हटाती थी वह रोज सुबह
चुप हैं पौधे जिन्हें देती थी पानी
पड़ोसिनें चुप हैं
जिन्हें देती थी दूध, जोरन, दही
चाय की पत्ती
बताती थी नई-नई डिजाइनें स्वेटन की
बतियाती थी घण्टों बारजे से
चुप है
कालोनी के बड़े बूढ़े
जिन्हें देखकर
जल्दी से कर लेती थी पल्लू सिर पर….
लोहबान अगरबत्ती की गन्ध फैल रही है
शामियाने के नीचे लिटायी जा चुकी है बहू
इस कान से उस कान में पहुँचकर भी
दबती जा रही है बात
‘रफा-दफा’ में जुटे हैं अपने पराये……
जिसे जाना था गई
अब कुछ करने से क्याहोगा
‘कौन पालेगा बच्चों को पिता को हुई जेल तो’
सोच रहे हैं समझदार और अनुभवी लोग….
लड़कियाँ चुप हैं
लड़कियों के खिलाफ
औरत चुप हैं औरतों के खिलाफ
आदमी चुप है आदमी के खिलाफ
ये कैसी चुप्पियाँ हैं
अपने ही खिलाफ….।
Kavita by Srirang

प्रौढ़ होती लड़कियाँ

प्रौढ़ होती लड़कियाँ
आती है सबके सामने
सधे पाँव अनिच्छा से
सज संवर कर बार-बार
हाथों में चार की ट्रे
कुछ मीठा कुछ नमकीन लेकर……
प्रौढ़ होती लड़कियाँ
देती है तमाम अलूल जुलूल
सवालों के जवाब
भरती हैं हुँकारी
हम उल्टे सीधे उपदेश के बाद…..
प्रौढ़ होती लड़कियाँ
सिद्ध करती है कि
वे गूंगी नहीं है
सवालों का जवाब देकर
चल फिर कर दिखाती है
सही सलामत है उनके हाथ पैर
सुनाकर गीत
देती हैं अपने गले के सुरीलेपन का सबूत
बजाकर वाद्य यंत्र
दिखाती है कि
उन्हीं की उंगलियों में बसते हैं सात सुर….
प्रौढ़ होती लड़कियाँ
बार-बार करती है परेड
देती हैं परीक्षा
बार-बार करती है
निर्णय की प्रतीक्षा
पी जाती है उन सभी निर्णयों को
जो लिए जाते हैं अक्सर उनके विरुद्ध……।

पगली

सुबह,
गली के लड़के
ढेला मार रहे थे
चिढ़ा रहे थे
वह भी खदेड़ रही थी
अगड़म बगड़म
बड़बड़ाती….
दोपहर में,
घूम रही थी बाजार में
मांग रही थी कुछ खाने को
दुत्कार रहे थे उसे सभ्य लोग….
शाम ढले,
वह पार्क के बेंच पर बैठी
कुछ खा रही थी चुपचाप
वहाँ उसे कोई ढेला नहीं मार रहा था
दुत्कार नहीं रहा था कोई
कोई नहीं कर रहा था घिन….
रात गये,
आग की तरह, तापी जा रही थी पगली….।
Kavita by Srirang

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