कविताएं

अगलाड़

सुरेन्द्र पुण्डीर

मेरे
अस्तित्व में
आने से पहले से भी
बह रही है अगलाड़
मेरे लिए तो
सिर्फ
बहता पानी है अगलाड़1
उनके लिए
बहुत कुछ है अगलाड़
उनकी
हर साँस में
हर पल में
जीती है
मरती है
खेलती है
फांदती है
अगलाड़
पैदा होने और मरने तक के
   सफर की साक्षी है अगलाड़
उनके-
उपजे सपनों को
पूरा करने का
इतिहास है अगलाड़
ठर2 की पूजा से लेकर
वैशाख के विशु3 त्योहारों की
उमंग और उत्साह है अगलाड़
(Kavitaen S Pundeer and D Naithani)
उनके
सिहाने
बजाती है नमतिया
मिलती लोगों को
दुवडी और पंचमी की मिठास
भागते बच्चे
पीली सरसों की बांह पकड़ते
मचाते मण्डाण चौक में ऊधम
भर लाती हैं मांएं,
जंगलों से
घास के बीच ठूंस कर बुरांस और प्यूंली के फूल
बच्चों की किलकारी से-
खो जाती हैं- मांएं अंधेरे धुंधलके में
लौट आते हैं
दिन भर के थके हारे पैर
धप्प से
गिरा देतीं मांए उन बोझिल भारों को
बच्चे देखकर मारते हैं किलकारी
और
रभांती हैं गाएं।
घर में
बैठी बूढ़ी आगे
सुलगाती है आग
सामने  बहती है र्निंश्चत अगलाड़
दुपहरी के उदास मनों में
आ जाती है हल्की मुस्कान
दौड़-दौड़ स्वागत करता है मौण4
बिखेर देता है
मनों में एक उमंग
यम-यमी के देश से
कूदती-फांदती
पाप पुण्यों को तोलती
बहती है अगलाड़
पाना चाहती है मुक्ति
दम्भ से- अहम् से और द्वंद्व से
इन सब से परे बहना चाहती है अगलाड़
(Kavitaen S Pundeer and D Naithani)
अधिकार की मिट्टी से
नहीं रौंदना चाहती है
कर्तव्यों के रोड़ों को
बांटना चाहती है इनके सुख-दु:ख
इनके साथ रहकर बहना चाहती है अगलाड़
इनके लिए बहुत कुछ है अगलाड़
मेरे लिए तो सिर्फ बहता पानी है
अगलाड़
1.   जौनपुर में बहने वाली तथा यमुना की एक सहायक नदी 2. एक क्षेत्र 3. मेला 4. मेला

पहाड़ बोला कुछ भी नहीं

देवेन्द्र नैथानी

कल रात
सपने में आया
बूढ़ा पहाड़
मैंने पाँव नहीं छुए उसके
उसे कोई दु:ख नहीं हुआ।
या शायद,
उसने महसूस ही नहीं किया कुछ भी..
फिर भी मेरे सपने में आया
एकदम खाली हाथ
चुपचाप
आकर बैठ गया मेरे पास
मुझे खुशी हुई
अच्छा लगा
पहाड़ का आना
पहाड़ सेंकता रहा धूप
मैं ताकता रहा पहाड़ को
देखता रहा पहाड़ का बूढ़ा चेहरा
वह रहा गुमसुम
मैं नहीं समझ पाया कि
पहाड़ को है…. कोई दुख
(Kavitaen S Pundeer and D Naithani)
कोई कष्ट
पहाड़ देखता रहा-
डूबता सूरज
और खोजता रहा
अपनी जड़ें
टटोलता रहा
अपने थेगली लगे कोट की
खाली जेबें-
मानो कुछ खो गया हो
बोला कुछ भी नहीं
मैं नहीं समझ पाया
पहाड़ को
और
सपने को

एकालाप

पहाड़ के किसी गाँव में
रह रहा बूढ़ा
सपने नहीं देखता
देखता-
बेतरतीब नीली उभर आई नसों
और अपने झुर्रियों से भरे
(Kavitaen S Pundeer and D Naithani)
हाथों को
अक्सर गाँव का एक लिंडेरु कुत्ता
दुम हिलाता
पूछने आता है
बूढ़े का हाल
और सो जाता है
बूढ़े के दरवाजे से सटकर
बूढ़ा नहीं भगाता उसे कभी….
रोज ही टहलता है बूढ़ा
सूने से गाँव में सुबह, शाम
रहता है/निपट अकेला
लेटा नहीं रह पाता कभी
धूल भरी धूप में भी
घूम आता है यहाँ-वहाँ
रास्ते में सुनता है
कौंवों की बातचीत।
सच! बूढ़े को
कोई दु:ख नहीं है
भला चंगा है, पुराना फौजी
तभी तो घूम जाता है सारा गाँव।
अक्सर जब मिलता है
बूढ़े को
हुक्का पीकर खांसता/कफ्फ उगलता
गाँव का दूसरा बूढ़ा
बूढ़ा सरसों सा खिल जाता है
हुक्के के चार-छह दम….
हाँफती सी उठती है बातचीत
दूर तक जाती है
कभी रहती है देर तक चुप्पी
(Kavitaen S Pundeer and D Naithani)
ऐसे में,
होता है पहाड़
पहाड़ में गाँव
गाँव में दो
निपट अकेले बूढे़
कुत्ता और हुक्का….
बूढ़ा!
समय गुजारने के लिए
नहीं खोलता
बड़ा, पुराना बक्सा
प्राय: रात्रि
चारपाई में पड़े बूढ़े को
जब दबोचता है घुप्प अंधेरा
अचकचाकर उठ बैठता है बूढ़ा
सोचता है- कुछ-कुछ
अंगुलियाँ चटकाता हुआ।
(Kavitaen S Pundeer and D Naithani)

उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika