कमला सोहनी : विज्ञान में प्रथम भारतीय महिला पी-एच.डी.

ध्रुवज्योति चट्टोपाध्याय

लिंग भेद को लेकर पूर्वाग्रह विशेषकर विज्ञान के क्षेत्र में विश्वभर में एक आम बात है। लेकिन, भारत में जब ब्रिटिश राज के अन्तर्गत आधुनिक विज्ञान शिक्षा की शुरूआत हुई तब स्थिति संभवत: बदतर थी। कुछ ऐसे समाज सुधारक थे जो महिलाओं के लिए पाश्चात्य विज्ञान आधारित शिक्षा की पैरोकारी करते थे लेकिन उस समय के अधिकतर राजनैतिक नेता इसके विरुद्ध थे। महात्मा गाँधी तक महिलाओं को शिक्षित करने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने कहा था, ‘‘पुरुष एवं महिला दोनों का एक ही दर्जा है लेकिन वे समान नहीं हैं। दोनों एक लाजवाब जोड़ी हैं और वे एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों एक-दूसरे की मदद करते हैं, अत: एक के बिना दूसरे के अस्तित्व की कल्पना तक नहीं की जा सकती। इन तथ्यों से एक अनिवार्य परिणाम यह निकलता है कि किसी भी कारण से अगर दोनों में से किसी की प्रतिष्ठा को कोई धक्का पहुँचता है तो यह दोनों के लिए ही बर्बादी का सबब होगा। अत: महिलाओं की शिक्षा के लिए किसी भी योजना को बनाते समय इस मूलभूत सत्य को हमेशा ध्यान में रखना होगा।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘महिलाओं के स्कूलों में अंग्रेजी का पढ़ाया जाना हमारी असहायता को बढ़ाने का ही काम करेगा।’’

इन प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद चंद भारतीय महिलाएँ ऐसी भी थीं जिन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में आगे आने का साहस दिखाया था और स्वयं को इस क्षेत्र में स्थापित भी किया था। उनमें से अधिकतर पढ़े-लिखे एवं प्रतिष्ठित समाज से आई थीं, लेकिन फिर भी उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना केवल इसलिए करना पड़ा क्योंकि वे महिलाएँ थीं। इन्हीं महिलाओं में से एक कमला सोहनी भी थीं। वह प्रथम भारतीय महिला थीं जिन्हें कैंब्रिज विश्वविद्यालय से जैव रसायन में पी-एच.डी. की उपाधि मिली थी।

आरम्भिक जीवन
कमला का जन्म 1912 में एवं लालन-पालन बंबई (अब मुम्बई) के एक सुशिक्षित परिवार में हुआ था। उनके पिता नारायणराव भागवत तथा उनके चाचा दोनों ने बम्बई प्रेसीडेंसी कॉलेज से रसायन विज्ञान में स्नातक का अध्ययन पूरा किया था। उनके परिवारजन उन्हें वैज्ञानिक बनाना चाहते थे। अत: स्वाभाविक रूप से वे कमला को बाल्यकाल से ही अपने भावी कैरियर के लिए विज्ञान चुनने के लिए प्रोत्साहित करने के साथ-साथ उनका गंभीरतापूर्वक मार्गदर्शन भी करते थे। परिणामस्वरूप, उन्होंने बम्बई प्रेसीडेंसी कॉलेज से रसायन विज्ञान में बी.एस-सी. की परीक्षा सर्वाधिक अंकों के साथ पास की थी। उस समय भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलौर एक जाना-माना वैज्ञानिक संस्थान था जिसके प्रमुख एशिया में भौतिकी के प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. सी.वी. रामन थे। अधिकतर वैज्ञानिक एवं अनुसंधानकत्र्ता भारतीय विज्ञान संस्थान (भाविसं) के साथ जुड़ना चाहते थे क्योंकि उसमें सभी सुविधाओं से परिपूर्ण एक भरी पूरी प्रयोगशाला थी। कमला स्वाभाविक रूप से इस संस्थान से जुड़ना चाहती थीं क्योंकि उनका सपना एक सफल वैज्ञानिक बनना था।

रामन की प्रयोगशाला में कमला
कमला का वास्तविक संघर्ष तब शुरू हुआ जब स्नातक (बी.एस-सी.) की परीक्षा में अच्छे अंक होने के बावजूद रामन ने उन्हें भाविसं में इसलिए प्रवेश देने से मना कर दिया क्योंकि वह एक महिला थीं। उनके पिता के अनुरोध के बावजूद रामन ने उन्हें प्रवेश नहीं दिया। लेकिन कमला तो किसी अलग ही सोच की बनी थीं। उन्होंने रामन से सीधे-सीधे पूछा कि उनके संस्थान में महिला अभ्यर्थियों को क्यों प्रवेश नहीं मिल सकता तथा चुनौती दी कि वह पाठ्यक्रम को विशेष योग्यता अर्जित करते हुए पूरा करेंगी। पहले दिन तो रामन ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन फिर बड़ी अनिच्छा से उन्होंने प्रवेश के लिए मंजूरी दी, जिसके लिए उन्होंने कुछ शर्तें भी रखीं। ये शर्तें थीं-
Kamala Sohni: First Indian woman Ph.D. in science

1.    उन्हें नियमित अभ्यर्थी के रूप में प्रवेश नहीं मिलेगा।
2.    अपने निर्देशक की हिदायत पर उन्हें देर रात तक काम करना पडे़गा।
3.    वह प्रयोगशाला के परिवेश को नहीं बिगाड़ेंगी।

इस घटना से कमला सचमुच बहुत आहत हुई थीं। सन् 1997 में भारतीय महिला वैज्ञानिक संघ (आई डब्ल्यू एस ए) द्वारा भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र (बार्क) में आयोजित एक सम्मान समारोह में उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था, ‘‘हालांकि रामन एक महान वैज्ञानिक थे, लेकिन वे बड़े संकीर्ण विचारों वाले थे। मात्र मेरे महिला होने के कारण उन्होंने जिस ढंग से मेरे साथ व्यवहार किया, उसे मैं कभी नहीं भुला सकती। यह मेरा बहुत बड़ा अपमान था। उस समय महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह की स्थिति बहुत खराब थी। अगर एक नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक का ऐसा व्यवहार था तो ऐसे में किसी और से क्या उम्मीद की जा सकती थी?’’

लेकिन भाविसं में अपने शिक्षक श्रीनिवासैया के मार्गदर्शन में उन्होंने बड़ी मेहनत की। वह अति कठोर अनुशासन वाले तथा छात्रों से बहुत अपेक्षा रखने वाले थे। लेकिन योग्य छात्रों को ज्ञान प्रदान करने के लिए वह सदैव तत्पर रहते थे। इस संस्थान में उन्होंने दूध, दलहन एवं फलियों पर कार्य किया जिनका भारत की पोषण पद्धति में बहुत महत्व था। सन् 1936 में कमला संभवत: विश्वभर में दलहनों की प्रोटीनों पर कार्य करने वाली अकेली स्नातक छात्रा थी। बंबई विश्वविद्यालय में अपने शोध कार्य को प्रस्तुत कर उन्होंने एम.एस-सी. की डिग्री हासिल की।

कमला ने अपनी पहली लड़ाई सफलतापूर्वक जीत ली थी। उन्हें इंग्लैण्ड की कैंब्रिज यूनिर्विसटी में शोध कार्य करने के लिए छात्रवृत्ति प्राप्त हुई। अपने समर्पण एवं कठोर परिश्रम के बूते पर उन्होंने सी.वी. रामन को यह दिखा दिया कि एक महिला में भी शोध कार्य को पूरा करने की क्षमता होती है। अगले साल से रामन ने भाविसं के द्वार महिला अभ्यर्थियों  के लिए खोल दिए।

कैंब्रिज में कमला
कैंब्रिज यूनिर्विसटी में कमला ने पहले-पहल डॉ. डोकिर रिख्टर की प्रयोगशाला में काम किया। रिख्टर ने उन्हें दिन के वक्त काम करने के लिए एक खाली मेज मुहैया करा दी। जब रिख्टर कैंब्रिज छोड़कर कहीं और चले गये तब कमला ने डॉ. राबिन हिल के साथ काम करना शुरू किया जो पादप ऊतक पर इससे मिलता-जुलता ही कार्य कर रहे थे।

आलू पर काम करते हुए उन्होंने पाया कि पादप ऊतक की हर कोशिका में ‘‘साइटोक्रोम सी’’ नामक एंजाइम भी मौजूद होता है तथा यह भी कि सभी पादप कोशिकाओं को ऑक्सीकरण में ‘साइटोक्रोम’ की सी भूमिका होती है। वनस्पति जगत से सम्बन्धित यह एक मौलिक खोज थी। हॉर्पंकस द्वारा सुझाए जाने पर कमला ने अपनी पी.एच-डी. डिग्री के लिए कैंब्रिज यूनिर्विसटी को एक लघु शोध-प्रबंध भेजा जिसमें उन्होंने पादप ऊतक के श्वसन में ‘साइटोक्रोम सी’ की भूमिका का वर्णन किया। उनकी पी.एच-डी. डिग्री कई मायनों में उल्लेखनीय थी। कैंब्रिज पहुँचने के सोलह महीनों से भी कम समय के भीतर उन्होंने अपने शोधकार्य को पूर्णकर शोध-प्रबन्ध लिख दिया था। उसमें केवल 40 टाइप किए हुए पन्ने थे। अन्य शोध-प्रबन्धों में कभी-कभी तो एक हजार से भी अधिक पन्ने होते थे। वह प्रथम भारतीय महिला थीं ‘‘जिन्हें विज्ञान में पी.एच-डी. की डिग्री प्रदान की गई थी।’’

इस प्रकार कमला ने कैंब्रिज में आनन्दपूर्वक अपने दिन बिताए। वहाँ के सभी शिक्षक एवं सभी मित्र बड़े ही सहयोगी स्वभाव के थे तथा वहाँ शोध कार्य के लिए अच्छा वातावरण मौजूद था। पी.एच-डी. की डिग्री प्राप्त करके उन्होंने वह गौरव प्राप्त कर लिया था जिसकी वह सचमुच हकदार थीं।
Kamala Sohni: First Indian woman Ph.D. in science

कैंब्रिज में बिताया समय कमला के अकादमिक कॅरियर का सुनहरा काल था। उन्हें वहाँ दो छात्रवृत्तियाँ मिलीं। इनमें से पहली छात्रवृत्ति उन्हें नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. फ्रेडरिक हॉपकिंस के साथ कैंब्रिज यूनिर्विसटी के सर विलियम ड्वान इंस्टिट्यूट ऑफ बायोकैमिस्ट्रिी में शोध कार्य करने के लिए प्राप्त हुई थी। दूसरी छात्रवृत्ति अमेरिकन फेडरेशन ऑफ यूनिर्विसटी विमेन द्वारा प्रदत्त ट्रैवलिंग फैलोशिप थी जिसके माध्यम से कमला यूरोप के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिकों के निकट सम्पर्क में आईं।

व्यावसायिक जीवन में कमला
सन् 1939 में भारत लौटने पर वह नई दिल्ली स्थित लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हुईं तथा तभी खोले गए जैव रसायन विभाग की विभागाध्यक्ष बनीं। लेकिन विभाग में कार्यरत अधिकांश लोग पुरुष थे। अत: उन्हें कार्य करने हेतु वहाँ अच्छा परिवेश नहीं मिला।

बाद में वह कुन्नूर स्थित न्यूट्रिशन रिसर्च लैब में सहायक निदेशक के पद पर नियुक्त हुईं। वहाँ उन्होंने विटामिनों के प्रभाव को लेकर महत्वपूर्ण शोधकार्य किया। उन्होंने अनेक जर्नलों में अपने वैज्ञानिक शोध पत्र भी प्रकाशित किए। लेकिन अपने कॅरियर की उन्नति के स्पष्ट अवसरों की कमी का देखते हुए वह अपने पद से त्यागपत्र देने पर विचार करने लगीं। इसी दौरान उन्हें एम.पी. सोहनी की ओर से विवाह का प्रस्ताव मिला जो व्यवसाय से बीमांकिक (एक्चुयरी) थे। उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और सन् 1947 में वह मुम्बई चली गईं।

महाराष्ट्र सरकार ने (रॉयल) इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस, बंबई में तभी खुले जैव रसायन विभाग में जैव रसायन के प्रोफेसर पद के लिए आवेदन-पत्र आमंत्रित किये। कमला ने इस पद के लिए आवेदन भेजा और वह चुन ली गईं। इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस में कार्य करने के दौरान उन्होंने अपने छात्रों के साथ नीरा (जिसे स्वीट टॉडी या पाम नेक्टर भी कहते हैं), दलहन एवं फलियों में पाए जाने वाले प्रोटीनों तथा धान के आटे पर काम किया। उनके शोधकार्य के सभी विषय भारतीय सामाजिक आवश्यकताओं के साथ बहुत प्रासंगिकता रखते थे। असल में नीरा पर उन्होंने अपना कार्य तत्कालीन राष्ट्रपति  डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के सुझाव पर ही आरम्भ किया था। इसके अलावा आरे दुग्ध परियोजना के प्रशासन को दूध की गुणवत्ता में सुधार लाने का परामर्श भी उन्होंने ही दिया था। उनके छात्रों द्वारा किए गए शोध कार्य ने यह प्रर्दिशत किया कि कुपोषण के शिकार आदिवासी किशोरों और गर्भवती महिलाओं के आहार में नीरा को शामिल किया जाना उनके स्वास्थ्य में महत्वपूर्ण सुधार लगता है। इस कार्य के लिए कमला सोहनी को राष्ट्रपति सम्मान से विभूषित किया गया।

इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस, बंबई में भी उन्हें संस्थान के निदेशक के अधिकारपूर्ण पद से वर्षों तक वंचित रखा गया। अंतत: जब उन्हें यह पद प्रदान किया गया तो कैंब्रिज में उनके प्रथम मार्गदर्शक डॉ. डेरिक रिख्टर ने यह टिप्पणी की कि ‘‘इतने बड़े विज्ञान संस्थान की प्रथम महिला निदेशक बनकर उन्होंने इतिहास रचा।’’

अन्य गतिविधियाँ
कमला सोहनी कंज्यूमर गाइडेंस सोसायटी ऑफ इंडिया (सी.जी.एस.आई.) की संस्थापक सदस्य थीं। यह भारत का सबसे आरंभिक उपभोक्ता संगठन था जिसकी नींव सन् 1966 में नौ महिलाओं द्वारा रखी गई थी। सन् 1977 में औपचारिक उत्पाद परीक्षण में यह सबसे पहला संगठन बना। इस संगठन ने अनेक गतिविधियों को अंजाम दिया जिनमें खाद्य उत्पादों की शुद्धता की जाँच, विक्रेताओं द्वारा प्रयुक्त किए जाने वाले माप-तौल के साधन तथा कुछ अन्य रूपों में उपभोक्ता संरक्षण शामिल थे। सी जी एस आई कीमत  नामक एक पत्रिका का प्रकाशन भी करती है।

कमला एक लोकप्रिय विज्ञान लेखिका भी थीं। युवा छात्रों के लिए उन्होंने मराठी में अनेक पुस्तकें लिखीं। विज्ञान लेखों के अलावा उन्होंने उपभोक्ता के अधिकारों तथा उनकी गतिविधियों पर भी अनेक शोध पत्र लिखे।

कमला सोहनी ने एक भरपूर जिन्दगी जी। वह अपने कॅरियर में एक शोध वैज्ञानिक, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता, विज्ञान लोकप्रियकरणकर्ता तथा विज्ञान लेखिका के रूप में सफल रहीं। सन् 1998 की बात है जब भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् की महानिदेशक एवं अध्यक्ष डॉ. सत्यवती ने कमला सोहनी और उनके कार्य के बारे में सुना और उनकी क्षतिपूर्ति करने का निश्चय किया। उन्होंने कमला, जो उस समय 84 वर्ष की थीं, को नई दिल्ली में आयोजित होने वाले एक भव्य समारोह में सम्मानित करने के लिए आमंत्रित किया। विडंबना देखिए, इस समारोह में कमला सोहनी ने दम तोड़ दिया। ऐसे ख्याति प्राप्त व्यक्तित्व के लिए इससे बेहतर अंत की और क्या अपेक्षा की जा सकती थीं?

अनुवाद: आभास मुखर्जी ड्रीम 2047 (अप्रैल 2014) से साभार
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