हमारी साझा विरासत- संस्कृति

अनिल कार्की

काली कूँछी बगु बगु पृथ कूँछी घूँमू
एक थाली में भात खूँला तें डोटी मैं कुमुँ

भवानुवाद-
(काली नदी कहती है बहती हूँ मैं बहती हूँ
पृथ्वी कहती है मैं गोल गोल घूमती हूँ
पर हम एक ही थाली में भात खायेंगे
तुम डोटी नेपाल काली पार के
और हम कुमाऊँ काली वार के)

अगर आपके कमरे से एक कोई चीज हटा कर दूसरी जगह रख दी जाय या आपके बिस्तर को ही किसी दूसरे कोने में खिसका दिया जाय तो कुछ भी नहीं तो आपको हफ्ते भर बड़ा अटपटा लगेगा। जरा सोचिए वहाँ पचास हजार परिवार डुबो कर पूरे का पूरा भूगोल बदल देने की कवायद चल पड़ी है, उन विस्थापितों के लिए एक तरह से धरती ही खिसक जायेगी। हमारा नेपाल-भारत बॉर्डर विश्व के उन बहुत कम बॉर्डरों में एक है जहाँ देशों की सीमाओं को मनुष्यता और आपसदारी की सीमाएँ छोटा कर देती है। हमारी आपसदारी देशों की धारणाओं से पुरानी और आदिम है। पंचेश्वर बाँध क्यों और बाँधों से अलग है? शायद इसलिए कि इस नदी के दोनों किनारों पर राजनैतिक विभाजन के दो पड़ोस/दो गाँव रहते हैं जो दो अलग-अलग देशों के होने के बावजूद सांस्कृतिक रूप से विभाजित नहीं किये जा सकते। न इनका विस्थापन ही संभव है अगर हो ही जाता है तो वे आस-पड़ोस फिर कभी एक दूसरे के सुख-दुख में, मेलों-त्योहारों में शामिल नहीं हो सकेंगे, क्योंकि एक गाँव नेपाल में कहीं बस जायेगा और दूसरा भारत में किसी जगह। इस विभाजन में काली के आर-पार की रिश्तेदारी, मित्राम पूरी तरह बिखर जायेगी। काली तो हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा थी, हमारी दो आँखों के बीच की नखसीर थी इसलिए हम एक दूसरे से आर-पार जुड़े रहे। पर बाँध बहुत अन्जान होगा जो युगों से चली आ रही अब तक की आपसदारी को पूरी तरह खत्म कर देगा। उदाहरण के लिए आठूँ गौरा लोकोत्सव को लें जो कुमाऊँ और नेपाल की साझा सांस्कृतिक विरासत है। भाद्रपद माह में यह त्यौहार पूरे पश्चिम नेपाल के सीमान्त हिस्सों और कुमाऊँ के सीमान्त में धूमधाम से मनाया जाता है। झूलाघाट के बाजार में काली नदी पार के जंगल धूरे की महिलाएँ काली के इस किनारे बसे कस्बे में नये कपड़े खरीदने आती हैं। होली, दिवाली का वहाँ उतना चलन नहीं, जितना कि गौरा (आँठू) का। वे काली के सनसनाते वेग की विपरीत धारा के लोग हैं होंसिया प्राण और चीमड़ जिजीविषा वाले। गौरा पर्व से पूर्व वह नये कपड़े खरीदने पार के बाजारों तक आते हैं। आँठू गौरा उत्सव के गीतों की पृष्ठभूमि वही हिमालय है जिसको आज पूरी तरह लूट खसोट कर उसके मूल निवासियों-रहवासियों को उससे बेदखल किया जा रहा है। यह अलग बात है कि आँठू जैसे जीवन और कृषि श्रम से जुड़े महत्व के त्यौहार को जिसमें गमरा (गौरा) पाँच किस्म के अन्न के पौधों से बनती है उस गौरा को भी अब ढोंगी सरकारें सरकारी मंच पर ले आई हैं। ये और कुछ नहीं है बल्कि एक जीती जागती संस्कृति को मार कर बाँध में डुबो कर उसे म्यूजियम में बदल देने की कवायद है।

किसी भी जगह की संस्कृति को वहाँ के लोग ही नहीं, वहाँ की प्रकृति भी बनाती है। यह देखा गया है कि जो लोग अपने मूल स्थानों से विस्थापित हुए हैं उनकी पूरी संस्कृति दो पीढ़ियों के भीतर ही खत्म हो गई । किसी भी संस्कृति को हम उसके स्थानीय प्रतीकों से अलग नहीं कर सकते अगर हम उसको उसके स्थानीय प्रतीकों से काट दें जो शेष बचा या तो बाजार हो बिक जाता है या फिर घुटता हुआ दम तोड़ देता है। क्योंकि इस नुकसान की भरपाई कोई नहीं कर सकता इसलिए बाँध कम्पनियाँ और सरकारें अपने कागजों पर कहीं पर भी इस नुकसान के बारे में कोई बात नहीं करती । गौरा लोक उत्सव हिमालय की महिलाओं का जीवनवृत्त है। इस लिहाज से यह विश्वधरोहर है। जिसमें आदिम मुखौटा उत्सव हिलजात्रा से लेकर हिरन चीतल स्वांग जैसे खेल समाहित हैं। बाँध बनाकर उसकी पूरी मौखिक परम्परा की हत्या करने के बजाय इसे संरक्षित करने की जरूरत है। रम्माण की तरह इस हिमालयी आदिम उत्सव को भी दो देशों की साझा विश्व धरोहर को संरक्षित कर पर्यटन को बढ़ावा दिया जा सकता है जिससे स्थानीय लोगों को सीधा रोजगार मिलेगा। न कि इस गौरा उत्सव के मूल क्षेत्र को डुबाकर।
(Kali river Heritage of India and Nepal )

गौरा आँठू उत्सव उत्तराखण्ड के कुमाऊँ मण्डल में विशेषकर पिथौरागढ़ जनपद में मनाया जाता है। पिथौरागढ़ जनपद तिब्बत और नेपाल की सीमाओं से घिरा हुआ सीमान्त जनपद है। यही कारण है कि आँठू उत्सव केवल उत्सव न होकर पश्चिमी नेपाल (काली पार) और भारत (काली वार) के साझा सांस्कृतिक संबन्धों की विरासत भी है, जो भारत और नेपाल के रोटी-बेटी के संबन्धों को भावनात्मक रूप से मजबूत करता है। लोक-संस्कृतियों का उद्देश्य केवल आनन्द प्रदान करना ही नहीं होता बल्कि एक-दूसरे की सुखदु:खात्मक अनुभूतियों को साझा करना भी होता है। आँठू मूलत: स्त्रियों का उत्सव है यह नेपाल (काली पार) और भारत (काली वार) के सीमान्त जनपदों- पश्चिमी नेपाल के बजाङ, दार्चुला, बैतड़ी और भारत के पिथौरागढ़, चम्पावत और अल्मोड़ा में मनाया जाता है। यह उत्सव आपस में इस तरह दोनों देशों से जुड़ा है कि राष्ट्रीय सीमा दोनों देशों के बीच कहीं नजर नहीं आती है। लोक संस्कृतियों का कार्य भी यही है कि वह मनुष्य को अपनी उस सीमा से परिचित कराती है जहाँ वह प्रकृति की असीम विराटता के साथ सीधा तादात्म्य स्थापित करता है।

आँठू, अठ्वालि या अठमी शब्द मूल संस्कृत के अष्टम या अष्टमी से उद्भूत है। आँठू कुमाऊँ में प्रचलित एक विषेष उत्सव है जिसमें गमरा या गौरा (पार्वती) मैसर (महेश्वर, शिव) के गीत गाये जाते हैं। यहाँ आठू का तात्पर्य भादों माह में पड़ने वाली अष्टमी से है कुमाऊँ क्षेत्र में भादौं की सप्तमी और अष्टमी के दिन स्त्रियाँ शिव और पार्वती की पूजा करती हैं। इसे दूर्वाष्टमी भी कहा जाता है। सप्तमी के दिन बिरुड़ (छोटे मटर) भिगोये जाते हैं। और नौले (पनघट) पर ले जाकर शुद्घ जल से धोये जाते हैं तथा स्नानोपरांत दूब, धागे के साथ नये परिधान भी पहने जाते हैं। दूसरे दिन गमरा का आगमन होता है। लड़कियां सौं (सवा) के पौधों से गमरा बनाती हैं और छापरे (डलिया)’ में रखकर उसे सिर में धारण करके बाजों-गाजों (ढोल नागाड़ो) के साथ आंगन में लाती हैं। गमरा को वस्त्राभूषण से सजाया जाता है और उसे नथ, माला पहनाई जाती है। रेशमी पिछोड़ा ओढ़ाया जाता है तथा आंगन में उसके जन्म से लेकर ससुराल जाने तक गीत गाये जाते हैं। इन्हीं गीतों के माध्यम से स्त्रियों के कठोर जीवन, उत्कट जिजीविषा, सामाजिक विडम्बनाएं, परंपरागत रूढियों, मान्यताओं, लोकाचार, आदि से स्त्री-पुरुष संबंधों एवं अंतर्विरोधों का पता चलता है। महिलाएँ उसे बिरुड़ (छोटे मटर) चढ़ाती हैं। तदुपरांत घर के लिपे-पुते पवित्र स्थान पर उसे स्थापित किया जाता है। पण्डित पाठ करता है। महिलाओं, बच्चों और वृद्घ सबके हर्षोल्लास में गमरा का आगमन दर्शनीय होता है। उसी दिन सायं काल स्त्री-पुरुष खेल (पारंपरिक नृत्यगीत चाँचरी) लगाते हैं। दूसरे दिन मैसर आते हैं, चूख (बड़े नीबू) के दानों से मैसर की मानवाकृति बनाई जाती है। उसे भी गमरा के पाश्र्व में प्रतिष्ठापित किया जाता है। पाँच-सात दिन तक खूब हर्षोल्लास व उत्साह देखने को मिलता है। अंत में ‘तेरी सेवा पूरी भै केदार’ (तेरी सेवा पूरी हुई शिव) कहते हुए गमरा-मैसर को मंदिर में रख देते हैं और फल फटकाने के उपरांत यह लोकोत्सव, हिलजात्रा (मुखौटा उत्सव) के आयोजन के साथ ही समाप्त हो जाता है।

गमरा-मैसर की उद्भावना लोक मानस के उस सरल, सहज, सौहार्दपूर्ण आह्लाद को इंगित करती है जो समस्त अभावों को सहते हुए प्रति वर्ष उत्कंठित होकर चिर नवीन रूप धारण करके आता है। आँठू गीत प्रबंध गीत है, अत: गौरा-मैसर इन गीतों के लौकिक संस्करण हैं जिनको एक तरह से हमारे लोक जीवन ने ही गढ़ा है इसलिए इस गीत में मैसर (शिव) डमरू की जगह बाँसुरी बजाते है और गौरा ठेठ पहाड़ी वाद्य बिणाई । इस गाथा का स्वरुप कुमाऊँ के जनजीवन से संपृक्त है। जो जीवन संघर्षों में जीता हुआ लोक मानस अभावों की विकरालता से कम्पित नहीं हुआ है अपितु उसकी अनुगूंज सहस्रों गुना वेग से हिमालय के उपकंठों को आन्दोलित करती है। इस गाथा में गौरा-मैसर (शिव-पार्वती) सामान्य नारी और पुरुष के रूप में चित्रित हुए हैं। जो अभाव से पीड़ित हैं और कठोर जीवन व्यतीत करते हैं। इस सम्पूर्ण गाथा में दोनों चरित्रों के माध्यम से हिमालय के लोक जीवन की विशद और व्यापक झाँकी प्रस्तुत की गई है।

हमारे लिए हमारी संस्कृति हमारी तथा हमारे पुरखों की पहचान है। इसे बचाने की लड़ाई हमें खुद ही लड़नी होगी। यह बचेगी तो हम बचेंगे।
(Kali river Heritage of India and Nepal )

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