कलावती का शौचालय मिशन

सुहैल वहीद

कलावती को खुशी है कि वह गरीबों के लिए साझा शौचालय बनाने और महिलाओं के सम्मान को बढ़ाने में कामयाब हुई। घरेलू  सफाई के लिए आमतौर पर महिलाओं को ही जिम्मेदार मानने वाले देश भारत में कलावती ने सामुदायिक सफाई की मुहिम छेड़ी।

कलावती पेशे से राजमिस्त्री हैं। यह भी उनका एक कारनामा है, क्योंकि भारत में आम तौर पर राजमिस्त्री के काम को पुरुष ही अंजाम देते आए हैं। उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में रेल की पटरियों के इर्द-गिर्द बसी राजा का पुरवा ऐसी बस्ती है जहाँ 1991 से पहले तक मल-मूत्र सड़कों पर बहा करता था और लोग इसी माहौल में जीने के आदी हो चुके थे। लेकिन अब वहाँ 50 सीटों वाला एक सामुदायिक शौचालय कामयाबी से चल रहा है और इससे लगे महिलाओं के पाँच स्नानागार भी अपनी कहानी खुद बयान कर रहे हैं।

कलावती इसे प्रकृति का वरदान मानती हैं कि शहरी झुग्गियों में काम करने वाली स्थानीय एन.जी.ओ. श्रमिक भारती से कलावती को उनके पति ने परिचित कराया और यहीं से कलावती ही नहीं राजा का पुरवा की किस्मत भी बदल गई। श्रमिक भारती के प्रोजेक्ट विनोद दुबे कलावती की तारीफ करते नहीं थकते। वह कहते हैं, ”कलावती में नेतृत्व की जबर्दस्त कला है, उनकी बातों में जादू है, महिलाएँ उनकी बात सुनती हैं और मान भी जाती हैं।”

उन्होंने कई गरीब बस्तियों की सैकड़ों महिलाओं को इस काम में लगा दिया। करीब चार सौ महिलाएँ उनके साथ अलग-अलग इलाकों  में उनकी अलख को जलाए हुए है। उनकी इसी कला का नतीजा था कि राजा का पुरवा में जब साझा शौचालय के लिए भूमि खरीदने की समस्या आई तो कलावती के ही कहने पर 50 हजार का चंदा भी इकट्ठा हो गया। बाकी पैसा अन्य संस्थाओं ने लगाया और बन गया सामुदायिक शौचालय।

कलावती हमेशा और हर हाल में खुश रहने की कला की मालिक हैं। उनकी साझा शौचालय बनाने की पहल राजा का पुरवा से राखी मंडी तक होती हुई अब अन्तर्राष्ष्ट्रीय स्तर पर पहचानी जा रही है। उन पर दो फिल्में बन चुकी हैं और कई पुरस्कारों के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया जा चुका है। साझा शौचालय बनाने के बाद कलावती की पहल पर एक और बड़ा काम हुआ, विकलांगों और नेत्रहीनों के लिए शौचालय बनाने का काम।

विनोद दुबे बताते हैं कि इसका स्वप्न भी कलावती ने ही देखा था। उनके मुताबिक नेत्रहीनों के लिए इस प्रकार के कमोड तैयार किए गए हैं कि वह रस्सी के सहारे वहाँ तक पहुँच जाएँ और उस पर बैठने में उन्हें किसी के सहारे की जरूरत न पड़े। इसी प्रकार विकलांगों के शौचालयों को कलावती ने स्वयं जमीन से जुड़ा हुआ ईंटों की इस प्रकार की देसी तकनीक से तैयार किया है कि उन्हें शौच करने में किसी तरह की तकलीफ न हो और किसी के सहारे की जरूरत न पड़े।

दो शादीशुदा बेटियों की माँ कलावती पूरी तरह से स्त्री मुक्ति आन्दोलन की हिमायती नजर आती हैं। वह कहती हैं, ”महिलाओं को जितना मिलना चाहिए था उतना नहीं मिला।” अपनी जवानी के दिन याद करती हुई वह इस बात की शिकायत करती हैं कि उन्हें क्यों नहीं पढ़ने दिया गया। अपनी नवासियों की पढ़ाई के लिए प्रतिबद्ध कलावती को मलाल इस बात का है कि वह जितना करना चाहती थीं अभी भी नहीं कर पाईं हैं।

कलावती मानती हैं कि पहल पर आपस में चंदा करके साझा शौचालय का निर्माण उनकी सोच से ज्यादा जरूरत का नतीजा है लेकिन वह यह बात मानने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं कि महिलाओं को आज के समाज में अवसर कम हैं या नहीं हैं। वह कहती हैं कि करने को बहुत कुछ है इसीलिए अब उन्होंने साझा शौचालय के बाद इलाके के गंदे पानी के मैनेजमेंट में श्रमिक भारती के साथ काम करना शुरू कर दिया है। इसके लिए अभी तक ढाई सौ सोख्ते गड्ढे तैयार किए जा चुके हैं। कलावती और विनोद दुबे दोनों का कहना है कि कानपुर में ही अभी काफी काम बाकी है।
(Kalavati’s Toilet