जीवन कथा-तीन : मेरे दादाजी

राधा भट्ट

दादी जितनी उतावली थीं दादाजी उतने ही गंभीर व शान्त थे। उनके साथ मैं रामगढ़ में अपने भाई व बाद में माँ और बहनों के साथ कुछ साल लगातार रही थी- उसके पूर्व भी जब-जब हमारा परिवार पिताजी के साथ आर्मी कैण्ट क्षेत्रों में रहकर वापस गाँव आता, तब भी उनके साथ हम रहते आये थे परन्तु उस काल की मुझे स्पष्ट याद नहीं है। वह दूसरा विश्वयुद्ध का काल था। पिताजी को अपने ट्रुप को लेकर जापानी सेना से मुकाबला करने युद्ध भूमि आसाम क्षेत्र में जाने का आदेश मिला था। वे तब सूबेदार थे। युद्ध भूमि में जाने से पूर्व उन्हें अपने परिवार से मिलने के लिए संक्षिप्त अवकाश मिला था। मेरे भावुक मन वाले पिताजी एक तरह से अपने गाँव व परिवार से अलविदा कहने के भाव से आये थे। उन्हें अपने बच्चों के भविष्य की चिन्ता थी। ‘‘अगर मैं युद्ध भूमि से वापस नहीं आया तो मेरे बच्चों की शिक्षा का क्या होगा?’’ इस प्रश्न का हल उन्होंने निकाल लिया था और उसके लिए दादा जी को भी राजी कर लिया था। यद्यपि दादा जी उस समय स्कूल और शिक्षा पर विशेष विश्वास नहीं करते थे। वे कहते थे, सब देने वाली धरती माता है, उसकी सेवा करने से कोई भूखा, नंगा नहीं रहता और उससे अधिक क्या चाहिए। ऐसा उनका दृढ़ विश्वास था। परन्तु पूरे गाँव में सर्वश्रेष्ठ अपने इस योग्य बेटे की बात तो वह चाहकर भी कभी टालते न थे। अत: मुझे व मेरे दाज्यू (बड़े भाई) को रामगढ़ भेजने की योजना में उन्होंने सहमति दे दी थी। क्योंकि वहाँ नारायण स्वामी ने एक हाईस्कूल प्रारम्भ कराया था। अभिभावक के रूप में हमें खिलाने-पिलाने और स्कूल भेजने की जिम्मेदारी भी दादाजी ने स्वीकार ली थी। उम्र के उस पड़ाव में वे गाँव से दूर नहीं जाना चाहते होंगे क्योंकि मुझे मालूम है कि वे रामगढ़ में रहते हुए हमेशा अपने गाँव के लोगों के लिए बातें करते थकते नहीं थे, तो भी हमारी शिक्षा के लिए उन्होंने कितना त्याग किया था। सारा परिवार धुरका में था और वे रामगढ़ में अकेले थे। दादा जी का जीवन मुख्यत: धुरका व छाना के बीच गुजरा था। अपनी युवावस्था में केवल कुछ सालों के लिए वे रामगढ़ में अंग्रेजों के फल-बागों में काम करने चले गये थे। जहाँ वे माली के रूप में काम करते थे और आठ आना मासिक वेतन पाते थे। उनकी कुशलता व ईमानदारी देखकर बाद में उनका वेतन मालिक ने एक रुपया कर दिया था। वे बताते थे कि विक्टोरिया का लटी वाला सिक्का हाथ में आने पर मन गर्व से भर जाता था। उसी काल में कभी उन्हें किसी वैद्य के सम्पर्क में रहने का भी अवसर मिला था, जिससे उन्होंने कुछ जड़ी-बूटियों की पहचान और उनके उपयोग की जानकारी रुचि के आधार पर हासिल कर ली थी। अपनी सच्चरितता व श्रमशीलता से वे और भी करते पर उन्हें घर वापस आना पड़ा क्योंकि वे एक ही भाई थे और खेती को सम्भालने में किसी पुरुष की जरूरत दादी को बड़ी तीव्रता से लगने लगी थी।
(Jivan Katha : Radha Bhatt)

दादाजी लटी वाले कुछ सिक्के अपनी कमर के साफे में बाँधकर घर आ गये। सही में कहें तो परिवार गरीब था, जमीन अधिक न थी। यों तो गाँव में सभी की लगभग वही स्थिति थी- ज्यादातर धुरका, पपोली व बयाली गाँवों में उन लोगों की छोटी-छोटी हिस्सेदारी थी। दादाजी का परिवार धीरे-धीरे बढ़ने लगा। सबसे बड़े दो पुत्र थे और बाद को चार कन्याएं थीं। अत: दादाजी ने छाना की जमीन दरख्वास्त में प्राप्त कर ली थी। छाना यानी चौमासे में गायों को जंगल के बीच पालने ले जानी वाली जगह यानी ‘खरिक’ उसी जगह पर एक गाड़ (छोटी नदी) व एक गधेरे (पतली जल धारा) से घिरी हुई सुन्दर उपजाऊ  जमीन दादा जी को दरख्वास्त में मिल गई। यह पनार नदी का जलागम क्षेत्र था। वह गाड़ पनार में मिलती थी। पनार तल्ला सालम व मल्ला सालम पट्टी की सीमा बनाती थी। तल्ला सालम माने कुछ पढ़ा-लिखा कुछ सुविधाओं वाला, दुनिया को जानने वाले लोगों का क्षेत्र और मल्ला सालम का अर्थ था एक अंधेरा क्षेत्र जहाँ न स्कूल था, न अस्पताल, न ही वे लोग अपने गाँवों से कहीं बाहर जाते थे। ऐसी स्थिति में गाँव का हर व्यक्ति अपने जीने के लिए एक-दूसरे की आवश्यकता में रहता था। बड़ी निकटता से एक-दूसरे में गुँथे हुए ऐसे गाँवों में एक दादाजी का वह पुश्तैनी गांव धुरका भी था। दुख सबको एक साथ दर्द करने लगता था और सुख में वे लोग आसानी से एक साथ हर्ष मग्न हो जाते थे। मैंने स्वयं देखा था कि उनकी हँसी बच्चों की तरह थी। हँसी आ गई तो पूरे तन-मन को हिला देती थी और रोके भी न रुकती थी।

वे लोग आदिवासियों की तरह लंगोट नहीं पहनते थे, पर उनकी छोटी धोती घुटनों को मुश्किल से ही छूती थी। कपड़ों को राख से धोते थे व बालों को भेकुल पेड़ की छाल या चिफलुआ की जड़ को कूटकर बनाई गई लार से धोते थे। उनके कपड़े यदि प्रारम्भ में सफेद भी रहे हों तो बाद में राख के रंग के ही हो जाते थे। उस असिंचित भूमि से जीवनयापन करने वाले वे लोग लगभग स्वावलम्बी जीवन जीते थे। केवल गुड़, नमक, सीरे और कपड़े के लिए वे दो दिन-दो रात की पदयात्रा करके हल्द्वानी मंडी आते थे। शायद अल्मोड़ा में मंडी का जैसा अच्छा, सस्ता सामान नहीं मिला होगा।
(Jivan Katha : Radha Bhatt)

उन लोगों की जरूरतें बहुत कम थीं और वे उन जरूरतों को अपने आसपास से ही पूरा करने में माहिर थे। हर घर में तम्बाकू पीने के लिए या तो नार्यल (नारियल में पानी भरकर उसमें एक खोखली डंडी फूंक लेने के लिए, कुछ ऊपर एक खोखली डंडी के ऊपर कुछ छोटी आकार की हुक्का में तम्बाकू और उसके ऊपर अंगारे होते थे) होती या फिर पीतल की चिलम। मेरे दादाजी तम्बाकू के बीज बोते और उसके पौधों के परिपक्व होने पर उन का चूर्ण करते व सीरे को उसमें मिलाकर बाकायदा उसकी पिण्डी बना लेते। घर का तम्बाकू है, एक फूंक लगाओगे तो सही, कहकर आने वालों का स्वागत करते। उस तम्बाकू के धँुए की मीठी-सी सुगन्ध मुझे भी अच्छी लगती थी। दादाजी के पास लोग घिरे ही रहते थे किसी न किसी समस्या के सुलझाव के लिए या फिर कुछ नई खबर बताने के लिए, जो किसी ने दोड़म (निकटस्थ छोटी बाजार) जाकर सुनी होगी।

एक और भी विशेष गुण था जिससे दादाजी गाँव की सेवा करते थे, वह था उनका जड़ी-बूटी का ज्ञान। किसी बच्चे, बूढ़े या जवान स्त्री या पुरुष को बुखार आ जाये, डायरिया हो जाये, ददूरे (छोटी माता) निकल आयें, कट जाये, चोट लग जाये तो भी लोग दौड़कर दादाजी के पास आते। हलकी तकलीफ रहने पर कुछ भी इलाज न करने की लोगों की मान्यता थी। तकलीफ कुदरती तौर पर ठीक हो जायेगी, यह उनका विश्वास था। रोग कुछ बढ़ जाय तो दादाजी को बुला ले जाते और दादाजी कभी-कभी तो रास्ते चलते खेतों की मेड़ों पर ही कुछ जड़ी-बूटी पा लेते और बीमार के पास जाकर उसको धोते-पोछते या घोटते-छानते, जो विधि अनुसार करना होता करते और जैसे सेवन करवाना हो वैसे बीमार को सेवन करवाते। पर बड़ी बात थी कि वे बीमार को छोड़कर घर नहीं चले जाते थे। उसके पास बैठे रहते, या तो हाथ से सहलाते रहते या उसे दिलासा दिलाते रहते कि वह जल्दी ही ठीक हो जायेगा। मुझे लगता है, उनके न जानते हुए भी उनकी यह मनोचिकित्सा औषधि से भी अधिक असर करती थी। रोगी के पूरे परिवार का माहौल आशान्वित हो उठता था। दादाजी रामगढ़ चले गये तो वे स्वयं भी अपनी उस सेवा की प्रवृत्ति का अभाव महसूस करते थे और गाँव भी उस सेवा के लिए तरसता था।

रामगढ़ में दादाजी हम दोनों भाई-बहनों को प्रेम से खिलाते थे। यद्यपि मैंने उन्हें धुरका या छाना में कभी खाना पकाते हुए नहीं देखा था पर रामगढ़ में तो वे एक कुशल रसोइया थे। उनका विश्वास था कि बच्चे ही नहीं बूढ़ों को भी घी जमकर खाना चाहिए। इसी से स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। मल्ला सालम के हमारे गाँवों से कभी-कभी लोग घी बेचने आते थे। मेरे दादाजी हमें खिलाकर स्कूल भेजने के बाद आँगन की उस दीवार पर अपनी चिलम लेकर बैठ जाते जिसके दो कदम नीचे से भवाली-भीमताल-हल्द्वानी की ओर पैदल जाने वाली सड़क जाती थी। उन्हें जो भी राह चलता आदमी दिखता, वे पूछ लेते, कहाँ से आ रहे हो? कहाँ जा रहे हो, थक गये होगे। एक फूंक तम्बाकू की लगा लो, थोड़ा विश्राम कर लो। नेकी और पूछ-पूछ। कई लोग खुशी-खुशी आ जाते उस बूढ़े के पास। गप्पें लगाने, तम्बाकू की तौंस मिटाने। यदि दादाजी देखते कि कोई कन्धे पर सिक (छीका) पर हड़पिया (काठ की बरनी विशेषत: घी रखने के लिए) या छोटी कण्टरी लटकाये जा रहा है तो उसे वे बुला ही लेते। उसके घी को सूंघकर थोड़ा-सा हथेली के पिछले भाग पर मलकर जाँचते। उन्हें सौदा जमता हुआ लगता तो एक छोटी नहीं, बड़ी-सी घी की डली मुंह में डाल लेते और घी खरीद लेते। दाम होता अधिक से अधिक पाँच रुपये सेर। इस प्रकार हमें रोज घी खिलाने का प्रबन्ध वे बैठे-बैठे ही कर लेते।
(Jivan Katha : Radha Bhatt)

दादाजी बहुत मिलनसार थे। खान नामक उस गाँव में, जिसमें दरम्वाल लोग रहते थे, सभी से दादाजी की मित्रता हो गई थी। कभी दादाजी कोई अच्छी सब्जी बनाते या खीर-हलुआ जैसे पकवान बनाते तो एक छोटे लोटे में भरकर उनमें से किसी-किसी परिवार के पास दे आने के लिए मुझे भेजते थे। दाज्यू ऐसे काम करने को राजी नहीं होते थे। तो मुझे ही जाना होता था। छोटी-सी पगडंडी से दो-तीन खेत नीचे उतरकर फिर सीधे रास्ते से 10 मीटर मंदिर पर उनका घर था, जहाँ लोटा देना था। पर शाम के झुटमुटे में इतना भी मेरे लिए बहुत होता था। मैं डरती थी क्योंकि गाँव के लोगों से मैंने भूतों की बहुत-सी कहानियाँ सुनी थीं। मेरे मन पर ऐसी छाप डाली गई थी कि जैसे मानवों का संसार है वैसा ही भूतों का भी संसार है। अत: वे अंधेरा होते ही किसी भी कोने पर मिल सकते हैं। ऐसी बहुत सारी कथाएँ या घटनाएँ मेरी सहेली को मालूम थीं और वह मुझे बताती रहती थी, उसके पहले मेरा भूतों से कोई परिचय नहीं था।

दादाजी हम दोनों को प्यार से खिलाते व आराम से रखते थे, पर गलती या शैतानी करने पर एक डंडी से पीठ पर मारने में भी विश्वास करते थे। उनकी डंडियाँ दाज्यू ही ज्यादा पाते थे। मुझे तो कभी-कभी ही वह स्वाद मिलता था। वे मुझे चूल्हे में आग जलाने का व सिल पर मसाले पीसने का काम करने को कहते। उन दिनों माचिस रखने का रिवाज कम प्रचलित था। सग्गड़ में राख के नीचे जलते अंगारों को छिपाकर रखते थे और जब दूसरी बार आग जलाने की आवश्यकता होती तो राख हटाकर अंगारा निकाल लेते। रात को सोने से पूर्व नियम से अंगारा राख में ढकने का एक पक्का नियम होता था। यदि कभी राख के अन्दर हवा घुसने से अंगारा छोटा रह जाता तो उससे आग सुलगाना कठिन हो जाता था। उसमें सूखी घास व पतली लकड़ियां लगाकर मैं फूंक मारती जाती थी। दादाजी कहते, ‘जो एक छोटी चिन्गारी से आग जला दे, वह अच्छी धरणी (गृहिणी) बनती है’ अच्छी बनने के जोश में भले ही वह गृहिणी ही क्यों न हो, मैं गला सूखने तक फूंक मारती जाती और अन्त में कुछ धुंआ उठता और धप करके आग जल जाती। इतनी मेहनत के बाद मिट्टी तेल एक दुर्लभ वस्तु की तरह मिलता था, राशन के नाम पर तीता बाजरा मिलता। अत: दादाजी खान गाँव के किसानों से गेहूँ व हाथ कुटे चावल खरीदने के लिए उनकी खुशामद करते थे, आग जलाने की तरह वे मुझे सिल पर साबूत हल्दी, धनियां, जीरा आदि पीसना भी सिखाते और कहते, ‘‘जिसके पिसे हुए मसाले नौणी (मक्खन) जैसे मुलायम बन जाते हैं, वह ससुराल में सबसे अच्छी बहू होती है।

अच्छे कामों को देखकर वे शाबासी देते थे पर गलत होने पर डन्डी से पीटते भी थे। मेरी ड्यूटी लगाई थी कि मैं तल्ला रामगढ़ की बाजार के पास ही एक घर से हमारे एक चमकदार पीतल के लोटे में दूध लेकर आऊं। स्कूल जाने के पहले दूध लाकर रसोई घर में रख जाती थी। उस दिन भी रोज की तरह दूध का लोटा लेकर घर की ओर की चढ़ाई चढ़ रही थी कि देखा सड़क के किनारे बहुत सारे बच्चे व कुछ बड़े नीचे की ओर कुछ देख रहे हैं। मेरा बालमन अपनी उत्सुकता का संवरण नहीं कर पाया। मैं भी उनके बीच खड़ी हो गई, देखती क्या हूँ कि नीचे एक छोटे-से घर के आंगन में एक काले बकरे को काटने की तैयारी हो रही थी। एक आदमी ने तेज धारदार बड़े-से बड्याठ से बकरे की गर्दन एक ही चोट में अलग कर दी। उसकी धड़ की ओर के हिस्से से रक्त का फव्वारा फूट पड़ा। उस घर की महिला ने उस एक धारा के नीचे एक बड़ी-सी परातनुमा थाली लगा दी और थाली भर खून वह महिला खड़े-खड़े ही गटक गई। उसके बाद उसने हँसते हुए हम दर्शकों की ओर देखा। खून से रंगे लाल होंठ और उनके बीच सफेद दंत पंक्ति देखते ही मैं कांप गई और दूध का लोटा मेरे हाथ से नीचे गिर पड़ा। उसका आधे से ज्यादा दूध बह गया। मैंने जल्दी लोटा सम्भाला और कांपती टांगों से मैं घर की ओर तेजी से चल दी। आधे दूध का क्या करूं? दादाजी की डंडी की मार अपनी पीठ और कमर पर महसूस करने लगी। चलते-चलते एक सार्वजनिक नल दिखाई दिया। तुरन्त डर से सहमे दिमाग में एक खुराफात पैदा हुई और लोटे का शेष भाग मैंने नल के पानी से भर दिया।’’
(Jivan Katha : Radha Bhatt)

दादाजी रसोई घर के सारे काम निपटाकर अपनी हुक्का फरसी (चिलम) लेकर आंगन  की दीवार पर बोरा बिछाकर बैठ गये थे और तम्बाकू गुड़-गुड़ा रहे थे। वहीं से बोले, आज देर क्यों की? अब जल्दी कर स्कूल के लिए देर हो गई, दूध को अलमारी में रखकर उसका दरवाजा बन्द कर देना, नहीं तो बिल्ली उसे गिरा देगी। मुझे थोड़ी-थोड़ी खुशी हुई कि दादाजी ने रोज की तरह दूध का लोटा अपने हाथ में नहीं लिया। मैंने कुछ घण्टों की उस बचत से ही खुशी मना ली। बस्ता पकड़ा और भागते हुए स्कूल को दौड़ गई।

किन्तु शाम को तो उसी घर में उन्हीं दादाजी के पास आना था। मेरे पैर आगे नहीं बढ़ रहे थे। आँखों के आगे दादाजी और उनके हाथों की डन्डी दिखाई पड़ती और पैर थम जाते, मेरी उंगलियाँ काँप रही थी। घर पहुँची किसी तरह, देखा दाज्यू आज मुझसे पहले घर पर पहुँच गये थे। उन्होंने पूछा, देर में क्यों आई है? बस्ता रखते हुए सिर झुकाये ही मैंने कहा, ‘‘यों ही’’। दादाजी ने दूसरे कमरे में सुन लिया। वे गुस्से से तमतमाते हुए आये। शायद उन्होंने दिनभर मथकर अपना गुस्सा बहुत तेज कर लिया था- एक हाथ से मेरे छोटे से कान को पकड़ा और दूसरे हाथ में डंडी पकड़ी थी। मुझे वे अपने प्यारे दादा जी नहीं लग रहे थे, चिल्लाकर बोले, ‘‘सारा दूध पी गई और लोटे में पानी भरकर रख गई। ले और पियेगी दूध,’’ और डंडी से मेरी पीठ और कमर पर तड़ातड़ मारने लगे, ‘‘आज तुझे रात भर गोठ्या दूंगा-खाना भी नहीं मिलेगा, बिस्तर भी नहीं।’’ मैं रोती जा रही थी- कान ऐसा हो गया था कि शायद उखड़ ही जाता। मेरा सारा बल क्षीण हो गया था। वास्तविक-घटना बताने का साहस भी नहीं हो रहा था।

दाज्यू गंभीर होकर इधर-उधर बेमतलब ही चल-फिर रहे थे। ज्यादातर तो उन्हें डंडी की मार का सामना करना पड़ता पर वे एक डन्डी पड़ते ही भाग खड़े होते थे और दादाजी के हाथ नहीं पड़ते थे। अभी उनके मन में क्या चल रहा था पता नहीं। शायद बाद को वे मुझे इसके लिए चिढ़ायेंगे।
(Jivan Katha : Radha Bhatt)

अन्त में दादाजी ने कान छोड़ दिया और ‘‘देखा, ऐसी बिगड़ गई है अभी से। अभी तो मिट्टी के नीचे की है तो भी ऐसी चालाकी करती है।’’ कहते-कहते रसोईघर की ओर चले गये। मैं वहीं बैठी-बैठी सुबकती रही-मुझे सुनने वाला और ढाँढस बँधाने वाला वहाँ कौन था? दादाजी ने अंधेरे गोठ में बंद नहीं किया था, वही खुशकिस्मती थी। खाना बना लेने के बाद दादाजी दाज्यू को खाना देने से पूर्व थाली में दो चुपड़ी गरम रोटी, सब्जी और गुड़ का एक टुकड़ा रखकर मेरे सामने ले आये- और प्यार से मेरे सिर पर हाथ रखकर बोले ‘‘खा, पोथी अब से ऐसी गलती नहीं करना हाँ, उठ खा ले।’’ मैं दादाजी के घुटने पकड़कर उनसे चिपक गई और हिकुरि (हिचकी) भर-भर कर कहने लगी, ‘‘मैंने दूध नहीं पिया, मेरे हाथ से लोटा गिर गया़. दूध बह गया। मुझे आपकी डर लग गई तब़… तब़… तब…।’’ मैं और भी जोर से रोने लगी। दादाजी समझ गये उन्होंने मुझे अपनी गोद की ओर ले लिया। मेरे आँसू पोछ दिये। दाज्यू से पानी मंगाकर एक तसले में मेरा मुँह हाथ धुलाया और खुद रोटी का ग्रास तोड़कर मेरे मुँह में डाला। वे मेरी बात को सच मानते थे। कहते भी थे, ‘‘ये झूठ नहीं बोलती।’’

दूसरे-तीसरे रोज मैंने सुना वे किसी से कह रहे थे, ‘‘इन बच्चों का पिता कहाँ और माँ कहाँ? यहाँ तो जो हूँ मैं ही हूँ- पढ़ाई के नाम पर इतने छोटे बच्चों को भी बनवास दे रखा है, क्या बताऊँ’’ यह था मेरे दादाजी का आन्तरिक स्वरूप।

रामगढ़ में कुछ सालों से रहने के कारण उनकी दूर-दूर तक जाने-चलने की आदत छूट गई थी। वे दिनभर आँगन की दीवार पर बैठे-बैठे ही समय बिता देते थे पर जब नई जमीन में हमारे नये मकान का निर्माण प्रारम्भ हुआ तब वे धीरे-धीरे वहाँ जाते थे और रविवार को हमें भी साथ ले जाते थे। वहाँ मकान का निर्माण करने वाले मजदूर, राजमिस्त्री, बढ़ई आदि सभी धुरका के या वहाँ के आसपास के गाँवों के परिचित लोग थे। दादाजी उनसे मिलकर और अपनी मल्ला सालम के लहजे में कुमाउँनी भाषा बोलकर बहुत खुश होते थे। सालम के लहजे व रामगढ़ के लहजे में अन्तर था। यद्यपि भाषा तो कुमाउँनी ही थी, पर अपने-अपने लहजे में बोलना ऐसा स्वाद देता है, मानो अपने घर के नौले या धारे के पानी का स्वाद हो।
(Jivan Katha : Radha Bhatt)

घर बन गया और हम किराये का घर छोड़कर नये घर में आ गये। हमारे लिए स्कूल थोड़ा दूर हो गया पर दौड़ने, भागने, लकड़ी बीनने के लिए खूब बड़ा क्षेत्र मिल गया। बाद को ईजा मेरी तीन बहनों को लेकर धुरका से आ गई तो गाय-भैंस भी गोठ में बँध गई और कुमाउँनी कृषक लड़की की तरह मेरी दिनचर्या प्रारम्भ हो गई। दादाजी मेरी इजा से कहते रहते, ‘‘इसके पिता ने इसे पढ़ने के लिए यहाँ भेजा है, इसे पढ़ने का समय भी देना। केवल काम ही नहीं करवाना।’’ काम भी सीखना ही है। अब बड़ी हो गई है। यह इजा का दृष्टिकोण होता।

धुरका, बयाली, पपोली या काना, बलसुना, जागेश्वर, टेवली से कोई न कोई हमारे घर पर आते रहते। उनसे दादाजी न जाने कितने छोटे-बड़े हजारों प्रश्न पूछते। यदि बताया जाता कि अमुक का देहान्त हो गया तो वे तुरन्त प्रश्न करते, ‘‘उसके ऊपर किसी प्रकार का ऋण तो नहीं था?’’ यदि उत्तर ‘हाँ’ में रहा तो बहुत दुखी होकर कहते, ‘‘अरे, वह अभागा अगले जन्म के लिए भी कर्जदार बनकर चला गया।’’ ऋण का उनकी नैतिकता में कोई स्थान ही नहीं था, वे कहते थे, ‘‘कर्ज लेने से भूखों मरना अच्छा, कर्ज लेकर उसे न चुका पाना तो मानो महापातक ही था, उनकी नीतिमत्ता में।’’ दादी के निधन के बाद वे बहुत उदास हो गये थे, बार-बार कहते, वह मुझे छोड़कर क्यों चली गई? उनका मन खड़ गया था। पहले वे पिताजी के पत्रों के लिए पूछते रहते थे, ‘‘चिट्ठी आई क्या तेरे बाबू की?’’ अब वह भी नहीं पूछते, किसी काम को करने या न करने की सलाह लेते तो कह देते, जीऽकरछा (जो चाहे करो)। दादाजी इतने अनमने हो गये थे। बस उनका स्नान-ध्यान व उनकी संध्या नियमित चलती और दिनभर में दो-चार बार ‘‘माँ उठा ले अब’’ की गुहार चलती रहती।
(Jivan Katha : Radha Bhatt)

पिता जी दादी के निधन के छ: माह बाद छुट्टी में जब घर आये तो दादाजी ने पिताजी से प्रतिदिन अपना जिदभरा अनुरोध लगाये रखा कि उन्हें धुरका पहुँचा दिया जाय। ‘‘मैं वहीं मरना चाहता हूँ ताकि उसी तिथाण (श्मशानघाट) में मेरा अग्नि संस्कार हो, जहाँ तेरी माँ का हुआ है। मेरे सपने में वह मुझे बुला रही है। इस लोक में अब न सही, उस लोक में तो हम मिलेंगे’’ उन्हें धुरका पहुँचाना ही पड़ा। शायद वहाँ पहुँचकर उन चेहरों को देख, उन बोलोें को सुनकर उन्हें आत्मिक विश्राम मिला होगा, जो उनके चिर-परिचित व जीवन से जुड़े लोगों के थे। उनको दादीजी का बुलावा भी पूर्ववत तीव्रता से महसूस होता रहा। दादाजी के जाने के एक साल बाद दादाजी भी बिना किसी रोग के गोलोकवासी हो गये। किसी प्रकार का शारीरिक दु:ख-दर्द उनकी मृत्यु का निमित्त नहीं बना। हमने यों भी दादाजी को कभी बीमार होते नहीं देखा था। सामान्य सर्दी जुकाम मात्र ही कभी होता था।

सोचती हूँ, दादाजी व दादी के सम्बन्धों की यह आत्मिक प्रगाढ़ता ही थी जो शारीरिक और भौतिक न होकर आन्तरिक जुड़ाव की मिसाल बन गई थी। यह मिसाल थी पूरे गाँव के लिए और हम सबके लिए भी, जो उनकी भावी पीढ़ी थे।
(Jivan Katha : Radha Bhatt)

क्रमश:

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