हालात बदलने में अब देर नहीं
पूरन जोशी
किसी समाज का विकास तभी संभव है जब उसकी आधी आबादी को शिक्षा, स्वास्थ्य तथा रोजगार से सम्बन्धित समुचित सुविधा प्राप्त हो।
महिलाएँ हर समाज की धुरी मानी जाती हैं परन्तु हकीकत यह है कि उच्च वर्ग से लेकर निचले वर्ग तक महिलाएँ महिला होने का अभिशाप झेलती हैं। हर वर्ग में महिलाओं के साथ भेदभाव है। हालांकि यह भेदभाव हर वर्ग में भिन्न-भिन्न किस्म का है। प्रस्तुत लेख असंगठित क्षेत्र में होने वाले भेदभाव को उजागर करता है। लेख का दायरा उत्तराखण्ड के तराई संभाग में आने वाले सितारगंज-खटीमा क्षेत्र (जिला उधमसिंह नगर) से जुड़ा है। इस इलाके में मुख्य रूप से सिक्ख, थारू तथा बंगाली विस्थापित निवास कर रहे हैं। इस प्रकार यह इलाका बहुधर्मीय तथा बहुजातीय वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है।
उच्च वर्ग की महिला अत्यधिक खुलापन, अय्याशी तथा नैतिक मूल्यों के ह्रास का दंश झेलती है, मध्यम वर्ग की महिला को तमाम सांस्कृतिक ताने-बाने को बनाये रखना है, जिसमें महिला की स्थिति दोयम दर्जे की है। अपने वर्ग के भीतर निम्न वर्ग की महिला को समान र्आिथक अधिकार प्राप्त हैं। उस पर बाहर जाकर काम करने की कोई मनाही नहीं है। लेकिन ऐसी महिला को बाहरी समाज की प्रताड़ना प्रतिदिन झेलनी होती है। यह लेख ऐसे ही वर्ग की कहानी कहता है। यह वर्ग है असंगठित श्रम से जुड़ी हुई महिलाओं का।
असंगठित श्रमिक का अर्थ
असंगठित श्रम से तात्पर्य श्रम के उस क्षेत्र से है जहाँ इकाइयाँ छोटी एवं बिखरी हुई हैं तथा सरकारी नियंत्रण से बाहर हैं। रोजगार सुरक्षित नहीं है अर्थात् आज है, कल नहीं है। श्रमिकों को बिना किसी पूर्व सूचना के बिना कारण बताये कार्य से हटाया जा सकता है तथा किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा नहीं है। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या का 48.26 प्रतिशत महिलाएँ हैं तथा उनमें से 25.67 प्रतिशत महिलाएँ श्रमिकों के रूप में कार्य कर रही हैं। इस प्रकार एक बड़ी संख्या में महिलाएँ श्रमिकों के रूप में कार्य कर रही हैं। विश्व स्तर पर जब हम देखते हैं तो अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार विश्व में 50 प्रतिशत आबादी महिलाओं की है। इसका 30 प्रतिशत श्रम शक्ति के रूप में कार्यरत है। यह कुल श्रम के घण्टों का 60 प्रतिशत है। परन्तु वे विश्व की कुल आय का 10 प्रतिशत ही प्राप्त कर पाती हैं। तथा सम्पूर्ण सम्पत्ति का केवल 1 प्रतिशत ही उनके हिस्से में आ पाता है। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व स्तर पर भी स्थितियाँ संतोषजनक नहीं हैं। लगभग 400 मिलियन व्यक्ति भारत में असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं। जिनमें 120 मिलियन महिलाएँ हैं।
असंगठित श्रम की श्रेणियाँ
राष्ट्रीय सेम्पल सर्वेक्षण संगठन के अनुसार 1999-2000 में संगठित व असंगठित क्षेत्र में कुल रोजगार 39.7 करोड़ था। इसमें 2.8 करोड़ संगठित क्षेत्र में तथा 36.9 करोड़ असंगठित क्षेत्र के अन्तर्गत था। असंगठित क्षेत्र की कई श्रेणियाँ हैं। इनका विवरण इस प्रकार है।
It’s not too late to change the situation
उद्यम के आधार पर वर्गीकरण
छोटे तथा सीमान्त किसान, भूमिहीन कृषि श्रमिक, महुए, पशुपालन से जुड़े लोग, बीड़ी बनाने वाले, उत्पादों पर लेबल लगाना, उनकी पैकिंग करना, निर्माण कार्य, बुनाई, सिलाई, ईटों के भट्टे पर कार्य करने वाले लोग, तेल की मिलों पर कार्यरत लोग।
रोजगार की प्रकृति के आधार पर
संलग्न कृषि श्रमिक, बंधुआ मजदूर, कान्ट्रेक्ट तथा कैजुअल श्रमिक।
सेवा श्रेणी के अन्तर्गत श्रमिक
दाइयाँ, घरेलू नौकर, नाई, फल तथा सब्जी विक्रेता तथा अखबार वाला।
अध्ययन क्षेत्र में उपरोक्त में से कृषि श्रमिक, निर्माण कार्यों से जुड़े लोग, लेबल लगाना तथा पैकिंग करने वाले लोग आते हैं। जिनका विस्तृत विवरण आगे है। कृषि श्रमिक से अर्थ उन व्यक्तियों से है जो कृषि कार्य में किराये के मजदूर के रूप में कार्य करते हैं तथा वर्ष के आधे से ज्यादा दिनों तक जिन्होंने सिर्फ कृषि के क्षेत्र में ही कार्य किया हो। (प्रथम कृषि जाँच समिति 1950-51) 1991 के सैन्सस के अनुसार भारत में 7.46 करोड़ व्यक्ति कृषि श्रमिकों के रूप में कार्यरत हैं जिनमें से आधी संख्या महिलाओं की है। अध्ययन क्षेत्र भौगोलिक दृष्टिकोण से तराई संभाग के अन्तर्गत आता है। यह भाग कृषि के दृष्टिकोण से अत्यन्त उपजाऊ है। भूमि का अधिकांश भाग सिक्खों तथा थारू जनजाति के पास है। अब थारुओं के पास जमीन कम रह गई है। बंगाली विस्थापितों का समुदाय भी यहाँ है। इस समुदाय की महिलाएँ कृषि श्रमिकों के रूप में अधिक संख्या में कार्यरत हैं। थारू महिलाएँ भी श्रमिकों के रूप में कार्य करती हैं। इन महिलाओं की कई समस्याएँ हैं।
जब खेती का काम नहीं होता, ये बेराजगार हो जाती हैं। इन्हें दूसरा रोजगार तलाशना पड़ता है। इन परिस्थितियों में ये कर्ज लेने को बाध्य होती हैं। अगर कार्य से पहले ये अग्रिम कर्ज लेती हैं तो कार्य का भुगतान ही नहीं होता।
दस-बारह घंटे काम करने से ये अस्वस्थ हो जाती हैं। लगातार धान के पानी भरे खेतों में काम करने से इनकी उंगलियाँ गल जाती हैं। मजदूरी इतनी भी नहीं होती कि ये अपना भरण-पोषण कर सकें। स्वास्थ्य की ओर देखना तो अलग बात है। इनकी मजदूरी निश्चित भी नहीं है।
कम मजदूरी और अधिक काम यही होता है इनके साथ। इनसे जो काम कराये जाते हैं वे हैं- फसल को पानी देना, गुड़ाई, निराई, कटाई करना, धान की पौध रोपना। इन कार्यों में निश्चित मजदूरी नहीं है। इसलिए उनके साथ मनमाना व्यवहार होता है।
कुछ महिला श्रमिक भवन निर्माण से जुड़ी हैं। चूंकि महिलाओं के पास भवन निर्माण सम्बन्धी तकनीकी कार्य कुशलता का अभाव होता है, इसलिए इनसे गैर तकनीकी कार्य करवाये जाते हैं। जैसे- तगार में पानी डालना, पत्थर ढोना, दीवारों पर तराई करना। चिलचिलाती धूप में भी ये काम करती हैं पर ठेकेदार इनके साथ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाता है। मजदूरी कम मिलती है और समय से भी नहीं मिलती। महिला श्रमिक संगठनों का अस्तित्व न होने से इनके साथ कभी न्याय नहीं हो पाता। दुख व बीमारियों का समय इनके लिए बड़ा कठिन होता है। घर में भी अगर इनकी परिस्थितियाँ सही नहीं हों तो जिन्दगी दुश्वार बन जाती है। एक श्रमिक है मुन्नी। एक निर्माणाधीन भवन में यह काम करती है। एक समय था जब उनके पास कई बीघा जमीन थी। पति की शराब व जुए की लत के कारण सारी जमीन बिक गई। मजबूरन उसे मजदूरी करनी पड़ी। आलम यहाँ तक है कि पति कार्यस्थल पर आकर उससे पैसे लेने आ धमकता है। ऐसी कई स्थितियाँ हैं कि महिलाएँ काम करती हैं और साथ ही पति के शोषण का शिकार बन रही हैं।
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उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद तराई में रोजगार के साधनों को बढ़ाने के लिए कई कम्पनियों की स्थापना की गई है। इन कंपनियों में हाइंज, टाटा आदि कंपनियाँ हैं। महिलाएँ व युवतियाँ इन कंपनियों में उत्पादों पर लेबल लगाने व इन्हें पैक करने का काम करती हैं। शुरूआत में इन्हें प्रशिक्षु के तौर पर रखा जाता है तथा 127 रु. प्रतिदिन मजदूरी मिलती है। तीन महीने बाद प्रशिक्षण समाप्त हो जाता है और 150 रु. प्रतिदिन मिलते हैं। वे दस-बारह घंटे काम करती हैं। ये ठेकेदार के अधीन कार्य करती हैं। इस ठेकेदारी प्रथा के खिलाफ आन्दोलन भी चलाया गया। यहाँ पर काम करने की दशाएँ तो अच्छी हैं लेकिन बात वहीं अटक जाती है, कम मजदूरी व अधिक काम। पुरुष तो ओवर टाइम करके कुछ ज्यादा कमा लेते हैं किन्तु महिलाओं को समय से घर जाकर अन्य कार्य भी देखने होते हैं। अत: उन्हें वही निश्चित भुगतान प्राप्त होता है। ओवर टाइम न करने का एक अन्य कारण सुरक्षा सम्बन्धी भी है। गाँव घरों से आने वाली महिलाएँ बहुत दूरी तय करके आती हैं। जगह बड़ी हो या छोटी, अच्छी हो या बुरी महिलाओं के लिए एक-सी स्थितियाँ हैं। कुछ जुझारू महिलाएँ हैं जिन्हें देखकर आशा का संचार होता है। ऐसी ही एक युवती है बसंती, जो महाविद्यालय में गृहविज्ञान विषय से एम.ए. कर रही है। वह सुबह नौ बजे से बारह बजे तक कक्षाएँ पढ़ने कालेज आती है फिर दो बजे से सिडकुल में नौकरी करती है। अपनी पढ़ाई का खर्चा स्वयं ही उठा रही है। गर्मी हो या सर्दी साइकिल से कालेज आना-जाना तथा फिर कंपनी जाना। ऐसे उदाहरण कम जरूर हैं पर रोशनी दिखाते हैं।
श्रम का एक अन्य रूप भी है। शादियों के मौसम में कुछ महिलाएँ बर्तन धोने का कार्य करती हैं। शाम से ही ये महिलाएँ शादी वाले घर में आ जाती हैं। रात भर बर्तन धोने का काम करती हैं। लोगों के घरों में तो ये महिलाएँ बर्तन धोने का कार्य करती ही हैं किन्तु शादियों में रात्रि के समय काम करना इन महिलाओं की सुरक्षा पर प्रश्न चिह्न लगा देता है। जब इन महिलाओं से मजदूरी पूछी गई तो पता चला कि 50 से 200 रुपये प्रति रात्रि के हिसाब से ये महिलाएँ मजदूरी पाती हैं। शादियों में तरह-तरह के लोग आते हैं। शराबी इन पर छींटाकशी करते हैं। जहाँ पूरा घर शादी के जश्न में डूबा होता है, ये महिलाएँ साठ वाट के बल्ब की धुंधली रोशनी में रातभर बर्तन धोती दिखाई देती हैं। यह उनके धुंधले जीवन व भविष्य की कहानी कहता है।
उपरोक्त अध्ययन से एक बात तो सामने आई कि असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली ये महिलाएँ सन्तुष्टि से बहुत नीचे का जीवन स्तर जी रही हैं। कम आमदनी उनके दैनिक जीवन की वस्तुएँ भी नहीं जुटा पाती। उनका विवाह होता है, वे बच्चे पैदा करती हैं, और बूढ़ी हो जाती हैं लेकिन उनका जीवन एक समान रहता है। यद्यपि महिला श्रम शक्ति देश की सम्पूर्ण श्रम शक्ति का एक तिहाई है फिर भी ये महिलाएँ गम्भीर समस्याओं का सामना करती हैं- कार्य की निरन्तरता न होना, असुरक्षा, मजदूरी में पक्षपात, चिकित्सकीय सुविधाओं की कमी। महिलाएँ गरीब और अशिक्षित होने के कारण उनका शोषण भी आसानी से हो जाता है। वे अस्वच्छ वातावरण में रहती हैं जो कई प्रकार की खतरनाक बीमारियों का कारण बनता है। महिलाएँ पुरुषों से ज्यादा काम करती हैं, घर के बाहर भी। फिर भी उनके कार्य को द्वितीयक दर्जा ही प्राप्त हो पाता है। ये महिलाएँ अपने अधिकारों के विषय में भी जागरूक नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि कानूनों की कमी है लेकिन जमीनी स्तर पर कानून लागू नहीं हो पाते। उन्हें अपने लिये बने कानूनों की जानकारी नहीं है। स्वयं सेवी संगठन तथा श्रम संगठन इनकी स्थिति सुधारने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल कर सकते हैं। इनके साथ समस्या है कि इन्हें अधिकारों व कानूनों की जानकारी नहीं है। इसलिए ये अन्याय का शिकार बन रही हैं। महिला संगठनों तथा सरकार की भूमिका बनती है कि वे इन्हें जागरूक करने के लिए कार्यशालाओं का आयोजन करें। महिलाओं को प्रशिक्षण मिले ताकि वे कोई छोटा-सा उद्यम प्रारम्भ कर सकें; जैसे- अचार, पापड़, फल सब्जी उत्पादन, सिलाई-कढ़ाई आदि। उद्यमों में वे स्वयं ही मालिक होंगी। एक बार संगठित होने के पश्चात् ये अपनी लड़ाई स्वयं ही लड़ना सीख जायेंगी। तमाम संघर्षों के बाद इनकी जिजीविषा कम नहीं होती, यही क्या कम है।
तुम मेरी सम्पूर्ण शक्ति को छीन लो,
तुम करो मेरा पूरा शोषण,
तुम बना दो मुझे निर्बल।
लेकिन मैं तो अब घास बन गई हूँ,
जो कई बार कुचले जाने के बाद
जो कई बार कटने के बाद
फिर अंकुरित होती है धरती के आँचल पर।
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