इरावती कर्वे- एक महान समाजविज्ञानी

इंदु पाठक

महिलाओ, जब पुरुषों से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती हो, तो केवल समान अधिकारों के लिए संघर्ष क्यों? हमेशा और अधिक अधिकारों, और अधिक अधिकारों के लिए संघर्ष करो।’

महिलाओं को प्रेरित करने वाला व अपने हक को प्राप्त करने के लिए उत्साहित करने वाला उपरोक्त वाक्य, पिछली शताब्दी की एक ऐसी समाजशास्त्री व मानवशास्त्री महिला का है जिन्होंने उस दौर में जबकि महिलाओं का घर से बाहर निकलना व शैक्षिक अधिकारों को प्राप्त कर सकना सम्भवत: विचारणीय भी नहीं था, शैक्षिक स्तर पर उच्चत्तम लक्ष्यों को प्राप्त किया तथा अपनी बौद्धिक क्षमताओं, सक्रिय अकादमिक गतिविधियों एवं साहित्यिक रचनात्मकता के क्षेत्र में उच्चत्तम मानदण्डों को प्राप्त किया। ये हैं, प्रसिद्ध समाजविज्ञानी, शिक्षाविद् व साहित्यकार ‘इरावती कर्वे’।

तत्कालीन ‘बर्मा’व आज के म्यांनमार में 15 दिसम्बर 1905 को वहाँ कार्यरत इंजीनियर हरिगणेश करमाकर के घर इरावती का जन्म हुआ। बर्मा की प्रसिद्ध नदी ‘इरावती’के नाम पर माता-पिता ने बेटी का नाम इरावती रखा। कालान्तर में यही इरावती डॉ. इरावती कर्वे के नाम से शिक्षा व साहित्य के क्षेत्र में एक ऐसी शख्सियत के रूप में उभरीं जिन्होंने न सिर्फ राष्ट्रीय बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बनाई।

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की ख्याति प्राप्त शोधार्थी तथा उत्कृष्ट लेखिका डॉ. इरावती कर्वे नारी-स्वतंत्रता व समानता के मुद्दों से भी स्पष्ट सरोकार रखती थीं।

सात साल की उम्र में ही इरावती को विद्यालयी शिक्षा प्राप्त करने के लिए भारत भेज दिया गया था। हुजूरपागा, पुणे के लड़कियों के आवासीय स्कूल में उनका दाखिला करवाया गया। वहाँ कक्षा की एक सहपाठी शकुन्तला परांजपे से उनकी मित्रता हुई। शकुन्तला की माँ ने इरावती को अपने परिवार के साथ रहने के लिए आमंत्रित किया। यह उनके जीवन के परिवर्तन का बिन्दु था। इस परिवार के बौद्धिक वातावरण ने इरावती के जीवन को पूरी तरह परिवर्तित कर दिया। इस घर में उन्हें विविध प्रकार के व्यक्तियों से मिलने का अवसर मिला। इनमें से एक जज बालकराम थे जिन्होंने मानवशास्त्रीय अध्ययनों में उनकी रुचि जाग्रत की।
Irawati Karve- a great social scientist

इरावती ने अपनी स्नातक उपाधि 1926 में फर्गुसन कालेज पुणे से प्राप्त की। इसी वर्ष इनका विवाह प्रो. दिनकर घोण्डो कर्वे, जो कि फर्गुसन कालेज पुणे में कैमिस्ट्री के प्रोफेसर थे, से हुआ। यह भी संयोग है कि इरावती को उस दौर में अपने पति व परिवार से ऐसी प्रेरणा व सहयोग प्राप्त हुआ कि वे इतनी ऊँचाइयों को प्राप्त कर सकीं। उनके पति, भारत रत्न घोण्डो केशव कर्वे जो बाद में मर्हिष कर्वे के नाम से प्रसिद्ध हुए, के पुत्र थे। मर्हिष कर्वे ने स्वयं महिला शिक्षा व विधवा विवाह के लिए उत्कृष्ट कार्य किया था। इस प्रेरणास्पद व सकारात्मक माहौल का इरावती ने पूरा लाभ उठाया और स्वयं भी जीवन में उच्चत्तर लक्ष्यों को प्राप्त किया।

डॉ. इरावती कर्वे ने अपनी स्नातकोत्तर उपाधि 1928 में बम्बई विश्वविद्यालय से प्राप्त की। जहाँ उन्होंने विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग के संस्थापक, प्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रो. जी.एस. घुर्टो के निर्देशन में कार्य किया। उनकी बौद्धिक क्षमताओं को अनुभव कर, उनके पति ने उन्हें विदेश जाकर पूर्ण क्षमता से अपने शैक्षिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। यही प्रेरणा आधार बनी उनके बर्लिन (जर्मनी) जाने तथा वहाँ शोधकार्य कर पी.एच-डी. उपाधि प्राप्त करने की। प्रो. यूजेन फिशर के निर्देशन में उन्होंने अपना शोध कार्य पूर्ण किया तथा 1930 में मानवशास्त्र में पी.एच-डी. की उपाधि प्राप्त की। भारत लौटने के पश्चात् कुछ समय तक उन्होंने एस.एन.डी.टी. पुणे में रजिस्ट्रार का कार्य किया। परन्तु प्रशासनिक कार्य करना उनकी प्रवृत्ति के अनुरूप नहीं था, अत: वे पुन: अपने शोध कार्य व साहित्यिक रचनात्मक कार्यों में संलग्न हो गयीं।

डॉ. कर्वे ने अनेक वर्षों तक पुणे के डेकन कालेज में समाजशास्त्र एवं मानवशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य किया। विभिन्न समाजशास्त्रीय व मानवशास्त्रीय विषयों पर उन्होंने मराठी व अंग्रेजी में लेखन कार्य किया। न केवल एक समाज विज्ञानी के रूप में बल्कि एक साहित्यकार के रूप में भी उनकी एक विशिष्ट पहचान थी।

एक समाज विज्ञानी के रूप में उनके द्वारा भारत में ‘नातेदारी व्यवस्था’का अध्ययन किया जाना उल्लेखनीय है। उन्होंने समाजशास्त्र की लगभग सभी शाखाओं यथा सामाजिक, सांस्कृतिक, सामाजिक मानवशास्त्र तथा भाषा आदि से सम्बन्धित कार्यों को प्रस्तुत किया है। उन्होंने नातेदारी व्यवस्था का अध्ययन ऋग्वेद, अथर्ववेद तथा महाभारत के परिप्रेक्ष्य में किया। इस संदर्भ में उन्होंने गुजरात, कर्नाटक, उड़ीसा, केरल, तमिलनाडु व उत्तर प्रदेश से आँकड़े एकत्रित किये तथा परिणाम प्राप्त किये। 1953 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘किनशिप आर्गनाइजेशन इन इण्डिया’के रूप में सांस्कृतिक मानवशास्त्र में क्लासिक मानी जाने वाली इस पुस्तक से ही राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी पहचान बनी। भारतीय साइन्स कांग्रेस के मानवशास्त्र भाग की वे 1947 में अध्यक्ष चुनी गयीं तथा लन्दन विश्वविद्यालय के ‘स्कूल ऑफ ओरियण्टल एण्ड अफ्रीकन स्टडीज’में उन्हें प्रवक्ता पद का प्रस्ताव भी दिया गया।

1961 में प्रकाशित ‘हिन्दू सोसाइटी: एन इण्टरप्रिटेशन’पुस्तक हिन्दू समाज के बारे में उनके द्वारा किया गया एक ऐसा अध्ययन है जो क्षेत्रीय अध्ययनों पर आधारित सूचनाओं तथा हिन्दी, मराठी, संस्कृत, पालि व प्राकृत के विशिष्ट ग्रन्थों के उनके द्वारा किये गये अध्ययनों पर आधारित है। इस पुस्तक में उन्होंने हिन्दू जाति व्यवस्था के आर्यों के पूर्व से अस्तित्व में होने तथा वर्तमान स्वरूप में उसके विकास की क्रमबद्ध चर्चा प्रस्तुत की है। महाराष्ट्र लैण्ड एण्ड पीपुल (1968) में उन्होंने महाराष्ट्र की सामाजिक संस्थाओं का विश्लेषण प्रस्तुत किया। इसके अतिरिक्त मराठी में लिखित लोंकांची संस्कृति धर्म, हिन्दुआंची समाज रचना, महाराष्ट्र-एक अभ्यास आदि पुस्तकें भी समाज विज्ञान के क्षेत्र में उनकी उल्लेखनीय उपलब्धियाँ कही जा सकती है।
Irawati Karve- a great social scientist

डॉ. इरावती कर्वे ने न सिर्फ एक समाजविज्ञानी के रूप में सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न पक्षों का विश्लेषण व विवेचन प्रस्तुत किया बल्कि मराठी साहित्य के एक स्थापित नाम के रूप में साहित्य के माध्यम से भी सामाजिक जीवन को समझने का प्रयास किया। उन्होंने सरल गद्य के साथ-साथ शोध आधारित गम्भीर साहित्य का भी सृजन किया तथा अंग्रेजी व मराठी दोनों ही भाषाओं में समान अधिकार से लिखा। ‘युगान्त: एक युग का अन्त’ उनकी महान साहित्यिक कृति है, जिसे उन्होंने मूलत: मराठी में लिखा तथा स्वयं अंग्रेजी में उसका अनुवाद भी किया। ‘युगान्त’महाभारत के विभिन्न चरित्रों से सम्बन्धित निबन्ध संग्रह है। इसमें उन्होंने महाभारत के कथानक व उसके चरित्रों को एक नये दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया तथा उन्हें दैवीय नहीं बल्कि मानवीय स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने महाभारत के विभिन्न चरित्रों की शक्ति के साथ-साथ उनकी कमजोरियों का भी विश्लेषण किया। ‘युगान्त’ के लिए ही उन्होंने 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त किया। इस पुस्तक द्वारा इरावती ने एक स्त्री, एक शोधार्थी तथा एक लेखिका के रूप में एक नये व ऊँचे स्तर का स्पर्श किया।

उनके व्यक्तित्व के अन्य पक्षों की झलक इस रूप में देखी जा सकती है कि एक ओर उन्हें रामायण महाभारत की अनेक संस्कृत रचनाएँ, कविताएँ और प्रसिद्ध कवियों के विशिष्ट उद्धरण कंठस्थ थे तो दूसरी ओर 1952 में पुणे में दोपहिया वाहन चलाने वाली वे पहली महिला भी थीं।

डॉ. कर्वे एक ‘आर्मचैचर’शोधार्थी  नहीं थी। उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया। उन्होंने ‘पंधरीवारी’ (एक र्वािषक धार्मिक यात्रा जो कई दिनों व कई किलोमीटर तक चलती है) यात्रा कई वर्षों तक की तथा विभिन्न धार्मिक स्थलों व मेलों को देखा। स्पष्ट है कि उनका लेखन व चिन्तन कपोलकल्पित व मात्र सैद्धान्तिक नहीं, बल्कि अनुभवजन्य था तथा यही अनुभव उनके लेखन को अधिक सशक्त व समृद्ध बनाता है।

इरावती एक स्वतंत्र व स्पष्ट सोच की महिला थीं तथा अपने स्वयं के विचारों व विश्वासों पर दृढ़ रहती थीं। अपनी प्रकृति से ही वे एक शोधार्थी थीं जो कि स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने को वरीयता देती थी। एक प्रोफेसर, एक शोधार्थी, एक लेखक व एक सशक्त वक्ता के रूप में बहुआयामी व्यक्तित्व वाली इरावती ने 11 अगस्त 1970 को इस दुनिया से प्रस्थान किया।

20वीं शताब्दी के उस आरम्भिक दौर में जबकि स्त्री की शिक्षा व उसकी स्वतंत्रता एक अनोखी चीज हुआ करती थी, इरावती का स्नातकोत्तर व पी.एच-डी. तक शिक्षा प्राप्त करना, शिक्षा प्राप्ति हेतु विवाह के पश्चात् भी विदेश जाना, असामान्य माना जा सकता है। निश्चय ही उन्हें एक अनुकूल वातावरण मिला था। अपनी योग्यता व क्षमताओं से उस अनुकूल वातावरण का सकारात्मक उपयोग करते हुए उन्होंने अपने जीवन के उच्चतम लक्ष्यों को प्राप्त किया तथा सम्पूर्ण स्त्री समुदाय के लिए एक मिसाल बन गयीं। अवसरों से भरपूर आज के दौर में जब महिलाओं का एक बड़ा वर्ग अपनी क्षमताओं का स्वयं अवमूल्यन करते हुए बेचारा-सा बना रहता है तो इरावती कर्वे जैसे व्यक्तित्व ध्यान में आते हैं, जिन्होंने प्राप्त अवसरों का भरपूर उपयोग करते हुए सम्पूर्ण स्त्री समाज के लिए आदर्श प्रस्तुत किया।
Irawati Karve- a great social scientist
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