बातचीत : आने वाले समय में कई तरह की चुनौतियां हैं- खीमा

खीमा एक गैरसरकारी संस्था अर्पण में काम करती हैं। अर्पण संस्था पिथौरागढ़ जिले में डीडीहाट तहसील के गाँवों में काम करती है। सुश्री रेनु ठाकुर ने इसकी शुरूआत की। हैल्पिया गाँव में अर्पण संस्था का कार्यालय है। 1996 में संस्था का पंजीयन हुआ। उससे पहले ही यहाँ काम शुरू हो गया था। पिथौरागढ़ शहर में भी कार्यालय है। खीमा अस्कोट कार्यालय में बैठती हैं। फरवरी 2014 में हैल्पिया में खीमा से एक गैरसरकारी संस्था के प्रतिनिधि के रूप में महिलाओं के बीच काम करने के अनुभवों पर अनौपचारिक बातचीत हुई, जिसके कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं।

खीमा, आप कब अर्पण से जुड़ीं ?
बी़ ए़ करने के बाद जब मेरी उम्र लगभग 20-21 साल की थी और मैं घर में ही थी तो दीदी (रेनु ठाकुर) ने उस समय गाँवों में सम्पर्क करना शुरू किया। ये हमारे गाँव में भी आये। मैंने पहले तो मना किया पर बाद में मैं यह जानने के लिए संस्था में आई कि ये लोग क्या काम करते हैं। इन्होंने कहा कि हम एक बालवाड़ी शुरू करना चाहते हैं, उसमें पढ़ाना होगा। पहले मैंने मना कर दिया पर बाद में मैं आ गई। 2001 की बात है यह। उत्तराखण्ड सेवानिधि ने संस्था को पाँच बालवाड़ियां चलाने के लिए सहायता दी थी। बाद में तो 15 हो गईं थीं। अप्रैल में हम पाँच लड़कियों ने बालवाड़ी चलाने का दस दिन का प्रशिक्षण अल्मोड़ा में लिया था। पहली बालवाड़ी बगड़िहाट में खुली, दूसरी थाम में। एक बालवाड़ी खोलिया गाँव में खोली। एक यहाँ कार्यालय में खुली जिसमें मैंने काम किया। यहाँ आफिस भी था और बालवाड़ी केन्द्र भी। चार घन्टे के लिए बालवाड़ी चलती थी जिसमें पाँच साल तक के बच्चे आते थे। बालवाड़ियों से ही महिला मुद्दों का काम शुरू हुआ। चार घन्टे बच्चों को पढ़ाते थे तो उसके बाद महिलाओं से बातचीत करते थे। दीदी तो पहले से ही काम कर रही थी लेकिन हम लोग बाद में इस काम से जुड़े। हमने देखा कि लोग कैसे पीटते हैं महिलाओं को। महिलाएँ हमारे पास आने लगीं तो हम भी उनके घरों तक पहुँचने लगे। दिन हो या रात हमें लगता था कि अगर महिला को हमारी जरूरत है तो हमें पहुँचना चाहिए उसके पास। अपने संगठन की बैठकों में भी हमने महिलाओं को बुलाना शुरू कर दिया।

महिलाओं के साथ किस तरह की घटनाएँ होती थीं ?
मार-पीट करके पत्नी को भगा देना, बेटियों को जन्म देने के कारण घर से निकाल देना, शराब पीकर पत्नी को मारना-पीटना, शक के कारण उसे घर से निकाल देना आदि-आदि। रात-अधरात महिलाएँ संस्था में पहुँच जाती थीं। ऐसी महिलाओं को हम आश्रय देते थे। रात को रोक लेते और दूसरे दिन उसके घरवालों को बुलाकर बात करते थे। कभी-कभी तीन-चार दिन तक भी हमारे पास रह जाती थीं। कहीं पर खतरा महसूस हुआ तो पुलिस या पटवारी की मदद भी लेते थे।

मदद मिलती थी ?
अस्कोट पुलिस ने हमारी बहुत मदद की। पहले यहाँ थाना था, अब तो कोतवाली हो गई है। जैसे ही हम फोन करते थे कि आज हमें अमुक गाँव में जाना है तो उनका एक सिपाही आ जाता था। महिला ने अगर कहा कि मेरा पति बहुत खूंखार है या ससुर तेज है या गाँव वाले भी विरोध कर सकते हैं तो हम पुलिस को बुला लेते थे। जब हमने काम की शुरूआत की थी, उन दिनों एक दारोगा थे अधिकारी जी, उन्होंने हमारी बहुत सहायता की। सबसे पहला मामला हमारे पास आया था ओगला से, उस महिला के पति को सही करने में उन्होंने बहुत मदद की। अब ऐसा भी होता है कि पुलिस के पास कोई केस आता है तो वे भी हमें बुलाते हैं परामर्श के लिए। शाम के समय कोई महिला आ गई और उनके पास उसे रखने के लिए जगह नहीं है तो वे हमारे पास भेज देते हैें। हम उसे रख लेते हैं। हम कोई केस लेते हैं तो उसे फिर छोड़ नहीं देते, लगातार महिला से सम्पर्क बनाये रखते हैं। 2003 में हमारे पास ऑक्सफेम का प्रोजेक्ट आ गया था तो हमें थाने जाना, कोर्ट जाना, वकीलों की व्यवस्था करना आदि में सुविधा हो गई थी।

हर वर्ग की महिला के साथ हिंसा होती थी ?
हाँ, सभी महिलाओं के साथ ऐसा था पर सबसे ज्यादा दलित वर्ग की महिलाओं के साथ ऐसी घटनाएँ होती थीं। किसी पंडित के घर में हिंसा हो रही हो तो समाज के भय से उसकी रिपोर्ट नहीं हो पाती थी। हमारे लिए फोन आने पर हम जाते थे तो हमें तो घटना बतायेंगी पर कहेंगी और किसी को मत बताना।

ऐसी बातें नहीं उठीं कि तुम हरिजन महिलाओं को अपने साथ रख रहे हो ?
बहुत नहीं उठीं। हमारे यहां अधिकांश कार्यकर्ता दलित थे। संस्था में दलितों को कार्यकर्ता के रूप में प्राथमिकता दी गई थी। खाना भी वही बनाते थे। बैठकों में जब सवर्ण महिलाएँ आती थीं। अगर वे देखती थीं कि उन्हीं के गाँव की दलित महिला रसोई में है तो वे खाना नहीं खाती थीं। हम भी उन पर जोर नहीं डालते थे।

अभी तक यही स्थिति है कि इसमें बदलाव आया है?
अब काफी बदलाव आ गया है। अब केवल एक-दो लोग हैं जो नहीं खाते हैं। चाय-पानी सभी पी लेते हैं। हमने भेदभाव को तोड़ने की पूरी कोशिश की। यहां पंडितों के गांव हैं, पाल(ठाकुर) भी हैं और दलित भी बीच-बीच में रहते हैं। होली के मौके पर हम गावों में जाते थे तो हमारे लिए यह एक बहुत बड़ी चुनौती होती थी। क्योंकि हमारे बीच दलित कार्यकर्ता भी थे। प्रश्न उठता था कि आप जा तो रहे हो, गाँव में किसी ने कुछ कह दिया तो अपमानजनक स्थिति हो सकती है। हमने सोचा, जो एक के साथ होगा, वह सबके साथ होगा। गाँव में सार्वजनिक कार्यक्रमों में हरिजनों को अलग बिठाते हैं लेकिन हमारे साथ ऐसा कुछ हुआ नहीं। सबके साथ हम बैठे, वहीं पर हमें भी चाय-पानी दे दिया गया। हमारे यहाँ होली होती है तो हम आलू के गुटके बनाते हैं। पंडित औरतें वहाँ पर नहीं खातीं लेकिन घर को ले जाती हैं। हमारे दिये को उन्होंने स्वीकारा, यह हमें अच्छा लगता है।
(Interview)

अधिकांश मामले मार-पीट के ही आते हैं?
हाँ, घर से निकालने के, मार-पीट के मामले ज्यादा आये। बलात्कार के बहुत कम आये। ऐसी घटनाएँ होती तो थीं पर बदनामी के डर से लोग बताते नहीं। यहाँ पर एक बहुत अन्दर का गाँव है जमतड़ी। वहाँ हमारी बालवाड़ी चलती है। वहाँ एक लड़की के साथ उसके ताऊ ने बलात्कार किया। तीन-चार महीने का बच्चा था उसके पेट में। हमने ताऊ का हुक्का-पानी बन्द करवाया। आज भी वह गाँव में नहीं आता। लड़की बहुत गरीब परिवार की थी, अब उसकी शादी हो गई है।

अपहरण की घटनाएँ भी होती हैं?
हाँ, होती हैं। ऐसी घटनाओं में हमारा सबसे पहला केस था बरम की तरफ। हमें किसी ने सूचना दी कि इस-इस तरह से एक लड़की को ले जाया जा रहा है। हमने उसको पकड़ लिया। दूसरी घटना थी बैड़ा की। नेपाली परिवार था। उनकी लड़की को यहीं के बिचौलिये हरियाणा के लोगों को बिकवा रहे थे। किसी ने हमें फोन कर दिया। हम लोगों ने ओगला चौकी में फोन किया कि इस रंग की अमुक गाड़ी है, इसमें एक लड़की को ले जा रहे हैं। यहाँ से हमारी टीम गई। ओगला में पुलिस ने गाड़ी को पकड़ लिया। अस्कोट थाने में उनको लाये और लड़की को छुड़ाया। तब दीदी भी हमारे साथ थी। गाँव में जाकर उसके बाप के साथ पंचायत की। बिचौलियों का पैसा वापस करवाया। बाद में लड़की का बाप अपने परिवार के साथ नेपाल वापस चला गया।

बाप ने ही बेचा था लड़की को ?
वे तो कहते थे शादी कर रहे हैं। शादी के नाम पर बाप भी पैसा खाता है और बिचौलिए भी। ले जाने वाले हरियाणा के थे। वे वहाँ जाकर क्या करेंगे लड़की के साथ, किसी को नहीं पता। फिर हम लोगों ने क्षेत्र में सर्वे किया कि साल में कितनी लड़कियाँ इस तरह ले जाई जा रहीं हैं। उनमें से अभी तक कोई वापस नहीं आई। एक महिला गराली से आई थी। उसके पति ने बेटी को बेच दिया था। उस समय तो कहा कि शादी कर रहे हैं पर बाद में पता चला कि बेच दिया था। आज भी वह महिला रोती है कि सात साल हो गये, उसकी बेटी एक बार भी नहीं आई। क्या पता, उन्होंने उसे आगे कहीं बेच दिया। जिन्दा है या मर गई? इस तरह की कई घटनाएँ होती हैं।

बलात्कार की घटनाएँ क्यों नहीं दर्ज होतीं हैं ?
महिलाओं के साथ मार-पीट की घटनाओं में तो पुलिस साथ देती है लेकिन लड़की के साथ छेड़छाड़ का मामला है तो पुलिस साथ नहीं देती। कक्षा 10 में पढ़ने वाली एक लड़की के साथ एक शराबी ने छेड़छाड़ की। हम लोग पुलिस को लेकर घटनास्थल पर गये। उनको पकड़ लिया लेकिन न तो लड़की का मेडिकल होने दिया गया न पुलिस ने केस दर्ज किया। पुलिस कहती है, इस तरह के केस हम अपने थानों में दर्ज नहीं करते। जब उन्होंने प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज नहीं की तो हमने अस्कोट में जहाँ-जहाँ हमारे संगठन हैं सबको फोन किया। सब आ गये और थाना भर गया। जब सारी महिलाएँ, लड़कियाँ, लड़के आ गये, थाने को घेरा गया, तब रिपोर्ट दर्ज हुई और आरोपी को 28 दिन जेल में रहना पड़ा। फिर भी पुलिस ने यही कहा कि हम बलात्कार की रिपोर्ट नहीं लिखेंगे क्योंकि लड़की की जिन्दगी का सवाल है। कल के दिन लड़की की शादी नहीं होगी। यही कहकर पुलिसवाले माँ-बाप को फुसला देते हैं। अपना रिकार्ड सही रखने के लिए वे केस दर्ज नहीं करते। एक बार हमें 2007 से 2010 तक अपने क्षेत्र में होने वाले अपराधों के विषय में एक रिपोर्ट तैयार कर भोपाल भेजनी थी। हत्या और अपहरण के मामले तो दर्ज थे लेकिन बलात्कार की एक भी घटना दर्ज नहीं थी। हमने पुलिस अधीक्षक पिथौरागढ़ के कार्यालय से रिकार्ड निकाला था, सारे थानों की सूचनाएँ ली थींं। केवल एक केस मिला था- 20 साल की एक लड़की के साथ थल में एक फौजी ने बलात्कार किया था। उसमें भी सजा नहीं हुई थी। पुलिस हमसे कहती है, तुमको इससे क्या करना है।

तलाक के मामले भी होते हैं?
होते हैं पर वे कोर्ट में लड़े जाते हैं। कभी-कभी समझौता हो जाता है। भरण-पोषण दिलाने की घटनाएँ ज्यादा होती हैं। घरेलू हिंसा कानून जब से आया है, तब से हमें काफी सहायता मिली है। इसके तहत महिलाओं को घरों में संरक्षण भी मिला है और बच्चों की शिक्षा के लिए पैसा भी मिला है।

यानी अपने ही घर में महिला को अलग से जगह दिलाने में आप लोग कामयाब हुए हो?
हाँ। इस तरह का सबसे पहला मामला पिथौरागढ़ से आया था। उस महिला ने अपने घर में रहकर अपना हक लिया है। पति सेना में है, घर में सास-ससुर हैं। एक कमरा उसका है, एक कमरा सास-ससुर का है।
(Interview)

सास-ससुर परेशान नहीं करते?
अब वह इतनी मजबूत हो गई है कि उनकी परवाह नहीं करती। डी़वी़ एक्ट के तहत घरवाले परेशान नहीं कर सकते, ताने नहीं दे सकते, उसके साथ मार-पीट नहीं कर सकते। अगर करेंगे तो वह दुबारा कोर्ट जा सकती है। तीन-चार मामले ऐसे भी हैं, जहाँ पति अपील में चला गया है। वहाँ कठिनाई आ रही है।

यहाँ महिलाओं के बीच काम करने में क्या कठिनाइयाँ लगती हैं?
चुनौतियाँ तो बहुत हैं। हम महिलाओं से कहते हैं कि तुम मार-पीट क्यों सहन करती हो। अगर पति मारता है तो तुम बाहर क्यों नहीं निकलती हो तो वहाँ पर चुनौती यह है कि आज तो वह बाहर निकलेगी पर कल के दिन कहाँ जायेगी। न उसके पास अपने नाम की जमीन है, न उसके पास कोई पैसा है, न वह अपना भविष्य खुद निर्धारित कर सकती है।

क्या यह एक बड़ी समस्या है कि महिलाओं के नाम पर जमीन नहीं है?
हाँ। उसके पास कोई अधिकार नहीं है। मेरा है, कहने को कुछ नहीं है। अगर वह कुछ काम भी करेगी तो कहाँ पर करेगी? पति कहता है, यह मेरा है, तू यहाँ से निकल। मायके में भी माँ-बाप के रहते तो उसे शरण मिलती है पर उनके बाद लगता है, उसका कोई हक नहीं रह जाता। मायके में भी उसे यह कहकर प्रताड़ित किया जाता है कि अच्छी जो होती तो ससुराल में ही रहती। हमारा समाज जिस तरह प्रताड़ित करता है महिलाओं को यह बहुत बड़ी चुनौती है।

भ्रूण हत्या की घटनाएँ कितनी होती हैं इस क्षेत्र में?
जब से पीएनडीटी समिति बनी है, छापे पड़ने लगे हैं, अब कम सुनाई देती हैं इस तरह की घटनाएँ। पर अब लोग बाहर चले जाते हैं-बरेली, पीलीभीत, हल्द्वानी। पढ़े-लिखे परिवार ज्यादा जाते हैं। तीन बेटियाँ हैं पर परिवार गरीब है तो वह कहाँ जाएगा? उसके पास पैसा ही नहीं है।

शराब भी महिलाओं की एक प्रमुख समस्या है। यहाँ क्या स्थिति है?
पहले यहाँ अस्कोट में शराब की दो दुकानें थीं- देशी और अंग्रेजी की। महिलाएँ बहुत परेशान थीं। तब डेढ़ महीने तक आन्दोलन चला। एक समिति बनाई गई। बारी-बारी से पूरे क्षेत्र के अलग-अलग गाँवों की महिलाएँ धरने पर बैठीं। दिन-रात का धरना था। अन्त में 2005 में दोनों भट्टियाँ बन्द हो गईं। 2014 में अवैध शराब का हवाला देकर अंग्रेजी शराब की दुकान खोल दी गई है। हमारे विधायक ने और तो कुछ नहीं किया, शराब की दुकान खुलवा दी। अभी भी हमने इस मुद्दे को छोड़ा नहीं है। सूचनाधिकार में जानकारियाँ मागी हैं। मार्च में एक प्रस्ताव बनाकर शासन को भेजने वाले हैं।

महिलाओं के बीच संगठन बनाने में क्या कठिनाइयाँ हैं ?
महिलाओं के साथ बच्चे हैं, जानवर हैं, खेतों का काम है। हम सोचते हैं कि ये हमें समय दें, बैठकों में आयें पर वे समय नहीं दे पातीं। उनको बैठक में आने के लिए भी सोचना पड़ता है। वे सारे काम निबटाकर, तैयारी करके तब हमारी बैठकों में आ पाती हैं। इसीलिए हमें उनको एक-दो दिन पहले सूचना देनी होती है। घास काटना, बच्चों के लिए खाना बनाकर रखना, सारी व्यवस्था कर तब वे घर से निकल पाती हैं । कभी पता चलता है, कोई महिला बैठक में आई थी और घर जाकर उसके लिए बवाल हो गया कि संस्था की बैठक में क्यों गई थी।

संस्था में जाने पर विरोध भी होता है?
घर के अन्दर विरोध होता है। पुरुषों को लगता है कि हम महिलाओं को भड़काते हैं। क्योंकि हम जिस महिला के साथ काम करते हैं, उसके भीतर एक सोच भी डालते हैं कि तुमको हिंसा नहीं सहनी है, तुमको अन्याय के खिलाफ आवाज उठानी है, तुमको आगे कदम बढ़ाना है। जब महिला यह करने लगती है तो लोगों को लगता है कि इन्होंने हमारी महिलाओं को भड़का दिया है। तब उन्हें वहाँ पर विरोध सहन करना पड़ता है। ऐसे में कुछ महिलहाएँ तो पीछे हट जाती हैं, कुछ संघर्ष करके आगे आ जाती हैं। आज जो महिलाएँ हमारे साथ खड़ी हैं, उन्होंने अपने घरों में काफी संघर्ष किया है। अब अपने घर में भी उनकी इज्जत बढ़ी है।
(Interview)

कई संस्थाओं ने महिलाओं को पहले आर्थिक रूप से मजबूत किया है, आजीविका के उपायों के द्वारा और फिर वे मुद्दों को लेकर आगे बढ़ती हैं। आपने आर्थिक दृष्टि से भी काम किया है ?
शुरूआत में हमने कुछ स्वयं सहायता समूह बनाये थे। लेकिन वह काम आगे नहीं बढ़ पाया। अर्पण के जो समूह हैं, सब अधिकार आधारित हैं। हमने गाँव-गाँव में छोटे संगठन बनाये और उन्हें मनरेगा, स्वास्थ्य, वृद्घा पेन्शन, पंचायत आदि की जानकारियाँ देनी शुरू की। आजीविका का काम अर्पण ने ज्यादा नहीं किया। किया भी तो सफल नहीं हुए। शुरू में अस्कोट महिला कोआपरेटिव बनाई थी पर वह खड़ी नहीं हो पाई। या तो संस्था का एक सदस्य हमेशा उनके साथ रहे, तब काम हो। महिलाओं से हम कहते हैं कि आप स्वयं काम करो पर ऐसा नहीं हो पाता।
महिला कोआपरेटिव का विचार तो बहुत अच्छा है और देश में कई जगह ऐसा हो भी रहा है।
दो कोआपरेटिव हमारी भी खड़ी हैं- एक धारचूला में, दूसरी मुन्स्यारी में। वहाँ महिलाएँ स्वयं बुनकर हैं, व्यावसायिक हैं। उन्होंने स्वयं चला रखा है लेकिन यहाँ अस्कोट की महिलाओं का घर, खेत, पशुओं का काम इतना हो जाता है कि वे अलग से समय नहीं निकाल पातीं। दूसरी बात यह भी है कि जो पढ़ी-लिखी महिलाएँ हैं, जो लेखा-जोखा रख सकती हैं, वे तो सब बाहर निकल जाती हैं। पढ़ी-लिखी बहुएँ या लड़कियाँ अब गाँव में नहीं रुक रहीं हैं। हैं भी तो रुचि नहीं ले रहीं हैं ऐसे कामों में। वे संगठन से जुड़ नहीं रही हैं। घर में जो सास है, वह तो 4-5 तक पढ़ी है। वह लेखा-जोखा नहीं रख पाती।

महिलाओं की जब बात की जाती है तो पितृसत्ता की बात भी उठती है, तो यहाँ भी क्या इस तरह की स्थितियाँ देखने को मिलती हैं?
पितृसत्ता इस तरह दिखाई देती है कि जिस परिवार में पुरुष महिला का समर्थन करता है कि तू जा संगठन में तो महिला खुलकर बाहर निकल आती है। लेकिन अधिकतर परिवारों में पुरुष का दबाव देखने को मिलता है कि तू बाहर नहीं जायेगी, बैठक में जाकर क्या करना है। विशेषकर ऐसे घरों में जहाँ पुरुष भी घर में ही है या नौकरी में नहीं है तो सास का भी दबाव रहता है कि पति तो घर में है, अपना बाहर घूमती है। पितृसत्ता का प्रभाव वहाँ भी दिखता है जहाँ घर में बेटियाँ हैं, बेटा नहीं है। सास का कहना होता है कि बहू खराब है। उसे घर से निकाल देते हैं। उन्हें यह नहीं पता कि बेटा होने में पति का भी हाथ है।

कई संस्थाओं में उनके भीतर भी पितृसत्ता दिखाई देती है। कई कार्यकर्ताओं का कहना है कि गैरसरकारी संस्थाओं के भीतर भी लैंगिक भेदभाव होता है। क्या आपको भी ऐसा महसूस होता है कभी?
हमारी संस्था का नेतृत्व एक महिला के हाथ में होने के कारण हमें समाज में बहुत सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। हमें बार-बार प्रशिक्षण दिया जाता है। जब भी कोई नया कार्यकर्ता आता है तो पहला प्रशिक्षण जेन्डर (लैंगिक भेदभाव) का दिया जाता है। हम उसकी सोच यहाँ तक परिपक्व करते हैं कि पितृसत्ता के अन्दर क्या-क्या है और हम मानते हैं कि हमारे जितने भी साथी हैं, वे कार्यक्षेत्र के अलावा अपने घर के अन्दर भी भेदभाव नहीं करते।

पुरुष साथी भी जेन्डर को समझते हैं?
बिलकुल समझते हैं और उन मूल्यों को लेकर घर के अन्दर भी महिला-पुरुष की बराबरी को लेकर चलते हैं।
(Interview)

लेकिन जब आप थाने जाते हो, वकीलों से मिलते हो, अधिकारियों से मिलते हो, तहसील में जाते हो तो इनके बीच क्या लगता है ? ये सब तो पितृसत्ता से भरे हुए हैं?
अब तो हमारी अपनी एक पहचान बन चुकी है पर शुरू शुरू में जब मैं जाती थी तो उनका नजरिया दूसरा होता था। वे हमें एक मजाक समझते थे। वकीलों से बात करो तो सर से पाँव तक घूरते थे। अरे, ये कहाँ से आ गये? पुलिस में तो कुछ अधिकारी अभी भी ऐसे हैं। मगर अब उन्हें लगता है कि ये काम करने वाले लोग हैं तो हमें गम्भीरता से लेने लगे हैं ।

लम्बे समय तक एक संस्था में काम करने से क्या अपने भीतर भी बदलाव महसूस होता है ?
दूसरों के लिए काम करने की इच्छा तो बचपन से मेरे भीतर थी पर यहाँ आकर एक जगह मिली। जानकारियाँ मिलीं। और आज कोई घटना होती है तो खुलकर उसका सामना कर सकते हैं। व्यक्तित्व का विकास तो हुआ ही। हमें प्रशिक्षण मिले, अपने नेतृत्व से हमने सीखा और काम करते करते अनुभवों से सीखा। किस व्यक्ति से कैसे व्यवहार किया जाय, ये बातें आज हमारे अन्दर आई हैं। दीदी न होकर यदि कोई अन्य पुरुष या महिला हमारा नेतृत्व कर रही होती तो भी अन्तर होता। अपनी गलतियों से भी हमने सीखा है। हमें नेतृत्व करने की जिम्मेदारी दी गई, इससे भी फर्क पड़ता है।

काम तो बहुत से हैं लेकिन किस तरह के कामों को आप लोग प्राथमिकता देते हो?
संस्था के पास दो-तीन प्रोजेक्ट हैं। प्रजेक्ट का काम तो करना ही करना है। लेकिन कितना ही काम क्यों न हो, यदि किसी लड़की, बच्ची या महिला का मामला आ जाय तो हमारी प्राथामिकता उसका काम करना है। चाहे कैसी भी बैठक चल रही हो, एक सदस्य उसे जारी रखेगा, बाकी जितनों की जरूरत हो, उतने लोग महिला के मुद्दे पर जायेंगे। महिला मुद्दों को सुलझाना हमारी प्राथमिकता होती है। चाइल्ड हेल्पलाइन का काम भी अब हमारे पास है। पर्वतीय बाल मंच भी हमने चलाया। यद्यपि आज महिलाओं के लिए कोई प्रोजेक्ट हमारे पास नहीं है पर महिलाओं के मुद्दों पर पैसे की बात आड़े नहीं आती।

आप लोग तो महिलाओं के साथ खड़े ही हो, लेकिन इतने सालों के काम के बाद क्या ऐसी स्थिति बनी है कि महिलाएँ स्वयं मुद्दों पर आगे खड़ी हों? यानी क्षेत्र की महिलाओं में नेतृत्व क्षमता का विकास हुआ है?
महिलाओं की क्षमता अवश्य बढ़ी है। कई बार हमें पता भी नहीं चलता और वे मामले सुलझा लेती हैं। कोई मामला हो तो सब एक दूसरे को सूचना देकर इकट्ठा हो जाती हैं या कोई शराब पीकर उत्पात कर रहा हो तो स्वयं संभाल लेती हैं। एकता और नेतृत्व क्षमता का विकास उनमें हुआ है।

यानी उनकी सामाजिक चेतना बढ़ी है। लेकिन कहा जाता है कि जब तक राजनीतिक चेतना न हो, कुछ हो नहीं सकता। क्या इस सम्बन्ध में भी बैठकों में कुछ चर्चा होती है ?
चुनाव के समय महिलाओं ने अपना एजेन्डा रखा है। ग्राम प्रधानों के चुनाव में ऐसा हुआ है कि ये हमारे मुद्दे हैं। ऐसा भी हुआ है कि वोट के वक्त पति कहीं और खड़ा है और पत्नी संगठन की महिलाओं के साथ है। 2017 के चुनाव की बात हमने संगठनों में करनी शुरू कर दी है कि तुमने अपना ऐजेन्डा तैयार करना है कि हमें कैसा विधायक चाहिए। वर्तमान विधायक ने हमारे लिए क्या किया है ?
(Interview)

वर्तमान में औरत को एक वस्तु के रूप में देखना, बाजारवाद, उपभोक्तावाद, मीडिया की भूमिका आदि के कारण क्या ऐसा नहीं लगता कि हमारी चुनौतियां बढ़ती जा रहीं हैं, कम नहीं हुईं हैं ?
पूरे देश में जो चल रहा होता है, यहाँ पर भी उसका असर दिखता है। टीवी चैनलों में जो दिखाया जा रहा हो, उसी नजरिये से यहाँ की महिला को भी देखना शुरू हो जाता है। समाज के नजरिये को हम बदल नहीं पा रहे हैं। कोई लड़की या महिला नेतृत्व में है तो वे किसी न किसी तरह उसे अपनी पार्टी में खींच लेते हैं और वहीं से उसका शोषण भी शुरू हो जाता है। उसके पति को पीछे छोड़ दिया जाता है और वह एक मोहरा बना दी जाती है। वर्तमान राजनीति का दृष्टिकोण महिला के लिए अच्छा नहीं है। महिला अगर विरोध करती है तो अच्छा खासा काम होने के बावजूद वे उसे पीछे कर देते हैं। आने वाले समय में महिलाओं के लिए चीजें अच्छी नहीं हैं और समय भी अच्छा नहीं है। यहीं डीडीहाट में एक पैंसठ साल की महिला के साथ बलात्कार हुआ। पिछले साल अस्सी साल की वृद्घा शिकार बनी। जौलजीवी में तीन साल की बच्ची के साथ यही घटना हुई। अभी हमारे ऑफिस में एक केस आया था। पिथौरागढ़ की एक सत्रह साल की लड़की ने पिता पर बलात्कार का आरोप लगाया है। अस्कोट में नौ साल की लड़की के साथ बाप ने बलात्कार की कोशिश की। घर में सास नहीं है, केवल ससुर है तो बहू के लिए जीना हराम हो रहा है। स्थितियाँ बहुत कठिन हैं। किस किसको समझाया जाय। आने वाले समय में कई तरह की चुनौतियां हैं।

प्रस्तुति: उमा भट्ट

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