संतोष है कि मैंने दोहरा जीवन नहीं जिया- विमला बहुगुणा

पिछले अंक से जारी……

सिल्यारा में आप लोगों ने किस प्रकार काम शुरू किया?

गाँव के बीच में टेकरी पर एक जगह थी जो गौचर जमीन थी। खोदो तो काँच निकल आते थे। करन भाई कहते थे, तेरे यहाँ आने के लिए तो तपस्या करनी पड़ती है। एक साल बाद वहाँ पर मकान बना लिया था। केवल एक मिस्त्री बुलाया, बाकी श्रम स्वयं करते थे। बहुगुणा जी पत्र-पत्रिकाओं में लिखा करते थे। कहते थे, मेरी आमदनी 15 रुपया महीने है। मकान बन जाने के बाद काम शुरू हुआ। हम सुबह अपना खाना खाकर गाँव वालों के खेतों में काम करने चले जाते थे। उनके साथ जंगल जाते थे। साथ में बातचीत करते जाते थे। उनसे कहते कि लड़कियों को पढ़ाना चाहिए तो वे कहते थे, कहाँ फुरसत है हमको। छोटी बच्चियाँ अपने भाई-बहिनों को देखती हैं, गायों को देखती हैं, घास लाती हैं। इनको घास ही तो काटना है, इनको पढ़ाकर क्या करना है। हमने कहा, दिन में नहीं तो इनको रात को भेजो, ये रात को पढ़ेंगी। हम चरखा चलाते थे, प्रार्थना करते थे और मैं लड़कियों को पढ़ाती थी।
सिल्यारा ही आप लोगों ने क्यों चुना?

पिछड़ा क्षेत्र था। गाँधी ने कहा था, दूर-दराज के क्षेत्रों में जाना है, वहाँ जागृति पैदा करनी है। बहिन जी ने हमको सर्वांगीण शिक्षा दी थी। बीमारी का प्राथमिक उपचार हमें सिखाया था। थर्मामीटर से बुखार नापना, दवाएँ देना, सब जानकारी हमें थी। गाँव वाले झाड़-फूँक करते थे। हमने अपने ढंग से उनका उपचार किया। ठीक नहीं हुए तो टिहरी अस्पताल में भेजा। मैं खुद गम्भीर मरीजों को लेकर टिहरी जाती थी। उनको संतुलित आहार के विषय में बताया। हमने आश्रम को पहाड़ों के लिए प्रयोगशाला के रूप में देखा। पहाड़ के आदमी को पहाड़ में ही रोजगार चाहिए, इसीलिए यहीं रहकर उनके सर्वांगीण विकास के लिए काम करना है। खेतों में वे केवल धान-गेहूँ उगाते थे। हमने कहा, इसके साथ फल-सब्जी उगाना जरूरी है। जंगलों से घास-लकड़ी लाते हुए शिक्षण कार्य चलता था। तब महिलाओं को लगा कि यह हमारे साथ लकड़ी भी लाती हैं, खेतों में काम भी करती हैं और लड़कियों को पढ़ाती भी हैं। मैं चार घण्टे पढ़ाती थी। तब उन्हें लगा कि ये कोई सफेदपोश नहीं हैं। बीस साल तक उन्होंने फसल पर हमें अन्न दिया, जैसे दर्जी, बढ़ई आदि को देते हैं।
आप उनके यहाँ काम करती थीं और वे आपको अनाज देते थे?

हाँ, हमारा भरण-पोषण उसी से होता था।
आपके साथ कितने लोग थे?

पहले वहाँ बहुगुणा जी बड़ा ढाँचा बना रहे थे। बहिन जी ने कहा, तुम अपनी कब्र बनाओगे क्या। इतना बड़ा तामझाम बनाओगे तो गाँव वालों के लिए समय नहीं दे पाओगे। 15 जनों से ज्यादा मत रखना। नहीं तो इतने लोगों की व्यवस्था करने में सारा समय लग जाएगा। तो हमारे साथ 8-10 बच्चे थे। ज्यादातर लड़कियाँ रहती थीं।
वे कहां से थीं?

अलग-अलग जगहों से थीं। 
आपके पास खेती भी थी?

हाँ, हमारे 24 दोन धान होते थे। एक दोन 16 नाली का होता है। गाँव के लोग हमारी मदद करते थे। तब बीस साल बाद हमने गाँव वालों से अन्न लेना छोड़ दिया।
आपने खेतों का काम कब सीखा?

कौसानी में सर्वांगीण शिक्षा के तहत मैंने सब काम सीख लिया था। जब महिलाओं को हम पर विश्वास होने लगा तो उन्होंने हमसे अपनी समस्याएँ कहना शुरू किया कि हमको शराब का सबसे ज्यादा दुख है। आदमी साल भर में एक बार छुट्टी में घर आता है और शराब लेकर आता है। सारे परिवार की शान्ति जाती है, पैसा जाता है, झगडा़ अलग होता है। हमने कहा, देखो, जिसके राज्य में सूर्यास्त नहीं होता था, उस विलायती सरकार को गाँधी जी ने भगा दिया। तुम अपनी सामूहिक शक्ति के बल पर नहीं भगा सकती हो क्या इस शराब को? गाँधीजी की यही खासियत थी कि उन्होंने सामूहिक शक्ति को जगाया था। फिर हमने गाँव की महिलाओं को इकट्ठा करके कच्ची शराब की भट्टियों पर पिकेटिंग की।
(Interview Vimla Bahuguna)
उस जमाने में सिल्यारा में शराब की दुकान थी?

दुकान नहीं थी, कच्ची शराब बनती थी। दुकान टिहरी में थी। महिलाओं ने भट्टियों को तोड़ा, उनके बर्तनों को तोड़ा, कभी रात के बारह बजे, कभी सुबह के चार बजे। खूब मजा आता था। उनके बर्तन जब्त कर दिये। वहीं से उनकी ताकत बनी।
यह किस सन की बात होगी।

सन तो मुझे ठीक याद नहीं। 1971 के बाद की बात होगी। उन्हीं दिनों घनसाली में दुकान खुलने वाली थी। महिलाओं के धरने के कारण वह नहीं खुल पाई। उस समय पूरे उत्तराखण्ड में शराब विरोधी आन्दोलन चल पड़ा था। जब टिहरी में शराब का विरोध हुआ, मैं स्कूल चलाती थी और मेरा बच्चा छोटा था तो मेरी माँ महिलाओं के साथ गिरफ्तार हुई। पुरुष भी गिरफ्तार हुए। जब छूटकर आये तो ठेकेदारों और पियक्कड़ों ने कहा, हम कोर्ट से स्टे ले आये हैं। अब तुम गिरफ्तार होगी तो छूटोगी नहीं। महिलाओं ने कहा, कोई बात नहीं, हम डरने वाले नहीं हैं। तीन बार बहिनें जेल गईं। किसी का डेढ़ साल का बच्चा था, किसी का तीन साल का। देहरादून, सहारनपुर की जेलों में बहिनें गईं। जब पूरे उत्तराखण्ड में शराबबन्दी हो गई, तब बहिनों को अपनी शक्ति का अहसास हुआ कि हम तो नीतियाँ बदल सकती हैं। हम तो सामाजिक क्षेत्र में बहुत काम कर सकती हैं। हमारी तो बहुत बड़ी भागीदारी हो सकती है। इस तरह सरला बहिन का सपना पूरा हुआ।
बच्चे कहाँ पैदा हुए आपके?

तीनों बच्चे सिल्यारा में ही पैदा हुए। मैं तो कहती हूँ, मेरी तो भगवान ने रक्षा की। कोई देखने वाला नहीं था। जिस समय मधु हुई, टिहरी में प्रदर्शनी हो रही थी। सब वहां गये थे। मेरे साथ मेरी छोटी बहिन कमला थी।
बच्चों की शिक्षा कहां हुई?

मेरे बच्चों ने गांव के बच्चों के साथ ही पढ़ा। बेटी मधु ने कक्षा आठ तक सिल्यारा के स्कूल में ही पढ़ा। फिर जब मैं आन्दोलनों में बाहर जाने लगी तो बच्चों को पांचवीं तक ही अपने साथ रखा। राजू और प्रदीप टिहरी में छात्रावास में रहे। प्रदीप और मधु ने स्नेह दीदी सुश्री स्नेहलता जोशी के साथ रहकर अल्मोड़े से हाईस्कूल किया। मधु ने इन्टर, बी.ए., एम. ए., राजमाता कालेज टिहरी से किया। इसका खर्चा वीरेन्द्र सकलानी देते थे। राजू ने अपनी मौसी के साथ रहकर भी पढ़ा। उसने कहा, पिता जी, मैं इलाहाबाद से पढ़ना चाहता हूं। इन्होंने कहा, मेरे पास इलाहाबाद में पढ़ाने के लिए खर्चा नहीं है। तब उसने उत्तरकाशी में अपनी मौसी उर्मिला और सुरेन्द्र भट्ट जी के साथ रहकर बीए, एमए किया।
जंगलों की लड़ाई कैसे शुरू हुई?

उन दिनों बहुगुणा जी को सन्देशा आने लगा कि हमारे यहां जंगल कट रहे हैं, हमारे यहां आओ। उस समय सर्वोदय मण्डल एक था। चण्डी प्रसाद जी आये कि किस प्रकार रैणी का जंगल कट रहा है। हमारी आरा मशीन के लिए लकड़ी नहीं मिल रही है, बैडमिन्टन के बल्ले बनाने के लिए बाहर लकड़ी जा रही है। रैणी में लोगों को चिपकने की नौबत नहीं आई। चिपको शब्द घनश्याम सैलानी का दिया है। बहुगुणा जी, चण्डीप्रसाद भट्ट और घनश्याम सैलानी, ये तीनों गले में हारमोनियम डालकर गाते हुए जा रहे थे-
खड़ा उठा भाई बन्दो सब एक होला
सरकारी नीति से जंगल बचौला

रैणी में बैठक हुई। तय हुआ कि जिस दिन ठेकेदार आयेंगे, पेड़ों से चिपक जायेंगे।
चिपका पेड़ों पर अब ना काटण द्या
(Interview Vimla Bahuguna)

ये लोग बैठक कर आ गये। नीति तय हो गई। बहिनों का तो रोज का धन्धा है जंगल जाने का। गौरादेवी को पता चल गया कि आरे-कुल्हाड़ी वाले आ गये हैं। उसने सीटी बजाई तो महिलाएं इकट्ठा हो गईं। बाहर का ठेकेदार था, डरकर भाग गया। पेड़ों पर चिपकने की नौबत नहीं आई। चिपकने वाला सबसे पहला आदमी धूमसिंह नेगी है। हेंवलघाटी में पेड़ों पर राखी बांधी गई। दिन में बहिनें राखी बांधकर घर को आ गईं। धूमसिंह नेगी नहीं आये। यहां ठेकेदार स्थानीय था। जब सब घर को आ गये, उन्होंने आरे-कुल्हाड़े चलाने शुरू कर दिये। नेगी जी एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर चिपकने लगे। रात 9-10 बजे तक जब वे घर नहीं आये तो लोग उनको देखने जंगल गये तो देखा कि नेगी जी और ठेकेदार का ऐसा चल रहा है। सबसे पहले अदवाणी और खुरेती में आन्दोलन हुआ। वहीं से नारा निकला-

क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी पानी और बयार।
मिट्टी पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।
भाले कुल्हाड़े चमकेंगे, हम पेड़ों पर चिपकेंगे।
लाठी गोली खायेंगे, अपने पेड़ बचायेंगे।

नेगी जी जाजल स्कूल में अध्यापक थे। प्रताप शिखर, कुवंर प्रसून, जरधारी इनके शिष्य थे। ये इनके साथ थे। नेगी जी ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। मैंने कहा, भाई जी, पहले सोच लीजिये। उन्होंने कहा, नहीं, नहीं- मैंने सोच लिया है। छोड़कर आये यह उनकी बड़ी देन है। उनके छात्रों ने हेंवलघाटी में बहुत काम किया। उसके बाद बडियारगढ़ में आन्दोलन हुआ। सैलानी जी आये ओर एक छोटा-सा चिट मेरे लिए भेजा। दीदी से कहना, मैं चला गया हूँ, महिलाओं को लेकर तुम आओ। मैं वहां से छह बहिनों को लेकर आई।
आपको बच्चों को छोड़कर आने में परेशानी नहीं हुई?

तब बच्चे छोटे नहीं थे। बड़े हो गये थे। स्कूल में पढ़ने लगे थे। बडियारगढ़ में दिन में गांव-गांव से आन्दोलनकारी आते थे। एक महीने हम वहां रहे। रात को ठेकेदार नेपाली मजदूरों को लेकर आ गया तो हमको कभी-कभी रात को भी जंगल में जाना पडत़ा था। वहां की एक बहिन नन्दादेवी अभी भी जीवित है, जो तब रात को हमारे साथ छानियों में रही थी। जंगल में छानियों में हमने डेरे बना लिए थे। बहुगुणा जी उपवास पर थे। रात को 2 बजे पुलिस उनको पकड़ने के लिये आई। इनका उपवास का ग्यारहवां दिन था। हम नारे लगाते थे-

पुलिस हमारा भाई है, उससे नहीं लड़ाई है।
हमला चाहे जैसा हो, हाथ हमारा नहीं उठेगा।

बहुगुणा जी को रात को पकड़ कर ले गये तो हमने जोर-जोर से नारे लगाये, तब लोगों को पता चला। उधर प्रशासन ने लोगों को प्रताड़ित करना शुरू किया कि तुमने इनको अपनी छानियां क्यों दी हैं। तुम लोगों को भी पकड़ा जायेगा। सरकार तुम पर भी कार्रवाई करेगी। मीटिंग के लिए जो महिलाएं आती थीं, उन्होंने हमारा सामान छानियों से बाहर फेंक दिया और अपना ताला लगा दिया। हमारे साथ वाचस्पति मैठाणी की माँ थीं, मत्स्योदरी देवी, अब नहीं हैं, उन्होंने कहा- हम तुम्हारे लिए आये हैं। तुम्हें क्या लगता है, हम अपने लिए आये हैं? तुम्हारा लाखों का जंगल है, पानी है, इसको बचाने आये हैं और तुम हमें निकाल रहे हो। तब एक दूसरी महिला ने अपनी छानी खोल दी। कहा, मेरी छानी में रहो। मैं सरकार से नहीं डरती। उस झोपड़ी में हम रहे। फिर वहां भागवत कथा शुरू कर दी गई। उसी समय बहुगुणा जी को पद्मश्री का सम्मान मिला। उन्होंने इन्दिरा गांधी से कहा, तुम मुझे सम्मानित कर रहे हो, हमारे जंगल कट रहे हैं। तब 1000 मीटर से ऊपर जंगल कटने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। फिर बहुगुणा जी ने कश्मीर से कोहिमा की पदयात्रा शुरू कर दी।
(Interview Vimla Bahuguna)
आप नहीं गईं पदयात्रा में।

मैं कहां जाती। स्कूल जो था। हमारा मुख्य केन्द्र तो स्कूल था।
स्कूल पूरी तरह आपने चलाया?

हाँ, स्कूल ही हमारा जन-सम्पर्क का माध्यम था। वह तो आज भी चलता है। आस-पास के सब स्कूलों से ज्यादा विद्यार्थी वहां हैं।
यहां भी बुनियादी शिक्षा थी?

दोनों पाठ्यक्रम थे। नई तालीम भी थी।
बुनियादी शिक्षा की क्या विशेषता थी?

विषय तो सभी पढ़ाये जाते थे लेकिन श्रम के साथ। जो बच्चा 16 साल तक श्रम से कट जाता है, किसान या मजदूर का बच्चा, वह यदि केवल पढ़ता है तो श्रम कहां करता है। इसलिए गांधी ने कहा था कि शरीर के श्रम और बुद्घि के श्रम में समानता होनी चाहिए। दूसरे देशों में एक नाई को जो पैसा मिलता है, वही प्रोफेसर को भी मिलता है। इस खाई को पाटने के लिए जरूरी है कि हम शिक्षा को श्रम से जोड़ें। इसीलिए गांधी ने चरखा शुरू किया।
इस समय कौन चलाता है स्कूल?

त्रिलोचन हैं वहां। बहुत समझदार लड़का है, वही देखता है।
टिहरी बांध के आन्दोलन में कैसे जुड़े आप लोग?

वीरेन्द्र दत्त सकलानी ने कहा- मैं अब वृद्घ हो चुका हूं। बांध का आन्दोलन करना है। तब बहुगुणा जी उसमें लग गये। मैंने देखा कि इन्होंने अपने कमरे की सफाई की और अपना सारा सामान, सब कपड़े रख लिए। मैंने सोचा, इस बार इतने कपड़े क्यों ले जा रहे हैं। 1989 का नवम्बर का महीना था। ये टिहरी बांध के काम में लग गये तो फिर वापस सिल्यारा कभी नहीं आये। भूकम्प आया तब भी नहीं आये। ये कहते हैं, मैं तो तांगे का घोड़ा हूं। मैं एक ही दिशा में देखता हूं। पूरी शक्ति से एक ओर ही लगता हूं।
आप कहां रहीं तब?

मैं तो सिल्यारा में ही थी। 1991 में भूकम्प के समय हमारा आश्रम टूट गया। मेरी मां भी उस समय वहीं थीं। स्कूल में बच्चे थे। रात को ऊपर से पत्थर गिरा तो मांजी को लगा। मांजी ने कहा, तूने मुझे मार दिया। मैंने कहा, मांजी, मैंने नहीं मारा, मकान हिल रहा है। उस दिन मेरी बेटी आई थी देहरादून से। रात को जिस कमरे में हम सोते थे, उसमें उसने अपना सामान रख दिया था तो हम दूसरे कमरे में सोये। रात को जब भूकम्प आया, मैं टॉर्च लेकर अपना कमरा देखने गई तो वहां कमरा ही नहीं था, सब टूट गया था। हम सब बाहर निकल आये। हमारे सब कमरे टूट गये थे। गायें दब गईं थीं। गांव में हमारे तीन कार्यकर्ता मर गये। तब हमने सकाल पत्रिका में एक अपील निकाली। यह पत्रिका पूरे देश में जाती है। सकाल के लोग हमारे यहां आये। उन्होंने तीन लाख रुपया हमारे लिए इकट्ठा किया। बहुगुणा जी ने कहा, टूट ही गया है तो छोड़ो अब। तीन साल तक हमारा सामान वहां बाहर पड़ा रहा, पर एक सुई वहां से नहीं उठी। मैंने कहा, जिन लोगों का हम पर इतना विश्वास है, जिन्होंने बीस साल तक हमको पाला है, जिनके अन्न पर हम पले, उनके साथ विश्वासघात नहीं करना चाहिए। मैंने फिर से सारे कमरे बनवाये- दस कमरे बने- ऊपर-नीचे। तब मैं इनके साथ बांध विरोधी आन्दोलन में आई।
(Interview Vimla Bahuguna)
अब सिल्यारा छूट ही गया क्या?

और लोग रहते हैं वहां। वहां की जनता इतनी जागृत हो गई थी कि बांध विरोध में सबसे ज्यादा लोग वहीं से आते थे। वहां की बस दुर्घटनाग्रस्त भी हुई। सोलह लोग मारे गये। तरुण छात्र थे। फिर गिरफतारियां हुईं.़.़.़अब यह तो बहुत लम्बी कहानी है।
आज आप महिलाओं की स्थिति को किस प्रकार देखती हैं?

मुझे लोग कहते हैं, शराबबन्दी में आप फेल हो गये। मैं कहती हूं, फेल नहीं हुए, विकास के बारे मे एक नई बहस शुरू की है। मैं सोचती हूं कि सरला बहिन का सपना साकार हुआ। उनका स्वप्न था कि पहाड़ की स्त्री किस प्रकार अपनी आवाज बुलन्द करे। सामाजिक कामों में उसकी भागीदारी बने। महिलाओं में जागृति आये। उसकी शक्ति का अहसास हो। अब यह जरूरी है कि लड़कियों को सही दिशा दी जाय।
क्या आज उनको सही दिशा नहीं मिल रही है?

हमारे जीवन में गांधी का प्रभाव था। सादगी का प्रभाव था। आज लड़कियां क्यों दहेज के लिए जलाई जा रही हैं? क्या वे अपने जीवन में मूल्यों को स्थान देंगी कि हम बिकेंगी नहीं। कैसे होगी भ्रूण हत्या बन्द? कैसे होगा लड़कियों का जलना बन्द? अगर हम बाहरी तड़क-भड़क में उलझे रहेंगे तो समस्याएं तो बढ़ेंगी ही।
समस्याएं जैसे पहले थीं, क्या वैसे ही आज भी हैं?

ये तो हैं ही। पर लड़कियों में भी तो हिम्मत होनी चाहिए। ये दिशा देना आप लोगों का काम है। आप तो हमसे जवान हैं। हम तो अब बूढ़े हो गये। आप लोगों से उम्मीद है कि लड़कियों को सही दिशा दें। बाहरी चीजों में सौन्दर्य नहीं है। आत्मशक्ति सबसे बड़ी चीज है। सामाजिक समस्याओं के लिए उनको तैयार करना है।
आप अपने जीवन को कैसे देखती हैं?

मैं बहुत सफल मानती हूं। मुझे बहुत सन्तोष है अपने जीवन से कि मैंने दोहरा जीवन नहीं जिया। जो औरों के लिए अलग और अपने लिए अलग होता। मेरे बच्चों ने वहीं पढ़ा, जहां गांव के बच्चों ने पढ़ा। जैसे गांव की महिला ने श्रम किया, वैसे ही मैंने भी किया। उसके साथ अपना बौद्घिक विकास और सामाजिक कार्यों में भागीदारी निभाई। परिवार की जिम्मेदारी पूरी मेरी थी। इनकी नजर तो अपने उद्देश्य पर ही टिकी थी।
आपको लगता है, कि अगर परिवार की जिम्मेदारी साझा होती या आपको भी घर से निकलने का समय ज्यादा मिला होता तो आप और ज्यादा काम कर सकती थीं?

क्या काम करना था। बहुत किया। ज्यादा आकांक्षाएं नहीं पालनी चाहिए। सन्तोष है मुझे। इतनी तड़पन जरूर है कि महिलाएं तो शराब के लिए जेल तक गईं पर आज महिलाओं के नाम से ही जगह-जगह ठेके हो रहे हैं। हर पार्टी दूरदराज के क्षेत्रों में दुकान खोल रही है। घनसाली में खुल गई, चमियाला में खुलने जा रही है। इसका मुझे बहुत दुख है। बहुगुणा जी का स्वास्थ्य ठीक होता तो मैं आज भी किसी भट्टी पर धरना दे रही होती या गिरफ्तार होती महिलाओं के साथ। महिलाओं के साथ मुझे बहुत आनन्द आता है। आज ज्यादातर महिलाओं की दिशा राजनीति की तरफ हो गई है। सबको कुर्सी चाहिए। मुझे तो पार्टी की, कुर्सी की चाह तब भी नहीं थी, आज भी नहीं है। अपनी
संस्थाओं को मजबूत करना है।
आपका बहुत समय ले लिया, आप थक गई होंगी ।

अच्छा लग रहा है मुझको, मेरे जीवन का एक यह पूरा वृतान्त आ गया। पूरा चित्र सामने आ गया।
(Interview Vimla Bahuguna)
समाप्त
प्रस्तुति- उमा भट्ट
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