मन में था कि कुछ करना है – विमला बहुगुणा

आजादी की लड़ाई के दौरान जन्मी और आजादी के बाद समाज के निर्माण में सक्रिय रहीं, सरला बहन की शिष्या श्रीमती विमला बहुगुणा आजकल देहरादून में अपनी पुत्री मधु के साथ रहती हैं। पति श्री सुन्दरलाल बहुगुणा की अस्वस्थता के कारण वे उनकी देख-रेख में लगी रहती हैं। वरना इस उम्र में भी विमला जी के मन में समाज के लिए काम करने की ललक है। 31 मार्च 2015 को अपनी अग्रजा से उत्तरा की ओर से उमा भट्ट, हेमलता पंत तथा कमला पंत ने लंबी बातचीत की। विमला जी ने अत्यन्त उत्साह से विगत की स्मृतियों को खोला। उनके साथ हुई बातचीत यहाँ दो किस्तों में दी जा रही है।

दीदी, अपने जन्म और बचपन के बारे में बताइये।

मेरे पिताजी श्री नारायणदत्त नौटियाल वनाधिकारी थे। हमारा गाँव माली देवल टिहरी से 6 किमी की दूरी पर था। लेकिन हम लोग पिताजी के साथ ही रहते थे। मेरा जन्म 4 अप्रैल 1932 को हरसिल में हुआ। मेरे दो भाई थे- बड़े बुद्धिसागर और छोटे विद्यासागर (प्रसिद्ध कथाकार विद्यासागर नौटियाल)। हम पाँच बहिनें थीं। सबसे बड़ी मैं ही थी। वह राजशाही का जमाना था। पूरी रियासत में स्कूल तीस थे और दारू की भट्टियाँ चौरासी थीं। बड़े भाई ने हाईस्कूल की परीक्षा पैदल देहरादून जाकर दी क्योंकि वे एक वनाधिकारी के बेटे थे। सब लोग उस जमाने में देहरादून नहीं पहुँच सकते थे।
आपकी शिक्षा कैसे हुई ?

मेरे बड़े भाई की आरम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। बाद में पिताजी ने उनको टिहरी में प्रताप इन्टर कालेज में भर्ती किया। छोटा भाई और मैं साथ-साथ घर में पढ़ते थे। छोटे भाई ने लिखा भी है कि मैं और दीदी साथ-साथ कैसे पढ़ते थे। जब उसको भी पिताजी ने टिहरी भेज दिया तो मुझे बड़ी घुटन महसूस हुई। लड़कियों के लिए तो शिक्षा के दरवाजे बन्द थे। उस समय युवा बगावती होने लगे थे। गाँधी जी ने कहा था, गुलाम पैदा हुए हो, आजाद हो कर मरना। परिपूर्णानन्द पैन्यूली, रामचन्द्र उनियाल, सुन्दरलाल बहुगुणा, मेरे बड़े भाई, सब पर गाँधी जी का असर था। बड़े भाई टिहरी से हाईस्कूल करके बिड़ला इन्टर कालेज पिलानी में पढ़ रहे थे। वे वहाँ से छोड़कर चले आये। खादी की धोती और चप्पल पहनकर आये। हम सबको बहुत आश्चर्य हुआ? कैसे बदल गये? क्योंकि वे बहुत फैशनेबल थे। फिर परिवार में बातें होने लगीं, किस प्रकार हम देश को आजाद करें, युवाओं की क्या भागीदारी हो। पिताजी उन पर नाराज भी हुए।
घर में इस तरह का माहौल सबसे पहले बड़े भाई लाये?

हाँ, वे फिर गिरफ्तार हो गये। मुझे बड़ी छटपटाहट होती थी कि मेरी भागीदारी कैसे हो। गाँव में जब बैठकें होती थीं तो हम भी जाते थे। भाई साहब मुझे गाँधीजी के बारे में बताते थे और साहित्य लाकर देते थे। फिर जब सुमनजी का बलिदान हुआ, उनका जेल का बयान छपा, देश आजाद हो गया, राजशाही समाप्त हो गई, तब मेरी शिक्षा के बारे में सोचने का समय आया। पहले मैं सोचती थी कि भाईजी पिलानी में पढ़ते हैं तो पिताजी मुझे भी वनस्थली भेजेंगे। अब भाईजी को पता चला कि गाँधीजी की एक विदेशी शिष्या ने कौसानी में बहिनों की शिक्षा के लिए एक संस्था खोली है तो उन्होंने मुझे वहाँ भेज दिया।
आपकी और बहिनों ने कैसे शिक्षा प्राप्त की।

उनके लिए तो पिताजी ने घर पर मास्टर रखा। मेरे पिताजी ने उस जमाने में मेरठ से हाईस्कूल किया था। उनका जब डी.एफ.ओ. के पद पर प्रमोशन होने लगा तो अधिकारियों ने उनसे कहा, तुम अपने लड़कों को समझाओ। पिताजी ने कहा, मैं आपका नौकर हूँ, मेरे बच्चे नहीं हैं। मैं अपने बच्चों पर दबाव नहीं डाल सकता। तो उनका प्रमोशन रोक दिया गया।  गाँवों में उस समय छुआछूत का बहुत विचार था। लोगों ने कहा कि इनका लड़का तो सबके साथ खाता है, कुछ भी विचार नहीं करता। पिताजी ने कहा, कोई बात नहीं। मैं उसे रोकूंगा नहीं। यदि किसी ने मेरे घर नहीं आना है तो नहीं आये। मैं भी किसी के घर नहीं जाउंगा। इस प्रकार पिताजी बहुत ऊँचे विचारों के थे। पिताजी के बहुत स्थानान्तरण होते थे। अधिकारियों ने उन्हें बहुत परेशान किया। तो पिताजी ने परिवार को फिर घर यानी गाँव में रख दिया। दोनों बहिनों के लिए घर पर मास्टर रखा। बाद में जब मैं कौसानी चली गई तो इनको भी मैं अपने साथ ले गई। दो बहिनें उत्तर बुनियादी शिक्षा के लिए सेवाग्राम गईं। चौथी तो बहुत छोटी थी, बाद में वह भी कौसानी गई। वह मुझसे सत्रह साल छोटी थी।
तो आपके बड़े भाई ने ही आपको शिक्षा के लिए कौसानी भेजा।

उन्होंने मुझे रास्ता दिखाया और कौसानी सरला बहिन के पास भेजा। उन्होंने स्वयं भी पढ़ाई छोड़ दी थी। बाद में काशी विद्यापीठ से पढ़ाई की। छोटा भाई बी.एच.यू. में रहा। बड़े भाई ने नौकरी भी नहीं की। पूरे क्रान्तिकारी थे वे। कौसानी से पढ़ी एक लड़की थी जिसके पति की शादी के तुरन्त बाद मृत्यु हो गई थी। सरला बहिन ने उसे इलाहाबाद के कस्तूरबा विद्यालय में नर्सिंग की ट्रेनिंग के लिए भेजा था। भाई ने उस लड़की से शादी कर ली। माँ-पिताजी को बुरा लगा पर कहा कुछ नहीं। लेकिन छोटे भाई का विवाह उन्होंने अपनी इच्छानुसार किया। वह उन दिनों बी.एच.यू. में था। कहा कि तेरी माँ बीमार है, तू तुरन्त घर आ जा। घर आया तो उसकी शादी कर दी।
(Interview Vimla Bahuguna)
आप किस उम्र में कौसानी गईं?

1949 में, सत्रह साल की उम्र में। उसी साल मेरी छोटी बहिन का जन्म हुआ। सात साल मैं सरला बहिन के पास रही।
वहाँ किस प्रकार की पढ़ाई होती थी?

वहाँ सब विषय पढ़ाये जाते थे। केवल अंग्रेजी नहीं थी। बहिनजी कहती थीं, अंग्रेज गया, अंग्रेजियत नहीं गई। आश्रम में यदि कोई आगन्तुक अंगे्रजी में बात करता तो वे हिन्दी में जवाब देतीं। कहती थीं, भारतीयों की गुलामी अभी नहीं गई। हम लोग वहाँ गये तो हमें बड़ा अजीब लगा। मेरे साथ तीन बहिनें और थीं- अन्नपूर्णा, शोभा,और लेखनी, जो मेरी भाभी बनीं। नई तालीम का अपना पाठ्यक्रम था। हमने उत्तर बुनियादी परीक्षा दी। उसके बाद मैं वहाँ पढ़ाने लगी और वहीं कार्यकर्ता बन गई। मुझसे पहले मुन्नी बन गई थी कार्यकर्ता। लीला बहिन पढ़ाती थी। बहिनजी भी पढ़ाती थीं।
इन बहिनों की भी कोई वैचारिक  पृष्ठभूमि थी? ये कैसे आईं?

पृष्ठभूमि तो नहीं थी, वह समय ही ऐसा था। पहले साल तो हमें बहुत अटपटा लगा सोचा हम कहाँ आ गये। हमारा काम रसोई में भी था, खेती में भी और साफ-सफाई में भी। पाखाना साफ करना, गाय का गोबर उठाना, खाना बिल्कुल उबला हुआ। हमने सोचा, हम कहाँ फँस गये। वे बिना नमक का खाती थीं, हमारे लिए नमक डाल देते थे। मेरे मन में था कि मैंने कुछ करना है। दोनों भाई तो निकल गये आगे, मैं कुछ कर नहीं पाई। इसी तमन्ना ने मुझे वहाँ रोक लिया।
दीदी, उस जमाने में तो सत्रह साल में शादी हो जाती थी लड़कियों की।

हाँ, पर जब मैं कौसानी चली गई तो शादी की बात ही कहाँ रह गई। मेरी तो दिशा ही बदल गई। पहले पहल लगा कि यहाँ क्या है पर फिर मन लग गया। गाँधी जी को भी पढ़ा था मैंने। भाई जी ने बताया था उनके बारे में बहुत। लेकिन सरला बहिन को देखा कि वे दूसरी गाँधी थीं। मेरा जीवन, मेरा सन्देशा- गाँधी ने कहा था। दक्षिण अफ्रीका में जब वे क्रान्ति में कूदे तो पहले अपने जीवन में सारा बदलाव किया, आश्रम की स्थापना की। सब काम अपने हाथ से किया। कस्तूरबा को कहा कि चलो, पाखाना साफ करो। बा ने कहा मैं तो नहीं करूंगी तो गाँधी ने कहा, मेरे घर से निकल जाओ। तब बा ने कहा, तुम्हें शर्म नहीं आती। यहाँ विदेश में मैं कहाँ जाऊंगी। लोगों को पता न चले कि तुम मेरे साथ ज्यादती कर रहे हो। गाँधीजी ने कहा जिन मूल्यों को समाज में उतारना चाहते हो, उन्हें पहले अपने जीवन में जियो। तब हमको बोलने का अधिकार है। सरला बहिन की जीवनी आपने पढ़ी होगी। जब भारत में आईं तो पहले उदयपुर में रहीं। फिर सेवाग्राम गईं तो बीमार हो गईं। बापू ने उनसे कहा, पहाड़ में जाओ। एक साल के लिए पहाड़ आईं तो उन्हें यहाँ शान्तिलाल त्रिवेदी का साथ मिल गया। दोनों साथ काम करने लगे। अंग्रेज कमिश्नर ने कहा कि सबसे खतरनाक व्यक्ति तो सरला बहिन है। उन्हें जेल के अन्दर बन्द कर दिया। जब छूटीं तो गाँवों में चली गईं तो देखा कि जिन स्त्रियों के पति, भाई, पुत्र, जेलों में बन्द हैं, उनकी हम क्या मदद कर सकते हैं। उन्होंने गाँव-गाँव में घूमना शुरू किया। तभी उन्हें पता चला कि पहाड़ की स्त्री बहुत बहादुर है। पूरा काम संभालती है, खेती, पशु, बच्चे। उनको गौरव महसूस होता है कि हमारे पति अपने देश की आजादी के लिए गये हैं। लेकिन बहिनजी जब उनसे कहतीं कि हमारी प्रत्यक्ष भागीदारी क्या हो तो वे कहतीं कि यह पुरुषों का काम है। यह बात बहिनजी को चुभ गई। उन्होंने कहा अरे, यह तो शेषनाग है, जिस पर पहाड़ का जीवन टिका है यह अपने को ऐसा महसूस करती है। उन्होंने बापू को लिखा कि अब एक साल नहीं, अब तो मेरा जीवन पहाड़ की स्त्री की जागृति के लिए समर्पित है। मैं यहाँ एक शिक्षण संस्था खोलूंगी और आज से बीस साल बाद पहाड़ को कार्यकर्ता दूंगी। आपका जो स्वप्न है कि दूरदराज के क्षेत्रों में काम हो, तो अब मैं यहीं रहूंगी। हमारे लिए सरला बहिनजी पहाड़ में आकर बैठ गईं। उन्हें प्रचार की कोई आकांक्षा नहीं थी कि मेरा प्रचार हो कि मैं क्या कर रही हूँ। बापू का स्वप्न पूरा करने की आकांक्षा थी।
आप लोग तो पिताजी के साथ रहे पर आपके गाँव मालीदेवल में लड़कियों की शिक्षा की क्या स्थिति थी?

सब अनपढ़ थे। अगर परिवार जागरूक हुआ तो लड़कियां प्रायमरी तक पढ़ लेती थीं। सरकारी कर्मचारियों की बेटियाँ थोड़ा बहुत पढ़ लेती थीं। आजादी के बाद जगह-जगह स्कूल खोले गये।
(Interview Vimla Bahuguna)
तब आपने कौसानी में ही कार्यकर्ता के रूप में काम करना शुरू कर दिया था?

जब तेलंगाना में एक साल तक किसान आन्दोलन चला तो बिनोबाजी ने भूदान आन्दोलन शुरू किया। चौदह साल तक वे इस आन्दोलन में पैदल घूमे। हमारी संस्था में दिनभर के काम के बाद शाम को बैठकर चर्चा होती थी। एक दिन मैंने कहा, हमारी संस्था से भी किसी को इस आन्दोलन में जाना चाहिए। बहिनजी ने कहा, तुम्हारी इच्छा है। मैंने कहा, मुझे मौका मिलेगा तो मैं जरूर जाना चाहूँगी। मैंने स्वतंत्रता के आन्दोलन में भाग नहीं लिया है तो मुझे बड़ी तड़पन है। भूदान की क्रान्ति में मुझे मौका मिलेगा तो मुझे बड़ी खुशी होगी। बहिनजी ने बिनोबाजी के सेक्रेटरी दामोदारदास जी को लिखा और मुझे एक साल के लिए भेज दिया। उसी समय मेरे भाईसाहब ने मेरी शिक्षा का प्रबन्ध काशी विद्यापीठ में कर दिया था पर उस समय निर्मला देशपाण्डे, सुशीला अग्रवाल आदि बहिनें वहाँ आन्दोलन में थीं तो सबने कहा हम तो अपनी शिक्षा छोड़कर यहाँ आ गई हैं और यह शिक्षा के लिए जायेंगी। वह तो बेकार शिक्षा है। तो फिर मैं नहीं गई। बाद में सरला बहिन ने मुझे पहाड़ में ही बुला लिया। मैं फिर कौसानी आ गई। तब तक वहाँ राधा बहिन भी आ गई थीं। तब बहिनजी ने लड़कियों की टोलियाँ लेकर गाँवों में घूमना शुरू किया। गढ़वाल की ओर मैं जाती थी और कुमाऊँ की तरफ राधा बहिन जाती थीं लड़कियों के साथ। मैं 1949 में आई कौसानी, राधा बहिन 1951 में आई। 1953 में मैं भूदान में चली गई, 1954 में वापस आई।
कहाँ कहाँ जाते थे आप लोग।

सरला बहिनजी टोलियों को लेकर निकलती थीं। हम स्कूल, कालेजों में जाते थे दिन में। रात को महिलाओं के साथ बैठकें करते थे, क्योंकि महिलाओं को रात को ही समय होता था।
किस प्रकार की बातें होती थीं महिलाओं के साथ?

ग्राम स्वराज्य, मद्यनिषेध, महिला शिक्षण, पर्यावरण, जंगलों को बचाने के विषय में, अस्पृश्यता, सभी विषय होते थे। मेरे पिताजी ने सबसे पहले अपना खेत अपने गाँव के दर्जी को दिया था। बहुगुणाजी ने उन्हीं दिनों टिहरी में ठक्कर बाबा छात्रावास बनाया था, ये वहीं रहते थे। मन्दिर प्रवेश का कार्यक्रम भी किया था। भंगियों की बस्ती में जाकर रहते थे। हम लोग जब कौसानी से छुट्टियों में घर आते थे तो रात को वाल्मीकि बस्ती में शिक्षण के लिए जाते थे।
बहुगुणा जी के साथ विवाह कैसे हुआ?

सरला बहिन के इधर के कार्यक्रमों का संयोजन भी बहुगुणा जी करते थे। मुझे तब लोगों ने देखा कि यह बहुत अच्छी कार्यकर्ता बन गई है। मैं भाषण भी देती थी। बहुगुणाजी के आगे  प्रस्ताव रखा तो वे राजी हो गये। मेरे पिताजी भी खुश हो गये क्योंकि उनपर तो मेरी शादी के लिए बहुत दबाव था। ठक्कर बाबा छात्रावास में एक सम्मेलन होना था जिसमें दादा धर्माधिकारी भी आये थे। कौसानी से मैं और बहिनजी भी आने वाली थीं। मेंरे पिताजी 19 जून को शादी की तारीख निश्चित करके गांव चले गये। सरला बहिनजी को पत्र लिखा कि आप सम्मेलन में आ रही हैं तो विमला को कहिये कि अपना सारा सामान लेकर आये। एक बहुत अच्छा लड़का मिल गया है और 19 जून को उसकी शादी है। उस दिन बहिनजी नैनीताल गई थीं, पत्र मैंने ही पढ़ा। डाक मैं ही खोलती थी। जब हम काठगोदाम में मिले तो मैंने उन्हें पत्र दिखाया। उन्होंने कहा, तुमने क्या सोचा है। मैंने कहा, ऐसा कैसे हो सकता है। चार दिन का शिविर था, जब शिविर पूरा हो गया तो बहिनजी, एक अन्य कार्यकर्ता तथा मैं गांव गये। बहिनजी ने पिताजी से कहा, आपका पत्र मिला था। पिताजी ने कहा, हां, इसकी शादी होनी है 19 तारीख को। आप जाइये और इसे यहां छोड़ जाइये। बहिनजी ने कहा, यह तो अभी तैयार नहीं है। पिताजी ने कहा, तैयार क्या होना है।
(Interview Vimla Bahuguna)
आपकी उम्र क्या रही होगी उस समय?

1955 की बात है, 26 वर्ष रही होगी। बहिनजी को पिताजी ने आड़े हाथों लिया। आप भारतीय संस्कृति को क्या जानती हैं। आप पाश्चात्य संस्कृति की हैं। मैंने अपनी लड़कियों को इसलिए आपके पास नहीं भेजा कि आप उन्हें बगावती बना दें। मैं उस लड़के को जानता हूं, उसके पूरे खानदान को जानता हूं, लड़का इसके विचारों का है, इसको क्या दिक्कत है। मैंने कहा, मेरे विचारों का तो है पर उनका रास्ता राजनीति का है, मुझे गावों में रहकर काम करना है। यदि ये राजनीति छोड़ेंगे तो शादी होगी। मैंने कहा, मुझे एक साल का समय सोचने के लिए चाहिए।
उस समय भी आपने इतना साफ-साफ सोचा।

हां, साफ क्या, मैंने देखा था कि सरला बहिन गांधी-विचारों से प्रेरित होकर भारत आईं और भारत में भी पहाड़ की स्त्री के लिए पूरा जीवन समर्पित कर दिया। मैंने भी अपना रास्ता तय किया था कि गाँव में रहना है। बहिनजी हमारे गांव मालीदेवल पहली बार आईं थीं। पिताजी बहुत नाराज हुए। खाना भी नहीं खाया, न मैंने, न पिताजी ने। बहिनजी ने बड़ी मुश्किल से एक रोटी खाई। पिताजी ने कहा, इसको कमरे में बन्द करो। मेरे चाचा, बुआ भी सब बहुत खुश थे कि अब इसकी शादी होगी। सबको निराशा हुई। सुबह चार बजे हम उठे। बहिनजी ने पूछा, तुम क्या करोगी। मैंने कहा, मैं तो जाउंगी। पिताजी ने कहा, मेरे घर के दरवाजे तुम्हारे लिए अब बन्द हैं। तुम्हारी बहिनें जो सेवाग्राम में पढ़ रही हैं, उन्हें मैं तुरन्त वापस बुलाता हूं। उनकी शादी कर दूंगा। मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने पिताजी से कहा, आपने जो लड़का सुझाया है, मैं उन्हीं से शादी करूंगी पर मुझे एक साल का समय दीजिये सोचने के लिए। फिर हम दोनों – बहिनजी और मैं टिहरी आये बहुगुणा जी के पास। ठक्कर बाबा छात्रावास में इनसे बात हुई।
आपने स्वयं बात की?

उस जमाने में तो लड़कियां ऐसे बोलती नहीं थीं। शादी के विषय में तो बात ही नहीं करती थीं। बहिनजी ने ही बात की। बहुगुणा जी ने कहा, ठीक है, मुझे कोई ऐतराज नहीं, एक साल का समय देने में। मैंने कहा, राजनीति छोड़कर गांव में रहना होगा। फिर हमारा पत्र-व्यवहार शुरू हुआ- बहुगुणा जी का, मेरा और बहिनजी का। बहुगुणा जी उन दिनों जिला कांग्रेस कमेटी के मंत्री थे। शुरू में ये हमारी संस्था के भी मंत्री थे। इनको सब मंत्रीजी बोलते थे। इन्होंने तुरन्त कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। मैंने कहा कि दूरदराज के क्षेत्र में बैठना है तो इन्होंने जगह ढूंढना शुरू किया। कई जगहें देखीं। बाद में हमने सिल्यारा चुना। सिल्यारा के दो विद्यार्थी ठक्कर बाबा छात्रावास में रहते थे। उन्होंने कहा, हमारे यहां भी देख लीजिये। वहां इन्हें पसन्द आ गया। गांव वालों की बंजर भूमि थी। इन्होंने बहिनजी को और मुझको पत्र लिखा कि इस प्रकार की जगह है। हमसे एक महीना पहले ये वहां चले गये। छात्रावास के विद्यार्थियों को लेकर इन्होंने वहां एक श्रम शिविर रखा था। पानी ले आये थे और दो झोपड़ियां बनाईं थीं श्रमदान द्वारा, एक रहने के लिए और एक भोजन के लिए। ठीक एक साल बाद 19 जून 1955 को सिल्यारा में हमारी शादी हुई।
शादी अपने गाँव में नहीं हुई?

पिताजी ने कहा था कि घर के दरवाजे बन्द हैं तो वे ही सिल्यारा आये। मैं और बहिनजी कौसानी से आये। दावत, दहेज, बारात कुछ नहीं था। मेरे लिए तो सब गहने बने हुए थे, पर मैंने कुछ नहीं लिया। गहनों का मुझे कोई शौक नहीं था। जब सरला बहिन के यहां चली गई तो फिर क्या गहने। केवल एक फुल्ली मैं पहनती हूँ। कुल 48 रुपये में हमारी शादी हुई। 24 रु़ मैंने दिये, 24 रु़ इन्होंने दिये। उस जमाने में बहिनजी मुझे 100 रु़ देतीं थीं। मेरे पास पैसा जमा था। मेरा खाने का खर्चा 10-12 रुपया आता था। पिताजी ने बहुत जिद की कि कुछ तो मीठा बनाओ तो गुड़ की भेलियां मंगाकर गांववालों में बांटी। गांव वाले कह रहे थे, नये ढंग की शादी है। संस्कार सब हुए, पंडित आया, फेरे हुए। मेरे घर से माँ, पिताजी और छोटा भाई आये। बहुगुणाजी के भाईसाहब आये थे।
(Interview Vimla Bahuguna)
प्रस्तुति: उमा भट्ट
क्रमश:
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