अगर कविताएँ मुझसे होकर आना चाहती हैं तो ये रास्ता खुद तलाशेंगी- जसिन्ता

युवा हिन्दी कवयित्री जसिन्ता केरकेट्टा झारखण्ड के उरांव आदिवासियों में से हैं और रांची में रहती हैं। अपने कवि मित्र अनिल कार्की के आग्रह पर वे उत्तराखण्ड आई थीं। 2 अक्टूबर 2017 को नैनीताल में भारती जोशी, ऋतु जोशी, रूपिन मैत्रेयी तथा उमा भट्ट की उनके साथ लम्बी बातचीत हुई जिसके सम्पादित अंश यहां दिये जा रहे हैं।

जसिन्ता, सबसे पहले तो हम लोग यह जानना चाहेंगे कि इतनी कम उम्र में आप कविता और समाज में भी एक संघर्षरत आदिवासी लड़की के रूप में अपनी एक पहचान बना चुकी हो। आप यह भी सोच रही हो कि देशभर के युवा आगे आयें, अपने समाज, प्रकृति और अपने जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए तो कैसे आप यहाँ तक पहुँची हो? आपका सोच और व्यवहार बहुत स्पष्ट नजर आता है। यह सब कैसे हुआ?
मैं सबसे पहले आप सबको जोहार कहूंगी। मैंने बहुत बचपन से ही लिखना शुरू कर दिया था। मुझे लगता है, बचपन में अपनी पारिवारिक परिस्थितियों से मैं प्रभावित हुई।
मतलब किस उम्र से?

जब मैं कक्षा 6, 7 या 8 में पढ़ती थी, तभी से मैंने लिखना शुरू कर दिया था। मेरी शुरूआत हिन्दी में ही हुई। तीसरी-चौथी कक्षा से मैंने घर की जिम्मेदारियां संभालनी शुरू कर दी थीं। उससे पहले तो जंगल, नदी, गाँव में घूमते रहते थे। अचानक से चौथी कक्षा के बाद सारी चीजें छूट गई।
उन दिनों आप लोग कहाँ रहते थे?

तब हम संथाल परगना में गाँव में रहते थे। हमारे पिता पुलिस में थे। वे अक्सर निलंबित रहते थे। तो तनख्वाह बहुत कम मिलती थी। जिससे शहर में रहना मुश्किल हो जाता था। बाद में मेरी माँ दो बच्चों को लेकर गाँव चली गई। मैं और दो छोटी बहिनें शहर में थीं। मुझे दो बहिनों को सम्भालना पड़ता था और स्कूल भी जाती थी मैं। माँ के जाने से मेरे बचपन को एक ब्रेक लग गया। पापा हम पर ध्यान नहीं देते थे। अकसर घर से बाहर रहते थे। उस समय मैंने बहुत सीखा कि आपकी जिन्दगी में कोई आपके सामने न खड़ा हो तो भी आप कैसे चलें। मेरी बहिन उस समय चलना सीख ही रही थी। उसको संभालना, खाना बनाकर स्कूल जाना, दोपहर में दूसरों के घर से बहिन को लाना, ये सारे काम मैं करती थी। इलाके के लोग भी हमें देखते थे कि कैसे इतनी कच्ची उम्र में दो-दो बच्चों को मैं संभालती थी। एक डेढ़ साल बाद माँ वापस आई। जब मैं पाँच या छह में पढ़ती थी तो मैं बहुत भयानक तरीके से बीमार थी। मेरे पूरे शरीर की गाँठों में दर्द था। छह महीने तक मैं अस्पताल में रही। मुझे तेज दवाइयाँ दी गई थीं। उस बीच मेरे माता-पिता के बीच लड़ाई होती रहती थी। आप इतनी बुरी दशा में हैं, तब भी आपके पिता, बड़े भाई कोई आपके साथ खड़े नहीं हैं। माँ अकेली है। मानसिक रूप से इससे मुझे आघात पहुँचता था। तब मुझे एक बात महसूस होती थी कि मुझे आगे पढ़ना है। बीमारी की हालत में भी मैं पढ़ाई करती थी जिससे मेरे दिमाग पर दबाव पड़ता था।
आपको पढ़ना क्यों इतना जरूरी लग रहा था? आपके आस-पास जो दूसरी लड़कियां थीं आपकी उम्र की, क्या वे भी सब पढ़ रहीं थीं?
(Interview Jasinta Kerketta)

मुझे लग रहा था कि यही एक रास्ता है जिससे हम इन सारी परिस्थितियों से बाहर निकल पायेंगे। संथाल परगना में मेरी हमउम्र सब लड़कियाँ पढ़ रहीं थीं। एक यह भी बात थी कि ये सब मुझसे आगे बढ़ जायेंगी और मैं पिछड़ जाउंगी। मेरी बीमारी इतनी बढ़ गई थी कि मृत्यु की आशंका होने लगी। सर में बहुत दर्द होता था। चर्च से दिये जाने वाले अन्तिम संस्कार भी मुझे दे दिये गये। मुझे रांची के पागलखाने में रखने की बातें भी होने लगीं थीं। लेकिन बाद में मैं धीरे-धीरे ठीक होने लगी। लेकिन 3-4 महीने तक मैंने अपनी स्मरण शक्ति खो दी। मुझे केवल दो ही बातें याद आती थीं- जंगल और पहाड़। माँ मुझे जंगल और पहाड़ दिखाने ले जाती थीं। इसीलिए शायद ये मेरी चेतना में कही गहरे पैठा हुआ है। शुरू के दो सालों तक मैंने अपना ध्यान केन्द्रित करने के लिए बहुत अभ्यास किया। बाद में पिता का तबादला पश्चिमी चम्पारण में होने से मुझे छात्रावास में भेज दिया गया था। पहली बार घर से दूर गैर आदिवासी बच्चों के बीच मैं रही। मेरा रंग गहरा था तो मुझे अपमानित भी किया जाता था। मेरी दिमागी हालत भी बहुत ठीक नहीं थी। मैं खुद अपने दिमाग को ठीक करने का अभ्यास करने लगी कि किसी तरह आठवीं पास हो जाऊँ। मैं कोशिश करती थी कि किताब में जो है, उसे दिमाग में छाप दिया जाय। घर के और बाहर के लोग मेरी दशा को समझ नहीं पाते थे। उस समय मैं अच्छे नम्बरों से पास हो गई।
आपके भाई-बहिन तब कहाँ पढ़ रहे थे?

वे सीवान में पढ़ रहे थे। भाई तो पढ़ाई छोड़ चुके थे पर बहिनों को माँ ने मिशन स्कूल में भर्ती कर दिया था। माँ भी वहीं काम करने लगी थी। बाद में मेरी बहिनें भी मेरे साथ चक्रधरपुर के स्कूल में छात्रावास में आ गई थीं।
कविताओं की शुरूआत कैसे हुई?

जब मैं मानसिक तनाव में गुजर रही थी, मैंने छोटी-छोटी कविताएं लिखना शुरू किया। पता नहीं। मैं अपनी माँ से दूर थी। मुझे लगता था कि आने वाले समय में मेरी माँ का साथ कोई नहीं देगा। भाई भी नहीं। पिता भी नहीं देंगे। मैं सोचती थी कि पन्द्रह साल बाद जाकर देखूँ कि मैं अपनी माँ के लिए क्या कर सकती हूँ। यही सोच कर मैंने कुछ-कुछ लिखना शुरू किया था। डायरी में लिख लेती थी कविताएँ तो किसी दिन किसी लड़की ने देखा तो कहा यह किसी किताब से नकल किया हुआ है। किसी को यकीन नहीं था कि मैंने लिखा है। कविताएँ लिखने से मुझे थोड़ा सुकून मिलता था कि मैं अपनी बात कागज पर लिख पा रही हूँ। एक बार मेरी माँ ने कविताएं देखीं तो उनकी आंखों में आँसू आ गये। मैंने उनसे पूछा कि तुम्हें मेरा लिखा हुआ छुआ तो वे बोलीं, बहुत। मैंने सोचा, जब मेरी माँ को छू सकता है तो दुनियां में और लोगों को भी छू सकता है। माँ ने कहा, तुम लिखना मत छोड़ना। लिखते हुए तभी मैंने जाना कि पल में जीना- अन्तराल में जीना क्या होता है और इस तरह अन्तराल में जीने से इंसान अपने जीवन में बहुत कुछ कर सकता है।
क्या आशय है अन्तराल में जीने का?

अन्तराल में जीने का मतलब मैंने यह महसूस किया है कि कई बार आप भविष्य के बारे में भी न सोचें और अतीत के बारे में भी नहीं। जहाँ पर हैं, वहीं पर एक-एक क्षण में आप रहें तो कई बार ऐसी स्थिति आपके भीतर बनती है कि आप समय से परे-टाइमलैस- हो जाते हैं। आप वर्तमान के समय से अपनी घड़ी मिलाएंगे तो वह जो समय होता है, आपको लगेगा एक सदी हमने वहाँ जी लिया है या एक पूरा दिन वहाँ महसूस होगा। एक मिनट में भी आपको लग सकता है कि एक पूरा दिन हमने वहाँ गुजार दिया- गहराई में जाकर बेहतरीन काम किया और घड़ी देखेंगे तो बाहर आपको 2 मिनट या 5 मिनट का समय गुजरा हुआ दिखेगा। वह अन्तराल इतना गहरा हो सकता है। आप उस पल में इतने हल्का महसूस करते हैं कि सामान्य व्यक्ति इसे महसूस नहीं कर सकता। मैंने यह भी महसूस किया कि जब भीतर आप बहुत हल्के हो जाते हैं तो बाहर की सफलता बहुत आसान हो जाती है। उन दिनों मैंने तीन साल तक लगातार स्कूल की पत्रिका में हर महीने कहानियाँ लिखीं। रांची में जो सम्पादक थे, बहुत आश्चर्य करते थे कि कौन है यह लड़की जो हर महीने एक कहानी लिखती है।
क्या स्कूल की पत्रिका हर महीने निकलती थी?
(Interview Jasinta Kerketta)

रांची से यह चर्च की पत्रिका निकलती थी जो मिशन के सब स्कूलों में जाती थी।
ये किस प्रकार की कहानियाँ होती थीं?

मैं बहुत आगे की कल्पनाएँ करके उन कहानियों को तैयार करती थी। लड़कियों के संघर्षों के बारे में, स्त्रियों-पुरुषों के पक्ष में, अपने को पुरुष पात्र या स्त्री पात्र के रूप में कल्पित करके लिखती थी। स्कूल के लड़के-लड़कियों के पत्र मेरे पास आने लगे कि उन कहानियों को पढ़कर हमारे जीवन में बदलाव आया है। तब मुझे एक नया रास्ता सूझा कि हम अपनी ही खुशी के लिए नहीं, दूसरों के लिए भी लिख सकते हैं। इसलिए लिखना मुझे हमेशा जारी रखना चाहिए।
तो आपके लेखन की शुरूआत कहानियों से हुई?

शुरू में कविताएँ लिखीं, फिर कहानियाँ लिखीं और अब फिर कविताएँ लिख रही हूँ।
यह कैसे हुआ कि बीमारी है जो समझ में नहीं आ रही है, उससे निकलकर आप लिखने लगीं।

जब कोई चारा नहीं होता तो मुझे लगता है, आपका खुद से ही संवाद होने लगता है। तब पता चलता है कि हर मनुष्य के भीतर क्षमता है कि वह खुद से संवाद कर सके। तब आपको बहुत सारे सवालों के जवाब मिलने लगते हैं। अध्यात्म में भी लोग पलट-पलट कर उन्हीं बातों को बताते हैं। उन क्षणों में मैं उन्हीं स्थितियों से गुजर रही थी। बाद के समय में मेरी मजबूती का भी यही कारण था कि कोई रहे न रहे मैं खुद से बात कर सकती हूँ। उस बातचीत का अच्छा ही परिणाम निकलता था। मेरा विश्वास बढ़ता गया कि मैं हूँ और कोई शक्ति है जिससे मैं बात कर सकती हूँ। कई बार छात्रावास में मैं बीमार पड़ती थी और इच्छा करती थी कि माँ को सूचना मिल जाये और मैं देखती थी कि दूसरे दिन माँ आ जाती थी। मेरे घर में सबको धीरे-धीरे यह मालूम हो गया कि मैं विश्वास करती हूँ। माँ कई बार कहती, तुम्हें कुछ चाहिए तो तुम उसी से मांग लेना।
ऐसा तो नहीं कि ये बातें आपकी माँ ने ही आपके अन्दर डाली हों?

नहीं, मेरी माँ तो मेरे भाइयों ओर पिताजी के बीच इतनी उलझी हुई थी कि उनसे ज्यादा संवाद नहीं हो पाता था। मैंने खुद ही यह शुरू किया- खुद से बातचीत करना। बाद-बाद में जीवन में जैसे-जैसे चीजें बदलती गईं तो बहुत मजबूती से मुझे यकीन होने लगा कि मनुष्य के पास अपना कोई विश्वास है और वह अपने आप से बातें करने लगे तो ये मन्दिर, मस्जिद, चर्च की भी जरूरत नहीं है। एक प्रकार की रचनात्मक ताकत- पॉजिटिव इनर्जी का संचार होता था। उसी के कारण किसी भी परिस्थिति में गलत समझौता करना या डिग जाना या गलत रास्ते पर चले जाना या निराश होना, उस ताकत ने मुझे कभी नहीं जाने दिया।
आगे की पढ़ाई आपकी कैसे हुई?

मैट्रिक करके मैं गाँव वापस आ गई थी। परेशान थी कि आगे क्या करूंगी। माँ भी बीमार थीं। उन्हें बार-बार अस्पताल ले जाना पड़ता था। गाँव में रहकर ही मनोहरपुर के कालेज से मैंने इन्टर किया। मेरे बड़े भाई ने पढ़ना छोड़ दिया था। उन्हें मेरा पढ़ना पसन्द नहीं था। स्कूल काफी दूर था। मैंने माँ से दो हजार रुपये की साइकिल खरीदवाई थी पर भाई ने तोड़कर रख दी।
गाँव की दूसरी लड़कियाँ भी जाती थीं पढ़ने?
(Interview Jasinta Kerketta)

मेरी उम्र की तो नहीं पर छोटी-छोटी लड़कियाँ मिशन के छात्रावासों में रहकर पढ़ रही थीं। मैं दिन में माँ के साथ धान काटती थी और रात में जागकर पढ़ाई करती थी। मैंने परीक्षा फॉर्म भर दिया था और मैं परीक्षा के दिन सुबह चार बजे उठकर घर से चली गई। बाद में माँ मेरा सामान, कपड़े पहुँचा गई। माँ हमेशा मेरे साथ रही। मैं कुछ भी निर्णय लेती थी तो माँ मेरे साथ खड़ी होती थी। उनको मेरी बहुत सारी चीजें समझ नहीं आती थीं पर कहती थी कि मुझे तुम पर भरोसा है। मैंने परीक्षा दी और अपने कालेज में टॉप किया। मुझे पहली बार कुछ आजादी का अहसास हुआ कि अब तो मैं घर छोड़कर जा सकती हूँ, मुझे कोई नहीं रोक सकता। तब मैं राँची चली गई।
माँ को बताया?

हाँ। माँ ने जमीन बंधक रखकर मुझे 7000 रुपये दिये। मैं राँची के सेन्ट जेवियर्स कालेज में पढ़ना चाहती थी। क्योंकि उसका बहुत नाम था। एकमात्र उसी कालेज में मास कम्यूनिकेशन में प्रवेश के लिए मैंने फॉर्म भरा।
आपने पत्रकारिता को ही क्यों चुना?

क्योंकि मैं लिखती थी। मुझे लगा कि पत्रकारिता का कोर्स करके किसी अखबार में लिखकर मैं चार पैसे कमा लूंगी। डिग्री रहेगी तो मीडिया में नौकरी मिलने में मदद मिलेगी। मैं राँची में भटक रही थी कि एक परिचित लड़की मिल गई। उसके घर में मेरे रहने-खाने की व्यवस्था हो गई। परीक्षा में पूरा पर्चा अंग्रेजी में था जबकि गाँव से होने के कारण मैं अंग्रेजी कम जानती थी। पर्चे में हिन्दी में एक कहानी भी लिखनी थी, जो मैंने लिखी। उस कहानी की वजह से मुझे सेंट जेवियर्स में प्रवेश मिल गया।
आगे आपने पढ़ाई कैसे जारी रखी?

मैंने एक पत्र बनाया और कई संस्थाओं में जाकर उनसे र्आिथक सहायता मांगी। मिशन की संस्थाओं ने मेरी मदद की। कुछ अधिकारियों के पास भी गई पर उनसे मदद नहीं मिली। आज के दिन वे मुझे जानते हैं। हर सेमेस्टर के लिए मुझे पैसा जुटाना पड़ता था। पार्ट टाइम रिपोर्टिंग का काम भी मैंने किया। कुछ दुकानों में भी मैंने काम किया। ग्रेजुएशन के बाद मेरा लक्ष्य पैसा कमाना था। मेरा मन था कि इलैक्ट्रिानिक मीडिया में जाऊँ। एक टी.वी. चैनल में मेरा चयन हुआ तो मैंने बहुत मेहनत करके काम सीखा। लोग काम निपटाकर गप मारते थे पर मैं नये-नये काम सीखती थी। फिर एक अखबार में मेरी नौकरी लग गई। वहाँ मुझे सात हजार रुपये तनख्वाह मिलने लगी। मैं बहुत लगन से पैदल जा-जाकर काम करती थी। सम्पादक मुझे सपोर्ट करते थे। मेरी मेहनत ने मुझे पहचान दी। तीन साल मैंने उस अखबार में पत्रकार की हैसियत से काम किया।
इस दौरान घर में भी मदद की?

हाँ, मैं घर को खर्चा भेजती थी। दो बहिनों को अपने साथ रखकर पढ़ाने लगी थी। अखबार छोड़ने के बाद परेशानियाँ बढ़ गईं। उसी समय मुझे एक कन्सल्टेंसी का काम मिल गया। दिल्ली की एक गैरसरकारी संस्था ने यह अध्ययन कराया कि आदिवासी लड़कियाँ विज्ञान के अध्ययन में रुचि क्यों नहीं रखतीं। कला विषयों की ओर ही क्यों जाती हैं। तकनीक के प्रति महिलाओं का रुझान क्यों नहीं है। क्या इसके पीछे सामाजिक धारणाएँ काम करती हैं। इस काम से मुझे पूरे झारखण्ड में गाँव-गाँव घूमने का मौका मिला। 2014 में यू एन डी पी की एक छात्रवृत्ति का विज्ञापन निकला जो देशभर में छह पत्रकारों को मिलनी थी और हिन्दी या अंग्रेजी में पाँच स्टोरी करनी थीं। इसमें मेरा नाम आ गया। इस छात्रवृत्ति ने मुझे बहुत ताकत दी। यह कुल डेढ़ लाख रुपये की थी। मैंने बहुत ईमानदारी से उसमें काम किया। मैंने संथाल परगना के जंगल और पहाड़ों को बचाने के लिए जो लोग संघर्ष कर रहे हैं, उनकी कहानियाँ लिखीं। इसी बीच मुझे थाइलैण्ड का वर्ड्स ऑफ एशिया पुरस्कार भी मिला। इन सारी बातों ने मुझे मजबूत होने में मदद दी।
(Interview Jasinta Kerketta)
कहानियाँ, पत्रकारिता, इस सबके बाद कविताओं की ओर कैसे झुकाव हुआ?

अखबार में काम के दौरान मैंने बाइक चलाना सीख लिया था और अपने मित्रों के साथ चाय की दुकान पर अड्डेबाजी भी करने लगी थी। तब दूसरे पत्रकारों ने मुझसे कहा कि इस तरह अड्डेबाजी मत किया करो और इस इलाके में बाइक भी मत चलाया करो। मैंने उनसे कहा, जब मैं दफ्तर में काम करके रात दस बजे निकलती हूँ तब आपको मेरी चिन्ता नहीं होती। इसी बात पर मैंने एक कविता लिखी- ह्यरात और लड़कीह्ण और फेसबुक में डाल दी। उस पर कइयों की प्रतिक्रिया आई। एक कार्यक्रम में मैने उस कविता का पाठ किया। तब मेरी कविता की चर्चा हुई। फिर वही कविता दिल्ली से प्रकाशित भी हुई। रात और लड़की कविता मेरे जीवन में बदलाव का बिन्दु थी।
यह कब की बात है?

2012 की। जब मेरे अनुभव बढ़ते गये तो भावनाएँ उमड़ने लगीं। पत्रकारिता करते हुए आप हमेशा अपनी भावनाओं को जब्त करते हैं। पत्रकारिता में यथार्थ लिखना पड़ता है और तटस्थ होना पड़ता है। मुझे लगा यह कविताओं का एक कोना है जिसमें डूबा जा सकता है, जो अनछुई भावनाएँ हैं, उनको वहाँ रख सकते हैं। कई लोगों ने मुझसे कहा, तुम्हारे अन्दर यह चीज है, तुम इसे छोड़ना मत।
पहला संकलन कब आया?

2014 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की पत्रिका परिचय में मेरी आठ कविताएँ प्रकाशित हुईं। कहा गया कि ऐसी कविताएँ आदिवासी इलाकों से अभी तक नहीं आ रही हैं। ये कविताएँ राष्ट्रीय स्तर पर आनी चाहिए। नया ज्ञानोदय में लीलाधर मंडलोई की टिप्पणी के साथ मेरी पाँच कविताएँ छपी थीं। 2016 में मेरा पहला संकलन अंगोर एक साथ हिन्दी-अंग्रेजी में द्विभाषिक रूप में कोलकाता के प्रकाशन आदिवासी से आया है। दूसरा हिन्दी-जर्मन में है।
आप हिन्दी में लिखती हैं?

हाँ, अंग्रेजी ओर जर्मन में अनुवाद है।
जर्मन में कैसे आया?

मैं उड़ीसा में एक कार्यक्रम में कविता पाठ कर रही थी। वहाँ एक जर्मन व्यक्ति थे जो कार्यक्रम की रिपोर्ट तैयार कर रहे थे। वे मेरी कविताओं से बहुत प्रभावित हुए। कविताएँ सुनकर वे रोने लगे। उन्होंने निर्णय लिया कि वे इन्हें जर्मन में भी प्रकाशित करेंगे।
इस उपलब्धि पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई लोेगों की?

जब मैने कविताएँ लिखना शुरू किया तो कइयों ने कहा, कविताएँ लिखने से पेट नहीं भरता। हमने तो कवियों को नींबू-पानी बेचते हुए देखा है। मैंने कहा, अगर कविताएँ मुझसे होकर आना चाहती हैं तो ये अपना रास्ता खुद तलाशेंगी। किसी ने कहा, किताब छपने में तो बहुत पैसे लगते हैं तो मैंने कहा, मुझे किताब की चिन्ता नहीं है, कविताएँ किताबों का रास्ता भी खुद से तय करेंगी और उन्होंने किया है। मैं कभी इनका श्रेय नहीं लेती। मैं नहीं कह पाती कि मैं रच रही हूँ। जब भी मेरे जीवन में भटकाव आता है तो मैं ध्यान से सुनने और ध्यान से देखने की ओर ही लौटती हूँ।
आपकी कविताओं में आदिवासी तत्व किस रूप में आया है?
(Interview Jasinta Kerketta)

आदिवासी जीवन पर ही मेरी सारी कविताएँ आधारित हैं। उन्हीं का आधार लेते हुए वे विश्वव्यापी प्रश्नों को छूती हैं। पत्रकारिता के दौरान जंगलों ओर गाँवों में घूमने के अनुभव हुए। बचपन की यादें कि कैसे जमीन के लिए षडयंत्र के तहत हत्याएँ हुईं, वे सारे यथार्थ, जब मैं आन्दोलनों के बारे में ज्यादा जानने-सुनने लगी, कार्यकर्ताओं से मिलने लगी तो मुझे कई बातें समझ में आने लगीं। मेरी समझ बनने लगी कि चीजें किस रूप में हो रही हैं। मेरी कविताएँ तब माँ की पीड़ा और मेरी अपनी कहानी तक सीमित नहीं रहीं, धीरे-धीरे समाज के लिए मैंने कविताएं लिखना शुरू किया।
आप स्वयं को आदिवासी क्षेत्रों में एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी देखती हैं?

हाँ, कविताएँ लिखते-लिखते, पत्रकारिता करते-करते एक समय में मुझे यह लगने लगा कि साथ में अगर कर्म का योग न रहे तो पता नहीं क्या होगा। लिखने के साथ-साथ मेरी जिम्मेदारी यह भी है कि मैं धरातल पर भी काम करूँ। यह मेरा सपना था कि मैं आदिवासी लड़कियों के बीच जाकर अपनी भाषा-संस्कृति को लेकर काम करूंगी।
लड़कियों के बीच ही क्यों?

क्योंकि जिस तरह मेरा बचपन गुजरा, उस तरह की हजारों लड़कियाँ हैं, जिनकी मेरी जैसी परिस्थितियाँ हैं। मैं पहले वहीं से शुरूआत करूंगी। वे अपने आप को नहीं समझ पाती हैं। वे नहीं जानतीं कि कैसे अपनी परिस्थितियों को रचनात्मक ऊर्जा में बदलें। मैंने वह सब झेला है। मैं उनको बताना चाहती हूँ कि हमारा संघर्ष समान है। उन्हें परिवार में अच्छा माहौल नहीं मिल पाता है। कई बार उनका पूरा रास्ता बन्द हो जाता है। किसी लड़के के साथ भागकर शादी कर ली और माँ बन गईं। या पलायन करके दिल्ली चली जाती हैं। घरवालों से संवाद नहीं हो पाता। बाहर के लोग कहीं भी ले जाकर उनका इस्तेमाल करने लगते हैं। ये सारी चीजें मेरे जीवन में भी थीं पर मैंने समझौता नहीं किया। मैं इतना तो कर सकती हूँ कि एक छोटी सी शुरूआत करूँ कि लड़कियों के साथ काम करूँ। शयद बाद में इसी से दायरा बढ़े। फिर हम लड़कों के साथ भी काम करें कि आप स्त्रियों के साथ कैसे विकसित हों, कैसे व्यवहार करें। जो स्थितियां लड़कियों के साथ हैं, वे लड़कों के साथ भी हैं क्योंकि उन्हें भी माहौल नहीं मिल रहा है। वे भी मजदूरी करने के लिए देशभर में भटक रहे हैं। मैं मानती हूँ कि आधी स्त्री तो पुरुष में भी है।
क्या ऐसे आदिवासी इलाके हैं, जहाँ आदिवासी अपने जीवन दर्शन के साथ, अपनी भाषा-संस्कृति में जीते हैं? जहाँ अभी भी बाहरी दखल नहीं है। जहाँ उनकी जमीनें उनके पास हैं।

हाँ, ऐसा नहीं है कि सब कुछ शहर बन गया है। झारखण्ड इसी तरह के इलाकों में होने की वजह से बिहार और दूसरे क्षेत्रों से अलग है। लेकिन चूंकि बहुत से कानूनों में बदलाव हो गया है तो पहले जिस जंगल को वे अपना मानते थे, अब इन्हें अपने को साबित करने के लिए उनको लड़ना पड़ता है कि हमारे पूर्वजों ने ये जमीनें तैयार की थीं। इस तरह की विचारधारा लाई जाने लगी है कि आपको दूसरी जगह जंगल-जमीन दी जायेगी, यहाँ आप छोड़ दीजिये। यहाँ जानवर रहेंगे। ये प्रक्रियाएँ ऐसी हैं कि आदिवासियों की भाषा-संस्कृति को कैसे तोड़ा जाये। इस सब से गुजरने के बाद भी आदिवासियों के जंगलों से सटे गाँव हैं, वे भीतर-भीतर बहुत छोटे-छोटे गाँवों में रहते हैं, जहाँ उनकी अपनी भाषाएँ जिन्दा हैं। मुण्डा समाज ने तो कभी अपना इलाका छोड़ा ही नहीं। उन्होंने ठेकेदारों, सूद-महाजनों के खिलाफ जबर्दस्त लड़ाइयाँ लड़ीं। आज भी लोग उनके इलाके में घुसने से डरते हैं। भाषा-संस्कृति को बचाने से ये ताकत है कि लोग सोचते हैं, हमें उनकी भाषा नहीं आती। आप पर दबाव बनता है कि आप वहाँ तभी जायें जब आप उनके समाज को समझते हैं।
आप इन्हें देश के अन्य लोगों से कैसे भिन्न मानती हैं।
(Interview Jasinta Kerketta)

देखिये, मूल अन्तर तो यह है कि जो नैसर्गिक गुण हैं, वे प्रकृति और मनुष्य को लम्बे समय तक जिन्दा रख सकते हैं। वे नैसर्गिक गुण आदिवासियों में हैं। मनुष्य के रूप में बाहर से आये हुए लोगों को उन्होंने अपने इलाके में अपनी जमीनें दे-देकर आश्रय दिया। इसका खामियाजा आज हम भुगत रहे हैं। उन्हीं इलाकों में हम उपेक्षित हो गये हैं। आदिवासी ईमानदार हैं, छल, कपट, बेईमानी से दूर हैं। प्रकृति की हर चीज से सामंजस्य के साथ जीते हैं। वे मनुष्य के साथ भी सामंजस्य चाहते हैं। बिना किसी को ध्वस्त किये, संहार किये हम कैसे विकास के रास्ते निकालें कि आप भी अच्छे से जी सकें और हम भी। कई बार लोगों को लगता है कि इतना आदर्शवादी दर्शन दुनियाँ में नहीं चल सकता। लेकिन आदिवासी उस तरह का जीवन जीता है।
नई पीढ़ी अपनी भाषा जानती है?

उरांव आदिवासियों में पहली-दूसरी पीढ़ी के लोग अपनी भाषा में बात करते हैं। तीसरी पीढ़ी ने बाहर रहकर पढ़ाई की है तो उनका अपनी भाषा से सम्पर्क टूटने लगा है। हिन्दी और अंग्रेजी पर अच्छा अधिकार होने से उरांव आदिवासियों ने प्रगति की है। उसका खामियाजा यह हुआ कि उन्होंने अपनी भाषाएँ खो दी हैं। जो लोग गाँवों में हैं, वे अपनी भाषा बोलते हैं, शहरों में लोग कट गये हैं अपनी भाषा से। पहले गाँव में एक केन्द्र होता था जिसे धुमकुड़या कहते थे। गाँव में पहली शिक्षा वहीं से शुरू होती थी। भाषा से लेकर समाज में जिम्मेदारियाँ निभाना, काम करना, मछली पकड़ना, जाल बुनना, मादल बजाना सब वहीं सीखते थे। धीरे-धीरे बाहर के लोगों के आने से वे चीजें खत्म हो गईं। बाहर के समाज के लिए आदिवासी समाज को समझना मुश्किल है। बाजार में कोई पुरुष किसी स्त्री को छू कर निकल जाता है तो हमें महसूस होता है कि उसकी मंशा क्या थी। पर जब हम आदिवासी लड़के-लड़कियाँ हाथ पकड़कर या कमर पकड़कर नाचते हैं तो कभी यह नहीं लगता कि इसमें कुछ गलत है। मुख्यधारा की मानसिकता और आदिवासी स्त्री-पुरुषों की मानसिकता बहुत अलग है। हमारे यहाँ पुरुष बैठकर महाराज की तरह स्त्रियों का नाच नहीं देखते, वे तो साथ में नाचते हैं। वे तो खुश होने के लिए नाचते हैं। जब हमारी भाषा-संस्कृति खत्म होती है तो इतनी सारी खूबसूरत चीजें भी उसके साथ खतम हो जायेंगी। इसीलिए लगता है कि आदिवासी होने के नाते जिम्मेदारी बनती है कि हम उन चीजों को लेकर काम करें।
आप देश के अन्य इलाकों में भी जा रही हैं, युवाओं से मिल रही हैं, सम्पर्क बनाना चाहती हैं तो इसके पीछे क्या उद्देश्य है?
जब मैं बाहर निकली, विदेश गई, अपने देश में भी दूसरे लोगों से बातचीत की तो लगा कि इसी देश में हमारा ज्ञान कितना सीमित है। हम नहीं जानते कि देश के दूसरे हिस्सों में क्या हो रहा है। इतने सीमित ज्ञान से जब लड़ाइयाँ लड़ी जाएँ तो हो सकता है अपने इलाकों में हम सफल हों या नहीं भी हों, पर एक मनुष्य होने के नाते हमारी जिम्मेदारी उससे भी बड़ी है। मुझे यह भी लगा कि जब एक जैसे मुद्दे हैं, चाहे पूर्वोत्तर भारत हो या केरल, एक जैसे संघर्ष हैं, चाहे भौगोलिक परिस्थितियाँ अलग हों, हमने खुद ही अनजाने में सीमाएँ बना रखी हैं। क्यों न बाहर निकलकर हम दूसरों से संवाद करें। राजनीति के लिए भी इससे दिक्कत पैदा होगी जो लोगों को बाँट-बाँटकर कोने में समेट देती है। एक तो मैं लेखन के जरिये भी यह काम कर सकती हूँ कि युवाओं को जोड़ूं और धरातल पर हम मिलकर कैसे काम कर सकते हैं, इस पर भी चर्चा करें।
आप जा रही हैं सब जगह?

मैं जा रही हूँ। उसी का परिणाम है कि जब उत्तराखण्ड में पंचेश्वर बांध के बारे में पता चला तो हमने बात की और सोशल मीडिया में अपना पत्र मैंने डाला। मुझे लगा, हमारी परिस्थितियाँ एक हैं पर हम एक-दूसरे के बारे में जानते ही नहीं। ऐसे तो सब अपने-अपने इलाके तक सीमित हो जायेंगे, कभी न कभी तो उन चीजों को तोड़ना पड़ेगा और एक हुए बिना यह मुश्किल है। मनुष्यता के हिसाब से भी देखें तो क्यों नहीं हमें एक साथ खड़ा होना चाहिए।
आगे के लिए कुछ योजनाएं, कुछ सपने हैं जसिन्ता?

मेरे मन में तो यही सपना है कि मैं आदिवासी विषयों के लिए जो पूरी मनुष्यता की बात करते हैं, उसके लिए ही मैं काम करूंगी। यह जो खाई है अमीर-गरीब की, शोषक और शोषितों की, अगर इस जीवन में मैं इसे कम करने में कुछ भी योगदान दे पाऊँ, यही मैं महसूस करती हूँ। अगर हम हर चीज में आत्माओं को देखना शुरू करें, जो कि आदिवासी देखते हैं, तो जो इतनी अधिक हिंसा है और हिंसा के बल पर अपने को स्थापित करने की होड़ है, वह इतनी बलवती हो रहीं है, शायद इस जीवन में उसको कम करने में जो भी मैं कर पाऊँ मुझे लगता है, मेरे जीवन का वही मकसद है। मुझे और कुछ तो नहीं दीखता।
बहुत बहुत धन्यवाद, जसिन्ता, हमारे साथ इतनी सारी बातें करने के लिए।
(Interview Jasinta Kerketta)

प्रस्तुति : उमा भट्ट

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