”शुद्ध नस्ल है क्या?”

मधु जोशी

वर्ष 1991 में गुलरुख कॉन्ट्रक्टर ने महिपाल गुप्ता से स्पैशल मैरिज एक्ट (1954) के तहत अन्तर्र्धार्मिक विवाह किया। विवाह के बाद न तो उन्होंने अपने मारवाड़ी पति का हिन्दू धर्म अपनाया और न ही उनके पति ने गुलरुख का पारसी धर्म। यद्यपि गुलरुख ने अपने पति का उपनाम ‘गुप्ता’ अपना लिया था, वे आज भी पारसी धार्मिक चिह्न ‘सदरो’ और पवित्र धागा ‘कुस्ती’ धारण करके पारसी धर्म का पालन करती हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भारत में पारसियों की जनसंख्या घटकर अब पचास हजार से भी कम रह गयी है। इस परस्थिति से निपटने के लिए पारम्परिक ‘शुद्ध नस्ल’ की मान्यता पर अटल कट्टरवादियों और प्रगतिशील सुधारवादियों के बीच खींचतान चलती रहती है। इसी जद्दोजहद से गुलरुख गुप्ता को इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ में जूझना पड़ा।

गुलरुख गुप्ता के माता-पिता डिनाज़ और आदि कॉन्ट्रक्टर वलसाड़ में रहते हैं, जहाँ गुलरुख और उनकी वकील बहन शिराज का बचपन बीता था। दोनों बहनें कॉलेज की पढ़ाई के लिए मुम्बई आयीं जहाँ दोनों ने अन्तरर्र्धार्मिक विवाह किए। दोनों के माता-पिता,पतियों और बच्चों के बीच अत्यन्त सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध हैं। गुलरुख के पिताजी वलसाड़ के अंजुमन पारसी ट्रस्ट के ट्रस्टी रह चुके हैं और उनके मामाजी ट्रस्ट के अध्यक्ष थे। मामाजी की मृत्यु के उपरान्त गुलरुख ने अगियारी (पारसी अग्नि मन्दिर) और टावर ऑफ सायलैन्स (पारसी अग्नि क्रिया स्थल)- दोनों में ही गैर-पारसियों का प्रवेश र्विजत होता है- में आयोजित सभी रस्मों में भाग लिया था।

इसके कुछ समय बाद अंजुमन पारसी ट्रस्ट, वलसाड़ के पुराने सदस्यों का स्थान नये सदस्यों ने ले लिया। 2008 में इन सदस्यों ने एक पारसी महिला दिलवर वाल्वी को अपनी माँ के अंतिम संस्कार के लिए टावर ऑफ सायलैन्स और उसके पास स्थित बंगली में जाने से रोक दिया, क्योंकि उनके पति हिन्दू हैं। यहाँ इस तथ्य का उल्लेख आवश्यक है कि गैर-पारसी महिलाओं के साथ विवाह करने वाले पुरुषों के साथ ऐसा बर्ताव नहीं किया जाता है। यह भी उल्लेखनीय है कि इन्हीं महिला ने 2003 में अगियारी तथा टावर ऑफ सायलैन्स में अपने पिता के अंतिम संस्कार में भाग लिया था। इस घटना के बाद गुलरुख गुप्ता को यह भय सताने लगा कि समय आने पर उन्हें भी अपने माता-पिता के अंतिम संस्कार में भाग लेने की अनुमति नहीं दी जायेगी।
(inter religious marriage)

जनवरी 2010 में गुलरुख गुप्ता ने गुजरात उच्च न्यायालय में, वलसाड़ पारसी पंचायत को प्रतिवादी बनाते हुए, अगियारी में प्रवेश करने तथा समय आने पर अपने माता-पिता के अंतिम संस्कार में भाग लेने के अपने अधिकार के लिए मुकदमा दायर किया। 2012 में गुजरात उच्च न्यायालय ने उनके विरुद्ध फैसला सुनाते हुए मत प्रकट किया कि जब कोई महिला विवाह करती है तो उसकी पहचान उसके पति की पहचान के साथ विलीन हो जाती है और यह (अन्तर्धार्मिक विवाह) दरअसल धर्मान्तरण ही हैं। इस फैसले के अनुसार एक गैर-पारसी से विवाह के कारण गुलरुख गुप्ता पारसी नहीं रही। अत: उन्हें अपने समुदाय द्वारा प्रदत्त अधिकारों से भी वंचित होना पड़ेगा। उल्लेखनीय है कि गुजरात उच्च न्यायालय ने इस बात को पूरी तरह से नजरअन्दाज कर दिया था कि ”स्पैशल मैरिज एक्ट 1954” के तहत ऐसे ही विवाह होते हैं जिनमें पति और पत्नी दोनों विवाहोपरान्त भी अपने-अपने धर्म का पालन करते रहते हैं।

गुजरात उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध गुलरुख गुप्ता ने 2017 में उच्चतम न्यायालय में विशेष अवकाश याचिका (Special leave petition) दायर की। गुलरुख गुप्ता ने अपनी याचिका में दावा किया कि उच्च न्यायालय का फैसला संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21 और 25 द्वारा प्रदत्त मूलभूत अधिकारों के विरुद्ध है और यह स्पैशल मैरिट एक्ट (1954) के खण्ड चार का भी उल्लंघन करता है। इसके अलावा उन्होंने दिल्ली, कोलकाता, कराची, कानपुर, जबलपुर और चेन्नई की पारसी पंचायतों का उदाहरण देकर कहा कि यह संस्थाएँ वैसा भेदभाव नहीं करती हैं जैसा वलसाड़ की पारसी पंचायत ने दिलवर वाल्वी के साथ किया था। अगस्त 2017 में उच्चतम न्यायालय ने इस मामले को संविधान पीठ को हस्तांतरित कर दिया ताकि इसमें न सिर्फ गुलरुख गुप्ता की याचिका, वरन सभी अन्तरर्धार्मिक विवाहों में महिलाओं की स्थिति पर विचार किया जा सके।
(inter religious marriage)

नामचीन वकील इंदिरा जर्यंसह ने उच्चतम न्यायालय में गुलरुख गुप्ता के मुकदमे की पैरवी की। 14 दिसम्बर 2017 को न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, ए.के. सीकरी, ए.एम. खन्विलकर, डी.वाई. चन्द्रचूड़ तथा अशोक भूषण ने गुलरुख गुप्ता के पक्ष में फैसला सुनाया कि समय आने पर गुलरुख गुप्ता को अपने माता-पिता की मृत्यु के उपरान्त ”टावर ऑफ सायलैन्स” की ”बंगली” में स्थित प्रार्थना भवन में सभी धार्मिक रीति-रिवाजों- भोई नी क्रिया, सरोश नु पत्र की रस्म, उठामनू की रस्म और पछली रात नु उठामनू रस्म- का प्रबन्ध करने और उनमें शामिल होने का अधिकार होगा। यही नहीं उनके और उनकी बहन के बच्चे भी अन्य पारसियों और गैर-पारसियों की भाँति बंगली के सामने स्थित पवेलियन में बैठकर अपने नाना-नानी के अंतिम संस्कार में भाग ले पायेंगे।

गुलरुख गुप्ता को तो, समय आने पर, अपने माता-पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने की अनुमति मिल ही गयी है किन्तु अभी अन्तरधार्मिक विवाहोपरान्त पारसी महिलाओं के जमीन-जायदाद से जुड़े अधिकार, पारसी माँ तथा गैर-पारसी पिता की संतानों के धार्मिक अधिकार (जिसके लिए कोलकाता में प्रोची मेहता ने भी मुकदमा दायर कर रखा है), उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है। इन मसलों के हल होने के बाद ही गुलरुख गुप्ता को अपने प्रश्न का जवाब मिल पायेगा कि, ”शुद्ध नस्ल है क्या?” इस संदर्भ में वरिष्ठ पत्रकार बची करकरिया एक अत्यन्त प्रासंगिक प्रश्न पूछती हैं, ”विवाह की कसमें उच्चारित करते ही क्या प्रत्येक महिला के लिए, तितली से वापिस इल्ली/सूंडी (catter pillar) बनकर, एक नयी खाल में प्रवेश कर के, अपने पति की धार्मिक, सांस्कृतिक और जातीय छवि में ढकेला जाना अनिवार्य है?” यह ऐसा मूलभूत प्रश्न है जिस पर न सिर्फ न्यायालय वरन् व्यापक रूप से सभ्य समाज को भी विचार करना चाहिए।
(inter religious marriage)

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