आत्मनिर्भर बनाने की पहल

गीता पाण्डे

महिला हाट राष्ट्रीय स्तर का एक संगठन  है जो 1860 के सोसायटी एक्ट के तहत 1987 से रजिस्टर्ड है। इसके गठन का उद्देश्य ग्रामीण स्तर की महिलाओं को र्आिथक मजबूती प्रदान करना था। गाँव स्तर की महिलाओं द्वारा हस्तशिल्प या कृषि से सम्बन्धित उत्पादों की बिक्री के लिए बाजार उपलब्ध करवाने का काम मुख्यत: महिला हाट ने किया। उद्यमी महिलाओं के लिये कच्चा माल उपलब्ध करवाना, बाजार तक उनके सामान को पहुँचाना, सामान की गुणवत्ता बनाना आदि कार्यों में सहयोग किया। महिला हाट ने न केवल महिलाओं को आर्थिक रूप से मजबूत होने में सहयोग किया बल्कि बाजार में उनकी जगह बनाने में उनकी सामूहिक ताकत और संगठन शक्ति का भी विकास किया।

पारम्परिक रूप से हस्तशिल्प या कुटीर उद्योग की वस्तुओं को बाजार में बेचने का अधिकार भी पुरुष वर्ग का ही था। महिलाओं का हस्त कौशल घरेलू स्तर तक ही सीमित था। महिला हाट ने उनमें बाजारोन्मुखता पैदा की। उनके लिये प्रशिक्षणों का आयोजन किया। उन्हें विभिन्न स्थानों में जाकर देखने-सुनने का अवसर दिया तथा गाँव स्तर पर संगठित होकर अपने हस्त कौशल के जरिये अर्थोपार्जन का रास्ता दिखाया। धीरे-धीरे शिक्षा, स्वास्थ्य, पुष्टाहार आदि अन्य विषयों की ओर भी उनका ध्यान केन्द्रित होने लगा। इस प्रकार महिला हाट ग्राम आधारित बाजार व्यवस्था है यानी ग्रामीण स्तर पर महिलाओं द्वारा तैयार सामान के लिए बिक्री का प्रबन्ध करती है। महिलाओं द्वारा, महिलाओं के लिये, महिलाओं का- यह महिला हाट का नारा है।

बात 1985 की है। कुमाऊँ के पहाड़ी गाँवों की महिलाओं द्वारा बनायी गयी ऊनी स्वेटरें दिल्ली में प्रदर्शनी में बिक्री के लिए लाई गयीं। यह ऊनी सामान हाथ से कते हुये शुद्ध ऊन से बना था। ग्राहकों को इस जानकारी ने आकर्षित किया। जब वे खरीदने पहुँचे तो उन्होंने पाया कि ये स्वेटर उनके पहनने लायक नहीं हैं। ऊन की शुद्धता के साथ-साथ उन्हें उनके रंग व डिजाइन भी अच्छे चाहिये थे परन्तु यहाँ तो स्वेटरों की फिटिंग, गले का आकार भी ठीक नहीं था। यहाँ तक कि स्वेटर की एक बाँह थोड़ी सी लम्बी व एक छोटी थी। किसी की बगलें चुस्त थीं। ग्राहक आते, सामान को उलटते-पलटते और बिना खरीदे चले जाते थे। कारीगरों को अपने माल की शुद्धता पर बड़ा गर्व था। उनका पहला मौका था जब वे अपने सामान को बेचने शहर में लायी थीं। वे यह सोचकर आयी थीं कि उनका सारा सामान बिक जायेगा लेकिन उन्हें अपने अधिकांश माल के साथ निराश होकर लौटना पड़ा।
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ग्रामीण महिला कारीगरों की इस निराशा को देखते हुए समाज सेवी महिलाओं के एक छोटे से समूह ने इस समस्या पर सोचना आरम्भ किया तथा 80 के दशक में देश भर में महिला कारीगरों की समस्याओं को देखते हुए कई कार्यशालाओं और अध्ययनों में भी यह बात उजागर होने लगी कि महिला कारीगरों के सशक्तीकरण के लिए काम करने की आवश्यकता है। इन्हीं सब कारणों से 1987 में महिला हाट का जन्म हुआ। कार्यक्रम के आरम्भ में देश भर के विभिन्न राज्यों में छोटे-छोटे स्तरों पर कार्य करने वाली महिला उत्पादकों के साथ सम्पर्क किया गया। उनके उत्पादन व उसकी सम्भावनाओं तथा चुनौतियों को समझने के लिए कार्यशालायें और अध्ययन किए गये।

महिला हाट ने देश भर में 80 महिला उत्पादक समूहों को चुना और उनके साथ माल की गुणवत्ता बढ़ाने व मार्केटिंग में मदद करने का काम किया। क्योंकि उत्पादक समूहों ने मार्केटिंग की आवश्यकता पर जोर दिया था इसलिए महिला हाट ने इन समूहों को विभिन्न राष्ट्रीय स्तर की प्रदर्शनियों में जैसे ट्रेडफेयर आदि में मौके दिये। इन प्रदर्शनियों में भाग लेने से बिक्री के साथ-साथ इन समूहों को विभिन्न राज्यों के कारीगरों से मिलने का तथा ग्राहकों से आदान-प्रदान का अवसर मिला। इन अवसरों ने उत्पादन की गुणवत्ता, डिजाइन, व रंगों के मेल तथा बाजार की मुख्य धारा में किस तरह के माल की मांग है, इसकी भी समझ बढ़ाई। महिला हाट को भी इनकी समस्यायें ज्यादा गहराई से समझने का अवसर मिला। इनकी समस्या केवल बिक्री ही नहीं थी बल्कि कच्चा माल, सामान की गुणवत्ता, डिजाइन व रंगों के मेल की जानकारी आदि भी  थी।

तब महिलाहाट ने इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बैठकें, कार्यशालायें, प्रशिक्षण व मार्केटिंग सर्वे किये। इस तरह देश भर के 80 संगठनों को सात वर्षो तक इस तरह की सुविधायें दीं जिससे इनमें से अधिकांश समूहों ने अच्छी प्रगति की। वे कुशल बने, बाजार की मुख्यधारा से जुड़े। इसी बीच बिहार, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में स्थानीय हाट, मेले, बाजार व सैंडी पर गहन अध्ययन किया गया, इन अध्ययनों के आधार पर भी कार्य की रणनीति तैयार की गई। बिहार और तमिलनाडु में वहाँ की स्थानीय संस्थाओं ने काम किया। उत्तर प्रदेश (कुमाऊँ) में महिला हाट ने कार्य को बढ़ाया।

कुमाऊँ  में कार्य की शुरूआत में सबसे पहले महिला हाट द्वारा कुमाउँनी महिलाओं के गृह उद्योगों का अध्ययन किया गया। जैसे ऊन उद्योग, दूध और खोया उत्पादन, रिंगाल उद्योग, मिर्च उत्पादन, जड़ी बूटी तथा अन्य परंम्परागत उद्योग। प्रारम्भ में ऊनी उद्योग को लेकर कार्य किया गया। कुमाऊँ  के पहाड़ी गाँवों में ऊनी कालीन, स्वेटर, शाल, पंखी, थुलमा, गुदमा बनाने का कार्य शौका महिलायें अपने-अपने घरों में किया करती थीं। भेड़ों से निकाली गई कच्ची ऊन को धोने, कातने, रंगने, व विभिन्न उत्पादों में बुनने की एक स्वतंत्र स्वस्थ व्यवस्था चलती थी। इस सबके लिए अधिकांश ऊन तिब्बत से लाई जाती थी। 1962 में राजनैतिक परिवर्तन के बाद व्यापारियों का तिब्बत जाना बन्द हो गया, तब महिलायें छोटे रूप में अपने लिए या अपने आसपास के लोगों की मांग पर ऊनी कारोबार को चला रही थीं। शौका महिलाओं से प्रेरित हो कुछ किसान महिलाओं ने भी कृषि कार्य से बचे अपने समय में अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए और पूरक आय के रूप में ऊनी माल विशेषत: स्वेटर तैयार करना शुरू किया। कुमाऊँ में नाचनी, थल, मुनस्यारी, धरमघर, सिमगढ़ी, गरुड़, कौसानी एवं गढ़वाल में ग्वालदम, थराली इत्यादि स्थानों में जनजातीय महिलाओं से बातचीत करके सर्वे किया। सर्वे के दौरान ये बातें सामने आयी कि महिलाएँ भेड़ की ऊन से दन, कालीन, चुटका, थुलमा, पंखी, शाल, पश्मीना, स्वेटर इत्यादि बहुत सारा सामान बनाती हैं लेकिन बिक्री का कोई साधन न होने की वजह से गाँव के ही किसी व्यक्ति को अपना-अपना सामान बेचने को दे देती हैं। जिससे बहुत कम पैसा एक कारीगर महिला के हाथ में आता है। अधिकांश पैसा बिचौलियों की जेब में चला जाता है।
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महिला हाट ने शौका महिलाओं तथा किसान महिलाओं के ऊनी उत्पादन की गुणवत्ता को विकसित करने तथा इस कार्य में उनकी समस्याओं को हल करने का बीड़ा उठाया। किसान महिलाओं के पास वर्ष में कुछ महीने ऐसे होते हैं, जब उनके पास खेती का विशेष काम नहीं होता। उन महीनों में इन महिलाओं को प्रशिक्षण देकर ऊनी उत्पादन में प्रवीण बनाया। उन्हें ऊन की धुलाई, हाथ की मशीन से कार्डिग करना, चर्खे में कताई, ऊनी रंगाई का प्रशिक्षण देकर, कालीन व स्वेटर का उत्पादन करने की ट्रेनिंग दी। अधिकांश महिलाओं ने हाथ की बुनाई से बनने वाला सामान बनाना पसंद किया जैसे स्वेटर, मफलर, टोपी दस्ताने आदि। क्योंकि इसमें बडे़ लूम की जरूरत नहीं होती। लूम को घर में रखने के लिए पर्याप्त जगह भी चाहिए।

इन प्रशिक्षणों में बाजार की मांग के अनुसार स्वेटरों के आकार व डिजाइन का प्रशिक्षण देने के लिए एन.आई.डी. (नेशनल इन्स्टीटयूट आँफ डिजाइन ) के डिजाइनर भी समय-समय पर बुलाये गये। परन्तु लगने लगा था कि इन्हीं कारीगर महिलाओं ने अगर डिजाइन व रंगों के मेल का लम्बा प्रशिक्षण लिया होता तो फिर यही दूसरों को प्रशिक्षण देतीं और अधिक स्वावलम्बी हो पातीं। एन.आई.डी. से निवेदन करने पर सफलता मिली। हमारी अनपढ़ व कम पढ़ी महिलाओं के लिए उन्होंने तीन महीने का विशेष कोर्स तैयार किया, लेकिन महिलायें जो कभी बस में बैठकर अपने जनपद अल्मोड़ा भी नहीं गयी थीं, वहाँ उतनी दूर अपना घर छोड़कर जाने को तैयार नही हुईं। काफी समझाने के बाद 10 महिलाओं को तैयार किया गया। यह एऩआई़डी के इतिहास में भी पहली घटना थी कि जिन्हें ठीक से हिन्दी बोलना भी नहीं आता था, दूर-दराज की बहुत कम पढ़ी पहाड़ी महिलायें ऐसी संस्था में प्रशिक्षण लेने गई थीं, जहाँ बड़ी कम्पनियों के लिए डिजाइनर तैयार होते हैं। महिला हाट की ग्रामीण महिलाओं के अनजाने से छोटे हस्त उद्योग के लिए विशेष कोर्स बनाया गया था। परन्तु इस प्रशिक्षण ने ग्रामीण व अत्यन्त कम आय समूह की महिलाओं के जीवन में एक नया द्वार खोल दिया।

बुनाई केन्द्रों में प्रशिक्षित ये महिलायें अपने घरों में भी बुनाई करती थीं और घरों से ही बिक्री भी करती थीं। उनकी जानकारी और आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए उनके विभिन्न समूह बनाकर उन्हें अपने प्रदेश से बाहर हस्त कार्यो द्वारा आय वृद्घि के कार्यो में लगी महिलाओं के संगठनों व संस्थानों में एक्सपोज़र के लिए ले जाया गया। उन्होंने अपने कार्य की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए अनेक संस्थानों के प्रत्यक्ष कार्यों से सीखा। जो अपनी पर्वतीय घाटियों से कभी भी बाहर नहीं निकली थीं, ऐसी महिलाओं को एक अधिक विस्तृत क्षितिज का अनुभव हुआ, उनका दायरा बढ़ा। अब महिलाओं के उत्पादन बेहतर बनने लगे और आत्मविश्वास भी बढ़ा। अपनी और अपने सामान की अहमियत पता चली। जो महिला पहले अपने सामान का मूल्य नहीं निकाल पाती थी, उन्हें मूल्य निकालना सिखाया। अब वे एकदम पूरे आत्मविश्वास के साथ कहतीं, देखिए, मेरा स्वेटर सबसे अच्छा है और उत्तम क्वालिटी का है और उस पर अपने स्वेटर की कीमत स्वयं निकालकर चिट भी लगा देतीं कि मेरा स्वेटर इतनी कीमत का है। इस प्रकार महिला हाट संस्था ने महिलाओं में एक बहुत बड़ी क्रान्ति या फिर जागरूकता लाने का काम किया। आज के परिप्रेक्ष्य में हम देखें तो यह बहुत बड़ी बात नहीं है लेकिन उस समय के हिसाब से देखें जबकि महिला सारा सामान तैयार करती थी लेकिन बाजार का उसे कोई ज्ञान नहीं था। उस समय बाजार में कोई महिला नहीं बैठती थी। आज शायद उसी एक उदाहरण को देखकर बहुत सारी दुकानों में महिलाएँ बैठने लगी हैं। हाथ से बुने हुए स्वेटर, मोजे, टोपी आदि को उद्योग नहीं माना जाता था। परन्तु आज हमें लगता है, उन्हीं उदाहरणों को लेकर ऊन-उद्योग एक बहुत बड़ा गृह-उद्योग बन गया है।
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महिला हाट से पहले कुमाऊँ में ऊनी कार्य को खास तवज्जो नहीं दी जाती थी। गाँधी आश्रम और कुछ गाँधियन संस्थायें इस कार्य को संस्थागत रूप में कर रहे थे। परन्तु सीधे महिलाओं के प्रबन्धन में कहीं भी कार्य नही हो रहा था। ‘महिला हाट’ने यह पद्धति प्रारम्भ की कि वे महिलायें ही प्रशिक्षक बनीं, वे ही प्रबन्धक और वे ही कारीगर। इस कार्य की इतनी प्रसिद्धि हुई कि गाँधी आश्रम व अन्य कुछ संस्थाओं ने हमारे महिला प्रशिक्षकों से अपने कारीगरों को स्वेटर बुनाई प्रशिक्षण देने की माँग की। राजकीय प्रशासनिक अकादमी (नैनीताल) ने भी अपने परिसर की महिलाओं को प्रशिक्षण देने व उनका संगठन बनाने के लिए आमंत्रित किया।

महिला हाट संस्था ने अलग-अलग जगहों पर बुनाई केन्द्र भी खोले। महिलायें एक जगह आकर प्रशिक्षण लेने लगीं लेकिन धीरे-धीरे समझ में आया कि प्रशिक्षण के द्वारा गुणवत्ता में बढ़ोत्तरी करने से ही समस्या का हल हो जायेगा, ऐसा नहीं था, बल्कि कच्चे माल की उपलब्धि और तैयार माल की बिक्री भी बहुत बड़ा सवाल था।

ऊन बैंक की स्थापना 

तब एक ऊन बैंक खोला गया जहाँ एक साथ खरीद कर ऊन रख दिया जाता। महिलाएँ वहाँ से उत्पादन के लिए ऊन खरीदने लगीं लेकिन महिलाओं के पास इतना पैसा नहीं होता था कि वे ऊन का पैसा तुरन्त दे सकें। ऐसी स्थिति में ऊन बैंक के नियम में यह बदलाव किया गया कि कोई भी महिला दो बार बिना पेमेन्ट उधार पर ऊन ले जाये। जब तीसरी बार ऊन लेने आती है तब पहली बार के ऊन की कीमत को चुकाये क्योंकि तब तक उसका पहली बार बनाया गया सामान बिक चुका होगा और उसका पैसा उसके हाथ में होगा। इस प्रकार ऊन बैंक से कच्चा ऊन उन्हें प्राप्त करवाया गया।

बिचौलियों से मुक्ति

एक बड़ी समस्या थी कि महिलायें अपने परिश्रम से बनाये गये माल को स्थानीय दुकानदारों को बेचने के लिए देती थीं। जैसे कौसानी की महिलाओं ने बताया कि उनके द्वारा बनाये गये दन, आसन, स्वेटर आदि वे स्थानीय दुकानदार को देती थीं। पर्यटक, उस माल को खरीदते थे। लेकिन दुकानदार महिलाओं को बहुत कम पैसे देते थे। केवल कच्चे माल भर के ही पैसे मिल पाते थे। तब बिचौलियों के चंगुल से मुक्ति दिलाने के लिए मूल्य आंकने का प्रशिक्षण दिया गया व बिक्री के बारे में भी योजना बनाई गयी ताकि वे अपने माल की सही कीमत निर्धारित कर सकें। बिक्री के लिए रणनीति इस तरह बनाई गयी कि वे अपने घर से बिक्री करें। उसके बाद जगह-जगह छोटे-छोटे आउटलेट खोले गये जैसे दन्या गाँव के तीनों बुनाई केन्द्रों के लिए दन्या में एक छोटी दुकान खोली गयी, जिसे वहीं की महिलायें चलाती थीं। नैनीताल, भवाली, धौलछीना, अल्मोड़ा, आदि जगहों में भी दुकानें चलाई गयीं। उस समय महिलाएँ दुकान में बैठ कर बिक्री का काम नहीं करती थीं। महिला हाट संस्था ने दो क्रान्तियाँ एक साथ कीं। एक महिलाओं के सामान की बिक्री के लिए बाजार तैयार करना और दूसरा महिलाओं में दुकान में बैठने के लिए हिम्मत व आत्मविश्वास जगाना। स्थानीय मेलों व प्रदर्शनियों के अलावा देश भर में लगने वाली प्रदर्शनियों में महिलायें अपने माल को लेकर जाने लगीं। महिलाओं द्वारा तैयार सामान के विदेशों से भी आर्डर पास हुए और महिलाएँ प्रदर्शनियों के माध्यम से दिल्ली हाट, कलकत्ता, बनारस, बम्बई, आगरा, इलाहाबाद, नैनीताल इत्यादि स्थानों में अपने सामान की बिक्री करने लगीं।
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संगठन से शक्ति

इन महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए एकजुट करने की मुहिम भी चलाई गई। महिला हाट ने शामा, लीती, धरमघर, नाचनी, सिमगढ़ी, दन्या, पनुवानौला, साहकाण्डे, गरुड़, ग्वालदम, अल्मोड़ा, नैनीताल, भवाली आदि स्थानों में महिलाओं के समूह बनाये और उन्हें दो प्रकार का प्रशिक्षण दिया। 1. हाथ के कौशल का- जिसके अन्तर्गत ऊन धुलाई, प्राकृतिक ऊन रंगाई, ऊन कताई, कार्पेट बनाना, स्वेटर, टोपी, मोजा, दस्ताना, मफलर, रस्सी (जूट) बैग, फाइलकवर, ऐपण, बाटिक प्रिंट इत्यादि बनाना। 2. बचत ग्रुप का प्रशिक्षण दिया गया जिसमें महिलाएँ परेशानी में एक-दूसरे की मदद करतीं। ग्रुप बनाने की ट्रेनिंग भी उस समय सबसे पहले कुमाऊँ में महिला हाट ने ही शुरू की ताकि लोग बैंक से ऋण लेकर कर्ज में न डूबें, उन्हें किसी से कर्ज लेकर र्शिमंदा न होना पड़े। महिलाएँ अपनी जरूरत भर के लिए अपने समूह से ऋण लेने लगीं। इस प्रकार महिलाओं का आत्मविश्वास बढ़ा। जो महिलाएँ बैठकों के नाम से डरती थीं या घबराती थीं, जगह-जगह उन्हीं महिलाओं की बैठकें होने लगीं। बैठक में अपने आप अपना हिसाब-किताब करतीं। स्वयं बैंक जातीं। मीटिंग में भी महिलाएँ खाली नहीं बैठती थीं। बाजार और फैशन के हिसाब से अलग-अलग तरह के डिजाइन सीखती थीं। इस प्रकार महिलाएँ अलग-अलग अपने घर में न बैठकर एक समूह में काम करने लगीं और आपस में अपना सुख-दुख बाँटकर वे अपने मन को सुकून देतीं। उन महिलाओं को यह भी एहसास होता कि कोई विपत्ति आने पर मैं अकेली नहीं हूँ, मेरे साथ तो इतनी सारी महिलाएँ हैं।

इस तरह ये संगठन आर्थिक  मजबूती के साथ-साथ सामाजिक रूप से भी मजबूत बनने लगे। समय-समय पर इन्होंने कई सामाजिक मुददों को लेकर  सवाल उठाये, प्रदर्शन किये, आन्दोलन भी किये। जैसे अपने गाँव के नजदीक की शराब की दुकान को बन्द करवाना, राशन की दुकान में सही से राशन का बटवारा हो इसके लिए आवाज उठाना। संगठन की महिलाओं ने अपने जंगलों की रक्षा के लिए अपने स्वयं के लिए भी नियम बनाये। नैनीताल में बने संगठनों ने पेपर बैग बनाने का प्रशिक्षण लिया और बाजार में जाकर दुकानदारों से पॉलीथीन के बैग बन्द करने के लिए मुहिम चलाई। इस तरह उन्होंने कई सामाजिक मुददों पर भी काम करना शुरू किया। साथ ही समूह की बचत से आपस में ‘ऋण’लेकर अपने परिवार की आवश्यकताओं को भी पूरा किया। ऐसी कई घटनायें हैं जब किसी का मकान क्षतिग्रस्त हो गया या घर में किसी को इलाज के लिए पैसे की आवश्यकता आ गयी या बच्चों की पढ़ाई, शादी-ब्याह आदि के लिए पैसों की जरूरत पड़ी तब परिवार जन अपने परिवार की महिला से कहते कि वह अपने संगठन से ऋण ले ले। इस तरह परिवार में महिलाओं का वर्चस्व व सम्मान भी बढ़ने लगा। कई महिलाओं ने ऋण लेकर अपने पति के लिए छोटा-मोटा रोजगार भी स्थापित किया। आज दन्या के समूह के पास लगभग तीन लाख रुपया है। वे उसे आवश्यकता पड़ने पर अपने संगठन के सदस्यों को तथा अन्य को भी ऋण के रूप में दे रही हैं। 

स्कूल जाने वाली और स्कूल से ड्रॉप आउट दोनों तरह की किशोरियों के साथ भी  तीन-तीन महीने के सिलाई व बुनाई के प्रशिक्षण किये गये जिसमें उन्हें उनके स्वास्थ्य, पंचायती राज, व जैविक खेती आदि के बारे में बताया गया। इस तरह किशोरियों में भी हुनर की कुशलता दी गयी ताकि समय आने पर वे अपनी कुशलता का उपयोग कर सकें। आज कुमाऊँ में अनेक जगहों पर हाथ से बुने स्वेटर, पौंचू, मफलर, मौजे, दस्ताने, सुन्दर डिजाइनों में बनने लगे हैं। कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने भी इस तरह के कार्य अपने-अपने क्षेत्र में प्रारम्भ किये हैं, महिला हाट द्वारा प्रशिक्षित समूह भी महिला हाट की पद्धति से अपने क्षेत्रों में काम करने लगे हैं। जैसे महिलाओं को प्रशिक्षित करना, कच्चा माल व बिक्री की सुविधा देना। कुछ प्रशिक्षित महिलाओं के समूह, एक्सपोर्टर के साथ जुड़ गये हैं, जिन्हें नियमित रूप में रोजगार मिलने लगा है। भविष्य में इस तरह का कार्य इस क्षेत्र में बढ़ता जायेगा। उसकी गुणवत्ता व डिजाइन अब विकसित होते ही जायेंगे क्योंकि इस क्षेत्र में अन्य कई लोग इस काम को करने लगे हैं। एक तरह से यह मुख्य धारा का काम बन रहा है। 
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