भारतीय जापानी मिक्सड नन्दा देवी अभियान -1981

-चन्द्रप्रभा ऐतवाल

1976 में भारत सरकार ने इण्डो जापानीज कामिट अभियान की तैयारी हेतु नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के सहयोग से एक अभ्यास शिविर की व्यवस्था की थी, जिसमें इण्डो जापानीज नन्दा देवी अभियान के सदस्य भी शामिल थे। इस अभ्यास शिविर के समय मुझे बहुत कुछ सीखने तथा भारत के चुनिन्दा अच्छे पर्वतारोहियों के सम्पर्क में आने का मौका मिला।

इस अभ्यास शिविर के समय नन्दा देवी अभियान के सदस्यों से नन्दा देवी पर्वत के बारे में सुनकर मेरे मन में नन्दा देवी चोटी बस गयी थी। दैव योग से जुलाई 1981 में जापान के अल्पाइन क्लब के महिला सदस्यों के निमंत्रण पर पहली जुलाई को जापान जाने की तैयारी शुरू हो रही थी कि भारतीय पर्वतारोहण संस्थान के अध्यक्ष श्री एस.सी. सरीन सर ने बताया कि माह अगस्त-सितम्बर में नन्दा देवी का मिश्रित अभियान जा रहा है। तुम जापान में ही नहीं रहना समझे।

उस समय मैं केवल हँस दी थी, लगा जैसे मैंने जापान में ही रहने की पूरी व्यवस्था कर ली हो। जब जापान से 27 जुलाई को भारतीय पर्वतारोहण संस्थान पहुंची तो लगभग सभी सदस्य पहुंचे हुए थे। सभी ने काफी कुछ काम कर लिया था। मुझे भी उसी दिन से रुकने को कहने लगे, पर मेरे लिये उसी दिन से रुकना सम्भव नहीं था, क्योंकि मेरी दीदी के बच्चे मेरे साथ रहते थे और उनके लिये ठीक से व्यवस्था करना अति आवश्यक था। अत: एक बार घर जाना जरूरी था। मैंने अध्यक्ष साहब से मिलकर कुछ दिनों की  छुट्टी मांगी। उन्होंने 5 दिन की छुट्टी दे दी और मैं अपना कुछ सामान को भारतीय पर्वतारोहण संस्थान में ही छोड़कर उत्तरकाशी आयी। उत्तरकाशी में बच्चों के लिये ठीक से इन्तजाम करके अपने प्रधानाचार्य से अवकाश लेकर 2 अगस्त को भारतीय पर्वतारोहण संस्थान पहुँची।

सभी सदस्य भारतीय पर्वतारोहण संस्थान पहुंच चुके थे। इस अभियान में कुल 12 सदस्य थे। यह अभियान भारत का पहला मिश्रित अभियान था, जिसमें 6 महिलायें व 6 पुरुष थे। उनमें से एक महिला व एक पुरुष डॉक्टर भी थे। यह अभियान एक प्रकार का प्रयोग अभियान भी था। महिलाओं में दिल्ली की श्रीमती भारती बनर्जी, रेखा शर्मा, बम्बई से सुषमा महाजन, डॉ. कुमकुम सलूजा, कोटद्वार से हर्षवन्ती बिष्ट तथा पिथौरागढ़ से चन्द्रप्रभा ऐतवाल, उपलीडर (लेखिका) थी। पुरुषों में नेहरू पर्वतारोहण संस्थान उत्तरकाशी के प्रधानाचार्य कर्नल बी.एस. सन्धू (लीडर), प्रशिक्षक श्री रतन सिंह चौहान, हिमालय पर्वतारोहण संस्थान के प्रशिक्षक श्री लादु दोर्जी, माउन्ट आबू के प्रशिक्षक श्री नन्दलाल पुरोहित, आई.टी.बी.पी. के श्री सनम पलजोर तथा सेना से डॉ. आर.एस. सन्धू थे। इसके अतिरिक्त पांच शेरपा, अस्सी गढ़वाली कुली तथा 200 बकरियाँ सामान ढुलान के लिये थीं।

नन्दा देवी सेन्चुरी में प्रवेश कर आधार शिविर तक पहुंचना ही अपने आप में एक बड़े अभियान से कम नहीं है। 1934 में एरिक सिप्टन तथा बिल टिल मैन ने प्रथम बार सेन्चुरी में प्रवेश किया। इस सेन्चुरी का रास्ता खोजने में लगभग 50 वर्ष लग गये। 1951 में फ्रेंच पर्वतारोहियों ने तथा 1964 में प्रथम बार नवांग गोम्बू तथा शेरपा दवा नोर्बू भारतीयों ने इसके शिखर पर विजय पायी। 1936 के एंग्लो अमेरिकी अभियान की चालीसवीं वर्षगाँठ मनाने हेतु 1976 में अमेरिकी अल्पाइन क्लब का एक मिश्रित पर्वतारोहण अभियान दल इस शिखर पर आरोहण हेतु आया। इसके तीन पर्वतारोही शिखर पर पहुंचे पर दुर्भाग्यवश अभियान की महिला पर्वतारोही कु. नन्दा देवी अनसोल्ड जो मात्र बाईस वर्ष की थी, का देहान्त शिखर से पहले लगभग 7000 फीट की ऊँचाई पर हो गया। इस दुर्घटना ने स्थानीय लोगों की इस मान्यता को और भी पुख्ता कर दिया कि नन्दा देवी शिखर पर महिलाओं का आरोहण वर्जित है।

1976 में इस अभियान दल के साथ हमारी मुलाकात दिल्ली में हुई थी। इस अभियान में नन्दा देवी के पिताजी भी साथ थे। हमने उनसे नन्दा देवी नाम के बारे में पूछा तो कहने लगे कि आज से 22 वर्ष पूर्व मैं नन्दा देवी पर अभियान में आया था। उसी समय मेरे घर में लड़की पैदा हुई थी। इस कारण मैंने उसका नाम नन्दा देवी रख दिया। सुनकर बड़ा ही अच्छा लगा। नन्दा देवी बहुत लम्बी व खूबसूरत थी। बातें करने में बड़ी ही अच्छी थी। वह बड़ी दबंग और स्पष्टवादी थी। थोड़ी सी मुलाकात में हमारी उससे दोस्ती हो गयी थी और उसे बहुत सारी शुभकामना देकर हम अपने-अपने काम में लग गये। क्योंकि उसी वर्ष हम लोग इण्डो जापानीज टीम कामिट अभियान पर जा रहे थे।

बाद में यह दु:खद खबर सुनकर बहुत बुरा लगा। बार-बार उसका चेहरा सामने दिखता था, पर होनी को कौन टाल सकता है। उसके पिताजी के बारे में सोच-सोचकर अफसोस होता है कि नन्दा देवी को नन्दा देवी पर्वत पर ही चढ़ा आये। उस बाप का दिल कितना बड़ा होगा ? जिस खुशी के साथ अपनी बेटी का नाम नन्दा देवी रखा, उसे वहीं विदा कर आये।
Indian Japanese Mixed Nanda Devi Campaign 1981

3 अगस्त से भारती बनर्जी व मैं लगातार बाजार का चक्कर लगाते रहे। आवश्यक सामान की लिस्ट तैयार करते और बाजार की ओर चल पड़ते। भारती को दिल्ली के बाजारों का पूर्ण ज्ञान था। अत: हमें किसी प्रकार की तकलीफ नहीं हुई। हम दोनों ने अधिकांश सामान सुपर मार्केट से ही खरीदा और जो सामान वहां नहीं मिलता था उसके लिये हमें पुरानी दिल्ली जाना पड़ता था। पुरानी दिल्ली में सामान सस्ता और अच्छा मिलता था पर यहां हर सामान दर्जनों के हिसाब से ही खरीदना पड़ता था। इस कारण कभी-कभी कम जरूरत होने पर भी सामान थोक में ही लेना पड़ता था। फिर सारे सामान को टैक्सी में लादकर भारतीय पर्वतारोहण संस्थान पहुंचाना होता था। इस भाग-दौड़ में मैं कभी-कभी टैक्सी या थ्री व्हीलर पर ही सो जाती थी। भारती बार-बार कहती थी कि तुम्हें क्या हो गया है, पर किसी तरह नींद भी पूरी करनी ही थी और ऊपर से दिल्ली की गर्मी भी थी।

इतना ही नहीं, जब मुझे ट्रांसपोर्ट का कार्य सौंपा गया, उसमें भी भारती की ही मदद से अलग-अलग ट्रांसपोर्ट कम्पनियों के पास ट्रक की व्यवस्था करने गयी। यदि ट्रक नहीं मिलता है तो गाड़ी की व्यवस्था करनी थी। बड़ी मुश्किल से एक ट्रक वाला रायवाला तक 2400 रु0 में जाने को तैयार हुआ। पर वह भी बड़ी मुश्किल से सामान के ऊपर सदस्यों को बैठाने को राजी हुआ। अब जाकर लगभग हमारी तैयारी पूरी हो पायी थी।

इस अभियान को संजय गांधी मेमोरियल फंड द्वारा आर्थिक सहायता प्रदान की गयी थी तथा भारतीय पर्वतारोहण संस्थान ने इसे आयोजित किया था। इस कारण 6 अगस्त को हम सभी सदस्य श्री राजीव गांधी से मिलने उनके आवास पर गये। वहां राजीव गांधी से परिचय कराते समय कहा गया कि चन्द्रप्रभा ऐतवाल, उप लीडर हैं, जिसका मुझे अभी तक पता नहीं था। मैं थोड़ी देर तक लीडर कर्नल श्री सन्धू का मुंह देखती रही। खैर उसी समय से मेरे नाम के साथ उप लीडर की मुहर लग गयी। जबकि अभी तक मेरे नाम के आगे ट्रांसपोर्ट का चार्ज था। लीडर कर्नल सन्धू द्वारा श्री राजीव गांधी को मानचित्र पर टै्रक दिखाया गया और सारे रास्ते व एक-एक शिविर के बारे में विस्तार से समझाया गया। इस तरह काफी देर तक बातें होती रही। मैं हाल ही में जापान से लौटी थी इसलिये राजीव गांधी जापान के पर्वतारोहियों के बारे में पूछने लगे। मैंने कहा हम लोग किसी बात में कम नहीं है। साथ ही पहली बार मिश्रित अभियान पर हैं इससे दोनों ही दलों को सीखने का मौका है। यह हमारी सोच को बदलने का भी मौका मिलेगा। क्योंकि आज तक कभी मिश्रित अभियान नहीं हुआ था।

यहां से बहुत सारा आशीर्वाद लेकर वापस भारतीय पर्वतारोहण संस्थान आये। उस समय राजीव गांधी से मिलते समय हमारे अध्यक्ष श्री एच.सी. सरीन साहब भी साथ थे। सरीन साहब ने सभी सदस्यों के बारे में जानकारी दी। राजीव गांधी जी ने हम लोगों के लिये बहुत अच्छी पार्टी का प्रबन्ध कर रखा था। साथ ही बीच-बीच में बातें भी करते जाते थे, मुझे राजीव जी बहुत ही सरल स्वभाव के लगे। उस समय हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री मुरारजी देसाई थे।

श्री मुरारजी देसाई पूर्ण रूप से गांधीवादी थे। उनको खादी के कपड़े ही अच्छे लगते थे वे बहुत ही सिद्घान्तवादी थे। उनके कार्यालय में जून के महीने में भी पंखा नहीं चलता था। पूरी तैयारी कर लेने के बाद 7 अगस्त को रात 12 बजे के लगभग दिल्ली से चल पड़े। काफी सदस्य सामान के ऊपर ही ट्रक पर बैठकर चल पड़े, पर जैसे ही उत्तर प्रदेश की सीमा शुरू हुई, पूछताछ भी शुरू हो गयी। कितनी ही बार भारती और मैं गाड़ी से उतरकर कागजात आदि दिखाते फिर आगे बढ़ते थे। इस प्रकार सारी रात सोते-जागते हुए हरिद्वार के पास गंगा की नहर के किनारे सभी उतरे और आवश्यक कार्यों से मुक्त हुये।

6 बजे सुबह रायवाला पहुंचे। वहां पर सारे सामान को उतार कर सेना के थ्रीटन में डालना था। ट्रक से सामान उतारते समय काफी बंधा हुआ सामान खुल गया था जिस कारण कुछ पैकिंग टूट गयी थी। इस कारण काफी चीजें बरबाद भी हो गयी थीं। अत: अब सेना के थ्रीटन में ठीक से सामान चढ़ाना था। अब हमने दो गाड़ियों पर सामान को चढ़ाया, उसी गाड़ी पर सदस्यों को भी बैठकर जाना था । रात को रुद्रप्रयाग पर्यटक विश्राम गृह में रुके।

दूसरे दिन रुद्रप्रयाग से जोशीमठ के लिये रवाना हुये, किन्तु रास्ता साफ नहीं होने के कारण शाम 7 बजे जोशीमठ पहुंच पाये। उस रात नन्दा देवी होटल में रुके। नन्दा देवी होटल जोशीमठ का उस समय का सबसे अच्छा होटल था, पर कमरे छोटे थे, जिस कारण पैकिंग करने की सुविधा नहीं थी। अत: दूसरे दिन सभी सामान को फिर से गाड़ी में डालकर सेना के शिविर में ले गये। वहां सारे सामान की फिर से पैकिंग करनी थी, फिर काफी सामान सेना कैन्टीन से भी खरीदना था।

इस प्रकार दो दिन तक जोशीमठ में ठहरे और सारे सामान की पैकिंग करते रहे। अब हमने हैलीकाप्टर वाले सामान को अलग किया जो बाद में आधार शिविर में गिराना था। हमारे साथ जाने वाला सामान अलग किया और बकरियों पर जाने वाला सामान भी अलग किया। हमारा अभियान माह अगस्त में था। अगस्त के महीने में बुग्याल की मखमली घास रंग-बिरंगे फूलों से भरी थी। घाटी का सौन्दर्य देखते ही बनता था।

12 अगस्त को जोशीमठ से लाता गांव के पास सड़क के पास ही शिविर लगाया। वहां तक सामान गाड़ी से आया था। अब बकरी वालों को सामान दिया। हमारे साथ में 200 बकरियाँ थीं जिन पर सारे राशन को लादा गया। 80 अन्य कुली भी चलते थे। उनको भी सामान की सूची बनाकर अपने रजिस्टर पर लिखा और उस सामान पर नम्बर डाला। कुली को भी वही नम्बर दिया। सभी कुलियों ने अपना-अपना बोझ ले जाने के लिए संभाल लिया। सारा दिन इसी काम में लगे रहे, तब जाकर रात को आराम किया।
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दूसरे दिन लाता गांव में मां नन्दा देवी के मन्दिर का दर्शन करने गये। उसी दिन से हमारी पैदल यात्रा शुरू होनी थी। मन्दिर में पूजा-अर्चना की। गांव वालों ने हमारा स्वागत चाय, पानी पिलाकर किया। अब मुझे कहा गया कि आज से क्वार्टर मास्टर का काम देखना। मैने किसी बात से मना नहीं किया और क्वार्टर मास्टर बन गयी। सुबह उठकर प्रत्येक सदस्य को समय पर चाय, नाश्ता मिला या नहीं आदि देखना। रसोई वालों के सारे काम देखने के बाद रसोई को बंद करना फिर आगे के शिविर क्षेत्र देखने जाना। शाम रोज कुलियों को राशन बांटना, सभी को सही राशन मिला या नहीं आदि का खयाल रखना फिर सदस्यों से बनाये जाने वाले खाने के बारे में पूछकर खाना तैयार करवाना। इस प्रकार इतना व्यस्त रहती थी कि न प्रकृति को निहार पाती थी और न अपने बारे में सोच पाती थी। सारे दिन राशन पानी में ही व्यस्त थी।

पहले दिन लाताखरक ही पहुँचे। जैसे ही शिविर में पहुंचे जोरों की वर्षा होनी शुरू हो गयी। बड़ी ही मुश्किल से टेन्ट लगा पाये। बरसात का मौसम था। इस कारण चारों ओर झाड़ियां ही झाड़ियां थी। मुश्किल से उन झाड़ियों को साफ किया, तब जाकर टेन्ट लगा पाये, पर चारों ओर का दृश्य बहुत ही सुन्दर था। बीच-बीच में बादल के टुकड़े दिखाई देते थे और पूरी घाटी पर कोहरा छाया हुआ था। ऊपर भी आसमान और नीचे भी आसमान सा लगता था। चारों ओर जिधर भी नजर दौड़ाओ फूल ही फूल खिले नजर आते थे।

लाता खरक से हमें डिबु्रगेटा जाना था। इतनी अधिक वर्षा हो रही थी कि सारे रास्ते में फिसलन थी। रास्ते भर जगह-जगह ब्रह्मकमल के फूल खिले हुए थे किन्तु स्थानीय लोगों का कहना था कि अभी पूजा नहीं हुई है। अत: ब्रह्मकमल को तोड़ना मना है। इस कारण हमने उसे तोड़ा नहीं। रास्ते में एक जगह का नाम कर्टेन (पर्दा) था जो पहाड़ द्वारा पर्दे का सा ही काम करता था। उसे पार करने के बाद सीधा ढलान पर चलना था, पर ढलान वाले रास्ते में चिकनी मिट्टी के कारण फिसलन बहुत ही अधिक थी। ऐसा कोई भी नहीं होगा जो फिसलन के कारण कीचड़ से नहीं सना हो और उसके कपड़ों पर कीचड़ न लगा हो, खैर किसी तरह से डिबु्रगेटा पहुंचे।

उप लीडर की मुहर लगने के कारण अब मुझे शिविर क्षेत्र भी देखना था। अत: जितना हो सकता था आगे निकलने की कोशिश करती थी। कभी भी अन्य सदस्यों के साथ चलने का मौका ही नहीं मिलता था। हर वक्त दौड़-भाग ही रहती थी। लगभग 2 बजे के करीब मैं डिब्रुगेटा पहुंची। सबसे समतल स्थान पर लीडर का टेन्ट लगवाया। डिब्रुगेटा में पहले अभियान दल के सदस्यों ने अपना नाम व वर्ष बहुत से पेड़ों पर खुदा रखा था। इस कारण यहां बहुत से पेड़ सूखे हुए थे। इसे देखकर बहुत बुरा लगा। क्या अपने नाम को अमर करने के लिये पेड़ों पर नाम लिखना जरूरी है। यदि अच्छे कर्म करेंगे तो अपना नाम हमेशा अमर रहेगा, ऐसी मेरी धारणा है। हमारे अन्य सदस्य काफी देर से लगभग 5-6 बजे शाम को शिविर में पहुँचे। दल की एक सदस्या श्रीमती भारती दास को काफी चोट आयी थी जिस कारण उसके मुंह में सूजन आ गयी थी, क्योंकि जब फिसली थी तो मुंह के बल गिर पड़ी थी। अन्य सभी सदस्य ठीक थे, पर सभी कीचड़ से सने हुए थे।

अगले दिन डिबु्रगेटा में सभी सदस्यों को भारी नाश्ता कराने के बाद सारी रसोई को बन्द करके रसोई वालों के साथ चल पड़ी। अन्य सभी सदस्य नाश्ता करते ही निकल पड़े थे। रास्ते में अन्य सदस्यों को छोड़कर आगे-आगे भुजगड़ी (ड्यूड़ी) के लिये निकल पड़ी। भोजगड़ी ऋषिगंगा पार करने के बाद दूसरे किनारे पर स्थित है। यहां शिविर का स्थान अधिक फैला हुआ नहीं है। यहां कुछ कुलियों ने अच्छे स्थान पर अपना शिविर लगा लिया था और उसके पास में ही समतल स्थान पर लीडर का टेन्ट लगवाया, पर लीडर जैसे ही आये उनको यह शिविर का स्थान पसन्द नहीं आया और कहने लगे कि कुलियों ने इतने नजदीक शिविर कैसे लगाया आदि। बस फिर क्या था, सारे कुली एक हो गये और बिगड़ने लगे। यहाँ तक कि सामान छोड़कर वापस जाने की तैयारी करने लगे और काफी बहस हो गयी। खैर किसी प्रकार समझाकर उनको दूसरे स्थान पर शिविर लगाने के लिये राजी कराया। रात आराम से निकल गयी, पर इस क्षेत्र के कुली बड़े ही गुस्सेबाज होते हैं और एकदम एकता कर लेते हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि फिर इस जंगल में कहां से अन्य कुली आयेंगे। यदि कहीं से पहले ही कुली लाते भी हैं तो उन लोगों को टिकने नहीं देते हैं।

भुजगड़ी (ड्यूड़ी) से रामनी ऋषिगंगा के किनारे-किनारे जंगलों के बीच से होकर जाना था। ये रास्ता सबसे अच्छा और छायादार पेड़ों से होकर गुजरता है। आधे रास्ते में पहुंचकर सभी ने अपने गीले कपड़ों को सुखाया। रास्ते भर में नाना प्रकार के पेड़ व झाड़ियां मिली। रास्ते में तीरसूली से आने वाली नदी को पार किया। रामनी में शिविर का छोटा सा मैदान है। यह रामनी नदी के किनारे पर है। यहां भी लोगों ने चट्टानों पर अलग-अलग प्रकार से अपने अभियान के सन् तथा अलग-अलग नाम लिखे हैं। आज मौसम साफ था और सभी ने अपने कपड़े व सिर धोये और आराम किया।
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रामनी से दूसरे दिन पठालखान जाना था, किन्तु इसके बीच का रास्ता काफी कठिन था, जरा सा चूके नहीं कि सीधाऋषि गार्ज में पहुंच जाना था, जिसकी गहराई लगभग 6000 फीट की थी। जगह-जगह अग्रिम दल वाले खराब रास्ते पर रस्सी लगाते जाते थे जिससे कुली व सदस्यों को सुरक्षित पहुंचाया जा सके। हमने अपने लक्ष्य नन्दा देवी के पहली बार यहीं से दर्शन किये। यहां का अलग-अलग दिशा से फोटो खींचा। आज भी मौसम बहुत अच्छा था। पठालखान में चौड़े-चौड़े स्लेटनुमा पत्थर थे। इसी कारण इस जगह का नाम पठालखान पड़ा था। यहां शिविर में पानी की कमी थी। अत: पानी की खोज में काफी दूर निकल पड़ी। पेड़ों की झाड़ियों में पानी तो दिखाई नहीं देता था, पर पानी की कल-कल आवाज सुनाई दे रही थी। अत: उसी आवाज के साथ झाड़ियों को फांदकर आगे बढ़ती गई जहां पानी का सुन्दर स्रोत मिला। मैं नहा-धोकर वापस शिविर आयी और पानी के स्रोत के बारे में सभी सदस्यों को बताया। उसके बाद अन्य सदस्य भी उस स्रोत की ओर नहाने-धोने हेतु निकल गये। पठालखान से पहाड़ों का सुन्दर दृश्य दिखाई देता था। पहाड़ों का मनोरम दृश्य देखकर मन नाच उठता है। आज लीडर ने सभी सदस्यों की एक सभा बुलाई और आगे की योजना पर विचार किया। साथ ही लीडर ने सभी सदस्यों से नन्दा देवी अभियान में सम्मिलित होने का कारण जानना चाहा। सभी ने अपने-अपने विचार रखे। किसी ने कहा कि इस क्षेत्र को देखना चाहते थे, किसी ने कहा कि मां नन्दा का दर्शन पास से करना चाहते थे तथा किसी ने कहा कि इस महान पर्वत पर विजय पाना चाहते थे आदि-आदि। पर आज सभी को अपने-अपने मन के भाव व्यक्त करने का सुअवसर मिला। आज तक लीडर के सामने खुलकर बोल भी नहीं सकते थे और इस झिझक से पहली बार मुक्ति मिली।

पठालखान तक ही झाड़ियां हैं, इसके बाद वनस्पतियों में घास व सुन्दर फूल ही दिखाई देते हैं। इन्हीं घासों के कारण यहां जंगली हिरन (बरल) अधिक मात्रा में देखने को मिले। वैसे कहा जाता है कि इस क्षेत्र में जंगली जानवरों की संख्या बहुत अधिक है, पर लोगों के द्वारा चोरी-छिपे शिकार करने के कारण अब इनकी संख्या में काफी कमी आ गयी है। पर बरल के झुण्ड खूब देखे । यहां कस्तूरी मृग भी पाया जाता है, पर हमने नहीं देखा। जैसे-जैसे ऊंचाई की ओर चढ़ते जाते हैं, घास की ऊँचाई कम होती जाती है और रंग-बिरंगे खिले हुए फूलों की संख्या अधिक दिखाई देती है। सामने अनेक चोंटियों दिखाई देती थीं। पातलखान से सरसों पताल का दृश्य अलग ही है। अब हम काफी खुली घाटी में आ गये थे। यहां हमारे अग्रिम दल के सदस्य हैलीकॉप्टर का इंतजार कर रहे थे। उनको बहुत चिन्ता हो रही थी कि 17 अगस्त को हैलीकॉप्टर आना था पर आज 18 अगस्त तक भी हेलीकाप्टर नहीं आया।

जैसे ही हम आपस में बातें कर रहे थे, उसी समय हमे हैलीकॉप्टर की आवाज सुनाई दी। हम जल्दी-जल्दी घास-फूस, बोरी आदि जलाकर धुआं करने लगे। हैलीपैड का यह मैदान काफी चौड़ा था और उसी में पत्थरों द्वारा बीचों-बीच में (ऌ) लिखा हुआ था। हमारे सामने सामान को गिराया जाने लगा। उसमें से एक सेब की पेटी टूटकर चकनाचूर हो गयी थी। इस प्रकार हैलीकॉप्टर ने हमारे सामने ही 5 फेरी लगायी। इस बीच दो बार नीचे भी उतरा। एक बार हमारे दो सदस्य डॉक्टर कुमकुम सलूजा व सनम पलजोर जोशीमठ तक होकर आये थे। उनको केवल 20 मिनट का समय लगा था, जबकि वही दूरी हमने 10 दिन में पैदल तय की थी। हैलीकॉप्टर द्वारा गिराये जाने वाले सामान में टिन्ड सामान जैसे दूध, डालडा, बीड़ी, मसाले आदि टूटकर आपस में मिल गये थे, किन्तु इतना नुकसान नहीं हुआ था जितना होने की सम्भावना थी।

खैर सभी सामानों को अलग-अलग किया। डालडा पिघलाकर अलग बर्तनों में डाला। इसी प्रकार दूध को भी जितना हो सकता था अलग किया। 19 अगस्त को हमारा काम केवल उस सामान को ठीक करने का था। किसी प्रकार सारा दिन लगाकर आगे ले जाने लायक सामान तैयार किया। उस दिन लगने लगा कि ये सारा काम किसी एक व्यक्ति के बस की बात नहीं है। अत: लीडर से कहकर सभी उस काम में लग गये। खुद लीडर भी कुछ देर इस कार्य में लगे रहे। सरसों पातल से कुछ कुली वापस जाना चाहते थे। अत: उनका हिसाब भी करना था। इस तरह सारे दिन किसी को फुरसत नहीं थी और किसी को किसी की खबर नहीं रही। सभी अपने-अपने कार्य में व्यस्त रहे।
क्रमश:
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