देश की तरक्की बनाम घरेलू कामकाज

House Women
प्रदीप पाण्डे

कुछ विषय शीर्षक से ही बड़े रोचक लगते हैं और कुछ विषय उबाऊ। अखबार या पत्रिकाओं में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले विषय सनसनी से सम्बन्धित होते हैं। र्आिथक मामलों पर लिखी रिपोर्ट कम पढ़ी जाती हैं क्योंकि इनके शीर्षक देखते ही पाठक बेरुखी महसूस करने लगता है। फिर भी मैं हिम्मत करके आज यहाँ एक र्आिथक मसले को सामने लाना चाहता हूँ, उसका नाम है सकल राष्ट्रीय उत्पाद।
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जैसे देश का बजट बनाया जाता है, वैसे ही कई लोग अपने घर का बजट तैयार करते है कि कितना पैसा कमाया,  किस-किस मद में खर्च किया और कितना बचाया। घर की कमाई और खर्च का कोई ध्यान रखा जाए या नहीं, यह व्यक्ति की इच्छा पर है, मगर देश बगैर बजट के नहीं चल सकता। इसके साथ देश तरक्की कर रहा है या नहीं, कर रहा है तो किस दर से, इसे मापने के लिए सकल राष्ट्रीय उत्पाद को नापना भी जरूरी होता है। पिछले साल से ज्यादा राष्ट्रीय उत्पाद हुआ या नहीं, अगर हुआ तो कितने फीसदी ज्यादा हुआ, यह नाप-तोल कर हम किसी देश की प्रगति की दर का आंकलन करते हैं।

सकल राष्ट्रीय उत्पादन नापने के लिए किसी मुल्क में किसी एक साल में जितनी वस्तुएँ उत्पादित हुईं (आलपिन से लेकर समुद्री जहाज के निर्माण तक, बढ़ई के काम से हलवाई तक और भी तमाम निर्माण गतिविधियाँ) और जो सेवाएँ दी गयीं (जैसे लोगों को रेल, मोटर, जहाज से यहाँ-वहाँ ले जाना, बैंकिंग, बीमा, होटल, रेस्टोरेंट चलाना जैसी अनेकानेक सेवाएँ), उन सबको जोड़ दें तो सकल राष्ट्रीय उत्पाद निकल आएगा। इसे एक आसान उदाहरण से समझा जा सकता है। आपको सड़क में एक पाँच सौ रुपये का नोट पड़ा मिला, आपने इसे उठा लिया और सीधे पिक्चर हॉल चले गए और पूरे पैसे का टिकट ले लिया, पिक्चर हॉल के मालिक ने इससे अपने दो नौकरों को तनखा दे दी, दोनों ने अपने घर के लिए राशन खरीदा, राशन वाले ने इसका भुगतान माल लाने वाले ट्रक मालिक को दे दिया, ट्रक मालिक ने डीजल पम्प वाले का बिल चुकाया। इस तरह ये सब गतिविधियाँ पैदा हुईं, जिसके कारण सेवाओं और वस्तुओं की माँग पैदा हुई। इसलिए तमाम किसानों, मजदूरों, अध्यापकों, प्रबंधकों, मनोरंजन प्रदान करने वालों, उत्सव-जलसों में टेंट हाउस, कैटरिंग करने वालों, खदानों में काम करने वालों आदि-आदि-इत्यादि के काम का मूल्य मापा जाता है। इस तरह देश में जितनी भी वस्तुओं का निर्माण हुआ और जितनी सेवाओं को प्रदान किया गया,  उनका जोड़ सकल राष्ट्रीय उत्पादन कहा जाता है। यह जितना ज्यादा होगा, देश उतना ही समृद्घ कहलायेगा और यह जितनी तेजी से बढे़गा, देश उतनी ही तेजी से आगे बढ़ने वाला कहलाया जाएगा। चूँकि कोई भी वस्तु या कोई भी सेवा तभी आर्थिक कार्यकलाप का दर्जा पाती है, जब हम उसका मूल्य चुकाते हैं। मसलन टैक्सी से यात्रा, समोसा खरीदना, कपड़े खरीदना, सिनेमा हॉल का टिकट या वकील या चार्टर्ड अकाउंटेंट के सेवाओं के बदले उन्हें दी जाने वाली फीस।
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वस्तुओं और सेवाओं की इस नाप-जोख में आज भी एक बड़े सेक्टर को दरकिनार कर दिया जाता है। वह सेक्टर है महिलाओं द्वारा घर को चलाने के लिए किया जाने वाला श्रम। जैसे पशु पालना, जंगल से लकड़ी लाना, बच्चे पालना, चौका-चूल्हा वगैरा-वगैरा तमाम काम, जो अपने आप में महत्वपूर्ण तो हैं ही इसलिए भी महत्व रखते हैं क्योंकि जब इन कामों का जिम्मा महिलाएं संभाल लेती हैं, तब ही पुरुषों को उन गतिविधियों को करने के लिए समय मिलता है, जिन गतिविधियों को आर्थिक गतिविधि कहा जाता है और उनकी गणना सकल राष्ट्रीय उत्पाद में होती है, इसे यों समझें, एक व्यक्ति इंजीनियर है, वह एक फैक्ट्री में काम करता है, उसके द्वारा घर से निकल कर फैक्ट्री में जाने तक जिस बस, ट्रेन का इस्तेमाल किया गया, जिस ए.टी.एम. या बैंक का प्रयोग किया, उसकी गणना राष्ट्रीय सेवाओं में हुई, मगर उसकी पत्नी ने उसे नाश्ता कराया, उसके कपडे़ धोकर, प्रैस किये, बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी खुद संभाली। इस सब के कारण वह मुक्त होकर अपने काम पर चला, मगर इन कामों को कहीं गणना में नहीं लिया गया।

सकल राष्ट्रीय उत्पाद मापने की विधि सबसे पहले दो ब्रिटिश अर्थशास्त्रियों जेम्स मीड और रिचर्ड स्टोन ने लगभग 80 साल पहले पेश की। धीरे-धीरे यह पूरी दुनिया में अपना ली गयी। मीड और स्टोन ने अपने समय के अर्थनीतिकारों की तरह सिर्फ उन्हीं गतिविधियों को आर्थिक गतिविधि माना, जिनको वास्तव में खरीदा या बेचा जाता हो। लेकिन इस विचार के अंतर्विरोध तत्काल ही तब सामने आ गये जब फिलीस डीन नाम की 23 वर्षीया शोध छात्रा, जिसे इन दोनों अर्थशास्त्रियों ने अपनी बनायी इस विधि को ब्रिटेन के दो उपनिवेशों मलावी और जाम्बिया में प्रयोग करने का जिम्मा  दिया था, ने बताया कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद से घरेलू श्रम जिसे हम नजरंदाज कर रहे हैं, उसके कारण त्रुटिपूर्ण नतीजे आयेंगे। उसका कहना था कि घर में खाना बनाने और लकड़ी-पानी लाने में जो श्रम लग रहा है, हम उसे देख ही नहीं रहे हैं, जो अतार्किक है। मगर दशकों गुजर गए लेकिन महिलाओं द्वारा किये जा रहे श्रम को कुल राष्ट्रीय उत्पाद की गणना के दायरे में नहीं लाया जा सका।
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1999 में न्यूजीलैंड में जन्मी अर्थशास्त्री मेरिलिन वेरिंग ने कहा कि राष्ट्रीय खाते में बिना भुगतान के श्रम को नापने के लिए एक नया नजरिया सामने रखा। उसने कहा, श्रम को मापने के लिए आर्थिक गतिविधि की जगह समय को मापदंड माना जाना चाहिये। ‘समय एक ऐसी चीज है जिसका प्रयोग हम सबको करना होता है।’ केन्या में अपने शोध के आधार पर उसने कहा कि ‘किसने कितना समय अपने-अपने काम में लगाया, इसका सर्वे किया जाए तो तब पता लगेगा कि किसने (पुरुषों या स्त्रियों) रोजमर्रा के तुच्छ समझे जाने वाले काम ज्यादा किये। ऐसे काम जिन्हें समाज में अहमियत भी नहीं मिलती और जिसके लिए कोई भुगतान भी नहीं होता।’ इस तरह के सर्वे का एक फायदा यह भी होगा कि इससे पता चलेगा कि सरकार को कहाँ-कहाँ काम करने की जरूरत है। मसलन कोई महिला पीने के पानी लाने या लकड़ी में खाना बनाने में कितना समय लगा रही हैं, तो इस पर सरकार पानी और बेहतर स्टोव या कुकिंग गैस के लिए ज्यादा लाभकारी  योजनाएँ बना सकती है।

कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि घरेलू श्रम को आर्थिक रूप से आकलित कर पाना कठिन कार्य है, इसलिए वर्तमान समय में ऐसा कोई मुल्क नहीं है, जहाँ महिलाओं के घरेलू परिश्रम को राष्ट्रीय उत्पाद में गिना जाता हो। मगर इस विचार के पक्षधरों ने इसे मान्यता दिलाने के लिए मोर्चा खोला हुआ है। कुछ ने इसे मापने के लिए यह तरीका अपनाने को कहा है  कि विभिन्न प्रकार के काम एक महिला जो अपने घर में करती है, अगर इसे घर के बाहर दूसरे घरों, संस्थानों में करें तो उसकी कीमत क्या होगी। तो कुछ नीतिकारों ने इसके उलट ये तरीका निकाला है कि अगर रसोइये, धोबी, बेबी सिटर, झाड़ू-पोछा करने वाली बाई, बच्चों को ट्यूशन देना, जैसे अनेक काम जो एक औरत को घर के अन्दर करने पड़ते हैं अगर उनको बाहर से व्यक्ति बुलाकर करवाए जाएँ तो कितनी लागत आएगी।  इसी तरह गाँव की औरतें लकड़ी, चारा, पीने के पानी लाने, खेतीबाड़ी आदि में जो मेहनत करती हैं, उसके मूल्य की गणना कर देश की अर्थव्यवस्था में इनके योगदान को आँका जा सकता है। और यदि ऐसा कभी होता है तो तब पुरुषों के द्वारा घरेलू महिलाओं के लिए अक्सर इस्तेमाल होने वाला कथन, अरे, तुम दिन भर घर बैठे-बैठे आखिर करती क्या हो? अपना अर्थ खोने लगेगा। (House Women)

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