शराब: बदलता परिदृश्य

History of Liquor & its Policies
-गिरिजा पाण्डे

गत वर्ष 21 सितम्बर (2018) को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने दुनिया में नशे की स्थिति पर एक रिपोर्ट जारी की है। ‘‘ग्लोबल स्टेट्स रिपोर्ट ऑन एल्कोहल एण्ड हैल्थ-2018’’ नामक इस रिपोर्ट को जारी करते हुये विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक डॉ. टैड्रोस गैबरेयेसस ने शराब के लगातार बढ़ते चलन और दुष्प्रभावों पर गम्भीर चिन्ता व्यक्त करते हुये कहा-
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‘‘आज बड़ी संख्या में शराब के व्यसन और दुरुपयोग के परिणामस्वरूप व्यक्तियों, परिवारों, यहाँ तक कि समुदायों को इसके दुष्परिणामों जैसे हिंसा, मानसिक दशा, हृदय-मस्तिष्क घात और कैंसर जैसी घातक व जानलेवा बीमारियों का सामना करना पड़ता है’’

गैबरेयेसस ने अपने संबोधन में यह भी चेताया कि समय आ गया है जब समाज को इस गम्भीर चुनौती से निजात पाने के लिये शीघ्र कदम उठाने होंगे ताकि एक स्वस्थ व संतुलित समाज विकसित किया जा सके। संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी की गयी यह हालिया रिपोर्ट बताती है कि अकेले वर्ष 2016 में ही पूरी दुनिया में शराब के कारण 3 मिलियन यानी 30 लाख से अधिक लोगों की जानें गईं। आँकड़ों के अनुसार इस समय दुनिया में कुल मरने वाले लोगों में से 5 प्रतिशत मृत्यु का कारण केवल शराब है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की यह रिपोर्ट बताती है कि अब तक समूचे विश्व में 2.3 बिलियन लोग शराब की गिरफ्त में आ चुके हैं और सबसे चिंताजनक स्थिति यह है कि इसमें से 27 प्रतिशत से ज्यादा शिकार 15 से 19 वर्ष के आयु वर्ग में आने वाले युवा हैं। यहाँ पर थोड़ा संतोष यह किया जा सकता है कि जहाँ एक ओर नशा समाज में तेजी से अपनी जडे़ं फैलाता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर इसके खिलाफ समानान्तर ढंग से चेतना का प्रसार भी हो रहा है।

बाजारवाद और उदारीकरण की बयार ने पिछले तीन दशकों से अधिक समय से सामाजिक-सांस्कृतिक ढाँचे को बहुत गहराई तक प्रभावित किया है। नव-उदारवाद की इस आधुनिक लहर ने दरअसल आज सामाजिक परिदृश्य में नये-नये प्रतिमान गढे़ हैं। परिणामस्वरूप आधुनिक समाज में नशे और नशीले पदार्थों को लेकर अनेक तरह के अन्तर्विरोध उभरे। आज एक ओर ‘नशे’ को आधुनिकतावादी व उन्मुक्त जीवन शैली से जोड़ कर सम्मानजनक नजरिये से देखा जाने लगा है, वहीं दूसरी ओर इसे आधुनिकता से जन्मी नकारात्मकता और उससे उपजे ‘नशे और अपराध’ के तंत्र का कारक भी माना जा रहा है। संभवत: यह नशाजन्य अपराधों और अराजकता का ही परिणाम है कि हाल के वर्षों में नशीले पेयों के प्रति हिकारत का भाव भी बड़ी सीमा तक बढ़ा है।

हाल के दशकों में नवउदारवादी राजनैतिक प्रणालियों ने नशीले पेयों व पदार्थों के व्यापार का एक ऐसा जटिल तंत्र विकसित किया है, जिससे एक खास तरह की राजनैतिक आर्थिकी (Political-ecnomy) पैदा हुई है। आज नशे के व्यापार का एक ऐसा तंत्र विकसित हुआ है, जो सामाजिक सरोकारों से कहीं दूर मुनाफाखोरी की नई संस्कृति विकसित करने में लगातार कामयाब होता जा रहा है। इस बदलाव की जड़ें दरअसल इतनी गहरी हो चली हैं कि समाज का चिंतनशील तबका भी अपने विमर्शों में नशीले पेयों की ऐतिहासिक सर्वविद्यमानता को स्वीकार करने में असहजता महसूस करने लगता है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो समाज में नशे के लगातार बढ़ते चलन ने नशीले पेयों के उपयोग की संस्कृति को आधुनिक समाजशीलता का परिचायक बना दिया है। यही कारण है कि नशे का बढ़ता प्रचलन, इसके दुष्प्रभाव और आधुनिक जीवनशीलता (Modern Sociability) आज समाज में बहस और विमर्श के केन्द्र में आ चुकी है।

नशीले पदार्थ: ऐतिहासिक संदर्भ

नशीले पदार्थ और खास तौर पर शराब के सेवन की जड़ें दुनिया के सभी समाजों में तलाशी जा सकती हैं। इतिहासकारों का मानना है कि पहली बार नशीले पेयों का उत्पादन प्रागैतिहासिक घुमन्तू समाजों ने किया था। रोटी से पहले लगभग पांचवीं शताब्दी ई.पू. ‘अल’ या ‘अले’ नामक पेय पश्चिमी समाजों में प्रचलित था। शायद अल दुनिया का सबसे प्राचीनतम पेय था। प्राचीन मेसोपोटामिया और मिश्र से मिले मृदा अभिलेखों में इसके उत्पादन की पद्धति का जिक्र मिलता है। विभिन्न देशों और इलाकों में शराब का चलन अलग-अलग रूपों में रहा है। जैसे जर्मनी में यह संस्कृति ‘बीयर कल्चर’, फ्रांस में ‘वाइन कल्चर’, जापान में ‘साके कल्चर’, रूस में ‘वोदका कल्चर, कैरेबियाई देशों में ‘रम’ तो आल्पाशियन पहाड़ी समाजों में यह ‘मूनशाइन कल्चर’ के नाम से सुर्खियों में रहा है। आज पारम्परिक, धार्मिक उत्सवों से लेकर शादी-ब्याह और बड़े-बड़े व्यापारिक समझौतों में तक शराब की महत्वपूर्ण भूमिका दिखाई पड़ती है। नशीले पदार्थ और सामाजिकता पर अध्ययन करने वाले थामस कीथ कहते हैं कि ‘‘पूर्व आधुनिक या प्रारम्भिक-आधुनिक (Early Modern) कालखण्ड में भी नशा सामाजिक ताने-बाने में गहराई से गुंथा हुआ था। ब्रिटेन में यह सामाजिक जीवन का इतना अभिन्न हिस्सा था कि सार्वजनिक, पारिवारिक या व्यक्तिगत आयोजनों में इसके उपयोग को प्रमुख स्थान हासिल था। दरअसल नशे का इतिहास मनुष्य के इतिहास जितना ही पुराना है। क्रेग राईनरमान ने अपने अध्ययन में पाया कि गुफा मानवों ने भी शैलाश्रयों में अनेक बार सम्मोहन और मादकता की स्थिति में पहुंचाने वाले मशरूमों-वनस्पतियों का चित्रांकन किया है।
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ग्रीको-रोमन उत्सवों में नशे में मस्त होकर झूमते मानव समूहों को उनके पंचागों में चित्रित किये जाने के उद्धरण मिलते हैं। ब्रिगुएल सोलहवी सदी के फ्लेमिश गाँव के एक ऐसे उत्सव का चित्रांकन करता है जिसमें समूचा गाँव नशे में डूबकर आनन्द मना रहा है। भारतीय समाज में भी नशा आरम्भ से ही जीवन शैली का हिस्सा रहा है। आदिवासी समाजों में प्राकृतिक तौर पर एकत्र किये जाने वाले रस, वनस्पतियों से आसवित या किण्वन्वित (Ferment) कर बनाये जाने वाले पेय आज भी पारम्परिक समारोहों का हिस्सा होने के साथ ही सामान्य चलन में हैं।

प्राचीन भारतीय धार्मिक, पौराणिक और औषधीय आख्यानों, अभिलेखों में नशीले पदार्थों के उपयोग के अनेक प्रसंग मिलते हैं। ‘पंच-मकार‘ पूजा पद्घति में मदिरा का अहम स्थान था। तंत्र शास्त्र में तो मदिरा का प्रयोग खास बात थी। उस काल में गौड़ी, पेष्टि, माध्वी, पानस, द्रास, मार्यूक, मैरेय, सुरा जैसे मादक पेय विशिष्ट मंत्रोच्चार के साथ तैयार किये जाने के विवरण मिलते हैं, जो समाज में मादक पदार्थों की सहज स्वीकार्यता की ओर संकेत करते हैं।

एल्चिन उल्लेख करता है कि वैदिक युग से पहले और प्रारम्भिक वैदिकयुगीन कर्मकाण्डों के साथ-साथ दैनन्दिन घरेलू गतिविधियों में मादक पदार्थों का उपयोग सामान्य बात थी। यह भी उल्लेखनीय है कि नशीले पेयों के सेवन को लेकर कोई जातीय बंधन नहीं थे। हालांकि मादक पदार्थों के सेवन का प्रचलन आमतौर पर विशिष्ट अवसरों तक ही सीमित था। अश्वघोष महिलाओं द्वारा भी नशीले पेय का उपयोग किये जाने का विवरण देता है। स्थानीय उत्पादों के अतिरिक्त ऐसे पेय आयात भी किये जाते थे। ‘कपिशायन’ उत्तम कोटि की मदिरा के रूप में आंकी जाती थी। मादक पदार्थों का यह प्रचलन महाकाव्य काल तक बना रहा। मैण्डलवाम का मानना है कि भारत में नशीले पदार्थों को लेकर सामाजिक नियंत्रण का पहला सन्दर्भ ई. पूर्व 200 से मिलना प्रारम्भ होता है, जब शराब के सेवन को सामाजिक ढाँचे के अनुसार वर्गीकृत करना आरम्भ हुआ। इस व्यवस्था में जहाँ ब्राह्मण, पुरोहित और यज्ञयाजन करने वाले वर्ग को इसके सेवन से दूर रहने की अपेक्षा की गई, वहीं समाज के अन्य वर्गों पर कोई प्रतिबंध नहीं थोपे गये थे। पाँचवी शताब्दी ई. पू. में बौद्घ धर्म के उद्भव के साथ ही नशीले पेयों के प्रचलन में कमी आनी शुरू हुई।

दरअसल बौद्ध विचारधारा ने नशीले पेयों के प्रसार को रोकने में सार्थक भूमिका निभाई। मौर्य-गुप्तकाल के आते-आते ऐसे पदार्थों का प्रचलन कम या प्रतिबंधित हो चला था। ऐसा प्रतीत होता है कि सामाजिक दुष्प्रभावों को देखते हुये राज्य व्यवस्था ने इसके प्रसार को नियंत्रित करना उचित समझा। धीरे-धीरे नशे का प्रयोग हेय समझने की मानसिकता समाज में उभरने लगी। इस दौर में धर्म ग्रन्थों में भी नशे के प्रयोग पर प्रतिबंध के प्रसंग देखने को मिलते हैं। हालांकि प्राचीन भारतीय समाज में नशीले पदार्थों के प्रचलन के कुछ उदाहरण दिखाई पड़ते हैं लेकिन न तो अधिकांश लोगों द्वारा इसे अपनाया या विकसित किया गया और न ही व्यापार और राज्य की आय के स्रोत के रूप में इसे विकसित किये जाने के प्रयास ही किये गये।

देखा जाय तो पन्द्रहवीं सदी से पहले दुनिया के अधिकांश समुदायों में मादक पदार्थों का उपयोग धार्मिक-आध्यात्मिक या पारम्परिक उत्सवों में सामूहिक आनन्द के लिये किये जाने के उदाहरण ज्यादा मिलते हैं। जैसे ज्यूडो क्रिश्चियन मतावलाम्बियों में ‘सेक्रामेंटल वाइन’ का उपयोग या फिर ‘विजन क्वेस्ट’ के सम्मोहन के लिये नई दुनिया के धर्मों में नशीले पदार्थों के प्रचलन जैसे उदाहरण देखे जा सकते हैं। कई बार अपनी सामुदायिक विशिष्टता और अलग सांस्कृतिक पहचान को बनाये रखने के लिये समुदायों ने अपने लिये विशिष्ट पेयों का चयन किया। दरअसल यह विभिन्न समुदायों के बीच संवाद और अपनी अलग पहचान बनाये रखने का तरीका भी था। देखा जाय तो सारी दुनिया में आज के उलट ‘नशे’ को अलग नजरिये से देखा जाता था।

अफ्रीकी, यूरोपीय और एशियाई समाजों में आपस में बहुत सम्पर्क न होने के बावजूद कई मामलों में समानतायें थी। जैसे नशे के लिए अफीम, सुपारी या पेड़ों से निकाले जाने वाले पेयों का उपयोग करना या नशीले पेयों की तीव्रता को बढ़ाने के लिए कई पारम्परिक तरीके अपनाया जाना। मध्य पूर्व, भूमध्यसागरीय और दक्षिण एशियाई देशों में इसके लिये सुपारी का प्रयोग आम बात थी। यह उल्लेखनीय है कि अमेरिकी आदिवासी समाज किण्वन (फरमंटेशन) से तैयार किये जाने वाले पेयों से परिचित नहीं थे। नशीले पेयों को बनाने के लिये वे वनस्पतियों, चट्टानों से निकलने वालों द्रव्यों तथा पेड़ों की छालों का उपयोग करते थे। यह उल्लेखनीय है कि इस समूचे दौर में विभिन्न धार्मिक विश्वासों ने नशीले पदार्थों के उपयोग को प्रतिबंधित भी किया था। हालांकि ऐसे प्रतिबंध मूलत: परिस्थितिजन्य थे, न कि नशे से पैदा हुई सामाजिक महामारी का परिणाम थे, जिसने समाज में असंतुलन पैदा कर दिया हो।
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नशे और समाज का यह अन्तर्सम्बन्ध मध्ययुग तक बना रहा। मध्यकाल में एक बार फिर नशीले पदार्थों के प्रसार में तेजी आई। इस्लाम में निषेध होने के बावजूद शासकों से लेकर समाज तक में इसके बढ़ते चलन को इस दौर में भी देखा जा सकता था। शराब के अनेक विकल्प नशे के लिये इस दौर में तलाश लिये गये। अफीम, भांग, चरस जैसे पदार्थ अब पेयों के विकल्प के रूप में अपनी जड़ें जमा रहे थे।

चौदहवीं शताब्दी की भौगोलिक खोजों और कालान्तर में हुई औद्योगिक कं्राति के परिणामस्वरूप धीरे-धीरे दुनिया में नये बदलाव आने शुरू हुये। पूंजी के निर्बाध प्रवाह ने व्यापारिक इजारेदारी (Trade Monopoly) के नये-नये तरीके अपनाने शुरू किये। सोलहवीं शताब्दी में भारत में आने वाले पुर्तगाली अपने विवरणों में इसका जिक्र करते हुये बताते हैं कि राज्य सत्ता ने अभी भी शराब को नियंत्रण में लेने और इससे लाभ कमाने का नजरिया नहीं अपनाया था। हालांकि इजारेदार, जमींदार, ताल्लुकेदार अपने-अपने इलाके में नशीले पदार्थों के व्यापार पर कर उगाही किया करते थे। फिर भी इस तरह के पदार्थ नियमित और सुविकसित राजस्व उगाही तंत्र का हिस्सा नहीं थे।

यूरोपीय व्यापारियों द्वारा धीरे-धीरे नशीले पदार्थों के प्रति स्थानीय समाज में आकर्षण पैदा किया गया और इस तरह व्यापारिक सम्भावनाओं ने इस कारोबार के लिये सुगठित तंत्र विकसित किये जाने की जमीन तैयार की। अब शराब आर्थिक-सामाजिक शोषण का नया हथियार बनने वाली थी।

वस्तुत: सारी दुनिया में कोलम्बियन एरा जिसे आधुनिक युग भी कहा गया, की शुरूआत के साथ ही नशीले पदार्थों से वाणिज्यिक लाभ कमाने की अवधारणा ने जन्म लेना शुरू किया था, जिसका मूल मकसद मुनाफा कमाना और उसके लिये नशीले पदार्थों के व्यापार तथा वाणिज्य को असीमित सम्भावनाओं वाले क्षेत्र के रूप में विकसित करना था। जोसेफ वेस्टरमेयर ने अपने अध्ययन में इस बात का उल्लेख किया है कि दुनिया में नशीले पदार्थों के ‘महामारी’ का रूप लेने का पहला उदाहरण इंग्लैण्ड में ‘जिन ऐपेडेमिक’ के रूप में 1500 ई. के बाद मिलता है। इस महामारी ने लगभग 200 वर्षों तक इंग्लैण्ड को अपनी गिरफ्त में रखा था। इस दौर में इंडीज से आने वाली ‘रम’, स्पेन की ‘पोर्ट वाईन’ के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर बनायी जाने वाली शराब बड़ी मात्रा में चलन में आने लगी थी। नशीले पेयों का कारोबार कनाडा से होते हुये दक्षिण के कैरेबियाई द्वीपों तक फैलने लगा था।

औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप बदले आर्थिक-सामाजिक ढाँचे ने शराब या दूसरे नशीले पेयों को सामाजिक सांस्कृतिक रूप से प्रतिष्ठित करने में अहम भूमिका निभाई। अब धीरे-धीरे नशीले पदार्थों का सेवन संपन्नता और सामाजिक प्रतिष्ठा का पर्याय बनने लगा था। बदलते परिदृश्य का अन्दाज इस बात से लगाया जा सकता है कि इस दौर के राजनैतिक-आर्थिक नेतृत्व ने तक अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की संम्भावनाओं को देखते हुये नशीले पेयों की उपयोगिता को नये सिरे से परिभाषित करना आरम्भ किया। इसका परिणाम यह हुआ कि उद्योगों में काम करने कामगारों के लम्बे-लम्बे काम के घंटों से उपजने वाली उदासीनता और थकान से निजात दिलाने के लिये शराब को सस्ते ऊर्जा पेय के रूप में परोसे जाने को लेकर तर्क गढे़ जाने लगे। यह उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश समाज ने नशीले पदार्थों के सामाजिक दुष्प्रभावों को समय रहते आंक लिया था और समय रहते ‘जिन ऐपेडेमिक’ को नियंत्रित करने के प्रयास आरम्भ कर दिये थे।
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नशीले पदार्थों का दुरुपयोग केवल यूरोप तक ही सीमित नहीं था। इस समय तक एशियाई समाजों में नशे की समस्या ‘अफीम महामारी’ का रूप ले चुकी थी। दरअसल 1600 ई. में शुरू हुआ अफीम का प्रसार कमोबेश अगले 300 वर्षां तक एशियाई समाजों को अपनी गिरफ्त में लिये रहा। इस दौर में जापान, चीन, मलय, दक्षिण एशिया से लेकर मध्यपूर्व तक इस फैलाव को देखा जा सकता था। इंग्लैंण्ड के ‘जिन ऐपेडेमिक’ की तरह ही 1700 ई. तक आते-आते एशियाई समाजों, परिवारों या व्यक्ति विशेषों में भी नशे के कुप्रभाव परिलक्षित होने लगे थे।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा चीन को निर्यात किये जाने वाले अफीम के कारोबार सम्बन्धी दस्तावेज दर्शाते हैं कि अफीम का व्यापार तेजी से फैलता जा रहा था और 18वीं, 19वीं, तथा 20वीं शताब्दी में इसके निर्यात ने तेजी से छलांग लगाई थी। यह उल्लेखनीय है कि इंग्लैंण्ड में नशीले पदार्थों के दुष्परिणामों को देखते हुए भी दूसरे देशों ने इससे सबक नहीं लिया और उनकी नींद 20वीं सदी के उत्तराद्र्घ में तब जाकर टूटी, जब समाज का बड़ा हिस्सा इसकी चपेट में आ चुका था। वेस्टर मेयर लिखता है कि पिछले पांच सौ सालों में नशीले पदार्थों ने दुनिया के अलग-अलग हिस्सों को अपनी तरह से प्रभावित किया और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार तंत्र ने इसको फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दरअसल व्यापार और मुनाफे की इस कारोबारी व्यवस्था का अनुभव लोगों को पहली बार हो रहा था।
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भारत में शराब का वाणिज्यीकरण

भारत में औपनिवेशिक शासन की शुरूआत से ही व्यापार और कर प्रणाली के लिये नशीले पेय बेहतरीन स्रोत समझे गये थे। इन्दिरा मुंशी सल्दाना ने अपने अध्ययन में पाया कि यह अंगे्रजी सरकार के लिये राजस्व का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत था। इसके कारोबार ने तत्कालीन भारत में पूंजीपतियों का एक ऐसा वर्ग खड़ा किया जिसके लिये शराब और दूसरे नशीले पेयों का उत्पादन एक आकर्षक और बेहतरीन व्यवसाय था। यह विडम्बना ही थी कि ब्रिटिश भारत में टैपरेंस मूवमेंट के बावजूद, राज्य की कमजोर मद्यनिषेध नीति और सामाजिक उदासीनता ने शराब के सेवन को लगातार बढ़ाया। हालांकि सरकार इस प्रवृति को हतोत्साहित करने के लिये शराब को महंगा कर आम आदमी की पहुंच से इसे बाहर रखने की नीति पर कायम है, लेकिन बावजूद ऊँची कीमतों के शराब की खपत बढती चली गयी। यह एक तरह से सरकार के लिये दोहरा लाभ था।

दुर्भाग्यवश नशीले पदार्थों में कर बढ़ाने की अजीबोगरीब सरकारी नीति ने बढ़ती कीमतों के चलते अवैध शराब उत्पादन और व्यापार की समानान्तर व्यवस्था खड़ी कर दी। दरअसल यह तत्कालीन आबकारी नीति की ही कमजोरी थी जो मद्यनिषेध के उद्देश्य को पाने में असफल रही।

भारत के अन्य इलाकों की तरह उत्तराखण्ड जैसे दूरस्थ क्षेत्र में भी नशीले पदार्थों के व्यावसायीकरण और राजस्व संग्रह का सिलसिला ब्रिटिश आधिपत्य के साथ शुरू होता दिखता है। आबकारी के असीम लाभकारी परिणामों की सम्भावना को देखते हुए कमिश्नर ट्रेल ने यहाँ भी शराब का उत्पादन एवं व्यापार राजकीय नियंत्रण में रखा। आरम्भ में नशीले पदार्थों का बाजार यहाँ आकर बस रहे यूरोपियनों या छोटे से समुदाय की माँग और पूर्ति पर निर्भर था। शीघ्र ही अधिकाधिक लाभ की आशा में कुमाऊँ  व गढ़वाल को एक फार्म के रूप में संगठित कर आबकारी प्रशासन विकसित किया गया, जिनमें नशीले पदार्थों के उत्पाद और व्यापार का अधिकार सम्बन्धित व्यक्ति को नीलामी प्रणाली द्वारा दिया जाता था। यह नीति इतनी लाभकारी सिद्ध हुई कि इससे 1820-21 में रु. 819 राजस्व प्राप्त हुआ, जो इस सदी के छठे दशक तक पहुँचते-पहुँचते  रु़ 5058 हो गया। 1908 में आबकारी में नया मोड़ आया, जब समूचे संयुक्त प्रान्त को कंट्रेक्ट या ठेका प्रणाली के अन्तर्गत लाया गया। यह क्रम 1947 में अंग्रेजी शासन की समाप्ति तक निरन्तर चलता रहा। आबकारी के उद्भव और प्रसार की इस तस्वीर को देखते हुए यह कहना उचित ही होगा कि व्यापार और लाभ के उद्देश्य से आई औपनिवेशिक सत्ता ने नशीले पेयों को समाज में प्रविष्ट करा कर और उसका वाणिज्यीकरण करा कर एक जटिल शोषक तंत्र का गठन किया जिसकी परिणति  कालान्तर में एक जटिल माफिया तंत्र के विकास के तौर पर हुई।
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