स्वास्थ्य हमारा अधिकार है

चन्द्रकला

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में र्विणत अधिकार इस देश के नागरिकों को जीवन का अधिकार देता है। अर्थात सम्पूर्ण स्वास्थ्य के साथ जीवन का अधिकार। लेकिन वास्तव में इस देश की नब्बे करोड़ आबादी अपने इस बुनियादी हक से वंचित है।

हमारे देश की सरकारें जन-स्वास्थ्य को लेकर कहती व सुनती रहती हैं लेकिन इस व्यवस्था में मौजूद नौकरशाही, दलाली व भ्रष्टाचार इस दिशा में सार्थक पहल में बाधा है। स्वास्थ्य सम्बन्धी जितनी भी सरकारी, गैर-सरकारी योजनाएँ चलायी जाती हैं, वास्तव में वे उन तबकों तक पहु्रँच ही नहीं पातीं, जिनको इनकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है। सरकारी चिकित्सकों के लिए जहाँ मरीज एक ड्यूटी है, वहीं निजी चिकित्सकों के लिए मरीज मुनाफा कमाने का साधन! जहाँ पर संवेदना व डॉक्टरी फर्ज का स्थान रिक्त होता है।

सरकारी अस्पतालों की सेवाएँ निरन्तर बदहाल होती जा रही हैं। यहाँ समय पर सम्भव इलाज होना कठिन होता है। परिणामस्वरूप निजी नर्सिंग होम, क्लीनिकों, डायग्नोस्टिक सेंटरों का मुनाफे का कारोबार चिकित्सीय मानदण्डों, मानवीय नैतिकता की धज्जियाँ उड़ाते हुए फलता-फूलता जा रहा है। स्वास्थ्य सेवाएँ आम आदमी की पहुँच से लगातार दूर होती जा रही हैं। समाज के सभी तबकों को स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराने की सारी जिम्मेदारी सरकार की होनी चाहिये। चिकित्सकों की मरीज के प्रति जिम्मेदारी भी यहीं से तय होती है।

भारत में एक गरीब परिवार की आय का बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं में खर्च होता है। फलस्वरूप उसे अन्य बुनियादी जरूरतों में कटौती करनी पड़ती है। महंगा इलाज भारतीयों में बढ़ती गरीबी का एक कारण है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार इलाज पर खर्च की वजह से भारत में प्रतिवर्ष 6.30 करोड़ लोग र्आिथक परेशानी से जूझ रहे हैं। 2011-2012 में ग्रामीण इलाकों के परिवारों को आय का 5.5 प्रतिशत हिस्सा इलाज में  खर्च करना पड़ा था। सोशल प्रोग्रेस इन्डेक्स की रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सामाजिक प्रगति के मानकों पर ध्यान दें तो हम पायेंगे कि भारत की स्थिति नेपाल और बांग्लादेश से भी पीछे है। यही कारण है कि भारत मानव विकास सूचकांक की रैकिंग में 135वें स्थान पर है।

आइए जानें, पूरी दुनिया में स्वास्थ्य की स्थिति क्या है।
भारत में स्वास्थ्य की वर्तमान स्थिति यह है-
पैसा नहीं तो डॉक्टर नहीं, दवाई नहीं।
दवा खरीदेंगे? एक ही दवा कई नामों व कई दामों से बिकती है। जितने महंगे ब्रान्ड की दवा डॉक्टर लिखेगा, आपको वही खरीदनी पडे़गी।
परीक्षण/जाँच करवानी है? कहाँ से करवानी है? यह डॉक्टर बता देंगे, जितना महंगा डायग्नोस्टिक सेन्टर होगा, शायद उतना ही अधिक कमीशन डॉक्टर की जेब में जायेगा।
फिजिशियन ने स्पेशलिस्ट/ विशेषज्ञ को रेफर किया है क्या? वहाँ पर भी शायद कमीशन के लिये आपको जेब खाली करनी पडे़गी।
सोचिए यदि ऐसा होता तो ?
बीमार होने पर आप किस डॉक्टर को दिखायेंगे, यह तय हो, लेकिन उसके लिए खर्च न करना पडे़।
कौन-सी समस्या के लिए डॉक्टर कौन-सी जाँच करवायेंगे, यह चिकित्सा निर्देशिका में लिखा हुआ हो।
कहाँ से जाँच करानी है, यह भी पहले से तय हो, उसके लिए भी कोई खर्च न करना पडे़।
प्रमाणित चिकित्सा-विधि के अनुरूप ही डॉक्टर दवा लिखें और आपको मुफ्त में दवा मिलें।
जरूरत होने पर ही चिकित्सा-विशेषज्ञ के पास भेजा जाये एवं इलाज की जरूरत के अनुरूप ही चिकित्सा-विशेषज्ञ तय हों।
अस्पताल में भर्ती होने पर प्राथमिक उपचार से लेकर उच्च स्तर के उपचार पर किसी प्रकार का खर्च न लगे।
सरकार नागरिकों की स्वास्थ्य-रक्षा का समस्त खर्च मुख्यत: प्रत्यक्ष कर से जुटाये।

इस प्रकार की स्वास्थ्य-सेवा को कहते हैं यूनिवर्सल हेल्थ केयर व सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवायें। सीधे कहें तो सबके लिये स्वास्थ्य। वर्तमान परिस्थितियों में जहाँ स्वास्थ्य को महज कॉमोडिटि (उपभोग की वस्तु) बना दिया गया हो, आपको अपनी गाढ़ी कमाई से इलाज खरीदना पड़ता हो, वहाँ सबके लिये स्वास्थ्य महज एक हवाई खयाल है। किन्तु इस खयाल को कई देशों ने वास्तविक रूप देने की पहल की है। सबसे पहले 1912 में प्रत्येक नागरिक के स्वास्थ्य-रक्षा का दायित्व नार्वे ने लिया। उसके बाद सोवियत यूनियन ने वर्ष 1937 में सबके लिये स्वास्थ्य लागू किया। 1969 से सोवियत यूनियन के ग्रामीण नागरिकों को शहरी नागरिकों की तरह समान सुविधायें मिल रही हैं।
(health is our right)

ब्रिटेन और यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका के प्रतिनिधि सर आर्थर न्यूज होम और जॉन एडम्स किंग वारी ने वर्ष 1933 में सोवियत चिकित्सा व्यवस्था को देखने के बाद Red Medicine : Socialized Health in Soviet Russia नामक रिपोर्ट में यह लिखा है कि ‘‘एक रूसी नागरिक बीमार पडे़ तो सरकार उसके इलाज के लिए सब कुछ करती है। वास्तव में सरकार ने इस दौर का पूरा इन्तजाम किया हुआ है- सोवियत रूस ने इस सिद्घान्त को अपनाया है कि प्रत्येक व्यक्ति का स्वास्थ्य समाज का सामूहिक दायित्व है।…. वास्तव में सोवियत यूनियन पृथ्वी का एक मात्र देश है जहाँ स्त्री, पुरुष, बच्चों के रोग प्रतिरोधक व बीमार के इलाज के लिये एक सम्पूर्ण व्यवस्था का गठन कर उसको संचालित किया जा रहा है।’’

इसके बाद जो देश सबके लिए स्वास्थ्य के पथ पर अग्रसर हुए-
1938 न्यूजीलैण्ड और जापान, 1941 जर्मनी, 1945 बेल्जियम, 1948 ब्रिटिशयुक्त राज्य।
ब्रिटिशयुक्त राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं का नाम एऩ एच़ एस़  (नेशनल हेल्थ र्सिवस) है।
एऩ एच़ एस़ की नीतियाँ हैं-
सबकी जरूरतें पूरी करना।
बिना मूल्य (मुफ्त) स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करना।
मरीज की जरूरत के अनुसार इलाज प्रदान करना किन्तु यह उसके खर्च करने की क्षमता पर निर्भर नहीं करेगा।

एऩ एच़ एस़ का लक्ष्य है-
स्वास्थ्य सेवाओं के समस्त कार्यों का केन्द्रक मरीज होना चाहिए।
मरीज, स्थानीय निवासी और समस्त जनसमूह के हित व जरूरत के लिए आपसी भागीदारी की बुनियाद पर स्वास्थ्य सेवायें प्रदान करना।
रोगी के स्वास्थ्य हित में एकजुट होकर कार्य करना।
रोगी का सम्मान करना, उसके प्रति हमदर्दी बरतना, और उसके साथ मर्यादापूर्ण व्यवहार करना।
यह इलाज के उच्च मानदण्डों को स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध है ।
प्रत्येक मरीज को समान महत्व दिया जाय।
जीवनयापन का स्तर उच्च हो।

इसके बाद 1950 में कुवैत व चीन में सबके लिए स्वास्थ्य वास्तव में लागू हुआ। वर्ष 1950 के अगस्त माह में प्रथम राष्ट्रीय स्वास्थ्य कांग्रेस में प्रजातांत्रिक गणराज्य चीन ने चार मूल नीतियों को अपनाया-

समस्त मजदूर, किसान व सैनिकों के लिए चिकित्सा व्यवस्था।
रोग-प्रतिरोधक को रोग के इलाज से ज्यादा महत्व देना।
पाश्चात्य चिकित्सा के साथ चीनी पद्धति का समन्वय करना।
स्वास्थ्य से जुडे समस्त कार्यों को जनान्दोलनों के साथ जोड़ना।

चीन के बाद सबके लिए स्वास्थ्य शुरू हुआ-
1955 स्वीडन, 1957 बहरीन, 1958 ब्रनेई, 1960 क्यूबा

1960 में क्यूबा के स्वास्थ्य मंत्री चेग्वेरा ने ऑन रिवोल्यूशनरी मेडिसिन में लिखा है- ‘‘आज स्वास्थ्य मंत्रालय व समानधर्मी संस्थाओं का कर्तव्य है कि जितना अधिक संख्या में सम्भव हो आमजन/ जनता तक स्वास्थ्य सेवाएँ पहुँचाएँ, रोग-प्रतिरोधक कार्य प्रणाली शुरू करें, जनसाधारण को स्वस्थ रहने की आदतों के प्रति अभ्यस्त बनायें।’’ क्यूबा के संशोधित संविधान के 50वें अनुच्छेद में दर्ज है- प्रत्येक को स्वास्थ्य रक्षा और इलाज पाने का अधिकार है। इस हक को सुनिश्चित करने के लिए सरकार ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा नेटवर्क, पोली क्लीनिक, अस्पताल, रोग-प्रतिरोधक और रोग विशेषज्ञ चिकित्सा केन्द्र के माध्यम से बिना मूल्य चिकित्सा दें और मरीज को अस्पताल में भर्ती कर इलाज की व्यवस्था करें, बिना मूल्य दाँतों का इलाज करें, स्वास्थ्य के लिए प्रचार, स्वास्थ्य शिक्षा अभियान चलायें, नियमित स्वास्थ्य परीक्षण की व्यवस्था करें, संक्रमित रोगों को रोकने के लिए साधारण टीकाकरण व अन्य जरूरतें पूरी करें। जनसाधारण इस कार्यवाही में भाग लें एवं सामाजिक संस्थाओं और जनसंगठनों के माध्यम से इस योजना को साकार किया जाय।

सबके लिए स्वास्थ्य क्यूबा के बाद क्रमश: 1966 कनाडा व नीदरलैण्ड, 1967 आस्ट्रिया, 1971 संयुक्त अरब अमीरात, 1972 फिनलैण्ड और स्लोविनिया, 1973 डेनमार्क और लक्जम्बर्ग, 1974 फ्रांस, 1975, ऑस्ट्रेलिया, 1977 आयरलैण्ड में आरम्भ हुआ।

6-12 सितम्बर 1978 को कज्जाक सोवियत सोशलिस्ट की राजधानी अलमा-आटा में प्राथमिक सेवाओं के बारे में विश्व स्वास्थ्य संस्था की अन्तर्राष्ट्रीय कान्फ्रेंस में घोषित किया गया- हेल्थ फॉर ऑल बाय 2000 ए़ डी़ यानी सन् 2000 में सबके लिए स्वास्थ्य। भारत ने भी इस घोषणा पत्र में हस्ताक्षर किये है।

अलमा-आटा के बाद सबके लिए स्वास्थ्य के रास्ते में चलने वाले देश हैं-

1978 इटली, 1979 पुर्तगाल, 1980 साइप्रस, 1983 ग्रीस, 1986 स्पेन, 1988 दक्षिण कोरिया, 1990 आइसलैण्ड, 1993 हांगकॉग और सिंगापुर, 1994 स्विट्जरलैण्ड, 1995 इजरइल और ताइवान, 2000 श्रीलंका, 2001 थाइलैण्ड, 2004 आयरलैण्ड, 2009 पेरू।

सन् 2000 तक का जो लक्ष्य लिया गया था, उसको पार हुए भी 15 वर्ष बीत गए हैं लेकिन अभी तक भारत में सबके लिए स्वास्थ्य वास्तव में लागू नहीं हो पाया है। अक्टूबर 2010 में भारत के योजना आयोग ने सार्वजनिक स्वास्थ्य के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक विशेषज्ञ दल का गठन किया। डॉ. श्रीनाथ रेड्डी के नेतृत्व वाले इस उच्च स्तरीय दल ने सन् 2011 में अपनी एक रिपोर्ट प्रस्तुत की है। इस विस्तृत रिपोर्ट के कुछ अंश यहाँ पर दिये जा रहे हैं-

स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी व्यय को सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) का 10.4 प्रतिशत से बढ़ाकर 12वीं योजना के अन्त में यानी कि 2017 में जी.डी.पी. का 2.5 प्रतिशत एवं 2022 तक कम से कम 30 प्रतिशत करना चाहिए।
दवाओं की खरीद में सरकारी व्यय बढा़कर अति-आवश्यक दवाएँ मुफ्त में सबको उपलब्ध करानी होगी।
सभी नागरिकों के लिए स्वास्थ्य अधिकार कार्ड (नेशनल हेल्थ एन्टाइटिलमैंट कार्ड्स) बनायें जायें।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य पैकेज तैयार करके प्रत्येक नागरिक को प्राथमिक, द्वितीय व अन्तिम स्तर की अतिआवश्यक चिकित्सा सेवाएँ प्रदान करनी होंगी।
यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज सभी के लिये स्वास्थ्य सेवाओं को केन्द्र सरकार व राज्य सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय स्वयं खरीदें या इस काम के लिए स्थापित अद्र्ध-सरकारी स्वायत्त समूहों के माध्यम से खरीदा जाय ।
स्थ्य सेवा इस्तेमाल करने वालों से पैसा/ शुल्क लेने का विरोध किया जाय।
उनकी सिफारिशों में स्वास्थ्य बीमा का विरोध किया गया है।

लेकिन 12वीं योजना ने हताश किया है- स्वास्थ्य में सरकारी व्यय जीडीपी का 2.5 प्रतिशत होना चाहिए, लेकिन यह न करके सरकार ने यह व्यय मात्र 1.58 प्रतिशत ही रखा है।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में राज्य सरकारें जो व्यय करती हैं, केन्द्र सरकार अब उनसे आगे बढ़कर कुछ अधिक आवंटन करने को कह रही है। केन्द्र सरकार राज्य सरकारों से जो कर लेती है, 15 से 20 प्रतिशत ही उसका देय वापस करती है। ज्यादातर राज्य स्वास्थ्य-क्षेत्र व्यय बढ़ा नही पाते।

राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, जननी सुरक्षा योजना, परिवार नियोजन, टीकाकरण, टी.बी., मलेरिया, डायरिया-प्रतिरोध कार्यक्रम सभी केन्द्र के खर्च से चलते हैं। राज्य स्वास्थ्य क्षेत्र में जितना आवंटन करते हैं, यदि उसका आधा भी केन्द्र राज्य सरकारों को दे तो उसका खर्च बढ़ेगा नहीं बल्कि घट जायेगा। यह कहा जा रहा है कि सरकार स्वास्थ्य सेवाओं में अपनी मुख्य भूमिका छोड़कर केवल मैनेजरी करे।

गैर-सरकारी स्वास्थ्य सेवाएँ और स्वास्थ्य बीमा मुख्य भूमिका निभाये।
लाभ देने वाली तीसरे स्तर की सेवाओं को कॉरपोरेट के हाथों में सौंप दिया जाय।
सरकारी अनुदान से गैर-सरकारी व प्राइवेट संस्थाएँ नया चिकित्सा ढाँचा तैयार करेंगी।
जो भी सरकारी सेवाएँ बची हैं, वह भी समेट ली जाए।
प्रत्येक परिवार अपनी इच्छानुसार निजी अस्पताल तय कर लेंगे और सरकार एक सीमा तक उस खर्च का मूल्य वहन कर लेगी,
कायेगी ।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य पैकेज का कहीं जिक्र नहीं किया गया है।

चिकित्सा के अभाव को दूर करने के लिए सरकार प्राइवेट अस्पतालों व प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें कुल व्यय का 20 प्रतिशत तक अनुदान देगी। उनकी आय बढ़ाने के लिए उन्हें करमुक्त (टैक्स फ्री) किया जायेगा।

सरकारी अर्थ में तैयार हुए गैर-सरकारी अस्पतालों में पंजीकरण शुल्क इत्यादि सब कुछ लिया जायेगा।

12वीं योजना में यह उल्लेख नहीं है कि जैनरिक नाम से दवाओं का प्रचलन हो, बिना दाम दिए अत्यावश्यक दवाएँ मिल सकती हों और दवाइयों के नाम नियन्त्रित हों।

यू.पी.ए. की सरकार के बाद एऩ डी़ ए़ की मोदी सरकार केन्द्र में आयी है। केन्द्र सरकार ने योजना आयोग समाप्त कर दिया है। केन्द्र में आकर मोदी सरकार ने बजट आवंटन के समय स्वास्थ्य-क्षेत्र में 20 प्रतिशत की कटौती की है। यानी लगभग 5000 करोड़ रुपया कम हुआ। आजकल सरकार जी़ डी़ पी़ का महज 1.04 प्रतिशत स्वास्थ्य में खर्च कर रही है। जबकि राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2015 के मसौदे में 2.5 प्रतिशत खर्च करने की तरफ ही सरकार का झुकाव दिखता है।

सबके लिए स्वास्थ्य का सपना सच हो सकता है।
अमत्र्य सेन के हाल ही में लिखे गए एक निबन्ध से उपरोक्त शीर्षक लिया गया है- यूनिवर्सल हेल्थकेयर एन अफार्डेबल ड्रीम

सरकार कहती है कि सबके लिए स्वास्थ्य के विषय में विचार तो करती है लेकिन उसको व्यवहार में लागू करने के लिए सरकार के पास पैसा कहाँ है। आइये देखें- पूरी दुनिया में स्वास्थ्य सेवाएँ कैसे चलती हैं- 

स्वास्थ्य सेवाओं के विभिन र्आिथक मॉडल-
बिभेरिज मॉडल
विस्मार्क मॉडल
राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा मॉडल
स्वयं के खर्च से इलाज करने वाला मॉडल

बिभेरिज मॉडल

यह मॉडल ब्रिटेन के नेशनल हैल्थ र्सिवस के योजनाकर्ता (विलियम बिभेरिज) के नाम पर है। इस मॉडल में जमा धनराशि से  सरकार स्वास्थ्य सेवाएँ देने के साथ ही उसका खर्च भी वहन करती है। अधिकतर अस्पताल व क्लीनिक सरकारी हैं, अधिकांश डॉक्टर भी सरकारी कर्मचारी हैं। कुछ प्राइवेट डॉक्टर भी अपनी सेवाएँ देते हैं लेकिन डॉक्टर की फीस मरीज नहीं बल्कि सरकार देती है। इस व्यवस्था में प्रतिव्यक्ति खर्च कम है, क्योंकि सरकारी नियंत्रण है। गे्रट ब्रिटेन, स्पेन, स्कैन्डेनेवियन के अधिकांश देश, हॉगकांग और क्यूबा में इस मॉडल के अनुरूप सबके लिए स्वास्थ्य की व्यवस्था है। बिभेरिज माडॅल का पूर्ण रूप हमें क्यूबा में मिलता है क्योंकि वहाँ सम्पूर्ण सरकारी नियत्रंण है।

विस्मार्क मॉडल

यह माडॅल ऑटोवान विस्मार्क के नाम पर है। इसमें स्वास्थ्य सेवाएँ बीमा के जरिए चलती हैं। बीमा कम्पनियों को सिकनेस फण्ड्स (Sickness Funds) के नाम से जाना जाता है। कर्मचारी व नियोजनकर्ता दोनों ही वेतन से पैसा काटकर देते हैं, सभी बीमा के अधीन होते हैं। बीमा कम्पनी लाभ नहीं कमाती। साधारणत: डॉक्टर व अस्पताल प्राइवेट होते हैं। कठोर सरकारी नियंत्रण होने से खर्च भी नियंत्रित होता है। यह मॉडल फ्रांस,  बेल्जियम, नीदरलैण्ड, जापान, स्विट्जरलैण्ड और लातिन अमेरिकी देशों में दिखाई देता है।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा मॉडल

इस माडॅल में बिभेरिज और विस्मार्क दोनों मॉडल के उपादान मौजूद हैं। इसमें सेवाएं गैर-सरकारी प्रतिष्ठान देते हैं, लेकिन धन आता है सरकारी बीमा फण्ड से, जहाँ प्रत्येक नागरिक पैसा जमा करता है। इसमें मार्केटिंग नहीं करनी पड़ती, क्लेम देने से इन्कार नहीं किया जाता, क्योंकि यह लाभ देने के लिये नहीं हैं, इसलिये खर्च भी कम है। पैसा सरकार देती है इसलिये कम खर्च के लिये मोल-तोल किया जा सकता है। इस मॉडल की स्वास्थ्य सेवायें कनाडा, ताइवान, दक्षिण कोरिया में चलती हैं।

हमारे देश में जो मॉडल चलता है, वह है मरीज का अपनी जेब से खर्च करने वाला मॉडल यानी कि पैसा फेंको तमाशा देखो।

आवाज उठाये- ‘‘स्वास्थ्य कोई भीख नहीं, स्वास्थ्य हमारा अधिकार है।’’ सबके लिये स्वास्थ्य के लक्ष्य आन्दोलन के रास्ते में सबसे बडी़ रुकावट हमारी मानसिकता है। हम लोगों में ज्यादातर सोचते हैं कि समाजवाद में ही सबके लिए स्वास्थ्य सम्भव हुआ था। समाजवादी खेमों के पतन के साथ ही यह विचार विलीन हो गया। अमीर देशों की सरकारें ही प्रत्येक नागरिक के स्वास्थ्य-रक्षा की व्यवस्था कर पाती हैं। हमारे जैसे गरीब देशों की सरकार यह व्यवस्था कैसे करेगी? जो लोग यह सोचते हैं उनको याद दिला दें कि सबके लिए स्वास्थ्य के रास्ते में अग्रणी देश नार्वे, नेशनल हेल्थ सर्विस के देश, ग्रेट ब्रिटेन, कनाडा, थाइलैण्ड, श्रीलंका इत्यादि समाजवादी नहीं रहे हैं। देश अमीर हो या गरीब, उसका स्वास्थ्य सेवाओं से कोई मतलब नहीं है। विश्व बैंक के मानदण्डों के अनुसार थाइलैण्ड मध्यम आय का देश तथा श्रीलंका कम आय वाला देश है। इन देशों में सबके लिए स्वास्थ्य सम्भव हुआ है। असलियत में यह निर्भर करता है सरकार की नीति व मंशा पर।

हमारे देश के प्रसिद्घ जन स्वास्थ्यविद, चिकित्सक और अर्थशास्त्री सबके लिए स्वास्थ्य के पक्ष में बोलते रहे हैं। सरकारी योजना आयोग द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ दल ने हिसाब लगाकर सिद्घ किया है कि कैसे समस्त नागरिकों को प्राथमिक, मध्यम, और अन्तिम स्तर की स्वास्थ्य सेवायें नागरिकों से प्राप्त प्रत्यक्ष कर की आय से ही संचालित की जा सकती हैं।

हम विश्वास करते हैं केवल गरीबों के लिये राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना जैसा कोई तीस हजारी बीमा नहीं। सरकारी इच्छा हो तो प्रत्येक नागरिक के स्वास्थ्य कि रक्षा करने की जिम्मेदारी लेना उसके लिये सहज ही सम्भव है।

प्रस्तुत आलेख श्रमजीवी स्वास्थ्य उद्योग कलकत्ता के सहयोग से लिखा गया है ।
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