गोपुली बुबु

शेखर जोशी

“आ भाऊ! बैठ जा! तू माया-मोह वाला हुआ, आकर भेंट कर गया। हमें भी संतोष हो गया। तू ठीक है? बच्चे कुशल से हैं? जीते रहें, बड़ी उमर पाएं। दुल्हन ठीक है? उन्हें भी ले आता, अपने पुरखों का घर देख जाते।”

“कैसे छोटा-सा था रे तू! तेरी माँ कहती थी- ननदी! बहुत चिड़चिड़ा हो गया है, दूध-भात की जिद कर रहा है। अब मैं कहाँ से लाऊँ दूध?”

“दूध-दही का रोज ही अकाल हुआ हमारे गाँव में। बौज्यू कहते थे- बेड़ू के पत्ते को टहनी से तोड़ो तो उसमें भी दूध नहीं निकलता- फिर एक घूंट चाय के दूध में पानी मिलाकर हम तुझे बहलाते थे।”

“आज भी कभी-कभी सपने में दिखाई देती है तेरी माँ! अहा! कैसा सुंदर थाल सा मुख था- मोती जैसे दांत। बच्चों का सुख नहीं देखा बेचारी ने! घास-पात के लिए साथ-साथ ही जाते थे हम। अपने सब सुख-दुख मुझसे कह देती थी, उस साल कहने लगी- अब की नहीं बचूंगी ननदी! यह मुझे ले जाने वाला ही आया है पेट में- सच्ची रे! उसकी ही वाणी सच हुई। इन डांडों-टीलों वाले बज्जर देहात में क्या हो सकता था, न दवा न डॉक्टर! ओ माँ- ओ बबा करती जाती रही बेचारी। मेरी कुंतुलि भी ऐसे ही छटपटाती गई। वैद्य जी की दवाई से क्या होता? काल आ गया होगा, जाती रही। देसावर में तो, कहते हैं, बड़े-बड़े अस्पताल होते हैं। सुना, मरण-बाट लगे बीमार को तरह-तरह की दवाइयों से डॉक्टर मौत के मुँह से निकाल लाते हैं- यहाँ यूं ही हुआ। अब सुना है समेसर में एक अस्पताल खुल गया है। डॉक्टर आ जाए, दवाइयाँ पहुँच जाएं तब समझें कि अस्पताल खुला है। हमारी तो कट गई, अब जो बाल-बच्चे हैं वे अच्छे दिन देख लेते यही हमारा संतोष था।”

“कैसी गर्मी पड़ रही है रे! जब यहीं ऐसी भट्ठी जल रही है तो मैदानों में तो और ही हाल हो रहा होगा। वर्षा-बूंदी का कहीं नाम नहीं है। सोते भी सूख गए हैं। नदी-नालों में कहीं एक बूंद पानी नहीं दिखाई देता। ढोर-डांगरों के होंठ आकाश को लगे हैं। ऐसा होना ही हुआ। पहाड़ सब खोखले कर दिए हैं। पेड़-पौधों का कहीं नाम नहीं है। छोटे लोग छोटे पेड़ों को उजाड़ते हैं बड़े लोग बड़ों को। अजीब गदर मचा रखा है रे! चीड़-देवदार-बांज-फयांठ जो हाथ लगा उसे ही छनका देते हैं। कहीं छाया में बैठने के लिए भी पेड़ नहीं दिखते! जब पेड़-पौधे ही नहीं होंगे तो वर्षा-बूंद कहाँ से होगी? “

“तू कहाँ नौकरी करता है बचवा? पीडबुलडी में? जंगलात में? अच्छा, नौकरी नहीं करता, किताब बनाता है। हाँ, किसी ने बताया था कि तूने स्कूली बच्चों की किताब में एक कथा छपा रखी है। बचपन में कैसा करता था तू! बिना कथा सुने तुझे नींद ही नहीं आती थी। इनरूवा की कथा कहो बुआ- कहता था तू। मैं वाघर आई नहीं कि तेरी रट लगी- बुआ, कथा कहो!”

“मैं कहती- दिन में कथा सुनने वाले का मामा बाट भूल जाता है। फिर तूने जिद की तो तेरी माँ रात में मुझे पुकारती। कितनी तो कथाएं मैंने तुझे सुनाई हैं: इनरूवा की, जादूगरनी बुढ़िया की, बाघ-बकरी की, राजा-रानी की….। मैं ज्यों ही कथा शुरू करती तू थोड़ी देर हुंकारा देता और फिर तुझे टुप्प नींद आ जाती।”

“हाँ भाऊ! दूसरों की ही कथा मैंने तुझे सुनाई, अपनी क्यों सुनाती? मेरी कथा सुन तुझे नींद कहाँ आती?”

“मेरी कथा ही कथा हुई बच्चू! क्या कहूं, कह के भी क्या होगा? तू पढ़ा-गुणा लड़का हुआ, तूने दुनियाँ देखी है, हम इसी गुफा में पैदा हुए यहीं मर-खप जायेंगे। हमारी कथा तो इन्हीं डांडों-टीलों ने देखी, इन्हीं डांडों-टीलों ने सुनी।”

“झगुली पहनने की उमर मे ब्याह हो गया था। चकमक पत्थरों से गुट्टि खेलते, पात-पतेल लाते, ढोरों को चराते, पूजा-साज करते एक दिन साथियों ने कहा- मंगसिर में तेरा ब्याह होगा। रंग-बिरंगा घाघरा-ओढ़नी पहनने, हाथ-पांवों में पहुँचि-झाँझर खनकाने की मन में बड़ी हवस रही। दुल्हन बनने का मतलब क्या होता है इसका तो ज्ञान था ही नहीं।”

“एक दिन दमामा-रर्णंसग बजाते बारात आ पहुँची। मैं दुल्हन बनी। पूजा-पाठ हुआ। माँ-बबा ने कन्यादान किया। पंडित जी मंत्र पढ़ रहे थे, गाँव-पड़ोस की दादी-चाचियाँ गीत गा रही थीं, पर नींद के मारे मेरी आँखें बंद हुई जाती थीं। बौज्यू ने मुख में पानी के छीटें दिए- इतनी ही याद है।”

“दूसरे दिन सुबह माँ अंकवार में भर कर रोने लगी तो होश आया कि अब मुझे ये बाराती ले जायेंगे। मैंने माँ से कहा- माँ, मैं नहीं जाऊंगी। फिर बुक्का फाड़ कर रोई। पर कौन सुनता? बौज्यू ने गोदी में उठाकर डोली में रख दिया। दो आदमियों ने डोली उठाई और चल दिए। मैं रोती रही और तुरही दमामे के शोर में मेरी रुलाई डूब गई। फिर रोते-रोते डोली में ही मुझे झपकी आ गई।”
Gopuli Bubu

“ससुराल में सास-ससुर सभी थे। खेती-बाड़ी, गाय-बैल, अच्छा-भला कारोबार था। अपनी हमउम्र बहू-बेटियों के साथ घास-पात के लिए जंगल जाते। सास से छिपाकर बासी मंडुवे की रोटियाँ, नमक-मिर्च घाघरे के फेंट में रख ले जाते। दो पलटा भर भात थाली में डाल कर सास मुँह फेर लेती। बचपने की बुद्धि हुई- भूख-भूख कहा तो बुढ़ियाँ-खुड़ियाँ कहतीं- कैसा भसम रोग लग रहा है बहू को! सास उल्टे हाथ से सिर में टिहोके मारतीं।”

“मायके की बहुत याद आती थी। भाई भेंटने आया तो सास ने उसे दुनियाँ भर की उल्टी-सीधी सुना दी।”

“तब कुछ अकल नहीं थी भाऊ! लोग कहते थे इसके आदमी पर देवता लगा है। मैं सोचती देवता तो अच्छे ही हुए। वे कभी-कभी बंदर की तरह छलांग लगाते, कभी वैसे ही चिचियाते। जब थोड़ी अकल आई तब मैंने जाना कि मुझे पागल की पूंछ से बांध दिया है।”

“जनम भर पागल ही रहे जितुवा के बाबू। गोबर-गनेश हुए एकदम। जिसने जिधर लहका दिया उधर की लग देते। एक आदमी अपनी ससुराल जा रहा था- सोर-पिठौरागढ़। पैदल रास्ता हुआ, दो दिन का। मोटर-गाड़ी कहाँ थी उन दिनों? वह बोला- मेरे साथ सोर चलो तो तुम्हें लंगूर की पूंछ सा लंबा सुर्ती का पत्ता दूंगा। लग लिए उसी के साथ-लमालम। ऐसे हुए गोबर-गनेश! मैं गनेश जी ही कहती थी। नाम कौन लेता था तब?”

“बुरे-भले जैसे भी थे, अपने सिर पर उनकी छाया थी। पर एक साल सास-ससुर दोनों ही बुड्ढे-बुढ़िया छ: महीने का आगा-पीछा कर चलते बने। पूरी गृहस्थी का जंजाल और पगले आदमी को लेकर मैं अकेली हो गई। बिना गुसांई का घर हुआ, जिसके हाथ जिधर लगा उसने उधर झपका लिया। कहने को अपने ही भाई-बिरादर हुए लेकिन वह मसल है न, या तो मुकद्दर नहीं खाने देता या बिरादर नहीं खाने देते- वही बात हुई। तीन बच्चों की गृहस्थी मैंने कैसे पाली-पोसी क्या कहूँ।”

“इसका काम कर, उसका हाथ बँटा, खुद भूखी रह कर मैंने बच्चों का पेट पाला। पगला आदमी घर में, बच्चे अज्ञान। कैसी कहनी-अनकहनी लोग कह जाते थे। मारने वाले का हाथ थाम सकते हैं पर बोलने वाले की जीभ कौन थामे? काठ का कलेजा करके सब सुना, सब भुगता मैंने।”

“सबसे बड़ी लड़की कुंतुलि दस-बारह बरस की हुई थी। उसे छोटी माता हुई। थोड़ा ठीक हो गई थी। र्गिमयों के दिन थे। घर के पिछवाड़े जाकर हिस्यालू-किल्मोड़े के दाने खा मरी! हिस्यालू-किल्मोड़े की अगली फसल फिर नहीं भेंटी उसने। रद्द-दस्त हुए। जाती रही। जी कर भी क्या करती! पगले के घर बिटिया ब्याहने कौन आता ? जैसे करम माँ के फूटे वैसे ही बिटिया के भी फूटते।”

“कुंतुलि के पीठ पीछे दो भाई हुए। बड़ा जितुवा ज्वान हुआ था कि मोटर सड़क के किनारे की दुकानों मे गंजेड़ियों की संगत में पड़ गया। दिन-रात गांजे की दम लगा के टुन्न रहता। खाना-खुराक कुछ हुआ नहीं। होते-होते वह भी बाप की तरह पगला गया। बाट-घाट में अनाप-शनाप बकता रहता। किसी ने कहा देवता बिगड़ गया है। मैंने क्या तो नहीं किया। भेंट चढ़ाई, पूछ करवाई, मांग-जांग कर गाँव-जवार के मातबर जगरियों-डंगरियों के पैर पकड़ कर जागर लगवाया। हाथ-पैर बाँध कर जवान बेटे को कोठरी में बंद करती, अपने करमों को रोती जाती थी। होनी होती है, भोलानाथ जी दाहिने हुए, बांधने-बंद करने से गंजेड़ियों का साथ छूटा, दोनों बखत रूखा-सूखा कुछ मुँह में जाने लगा, कुछ वैद्य जी की दवा काम कर गई- धीरे-धीरे जितुवा ठीक हो गया। श्यामदत्त जी जंगलात में रेंजर थे। जितुवा की नौकरी लगा दूंगा कह कर अपने साथ ले गए। आज-कल आज-कल करते दो-चार साल अपना चूल्हा फुंकवाया। फिर बड़ी मुश्किल से पतरौल बना कर कहीं दूर दूणागिरी भेज दिया है। कोई बात नहीं भईया! अपने बाप- सा ही पगलेट रह जाता तो मैं क्या कर लेती! सरकारी नौकर हो गया है- कभी पाँच-दस भेज देता है तो मैं पूजा-पाठ करवा देती हूँ।”

“ये छुटका हरीश सड़क पर पत्थर तोड़ने ठेकेदार के पास जाता है। कहता है- पढ़-लिख कर भी क्या होगा, दस-बारह किलास पास लड़के भी आकर मेरे साथ पत्थर तोड़ते हैं। अब तू ही कह, कैसा बखत आ गया है! वहाँ देस में इसे कहीं नौकरी मे लगा देता। लेकिन क्या करूं वहाँ भी तो पत्थर ही तोड़ेगा। कुछ पढ़ा-लिखा होता तो कहती कहीं दफ्तर में लगा दे। यहाँ अपने मुलुक का हवा-पानी तो है, वहाँ तो घाम में झुलस जाएगा।”

“करम फूटे का कोई साथ नहीं देता भाऊ! वहाँ ससुराल में घर-द्वार खंडहर हो गया था। गोबर-गनेश उसी खंडहर में रहते हैं। पहले भी मांग-जांग कर ही पेट भरते थे। यहाँ मायके के घर में सिर छिपाने को जगह मिल गई है। चार नाली धान हो जाता है- यहाँ भी कोई देखने-भालने वाला है नहीं। कभी दो-चार पंसेरी जितुवा के बाबू की खातिर ससुराली को भिजवा देती हूँ। कहने को पागल हैं लेकिन अकल इतनी हुई कि कहते हैं घरजमाई नहीं बनूंगा। यहाँ नहीं आते। क्या करूं? तू ही कह।”

“तू भी कहेगा गोपुली बुबु ने मचमचाट लगा दिया। पर तूने ही तो कहा कि बुआ अपनी कथा सुना। मेरी तो कथा ही कथा हुई रे!”
Gopuli Bubu
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