घसियारी प्रतियोगिता

त्रेपन सिंह चौहान

घसियारी की जब भी बात होती है तो  पहाड़ की परम्परागत अर्थव्यवस्था की वह तस्वीर सामने उभर कर आ जाती है, जो पहाड़ का कभी मजबूत अर्थतंत्र रहा है। पहाड़ के परम्परागत व्यवसायी मैदानी भागों से बिल्कुल अलग रहे हैं। गाँव के लोग न तो मैदानों की तरह सम्पन्न किसान रहे हैं न ही उनका जीवन सिर्फ पशुपालन से चल सकता था। इसलिए पशुपालन और खेती करना पहाड़ के लोगों के जीवनयापन का मूल आधार रहा है।

घास काटना ज्यादातर महिलाओं के जिम्मे ही रहा है। ऐसा भी नहीं कि पुरुष घास नहीं काटता था। वह घास काटता रहा है। लेकिन उसके जिम्मे सामाजिक कामों के अलावा और भी काफी सारे काम आते रहे हैं। अब तो हाल के कुछ दशकों में उसकी कोई मजबूरी इसलिए भी नहीं रही कि वह बड़े स्तर पर पलायन कर चुका है। उसके बाद कई सारे लोग अपने कुटुम्ब को भी गाँव से अपने साथ महानगरों की ओर ले गए हैं। 

पलायन की जब भी बात आती है तो ऐसा भी नहीं कि सारे लोग पहाड़ों को छोड़कर भाग गये हों। लोग अब भी गाँव में रह रहे हैं। पशु पाल रहे हैं। लेकिन आज के दौर में यह उनकी मजबूरी जैसी हो गई है। अब हालात यह है कि नई पीढ़ी किसी भी गाँव में नहीं रहना चाहती है। कोई भी पशु नहीं पालना चाहता। कोई भी खेती नहीं करना चाहता। आखिर सवाल उठता है कि जिस काम में सम्मान न हो, उस काम को कोई क्यों करें? पुरुष होटलों, कंपनियों और सरकारी नौकरियों में सम्मान का काम करेंगे और महिलाओं को वह काम क्यों करना पड़ेगा जिसे आज, खास कर पढ़ी-लिखी पीढ़ी, अपमान भरी नजरों से देख रही है। आज भी गाँव के स्कूलों के अध्यापकों का लड़कियों पर कमेन्ट सर्वविदित है कि ‘पढ़कर क्या करेगी। जब घास ही काटना है तो घास काट न।’

उत्तराखण्ड की महिलाएँ चिपको से लेकर राज्य आन्दोलन तक हमेशा मुखर रही हैं। राज्य आन्दोलन के दौरान एक ताकत ऐसी भी उभर के सामने आई है जो यह मान कर चलती रही है कि यह राज्य मूलत: मजदूरों का राज्य है। इस राज्य की मजदूर हैं यहाँ की महिलाएँ और यहाँ का दलित। इसलिए इस राज्य की पूरी बागडोर मजदूरों यानी कि महिलाओं के हाथों में दे देनी चाहिए। इस राज्य को वे ही सबसे बेहतर बना सकती हैं। लेकिन हुआ क्या? जो भी हुआ वह हम सबके सामने हैं। राज्य आन्दोलन में मातृशक्ति जिन्दाबाद के नारे लगाने वाले लोग ही सबसे पहले उनके खिलाफ षड्यंत्र में शामिल हो गये और आज इस प्रदेश की सबसे बड़ी ताकत सबसे ज्यादा उपेक्षित है, अपमानित है। राज्य सरकार ग्रीन बोनस की बात कर रही है। ऑक्सीजन टैक्स की बात कर रही है। लेकिन मातृशक्ति के दुखों से मुक्ति की बात कोई नहीं कर रहा है।

सरकार ने संस्कृति के नाम पर एक पूरा मंत्रालय तक खोला है। डांडों-कांठों में बाजूबंद और न्योली जैसे गीतों को रचने और गाने वाले कंठों की कोई सुध लेने वाला नहीं हैं। हाँ, विश्वविद्यालय, महानगरों के बड़े मंचों पर और पंचतारा होटलों में बाजूबंद और न्योली पर लिखने और गाने वाले बुद्धिजीवी और कलाकार सम्मानित हो रहे हैं। जिनको सम्मानित होना हो वे हों, इसको लेकर हमें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन वे कंठ और मौलिक रचनाकार उपेक्षित हों; चेतना आन्दोलन ही क्या उन सभी लोगों की घोर आपत्ति रही है जो सदा जनपक्ष में खड़े रहे हैं। जो इस राज्य की बेहतरी के लिए काम करते रहे हैं। जो महिलाओं के श्रम को सम्मान देने के लिए लड़ते रहे हैं। पहाड़ की महिलाओं की मुक्ति के लिए काम करते रहे हैं। और जो यह सपने देखते रहे हैं कि इस राज्य के सत्ता के केन्द्र में मातृशक्ति पहुँचे, जिसके कंधों पर हमेशा इस भू-भाग में वह हर लड़ाई रही है, जो अन्याय के खिलाफ लड़ी जाती रही है।
(Ghasiyari Pratiyogita)

विगत 2011 से ही चेतना आन्दोलन इस बात पर गंभीर था कि श्रम के सम्मान के लिए कोई कार्यक्रम किया जाना चाहिए। क्योंकि पहाड़ की घसियारियों को सिर्फ घसियारी कहना ठीक नहीं है। वह बेहतर इकोलॉजिस्ट है। बेहतर पर्यावरणविद् है। वह अगर जंगल में घास भी काटती है तो इस तरह काटती है कि किसी पेड़ का नवजात पौधा न कटे। वह जंगल के कुकाट को काट कर एक तरह से जंगल की गुड़ाई भी कर जाती है। इससे पेड़ों को पनपने के लिए पूरी जगह और वातावरण उपलब्ध हो जाता है। इसी विचार के साथ चेतना आन्दोलन ने नारा दिया है- ‘‘श्रम का सम्मान” ‘‘नये भारत के लिए नया उत्तराखण्ड।” 

श्रम का सम्मान और नये भारत के लिए नया उत्तराखण्ड की शुरूआत चेतना आन्दोलन ने 9 जून 2015 को देहरादून के एक वैडिंग प्वाइंट से शुरू किया था। उस सम्मेलन में लगभग 2000 लोगों की भागीदारी थी और वहीं राजीव लोचन शाह, कमला पंत, इन्द्रेश मैखुरी, समर भण्डारी, वी.एन. राय और चेतना आन्दोलन के शंकर गोपाल कृष्णन ने घसियारियों के मुकुटों को पहली बार सार्वजनिक किया और टिहरी से सम्मेलन में पहुँची चेतना आन्दोलन के सदस्यों में विशेश्वर प्रसाद जोशी, विनोद बडोनी, राम लाल, हर्ष लाल, देवेन्द्र दत्त जोशी और श्रीमती रमा ममगई को इस आशा से सौंपा गया कि वे घसियारी प्रतियोगिता सम्पन्न करवाकर उनमें पहली बेस्ट इकोलॉजिस्ट को चुनेंगे। घसियारियों को मुकुट ही क्यों? इस बात पर ज्यादा बहस नहीं हुई। क्योंकि चेतना आन्दोलन मुकुट की जगह चाँदी की दरांन्ती देना चाहता था जो महिलाओं की श्रम शक्ति का प्रतीक रही है। लेकिन चाँदी के मुकुट की मांग 18 मार्च 2015 को चेतना आन्देलन की बैठक में  महिलाओं द्वारा प्रबल तरीके से उठाई गई। हम तब भी महसूस कर रहे थे कि महिलाओं में यह प्रभाव विश्व सुन्दरी या ब्रह्माण्ड सुन्दरी प्रतियोगिता का प्रभाव तो नहीं था? इस बारे में चेतना आन्दोलन को पड़ताल करने की जरूरत इसलिए भी नहीं पड़ी कि इस पहले कार्यक्रम में शायद मुकुट के चलते उनको अपनेपन का ज्यादा अहसास हो।

चेतना आन्दोलन ने इस प्रतियोगिता के आयोजन की तिथि 6 जनवरी 2016 को तय कर दी। 15 से 25 दिसम्बर 2015 तक हर हाल में ग्राम पंचायत स्तर की प्रतियोगिता संम्पन्न करवानी थी। ग्राम पंचायत स्तर पर विजेता तीन घसियारियों को ही न्याय पंचायत स्तर पर जाना होता। यही नियम न्याय पंचायत स्तर पर लागू हुआ। 26 दिसम्बर से 3 जनवरी 2016 तक न्याय पंचायत स्तर पर विजेता घसियारियों का चयन किया गया और 6 जनवरी 2016 को केमर पट्टी के ग्राम कोठियाड़ा में होने वाली फाइनल प्रतियोगिता में कुल 26 घसियारी ही पहुँचीं। इस पूरी प्रक्रिया में 112 ग्राम पंचायतों की 637 महिलाओं ने भागीदारी की। फाइनल स्तर पर घास के तीन बाडे़ सुरक्षित रखे गये थे।

घास काटने की प्रतियोगिता सिर्फ दो मिनट की थी। उससे पहले प्रतिभागियों को बाडे़ को देखने का मौका दे दिया गया। वे अपनी इच्छा के अनुसार अपनी जगह का चयन कर सकती थीं। जब जगह का चयन हो गया तो तब सीटी बजाकर शुरूआत कर दी गई। आयोजकों द्वारा हर दस सेकेंड बाद समय की सूचना भी दी जा रही थी। ठीक दो मिनट पूरे होने के बाद सब प्रतिभागियों को अपनी जगह पर दरांती छोड़ कर खड़ा होना था।
(Ghasiyari Pratiyogita)

घास काटने के बाद सभी प्रतिभागियों को करीबन दो किमी दूर ढोल नगाड़े और रणसिंगे को बजा कर मंच पर ले जाया गया। घास की गुणवत्ता, उसका वजन देखा गया। उसके बाद आयोजकों द्वारा नियुक्त जजों के पास साक्षात्कार के लिए जाना था। जिसमें घास का नाम उसके आयुर्वेदिक गुणों, पशुओं की बीमारी और उसके उपचार में आने वाली घास या उनकी जड़ों आदि के बारे में कई प्रश्न थे। पशुओं पर भी प्रति पशु दो अंक निर्धारित थे। सब अंकों को जोड़कर सबसे ज्यादा नम्बर पाने वाली घसियारी ही बेस्ट इकोलॉजिस्ट अवार्ड की हकदार बनीं। विजेता घसियारी को 16 तोले चाँदी का मुकुट और एक लाख नगद दिया जाना था। दूसरे स्थान पर 13 तोले और तीसरे नम्बर पर 10 तोले और क्रमश: इक्यावन हजार और इक्कीस हजार रुपये निर्धारित किये गये थे। विदित हो कि अधिकांश रकम गाँव के स्तर पर लोगों के सहयोग से एकत्रित की गई थी। कुछ रुपये चंडीगढ़, दिल्ली और तमिलनाडु के मित्रों ने भी सहयोग हेतु भेजे थे। अतिथियों के लिए भोजन हेतु चावल, आटा, दालें और मक्खन तक गाँव की घसियारियों द्वारा एकत्रित किया गया था। खाना पहाड़ी ही रखा जाना तय हुआ।

चेतना आन्दोलन की इस अनोखी प्रतियोगिता में जो घसियारिन विजेता रहीं वह थी बासर पट्टी के अमरसर गाँव की 36 वर्षीय रैजा देवी। रैजा देवी ने प्रथम पुरस्कार जीत कर क्षेत्र में खलबली मचा दी है।

सबसे उपेक्षित और हाशिए पर पड़ी घसियारियों में सबसे गरीब महिला के सर लोक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी और नैनीताल समाचार पत्र के संपादक तथा प्रसिद्ध आन्दोलनकारी श्री राजीव लोचन शाह के हाथों चाँदी का मुकुट सजना और हाथ में एक लाख का चैक पकड़ना रैजा देवी के लिए सपनों से परे की बात थी। यह बात खुद रैजा देवी ने चेतना आन्दोलन की टीम, जब उनके घर अमरसर गाँव पहुँची, तो अपने भाषण में बतायी।

रैजा देवी ने कहा कि मेरे पति ने मुझे इस प्रतियोगिता के बारे में जानकारी दी थी। लेकिन मैंने सपने भी नहीं सोचा था कि मैं इस प्रतियोगिता को जीतूंगी। न जीतने के पीछे के कारणों को रैजा बताती है ‘आज तक मुझे लगता था कि कोई भी गरीब कभी कोई प्रतियोगिता जीत ही नहीं सकता। बड़े और पैसे वाले लोगों के पास सिफारिश होती है, प्रभाव होता है, उनके पक्ष में सभी लोग होते हैं। वही जीतते आये हैं। गरीब तो हमेशा तमाशे में खड़े होते रहे हैं।’

रैजा से पूछा गया कि आपके नाम की जब घोषणा हुई तो आपको कैसा लगा? वह बताती है ‘‘मुझे कुछ नहीं लगा। क्योंकि मैं सुन्न जैसी हो गई थी। मुझे पता ही चला कि मुझे क्या करना है। मेरा भाई मुझे मंच पर ले गया। मेरे सर पर मुकुट लगा रहे थे। मेरे सामने हजारों लोग थे। मुझे कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। कुछ देर बाद मेरे भाई ने मेरे जुड़े हाथों को नीचे करवाया। मेरी बुद्धि ने काम करना बंद कर दिया था। जैसा मेरा भाई कह रहा था, मैं वैसे ही कर रही थी। जब मैं वापस अपने गाँव अपने लोगों के बीच लौट आई तब मेरी पूरी चेतना लौटी। अब मैं बोल सकती हूँ।’’

रैजा देवी गाँव पहुँची तो गाँव के लोगों ने उसके स्वागत के लिए जोरदार तैयारी कर रखी थी। चमियाला से ही गाड़ी बुक कर दी गई थी। क्षेत्र के कई प्रतिष्ठित लोग उसे लेकर उसके घर पहुँच चुके थे। गाँव में उत्साह का माहौल था। गाँव का हर बच्चा गर्व महसूस कर रहा था।

लसियाल गाँव बासर अमरसर गाँव से लगा गाँव है। लस्याल गाँव की श्रीमती मधु बिष्ट ने भी इस प्रतियोगिता में भागीदारी की थी। उसकी सास श्रीमती बिशेला बिष्ट से जब उनकी ब्वारी के न जीतने के बारे में पूछा गया तो उसका तपाक सा जबाव था, ब्वारी के हारने का हमें कोई दुख नहीं है। रैजा के जीतने पर अपार खुशी हुई क्योंकि वह सच में बहुत गरीब है। बहुत परेशान है। यह बयान रैजा की र्आिथक स्थिति भी स्पष्ट करती है। उसके पास रहने के लिए मात्र एक कमरा है। तीन बच्चे, पति, ससुर के साथ कुल छ जनों का परिवार है उसका। दो कमरों का घर हैं। नीचे के कमरे में पशु बाँधे जाते हैं और ऊपर का कमरा रसोई और सोने के काम आता है। पशुओं में उनके पास दो भैंस, तीन बैल, दो गाय और करीबन चालीस तक भेड़ बकरी होंगी।

रैजा से पूछा गया कि अब इन पैंसों का कैसे उपयोग करेगी? रैजा का कहना था कि मेरा और मेरे पति के दो-दो बार ऑपरेशन हुए हैं। मेरी पित्त की थैली और बच्चादानी निकाल दी गई है। मेरे पति की दोनों किडनी में पथरी थी। दो बार आपरेशन करना पड़ा। करीबन लाख से ऊपर का कर्ज होगा। अब सौकारों-साहूकारों को पता है कि हमारे पास पैंसे आ गये हैं। लोगों का कर्ज तो देना ही होगा। वह अपने इष्ट देवता को बार-बार हाथ जोड़ती रही।
(Ghasiyari Pratiyogita)

रैजा की गरीबी और अपने देवता के प्रति श्रद्वा को देख कर चेतना आन्दोलन ने मुकुट की शर्तों को उसके सामने रखा,  मुकुट आप किसी देवता को नहीं चढ़ाओगे। अपने लिए आप जो चाहिए जैसे चाहिए उसका उपयोग कर सकती हैं। उस पर रैजा देवी का कहना था, मैं चाहे कितना कर्ज में डूब जाऊं, जमीन बेचनी पड़े पर मैं मुकुट नहीं बेचूंगी। इस बीच भी रैजा के हाथ जुड़े ही रहे और गला उसका भरा ही रहा।

दूसरी विजेता पट्टी नैलचामी मड़ निवासी 42 वर्षीया जशोदा देवी की हालत बहुत अच्छी है, ऐसा नहीं है। उसका पति गाँव में ओड़ (मिस्त्री) है। घर उसका रैजा की अपेक्षा कुछ ठीक है। पहले लड़के के लिए एक ब्वारी ले आई है। बेटे भी छोटे मोटे कामों में लगे हैं। उसके घर पर एक भैस है। 

जब चेतना आन्दोलन की टीम जशोदा देवी के घर पहुँची तो वहाँ के लोगों ने स्वागत की तैयारी कर रखी थी। नौजवान प्रधान काफी खुश थी। उसके कार्यकाल में कोई गरीब महिला सम्मानित हुई थी। जशोदा देवी प्रतियोगिता से पहले ही घोषणा कर चुकी थी कि वह लीला घसियारी है। यानी तेज घसियारी। उसे पहले ही विश्वास था की वह प्रतियोगिता जीतेगी। सही मायने में घास भी उसने दो मिनट में तीन किलो पाँच सौ ग्राम तक काटा था। उसे प्रथम न आने का गम तो था लेकिन दूसरे स्थान पर भी वह खुश थी।

जशोदा देवी ने कहा कि जब पहले रैजा देवी का नाम आया तो मुझे लगा कि मैं हार रही हूँ। जब दूसरे स्थान पर मेरा नाम आया तो मुझे बहुत खुशी हुई। वह कहती है कि मैं अपनी ब्वारी को आगे की घसियारी प्रतियोगिता के लिए तैयार करूंगी। अब उनको अकल जो आ गई है। वह हँस के कहती है, ‘‘उसकी सासु की आज हैसियत जो बढ़ गई है।”

तीसरी विजेता 31 वर्षीया आरगड़ अणवाँ निवासी अबली देवी है। उसके पास दो भैंस और एक जोड़ी बैल हैं। उसका पति मुम्बई के किसी होटल में काम करता है और काफी कम पैसा कमाता है। उसने हाल ही में घर बनाया तो उस पर करीबन दो लाख तक का कर्ज है। इस पुरस्कार पर उसका कहना है कि आज उसकी समाजिक हैसियत काफी बढ़ गई है। वह घास काटती है, उसे पहली बार  इस पर गर्व महसूस हो रहा है। अबली कहती है के मैं प्रथम स्थान ला सकती थी; लेकिन पहले ठीक से समझ नहीं पाई। आगे की तैयारी के लिए अब रात दिन मेहनत करूंगी।”

गाँव के लोग क्या सोच रहे हैं इस सवाल पर अबली कहती है  ‘‘लोग (घर और देश गये लोग) फोन कर कह रहे हैं कि आगे अब भटकने की जरूरत नहीं है। घास काटो और एक लाख रुपया कमाओ। बहुत सम्मान मिला हम घसियारियों को। वह प्रफुल्लित होकर कहती है कि हम घसियारिनों ने बड़े पढ़े-लिखे लोगों को भी पीछे छोड़ दिया है।
(Ghasiyari Pratiyogita)
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