गीता दी : रेखाचित्र


दिव्या 

तेरा जाना दिल के अरमानों का लुट  जाना कोई देखे़…. लता मंगेशकर की आवाज में रेडियो पर बज रहे गाने ने अनायास ही चेहरे पर मुस्कराहट की लम्बी लकीर खींच दी। चुपके से मेरी उंगली पकड़ कर गाना मुझे उन यादों तक पहुँचा गया जहाँ पहली बार पतली पहाड़ी लटैक में यह मेरे कानों में पड़ा था। आहा, गीता दी़…. हर गाने की फरमाइश पूरी करता, मेरा जीता जागता रेडियो। दी अबकी सुनो हाँ, तेरा जाना दिल के अरमानों का लुट जानाआआआआ़….

पागल लड़की, आआआ नहीं ओे़ और फिर गीता दी की वही बेधड़क हंसी मेरे कानों में गूंजने लगी।

मैं दस साल की रही हूँगी जब वह अपने बाबू के साथ हमारे घर आयी थीं। उन्हें बेरीनाग डिग्री कलेज में बी़ ए़ में एडमिशन लेना था। मेरे दादाजी उनके पुरोहित थे, इस पहचान से उनके पिता उनके रहने की व्यवस्था हमारे घर पर कर गये और गीता दी हमारी किरायेदार बन गयीं। किरायेदार तो वह बस कहने भर के लिए थीं। उनकी दखलंदाजी इस हद तक थी कि लोग उन्हें बड़ी बेटी समझते थे। गोरा रंग, ऊँचा कद, बड़ी बड़ी आँखें वगैरह। स्त्री की खूबसूरती के तयशुदा मानकों पर वह एकदम फिट थीं और सचेत भी। स्वभाव भी उनका बहुत खिलंदड़ा, मनमौजी और जिंदादिल था।

गीता दी जब दसवीं में थीं तब उनकी शादी हुई थी। फौजी पति शादी के तुरंत बाद वापस ड््यूटी पर लौट गये और महीने भर बाद ही कुछ लोग उनका मृत शरीर वापस कर गये। इसके बाद वह अपने मायके आकर रहने लगीं। वहीं पढ़ाई चालू रखी और फिर बी़ ए़ करने बेरीनाग आयीं।

एक विधवा का जो खाका समाज तय करता है, उसके बिल्कुल उलट थीं वह। मैं उनसे पूछती, यार दी! अपनी शादी के बारे में बताओ न। तो कहतीं, जंगल से लौटी ही थी कि ईजा ने बताया, लड़का आया है देखने। चहा दे आ उधर। और हाँ, छितराट मत करना उनके सामने। इससे पहले भी जब लोग देखने के लिए आते तो जाते वक्त रुपये देकर जाते। मैं खुशी-खुशी चाय लेकर गयी, इस उम्मीद से कि आज भी थोड़ी कमाई हो जाएगी। यह देखना-दिखाना मेरे लिए कमाई का अच्छा जरिया बन गया था। उसने भी मेहमानों की तरह जाते वक्त मुझे कुछ रुपये दिए। मैं बहुत खुश हुई लेकिन इस बार शादी तय हो गयी। लड़के ने मुझे पसंद कर लिया और मेरा परिवार भी लड़के की नौकरी और घरबार से संतुष्ट था। मेरी खुशी इस बात से थी कि मैं दुल्हन बनने वाली थी। मुझे सबसे अलग और सुन्दर दिखना है। घर में अचानक मैं महत्वपूर्ण हो गयी थी। नए-नए कपड़े, अच्छा-अच्छा खाना, सब बातों के केंद्र में होना, और क्या चाहिए था। धूमधाम से शादी हो गयी।
(Geeti Di By Divya)

ससुराल में मुँह दिखाई की रस्म के दौरान बार-बार घूँघट उठाने आ रहे बच्चों को हाथ के इशारे से धमकाते हुए कहा, भाजो यां बटि, थाप लगा द्यूंल(भागो यहाँ से, थप्पड़ मार दूंगी)। फिर गाँव की बुढ़ियायें अपनी पैनी नजरों से जेवरों की शुद्घता और वजन को तौलने की कोशिश में मेरे आसपास मंडराने लगीं। वे जानने को बेताब थीं कि मायके से क्या-क्या आया है? इस सब से चिढ़ी हुई मैंने भी कह डाला, ऐसे क्या देख रही हो जेवरों को? कभी देखे नहीं हैं क्या? बाबू से शिकायत लगा दूंगी। उसके बाद ब्वारी तो भौती तेज है की कानाफूसी शुरू हो गयी। ठेठ पहाड़ी अंदाज में दीदी से ये किस्से सुनने में बड़ा मजा आता था।

शादी के तुरंत बाद ‘काला महीना’शुरू हो गया और वह महीने भर के लिए मायके आ गयीं। थल में रामगंगा और बरपगाड़ नदी के संगम पर मेला लगा था। नयी-नयी शादी के बाद मायके आयी दुल्हन को सहेलियों की छेड़खानी, बड़े बुजुर्गों की जिज्ञासाओं, भाभियों की चुहलबाजियों से गुजरना पड़ता और मेले में इन सबका मिलना तय ही था।  इसलिए मेले में जल्दी खरीदारी शुरू कर दी थी, लेकिन पूरा मेला घूमने के बाद इत्तेफाकन कहीं भी नाप की चूड़ियाँ नहीं मिल पायीं। निराश दी पुल पर खड़ी हो घाट पर जलती एक लाश को देखने लगीं। तभी उनके दाज्यू ने आकर घर चलने को कहा। उन्होंने जाने से मना कर दिया। उन्हें लाश को जलते हुए देखना था, फिर अभी ज्यादा लोगों से मिलना-मिलाना भी तो नहीं हुआ था। दी ने जिद पकड़ ली कि पूरा मेला देखे बिना घर नहीं जाएँगी। आखिरकार  उन्हें जबरन ले जाना पड़ा। मेला छोड़ने का गुस्सा भी था, लेकिन परिवार के सदस्य अचानक वापस जाने लगे तो किसी अनहोनी की आशंका हुई। किसी से पूछने की हिम्मत नहीं कर सकी। घर पहुँचकर दाज्यू ईजा को बताने लगे जमाई जी अब नहीं रहे। दी के कानों में बात पड़ी और बेहोश हो गयीं। उसके बाद कौन उन्हें ससुराल ले गया, कब कैसे सारे क्रिया कर्म हुए, दी को कुछ याद नहीं। तब दी महज 16 साल की थीं।

इसके बाद वह मायके आकर रहने लगीं। उनके बाबू को पता लगा कि ससुराल वाले सारी पेंशन अपने नाम करवाने की जुगत कर रहे हैं। असल में दी का नाम सेना के कागजों में लिखवाया नहीं गया था। इसी का फायदा वे लोग उठाना चाहते थे। खैर समय रहते बात पता चल गयी। दी ने आधी पेंशन अपनी सास के नाम करवाई।

मैंने कई बार उन्हें पति का फोटो दिखाने की जिद की लेकिन इनकार कर देतीं कि उनके पास नहीं है। मैं पूछती, आपको याद नहीं आती? तो कहतीं मैं तो उसे ठीक से जानती ही नहीं तो याद कैसे आएगी? मैंने कभी भी उन्हें इन बातों पर उन्हें रोते गाते नहीं देखा कि उनके साथ ये सब हो गया। अपनी जिन्दगी में आगे बढ़ चुकी थीं वह।

गीता दी पतली पहाड़ी लटैक वाली आवाज में खूब गाती थीं। बहुत कोशिश करने के बावजूद मैं कभी उनके जैसा नहीं गा पायी। कई गाने तो मैंने पहली बार उन्हीं से सुने। उनकी आवाज इस कदर जेहन में बैठ गयी थी कि बाद में जब कभी मूल गाना सुना तो वही नकली लगने लगता।

कोई दूसरी शादी की बात करता तो कहतीं- सलमान खान के जैसा लड़का चाहिए। जिस दिन मिल जायेगा, शादी कर लेंगी। अफसोस कि दी को अब तक उनका सलमान खान नहीं मिल पाया है। एक शाम अचानक जोर-जोर से चिल्लाने लगीं, म्यार खुट च्यापि ग्यान, म्यार ख्वार च्यापि ग्यो़… ओ इजा ओ बाबू। (मेरे पैर दब गए। मेरे हाथ दब गए। ओ माँ ओ बाबू) ये अचानक उन्हें क्या हो गया था, कोई समझ ही नहीं पाया। 15-20 मिनट के बाद  खुद ब खुद नार्मल हो गयीं और पूछने लगीं- क्या हो गया? सब इस तरह से क्यों जमा हुए हैं? ऐसे फिट्स उन्हें कुछ समय तक पड़े फिर अपने आप बंद भी हो गए। दरअसल दी के पति की मौत बर्फ में दबने से हुई थी। तो सबने सोचा ये उसी वजह से हुआ है।

असल में उन्हें ‘क्या’ हुआ था ये समझ सकने की मेरी तब उम्र नहीं थी। लिहाजा मुझे दी से डर लगने लगा। मैं रात को उनके कमरे में अकेले जाने से कतराने लगी। वह भी ये बात जानती थीं, इसलिए किसी न किसी बहाने मुझे अपने कमरे में बुलातीं और फिर जानबूझकर आँखें बड़ी कर डरावनी आवाज में मेरा नाम लेतीं, मैं डर के मारे चिल्लाती हुई भाग जाती और फिर उनकी नान स्टाप हँसी शुरू हो जाती। वैसे वह खुद भी बहुत डरपोक थीं। उन्हें भूत का डर लगता था। दिन में भी अकेले रहने से डरती थीं। उनकी इस कमजोरी का फायदा उठाकर मैं और मेरा भाई उनको खूब डराते थे। ये डर उन पर इस कदर हावी था कि दी ने पटवारी की पोस्ट के लिए सिर्फ इसलिए अप्लाई नहीं किया कि पोस्टमार्टम के लिए जाना पड़ता है।
(Geeti Di By Divya)

अब सोचती हूँ तो लगता है बाहर से खुश दिखाई देने वाली दी अन्दर ही अन्दर कितनी घुटती होंगी। हर किसी को उनसे बस यही शिकायत रहती कि वह इतना क्यों हंसती है, इतना सजती संवरती क्यों है, वह सपने क्यों देखती हैं। उनका सलमान खान वाला डायलॉग भी जाने क्यों लोगों से पचाया नहीं जाता था। एक बार मैंने गुस्से में कहा, आप तो विधवा हो, आपको सलमान खान जैसा लड़का कैसे मिल सकता है। अब अपने बचपने पर अफसोस होता है।

पता नहीं कब ‘दी’मेरी सबसे अच्छी दोस्त, राजदार और सलाहकार बन गयीं, जबकि हमारे बीच उम्र का बड़ा फासला था। उनकी बदौलत मुझे कम उम्र में ही उन बातों का ज्ञान हो चला था, जो दूसरे बच्चों के लिए रहस्य होती थीं। उन्हीं की संगत का असर था कि मेरे लिए खूबसूरत दिखना निहायत जरूरी हो गया। रंग सांवला होने की वजह से मुझे उनसे जलन भी होती। उनके साथ बाजार जाती तो नोटिस करती कि हर कोई उन्हीं को देखता है। बनने-ठनने का उन्हें बहुत शौक था। उनके पास बढ़िया से बढ़िया सूट हुआ करते थे। मेरे मन में हमेशा उनके जैसा बनने की चाहत रहती थी। स्कूल जाने से पहले मैं रोज फेयर एंड लवली के लिए उनके पास पहुँच जाती। यह आधिपत्य इतना बढ़ गया कि चोरी-चोरी मैं उनसे रुपये भी मांगने लगी। रुपये मांगने का मेरा तरीका कुछ अलग था। दी के पास जाती और एक उंगली खड़ी करती कभी दो और कभी पांच।

उन दिनों वह मेरी सब कुछ थीं। पड़ोस की एक अन्य लड़की के साथ उनका मेल मिलाप बढ़ता देखकर मुझे इतनी जलन हुई कि मैंने उनसे बात करना छोड़ दिया। बहुत पूछने पर भी उन्हें कुछ नहीं बताया। फिर एक दिन एक चिट्ठी ही लिख डाली- या तो मुझसे बात करो या उस लड़की से। आपको हम दोनों में किसी एक को चुनना पड़ेगा। खैर दी ने मुझे अपने पास बुलाया और समझाया। मैं उस दिन खूब रोई थी उनके सामने।

इस बात से बेपरवाह कि लोग उनके बारे में क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, मैंने हमेशा उन्हें खुश देखा, वह हंसती रहतीं और कहतीं, जिन्दगी मेरी है इसलिए यह भी मैं ही तय करूंगी कि इसे कैसे जीना है। एक बार वह दो महीने मुम्बई में अपने चाचा के घर रह कर लौटीं तो उनके बोलने का अंदाज ही बदला हुआ था। मुंबइया  (हैं गओवर) इतना ज्यादा था कि उन्होंने बेरीनाग के सब्जी वाले को बोल दिया, कांदा है? मैं हमेशा इधरिच से लेती है भाजी। ठीक-ठीक रेट बोलने का। दुकानदार भौंचक्का होकर उनका मुँह ही देखता रह गया।

बेरीनाग में रहकर उन्होंने डबल एम़ ए़ और बी़ एड़ की पढ़ाई की। मगर जब कोई कहता कि दिन भर घर में बैठने से अच्छा है कोई स्कूल ही ज्वाइन कर ले। तो जवाब देतीं- यार मुझे बच्चों का भविष्य नहीं बिगाड़ना। फिर मेरी गृहस्थी है, उसे भी तो देखना है। गृहस्थी से उनका मतलब उनके भाइयों के बच्चे थे। उन दिनों उनका मुँह लगा भतीजा मंटू साथ रहता था। अपनी माँ से ज्यादा लगाव मंटू को दी से था। उसका एडमिशन दी ने बेरीनाग में शिशु मंदिर में पहली क्लास में करवा दिया। मंटू के बाद उसका छोटा भाई पिंटू और आजकल दिप्पू और सुमंत उनके साथ रह रहे हैं। मंटू, पिंटू तो दी के साथ रहकर ही पढ़े और अब मुम्बई में रोजगार की जद्दोजहद में लगे हैं।

बेरीनाग आने के बाद ‘दी’यहीं की हो कर रह गयीं। उनके सपने सरल सी  खुशगवार जिन्दगी जीने भर के थे। लेकिन सपनों को पूरा करने की प्रक्रिया में जाने से व२  हमेशा कतराती रहीं। पढ़ाई में सामान्य थीं। उनका सपना था सरकारी नौकरी का, जो उन्हें अब तक नहीं मिल पाई है। उनसे कई दफा बोला भी गया कि कपड़ों की दुकान खोल लो, पर ‘दी’ हाँ-हाँ तो करतीं लेकिन पहल करने से चूक जातीं।

अपना काम छोड़कर दूसरों की मदद के लिए ‘दी’हमेशा तैयार रहती थीं, फिर भी किसी ने उनकी मन:स्थिति को समझने की शायद ही कोशिश की। हर कोई यही कह कर निकल जाता कि, गीता तो चाहती है सब किया कराया मिल जाये। खुद कुछ करना नहीं चाहती। लेकिन गीता ‘कुछ’क्यों नहीं करना चाहती? इस प्रश्न का उत्तर ढूँढने की जरूरत कभी किसी ने महसूस ही नहीं की।

अपना मकान बन जाने के बाद उनका हमारे यहाँ आना कम हो गया। मैं भी आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली चली गयी। शुरूआत में तो उनसे बात किये बगैर निवाला ही हलक से नीचे नहीं जाता था। वह भी बेरीनाग की एक-एक खबर मुझे देतीं। हमेशा मुझसे पूछतीं, यार तेरी नौकरी कब लगेगी? थोड़े रुपये मुझे देगी न? समय के साथ हमारी बातों के बीच अंतराल बढ़ता गया। पहले जब मैं छुट्टियों में घर आती, तो दी से मिलना हो जाता था। फिर मेरा घर आना भी कम हो गया। नए लोग मिलते गए, नए दोस्त बने। जिन्दगी को देखने का नजरिया बदल गया। दीदी की संगत में रहते हुए जो बातें ‘खास’ लगती थीं अब उनकी अहमियत नहीं रही। बातचीत का सिलसिला भी टूटता गया। मेरे जन्मदिन पर उनका अब भी फोन आता है, पर मैं उनका जन्मदिन हमेशा भूल जाती हूँ।

इस बार दीवाली पर मिलना हुआ। होठों में बेशक हँसी थी लेकिन मन की ऊहापोह आँखें बयां कर रही थीं। ढलती उम्र का असर भी चेहरे पर दिखने लगा था। मुझे आया देख उन्होंने सवालों की झड़ी लगा दी, और कितना पढ़ेगी? नौकरी कब लगेगी तेरी? आजकल गोरी हो गयी है तू। कौन सी क्रीम लगाती है? कोई बॉय फ्रेंड-वॉय फ्रेंड तो नहीं बन गया कहीं? मैं मोबाइल पर नजरें गड़ाने के बहाने बस ‘हूँ हाँ’ करती रही।  सच कहूँ तो दी के प्रश्नों से मुझे खीझ  हो रही थी। उन्हें भी शायद इस बात का आभास हो गया था। कहने लगीं, यार, तूने तो दुनिया देख ली और मैं गँवार ही रह गयी, पर मेरे लिए तो तू जिन्दगी भर वही कउली (काली) रहेगी, चाहे दुनिया के किसी भी कोने में चली जाये। तेरी तो रग रग से वाकिफ हुई मैं। बता हुई कि नहीं? मैं बस मुस्कराकर अच्छा दी, अभी चलती हूँ कहते हुए चली आयी। एक फीकी- सी हँसी के साथ पीछे से दी ने कहा, अब समझदार हो गयी है रे तू।
(Geeti Di By Divya)
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