डोटेली लोक संस्कृति में गौरापर्व

Gaura by Deveshri Joshi
-दिव्येश्वरी जोशी

गौरा पर्व नेपाल के सुदूर पश्चिम में सबसे महत्वपूर्ण लोक पर्व है। यह नेपाल के सेती, महाकाली और कर्णाली अंचल के साथ भारत के उत्तराखण्ड के कुमाऊँ-गढवाल में भी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। गौरा पर्व में डोटेली संस्कृति का जीवंत रूप देखा जा सकता है। 
(Gaura by Deveshri Joshi)

चंद्रमास के अनुसार यह भाद्र के महीने में आता है। लेकिन अन्य पर्वों की तरह इस की तारीख तय नहीं है। यह एक साल कृष्ण पक्ष में और अगले साल शुक्ल पक्ष में पड़ता है। शुक्लपक्ष की गौरा को अँनारी और कृष्णपक्ष की गौरा को उजाली गौरा कहा जाता है। पहली बार व्रत लेने पर उजाली गौरा को व्रत लेने की प्रथा है। अगस्त तारा के उदय के बाद से गौरा की पूजा नहीं की जाती है, इसी लिए उस वर्ष कृष्ण पक्ष में गौरापर्व को मनाने की प्रथा है। इस पर्व के दौरान विशेष विधियों द्वारा गौरा और महेश्वर की पूजा की जाती है। गौरी या पार्वती इस त्योहार की मुख्य आराध्य देवी हैं, इसलिए इस त्योहार को गौरापर्व कहा जाता है। खुशी और उत्साह के साथ मनाया जाने वाला यह बहुत लंबा त्योहार है। इस त्यौहार के सामूहिक आयोजन में महिलाओं की भागीदारी और सक्रियता अधिक रहती है। इस अवसर पर गाए जाने वाले सगुन, फाग, चैत, धमारी, चाँचरी, ढुस्को, घर गीत और लोक गीत इस पर्व को संगीतमय बना देते हैं।

पौराणिक संदर्भों के अनुसार हिमालय की पुत्री पार्वती ने सबसे पहले श्री महादेव से विवाह करने के लिए इस पर्व का अनुष्ठान किया था। परंपरा के अनुसार, गौर वर्ण की गौरा (पार्वती) इस अनुष्ठान को करने वाली पहली थी, इसलिए त्योहार का नाम गौरा पर्व है। यह माना जाता है कि गौरा पर्व भारत के कुमाऊँ गढ़वाल से नेपाल के डोटी अंचल में आया है। भारत से आते समय वहाँ के लोग अपनी संस्कृति साथ लेकर आए और इस परम्परा को सेती, महाकाली अंचल में जारी रखा। यह संस्कृति आज तक चल रही है।

इस पर्व का अपना विशेष विधान है। इस क्षेत्र में गौरा को बेटी के रूप में लाड़-प्यार करके सम्मानित करने और गौरा-महेश्वर का विवाह रचाकर विदाई देने की प्रथा है। गौरा पर्व मनाने वाले समाज में पर्व के शुरू होने से पहले एक लंबा रास्ता तय करना होता है। व्रतालु महिलाओं को एकादशी का व्रत गौराष्टमी पर्व से ठीक पहले करना चाहिए। इस दिन महेश्वर का उपवास व ध्यान रखा जाता है। गांव की युवतियां गौरा से संबंधित गीत गाकर इस त्योहार की शुरूआत की सूचना देती हैं। चतुर्थी के दिन घर को लीप-पोत करके सफाई की जाती है, कपड़े धोने और साफ करने का काम किया जाता है, गौरा की पूजा के लिए आवश्यक सामग्री तैयार की जाती है । निम्नलिखित गीत इस अवसर पर गाया जाता है।
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औंसीका दिन इजु माटी ल्याउन लाया
पडेवाका दिन इजु घर लिपाया
दुत्यका दिन इजु दोधर्को (जिउँती) हाल्या
तृतीयाका दिन इजु फूल रोपाया
चौथीका दिन इजु विरुड़ो कलाया
पंचमीका दिन इजु विरुड़ो भिजाया
षष्ठीका दिन इजु विरुड़ो पखाल्या
सप्तमीका दिन इजु हमी ल्याउन लाया ।

इस प्रकार तैयारी करके गौरा पर्व का अनुष्ठान पंचमी से विधिवत आरम्भ होता है । गौरा पर्व का प्रमुख विधान भाद्र कृष्ण या शुक्ल पंचमी से औपचारिक रूप से शुरू होता है। इस दिन गाँव भर की व्रतालु महिलाएँ एकत्र होती हैं। शुद्घ और पवित्र पंचअन्न (केराउँ, गुराउँस, बोडी, मूङ और चना) को एक साथ मिलाकर एक बड़े तांबे के बर्तन में भिगो देती हैं। इस तरह से उगाए गए अनाज को विरुड़ा कहा जाता है। विरुड़ा को भिगोने के अवसर पर भी फाग गाया जाता है –

सगुना दियाँ मैले जैकीबार
लगुनो जो दिएँ मैले आजइकी बार
पिँयलाझो पिठायैले शिरमाथो भरियो
सुकिलाझो पिठायैले शिरमाथो भरियो
हरियणो दुबोले शिरमाथो भरियो

भिगोए हुए अन्न को पवित्र स्थान पर रखा जाता है। विरुड़ा को भिगोने के कारण इस दिन को बिरुड़ा पंचमी के नाम से जाना जाता है। षष्ठी के दिन, महिलाएं पास की पवित्र नदी, खोला, तालाब, धारा और जलाशय में ले जाके बिरुड़ा को धोती हैं। इस अवसर पर महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले फाग को यहाँ दिया जाता है-

अब लाग्यो भरत, भदौ मास
आयो गोसाइँ, लोलीको बरत
लोलीका बरत रानी, क्याउक्याउ चाइन्छ
लोलीका बरत गोसाइँ, प्च विरुड़ा चाहिन्छ
फुलेली कुयेंली चाइन्छ
लिए रानिउ लोलीको बरत

इस तरह, मंगल गीतों के साथ बिरुड़ा धोकर पानी से उतार कर अंकुरण के लिए  रखा जाता है। गौरा की पूजा करते समय बिरुड़ा को अक्षत के रूप में चढ़ाया जाता है। इसी दिन ‘बलुपूजा’ (बलु नामक वनस्पति की पूजा) भी की जाती है। पूजा के दौरान निम्न फाग गाए जाते हैं-

लोली लोली चन्दन सेली
तमु बारोबार आउनी भली
हमु पुज्दी भली
कउन कारण बलु तेरी जेठी पूजा
महेश्वर कारण मेरी जेठी पूजा
गमरी कारण मेरी जेठी पूजा

सातवें दिन व्रतालु महिलाएं खेतों से नौ प्रकार के पौधों को इकट्ठा करने के लिए एक साथ यात्रा करती हैं। नवदुर्गा के प्रतीक स्वरूप साउँ का बोट, दुबो, कुश, धान का बोट, तितेपाती, झिझिरे काँडा, तील का बोट, अपामार्ग और बलु इन नौ प्रकार के पौधों को पांच या सात हाथों से उखाड़ा जाता है। इस अवसर पर फगारी महिलायें गीत गाती हैं-

धानबोट, तिलबोट उबजिन् लोली
बेलीको बस्यारो रानीउँ कहाँ तमरो भयो
बेली बस्यारो मेरो धानबोट भयो
धानबोट हेरीफेरी आएँ तमु नइ देखे
बेलीको बस्यारो रानीउँ कहाँ तमरो भयो
बेली बस्यारो मेरो साउँबोट भयो
साउँबोट हेरीफेरी आएँ तमु नइ देखे

निकाली गई वनस्पति को एक टोकरी में डाल दिया जाता है और फिर लाल चद्दर से सजाया जाता है, जिसे दुल्हन की तरह लाल चुनरी से ढक दिया जाता है और विभिन्न मंगल गाते हुए गौरा को घर में ले जाते हैं। इस अवसर पर निम्न फाग गाया जाता है-

भागेश्वर देवताइकी घर छौ कि नाई
क्याउको आदेश हुन्छ घरै छु मई
क्याउको कोसेली ल्याई माइतोडा आई
सुनै न छापरी ल्याई माइतोडा आइन्
रुपा न बाबर ल्याई माइतोडा आइन

इस प्रकार बाजा-गाजा, ध्वजा, तोरण, आलम के साथ जय जयकार करके गौरा के आगमन में खुशी मनायी जाती है। इस समय गाये जाने वाले गीतों में भी सुखद अभिव्यक्ति होती है-

आजको दिउँस इजु, रनझनियाँ
इति के उजालो छ हो, रनझनियाँ ?
कि त बबा लोली गमराउ, रनझनियाँ
तमी माइत आइछौ हो, रनझनियाँ ।

व्रतालु महिलायें दूध और  गोमूत्र का एक-एक कुण्ड बनाकर स्नान करती हैं। उसी दिन, कुछ वनस्पतियों को संजा (गौरा की सौत) के रूप में अलग करते है। शेष सभी पौधों को गौरा पूजा के मुख्य स्थान पर ले जाते हैं। वहाँ अन्य गांवों और टोलों से भी गौरा लायी जाती हैं और सबको एक में मिलाया जाता है। गौरा मिश्रण के बाद, विभिन्न पौधों को मोड़ दिया जाता है और देवी के रूप में तैयार किया जाता है।
(Gaura by Deveshri Joshi)

अष्टमी के दिन विभिन्न स्थानों से लाए गए गौरास्वरूप वनस्पतियों को मोड़कर मुकुट, गहने आदि लगा कर देवी के रूप में रूपान्तरण करके विधिवत् तैयार की गई देवी को पूजा मंडप में स्थापित किया जाता है। गया से लाई गई लकड़ी के एक विशेष पिर्का में दुर्बा के चपरी रखके उसी में जनेऊ, सुपारी, फलफूल, भेट रख कर बाको (विशेष प्रकार का कपडा) पहिना कर गौरा की स्थापना की जाती है । तब वैदिक रीति से गौरा-महेश्वर का विवाह कराया जाता है। इस अवसर पर व्रतालु महिलाएं लौकिक वेद के रूप में प्रचलित गौरा-महेश्वर के विवाह के सम्बन्ध में विविध फागों का गायन करती हैं। गौरापर्व की अष्टमी को दूर्वाष्टमी भी कहा जाता है। दूर्वा रख कर विधिपूर्वक तैयार किये हुए सप्तर्षि के सूचक सात ग्रन्थियों से  युक्त विशेष सूत्र (दुबाधागो) को व्रतालु महिलायें धारण करती हैं। भीतर की पूजा करने के बाद, गौरा महेश्वर को आँगन में रख कर पूजा होती है। इस तरह, पूजा के स्थान की गतिविधियों को पूरा करके लौटी महिलायें, रिश्तेदारों, पड़ोसियों और दोस्तों को प्रसाद वितरण करती हैं। विशेष रूप से विरुडा गौरा का प्रसाद होते हैं।

इस प्रकार कुछ दिनों तक खेलमाल करके अगस्त के उदय से पहले, गौरा देवी को विदाई दी जाती है। विदाई के दिन, गौरा को बाहर लाकर पवित्र स्थान में रखा जाता है और सेली (आरती) की जाती है। महिलाओं का एक समूह अठावली गाती है। शिवपार्वती की जीवनी पर आधारित इस गाथा की प्रस्तुति के लिए महिलाएं गोलाकार घेरे पर खड़ी होती हैं। गौरा की मूर्ति के शीर्ष पर फल-फूल और प्रसाद से भरी चादर खींची जाती है। महिलाएं अठवाली को शुरू से अंत तक गाती हैं। अंत में चादर पर रखे फलों को बहुत जोर से आसमान की ओर उछाला जाता है। फल जमीन पर गिरने से पहले सब लोग उनको ग्रहण कर लेते हैं। फल फटकने बाद गौरा का विसर्जन होता है। यह त्योहार का आखिरी दिन है, और गौरादेवी की विदाई का दिन। इस दिन, एक महिला  महेश्वर को, एक गौरादेवी को शिर पर रखती है तथा एक महिला कलश में जल भरकर घुमाती है। अन्य इच्छुक महिलाएं धीमी गति से नृत्य करती हैं। यहाँ एक गीत गाया जाता है ।
(Gaura by Deveshri Joshi)

नाँच नाँच लोली गमराउ तमीबठी नाँच
तमराइ त नाँचना देखी हमी पनि नाँचूँ ।
नाचिगैन लोली गौरा केश झुल्लाइ झुल्लाई
नाचिगया महेसरौ बाउली लुल्लाई लुल्लाई
जैसा नाच्या महेस्सर तैसा बाज्या ढोल
नाच्या गुसाई महेस्स्रौ बजे चमढोल

इस दिन, बिदाई के दर्द से हर किसी का मन भारी होता है। गौरा की विदाई के लिए, महिला, पुरुष, और बच्चे सभी उपस्थित होते हैं। विदाई के अंतिम दिन पुरुष भी उत्साहपूर्वक एक गोल घेरे में घूमते हुए गौरा की बिदाई के लिए निम्न गीत गाते हैं-

गमरादेवीका काला कैला केश, छाड्ड लागिन् गमरादेवी माइतीको देश
गोसाई माइतीको देश
दिजाए गमरादेवी माइतीखि वर, अन्नधन्न पुरो होइ जाऊ  माइतीका घर
गोसाई माइतीका घर
सम्झन लागिन् गौरादेवी बबाइको घर, भितर छन् गौरादेवी आँगनी महेश्वर
गोसाई आँगनी महेश्वर
हिटहिट गौरादेवीउँ बटोली लाग, काला लेक कालाइ धुरा पडिजाली रात
गोसाई पडिजाली रात

इस समय एक ओर गौरा देवी की विदाई की तैयारी की जा रही है तो दूसरी ओर पुत्री के प्रति ममता के माधुर्य से वातावरण और भी मार्मिक हो रहा है। पंचेबाजा की धुन में दर्शक अपनी उपस्थिति को भूल जाते हैं और एक शानदार माहौल में एकजुट होते हैं। खिलाड़ी भी अपनी कलात्मकता का उत्साह दिखाते हैं। इस समय, महिलाएं दुखी बन के आँसू टपकाती हैं और गाती हैं-

आङनीको खेलमाल छाड़ गमरा देविउ, लोक झुराइ जन मार
जब मेरा बाबा ज्यू भरपूर दाइजो दिन्ना, तव छाडु आङनीको खेल
आङनीको खेलमाल छाड गंवरा देबी लोक झुकाइ जनमार ।

इस तरह विविध वाद्य यंत्र बजाकर संगीत के साथ जलाशय, मन्दिर प्राङ्गण और चौतारों में गौरा की मूिर्त विसर्जित कर गौरा पर्व का समापन होता है। डोटेली लोक संस्कृति में गौरा पर्व का विशेष स्थान है। इस त्यौहार में, सभी लोग काम-धन्धे को छोड़कर, हर्षोल्लास के साथ निश्चिन्त मन से त्यौहार मनाते हैं तथा आपसी सौहार्द बढ़ाकर लोक जीवन में आनंद का संचार करते हैं।
(Gaura by Deveshri Joshi)

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