महात्मा गाँधी और महिलाएँ

Gandhi and Women
जया पाण्डे

इस वर्ष महात्मा गाँधी की 150वीं जयन्ती है। पूरे वर्ष गाँधी को याद करने का सिलसिला चलता रहा। सरकारी महकमा उदासीन रहा, पर लोग गाँधी को याद करने का बहाना ढूँढते रहे। गाँधी जनता के ही तो थे। ये गाँधी ही थे, जिन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलनों को जन आन्दोलन में बदला। ये गाँधी ही थे, जिन्होंने अहिंसा की बदौलत ही एक लम्बा आन्दोलन चलाया और औपनिवेशिक ताकत को झुकना पड़ा। ये गाँधी थे, जिन्होंने आन्दोलन और रचनात्मक कार्यक्रम को साथ-साथ चलाया। संघर्ष-शांति-फिर संघर्ष, (Struggle peace-again struggle) गाँधी के आन्दोलन इसी तरह चलते थे। शांतिकाल में रचनात्मक आन्दोलन पर जोर दिया जाता था कि हम अपने समाज की बुराइयों से निजात पायें। यह उस शून्य को भी भरता था, जो आन्दोलन के दौरान उपजती थी। विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करना है तो स्वदेशी का प्रचार ही नहीं उसका उत्पादन करो। विदेशी शिक्षा का बहिष्कार करना है तो राष्ट्रीय शिक्षा के द्वार खोलो। नये समाज के निर्माण के लिए छुआछूत का बहिष्कार और स्त्री-शिक्षा के द्वार खोलो, गाँवों की ओर लौटो।
(Gandhi and Women)

वह दौर ही समाज सुधार का था। अपने शुरूआती नेताओं ने न केवल औपनिवेशिक सत्ता को चुनौती दी वरन् अपने समाज के अन्दर की बुराइयों को भी पहचाना। एक सदी के प्रयासों ने सदियों का इतिहास बदल दिया। महिलाएँ जो आज हर क्षेत्र में दिखाई दे रही हैं, आसमां की ऊँचाई छू रही हैं, राजाराम मोहन राय से शुरू हुई उस मुहिम की ऋणी हैं, जिन्होंने राजनीतिक दासता के साथ-साथ अपने समाज की बुराई को भी पहचाना। बाल विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा जैसी बुराइयों पर गाँधी के आन्दोलन में आने से पहले ही प्रहार हो चुका था। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, महादेव गोविन्द रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे नेता बाल विवाह, विधवा विवाह तथा स्त्री शिक्षा जैसे मुद्दों पर लिख रहे थे, बोल रहे थे, सचेत कर रहे थे। महात्मा गाँधी ने न केवल उस मुहिम को आगे बढ़ाया, बल्कि अपने आन्दोलन से महिलाओं को जोड़ा। गाँधी के आन्दोलन के स्वरूप को ‘नारीवादी’ कहा जाता है जिसने औपनिवेशिक ताकत के पौरुष का सामना किया। गाँधी ने स्त्रियोचित गुणों प्रेम, सहिष्णुता तथा त्याग का सहारा लेकर औपनिवेशिक सत्ता का सामना करना सिखाया। आज जब हम लगातार सत्ता के हिंसक होते पौरुष को पा रहे हैं, ऐसे समय में गाँधीवादी सोच का विश्लेषण करना और भी प्रासंगिक हो जाता है। गाँधी का यह प्रश्न है कि जो उनकी (महिलाओं की) ताकत है, वह उनकी कमजोरी क्यों समझी जाती है? अगर ताकत का मतलब नैतिक क्षमता से है तो महिलाएँ अवश्य ही पुरुषों से अधिक शक्तिशाली हैं।’’ आज के समाज से भी पूछा जा सकता है।

यह प्रश्न महिला को कमजोर लिंग बताना झूठ है। यह पुरुष का महिला के प्रति अन्याय है। क्या उसमें अपने को समर्पित करने की क्षमता नहीं है? क्या उसमें सहिष्णुता नहीं है, क्या उसमें साहस नहीं है? अगर अहिंसा हमारे जीवन का मूलमंत्र है तो भविष्य महिला का है। सहनशीलता की क्षमता और अहिंसा में विश्वास की सुदृढ़ता की दृष्टि से स्त्रियाँ पुरुषों से कहीं बेहतर होती हैं। ‘‘गाँधी के महिलाओं के गुणों के सम्बन्ध में ये वाक्य हैं। जो उन्होंने स्वयं भी एक महिला की सी जिन्दगी जी और इन्हीं गुणों को अपनी जीवन शैली में साकार किया। स्त्रियों की विशिष्ट गुणों तथा स्त्री-पुरुष के बीच स्वभावगत विभिन्नताओं को साकार करने के प्रयासों के बीच ही हम गाँधी के महिला सम्बन्धी विचारों को जान सकते हैं।’’

अपने जीवन की दो करीबी महिलाएँ- उनकी माँ और उनकी पत्नी कस्तूरबा से, गाँधी स्वीकार करते हैं उन्होंने बहुत कुछ सीखा। अपने पति से अपनी बात मनवाने के लिए उनकी माँ उपवास का सहारा लिया करती थीं। इसी ने उन्हें सत्याग्रह का पाठ पढ़ाया। ‘वैष्णव जन तो तैने कहिए जे पीर पराई जाने रे’ गाँधी जी का यह प्रिय भजन उनकी माँ के उसूलों के प्रभाव का ही परिणाम था। कस्तूरबा के साथ गाँधी का विवाह 13 वर्ष की उम्र में हुआ। प्रारम्भ में गाँधी भी भारतीय पतियों की भाँति कस्तूरबा को अपनी बात मनवाने पर बाध्य किया करते थे। वे एक आदर्श पत्नी चाहते थे परन्तु कस्तूरबा को अपनी बात रखना और मनवाना आता था, यह गाँधी ने राजकुमारी अमृत कौर को 1936 में लिखे एक पत्र में स्वीकार किया। गाँधी ने लिखा ‘अगर तुम औरतें अपने विशेषाधिकार और महत्ता को पहचान लो, तो मानव जाति के लिए यह एक वरदान होगा। पुरुष को तुम्हें गुलाम रखने में आनन्द आता है और कई बार तुम्हें भी गुलामी ही पसंद होती है। इसलिए मानव जाति का अपमान करने में गुलाम बनना और गुलाम बनाना बराबर के दोषी हैं… मैं भी पुरुषों की तरह गुलाम रखने का इच्छुक था लेकिन बा ने गुलाम बनने से प्रतिरोध किया और मेरी आँखें खुल गईं। मैं एक ऐसी औरत की खोज में हूँ जो उसके उद्देश्य को आगे बढ़ाए, पर क्या आप औरतों में से कोई ऐसा करना चाहेगा यह उनका सत्य के साथ प्रयोग न था।’ कस्तूरबा ने गाँधी के हर आन्दोलन में उनका साथ दिया। रामचन्द्र गुहा ने लिखा है कि इस बात पर कम लोगों का ध्यान जाता है कि जिस समय भारत में महिलाएँ घर की चहारदीवारी तक सीमित थीं, परदे में रहती थीं, कस्तूरबा दक्षिण अफ्रीका में भेदभावपूर्ण कानून के विरुद्ध जेल गईं। इस कानून के तहत गैर-ईसाई लोगों के विवाह को अवैध करार दिया गया था। भारत आने पर भी शराब व विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए उन्हें दोबारा गिरफ्तार किया गया।
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30 वर्ष की आयु से ही गाँधी साउथ अफ्रीका में महिलाओं के बीच काम कर चुके थे। लंदन में वे 1906 से 1919 के मताधिकार के लिए लड़ रही ब्रिटिश महिलाओं से बहुत प्रभावित हुए थे। उनके साहस और संघर्ष को देखकर वे दक्षिण अफ्रीका में भारतीय महिलाओं को प्रेरित करते थे। उन्हें मिली पोलकगाँधी की मित्र की पत्नी के विचारों ने भी प्रभावित किया था। मिली पोलक मानती थी, जिन्दगी के सारे प्रश्न महिला से जुड़े होते हैं। जीवन के सबसे खूबसूरत क्षमताओं की जब पहचान की जायेगी तभी एक महिला अपना स्वत्व पा सकेगी, वरना पुरुषों ने तो उनका हमेशा इस्तेमाल ही किया है। फोनिक्स के आश्रम में महिलाएँ बराबर का काम करती थीं।

गाँधी उस युग के थे जब बाल विवाह प्रचलन में था, बड़ी संख्या में समाज में विधवाएँ थी, सिर्फ 2 प्रतिशत महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा थी, पर्दा प्रथा कायम थी। गाँधी जी ने अपने समय की हर कुरीति के खिलाफ आवाज उठाई जो महिला-पुरुष के बीच असमानता पैदा करती थी वे अपने तर्कों से उसे नकारते हैं। ‘‘मैं इस बात का कोई कारण नहीं खोज पाया कि क्यों लोगों को लड़के की चाहत है और लड़की की नहीं। दोनों एक ही ईश्वर की संतान हैं। दोनों को इस संसार को चलाने का हक होना चाहिए।’’उन्होंने लड़कियों को सलाह दी कि उन्होंने तब तक विवाह नहीं करना चाहिए जब तक कि उन्हें दहेज न लेने वाला साथी न मिले। अन्तर्जातीय विवाह से ही दहेज प्रथा टूट सकती है, ऐसा गाँधी का मानना था। चयन समिति लोगों के बीच है, इसलिए ही दिक्कत है? लड़की के माता-पिता जब जातीय बन्धन की परवाह नहीं करेंगे, तब ही दहेज प्रथा पर काबू पाया जा सकेगा। पर्दा प्रथा का विरोध करते हुए वे मानते हैं कि पवित्रता या सुशीलता जबरदस्ती नहीं लाई जा सकती। यह कहना कि शुद्धता परदे में रहने से है, गलत है। पुरुषों को महिलाओं पर विश्वास रखना चाहिए। गाँधी को कष्ट इस बात से था, शिक्षित समाज में भी ‘परदा’ कायम है। यह बात नहीं है कि शिक्षित पुरुष परदा प्रथा कायम रखना चाहते हैं, वरन उनमें इस पाशविक प्रथा को समूल उखाड़ फेंकने का साहस नहीं है। क्या महिलाओं को भी उन ऊँचाइयों को छूने का अधिकार नहीं होना चाहिए जितना कि पुरुष को है। क्या उन्हें भी खुली हवा में साँस लेने और विचरने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। शुद्धता या पवित्रता आन्तरिक गुण है। महिलाओं में गलत व्यक्ति को पहचानने की समझ होनी चाहिए। यह उसे स्वतंत्रता से ही मिल सकती हैं।
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एक घटना है जिसमें गाँधी जी लड़की के लिए पैतृक सम्पत्ति में अधिकार की वकालत करते हैं। उस सम्मेलन में एक महिला ने कहा, ‘‘हम किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं चाहते। चूँकि लड़का ही वंश को आगे बढ़ाता है इसलिए उसका अधिकार अधिक है।’’ यह पूछे जाने पर ‘लड़की का क्या होगा?’ महिला का उत्तर था ‘दूसरा उसकी देखभाल करेगा’ दूसरा? हर समय दूसरा? वह स्वयं क्यों नहीं? आश्चर्य है, मनुष्य जिस स्त्री की कोख से जन्म लेता है, उस स्त्री को ही कमजोर समझा जाता है। लड़की को सम्पत्ति से वंचित रखना सिर्फ एक बुराई ही नहीं है, वरन् इस प्रथा को बनाये रखने के पीछे पुरुष की कुत्सित लालसा है। यह समस्या पुरुष की शक्ति की कामना और यश की लालसा से सम्बद्ध है। सम्पत्ति पर स्वामित्व शक्ति का सृजन करता है। पुरुष अपने मरने के बाद भी यश की कामना करते हैं। सम्पत्ति उसकी चाह की पूर्ति करती है। गाँधी सम्पत्ति के प्रति ऐसे मोह से ही छुटकारा चाहते हैं। असली सम्पत्ति तो चरित्र निर्माण है जो शिक्षा द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। माता-पिता अपने पुत्र-पुत्री को ऐसी शिक्षा दें कि वे पसीने की कमाई खा सकें और आत्मनिर्भर बन सकें।

गाँधी लड़कियों की शिक्षा के हिमायती थे। अपने सभी आश्रमों में उन्होंने लड़कियों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की थी। लड़कियों को शिक्षा से वंचित रखने का जिम्मेदार वह समाज है जो उन्हें दोयम दर्जे का मानता है। लड़की ही नहीं वरन् इस व्यवस्था से समाज ही कमजोर बनता है। शिक्षा के माध्यम से महिलाएँ समाज सुधार कर सकती हैं, अपने अधिकारों का उपयोग कर सकती हैं, राष्ट्र के र्आिथक एवं राजनैतिक निर्माण में सहायक बन सकती हैं, इन कुरीतियों तथा अंधविश्वास के खिलाफ लड़ सकती हैं, जो उनके खिलाफ जाती हैं। गाँधी दो आधारों पर महिला शिक्षा की वकालत करते हैं, पहला इस पुरुष प्रधान समाज में वे अपने अधिकारों के लिए लड़ सकेंगी, दूसरा अपने बच्चों को राष्ट्र का जिम्मेदार नागरिक बनायेंगी।

गाँधी पहले विचारक हैं जिन्होंने घरेलू श्रम की महत्ता को पहचाना। यद्यपि वे स्त्री-पुरुष के बीच कार्य विभाजन के विरोधी नहीं थे, लेकिन उन्होंने पुरुषों को भी घर के काम में हाथ बँटाने की जरूरत समझी। गाँधी के लिए स्त्री को घर के काम के बोझ से लादना हमारी असभ्य जंगली मानसिकता का प्रतीक था। शिक्षा के माध्यम से वे व्यक्ति में घर के कार्य के प्रति रुझान पैदा करना चाहते थे। प्रायमरी स्कूल के बच्चों को सिखाने के उद्देश्य से प्रकाशित ‘बालपोथी’ में एक कहानी है-
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माँ (अपने पुत्र से) बेटे तुम्हें भी घर के काम में उसी प्रकार हाथ बँटाना चाहिए जिस प्रकार तुम्हारी बहन करती है।
पुत्र- लेकिन वह एक लड़की है। लड़का खेलता और पढ़ता है।
बहन- मुझे भी खेलना और पढ़ना पसन्द है।
भाई- मैं मना नहीं करता लेकिन तुम्हें घर का काम करना चाहिए।
माँ- लड़के को क्यों घर का काम नहीं करना चाहिए।
पुत्र- क्योंकि लड़के को बड़े होकर धन कमाना पड़ता है इसलिए उसे अच्छी तरह पढ़ाई करनी चाहिए।
माँ- तुम गलत हो मेरे बेटे।

स्त्री भी घर का काम करके परिवार के लिए कमाती है। सफाई करने, पकाने तथा कपड़े धोने से हम बहुत कुछ सीखते हैं। घर का काम करने से कई प्रकार की कुशलता प्राप्त होती है और हम बहुत कुछ सीखते हैं। घर के काम करने में हमें अपनी आँखों, हाथों और मस्तिष्क का इस्तेमाल करना पड़ता है, इससे चरित्र बनता है।
घर का काम शिक्षा का भाग बनाया जाना चाहिए क्योेंकि घर दोनों का है। गाँधी ने सूत कातने तथा चरखा चलाने के

माध्यम से महिलाओं के श्रम को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ा। सूत कातना यद्यपि महिला-पुरुष दोनों के द्वारा किया जाता था, लेकिन महिलाओं का वर्चस्व रहता था। खादी न केवल औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध हथियार बनी, बल्कि इसने गाँव-गाँव को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जो निम्न वर्ग की महिलाओं का रोजगार था, वह मध्यम और उच्च वर्ग की महिलाओं का ‘धर्म’ बन गया (कुमकुम सांगरी)। मजदूर महिलाएँ और उच्च वर्ग की महिलाएँ एक मंच पर आ गईं। चरखे के माध्यम से गाँधी जी ने महिलाओं के गुणों को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ा। सूत कातना धैर्य का काम है, त्याग व सहिष्णुता का प्रतीक है, अहिंसा इसके साथ जुड़ी है। इनमें स्त्रियोचित गुणों को गाँधी ने अपने जीवन में भी उतारा और राष्ट्रीय आन्दोलन से भी जोड़ा। लेकिन गाँधी सारा समय राष्ट्रीय आन्दोलन को देने के पक्ष में नहीं थे। घर के काम के बाद महिलाएँ जो समय व्यर्थ के काम में लगाती हैं, अंधविश्वासों में जाया करती हैं, वहीं समय महिलाओं को आन्दोलन को देना होगा।
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गाँधी महिलाओं के फैक्ट्री में काम करने के पक्षधर नहीं थे। ‘घर से बाहर नौकरी में समय बर्बाद होता है। गाँधी एक स्थान पर लिखते हैं, ‘अगर हम उन्हें फैक्ट्री में भेजते हैं तो घर का काम कौन देखेगा। अगर औरतें काम करने के लिए बाहर निकलेंगी तो हमारा सामाजिक जीवन समाप्त हो जायेगा और नैतिक मूल्य खत्म हो जायेंगे।’ गाँधी के लिए लैंगिक समानता में व्यावसायिक समानता शामिल नहीं है। वे उत्पादन में महिलाओं की भागीदारी के पक्ष में नहीं दिखते। स्त्रियाँ पढ़-लिखकर नौकरी करें, इसमें उनका विश्वास नहीं था। गाँधी कभी प्रगतिशील दिखते हैं, कभी रूढ़िवादी बन जाते हैं। उनके लिए सीता, द्रौपदी और दमयंती ही आदर्श पत्नियाँ थीं। मिश्रित धर्म में विवाहित जोड़े के बच्चों को वे सलाह देते हैं कि उन्हें अपने पिता के धर्म को अपनाना चाहिए। वे अपनी पितृसत्तात्मक मानसिकता से पूरी तरह उबर नहीं पाते। ‘चरखा’ या ‘स्वदेशी’ को भी पितृसत्तात्मक मूल्यों जैसे सुहाग या विदेशी से जोड़कर भावनात्मक लाभ लिया गया। जैसे- नारी श्रृंगार में एक भजन इस प्रकार था,

‘चरखा स्त्रियों की लाज बचायेगा
चरखा पतिव्रत धर्म सिखायेगा’

इसी प्रकार-

लाज अंगों की मेरी बचाओ जिया,
कहा मानो विदेशी न लाओ पिया।

हालांकि ये गीत गाँधी द्वारा रचित नहीं है लेकिन जाने अनजाने राष्ट्रीय आन्दोलन में भावनाओं को उभारने के लिए पितृसत्तात्मक मूल्यों का उपयोग किया गया। गाँधी ने परिवार नियोजन तथा गर्भनिरोधक का भी विरोध किया। उन्होंने भारत में महिलाओं के मताधिकार के लिए लड़ाई लड़ रही महिलाओं का साथ नहीं दिया, यह कहकर कि वह समय राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का है न कि व्यक्तिगत अधिकारों के लिए संघर्ष का। हालांकि गाँधी पितृसत्तात्मक मूल्यों को पूरी तरह नकारने में हिचकिचाते रहे, लेकिन उन्होंने महिलाओं में वह ऊर्जा भर दी थी कि वे स्वयं प्रश्न उठाने लगीं। ‘नमक सत्याग्रह’ के समय कमलादेवी चट्टोपाध्याय के बार-बार दबाव डालने पर गाँधी ने डांडी यात्रा में महिलाओं को भी शामिल किया। चट्टोपाध्याय ने फिर दबाव डाला कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में महिलाएँ क्यों नहीं हैं? 1925 में सरोजिनी नायडू पहली भारतीय महिला अध्यक्ष बनीं, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष नायडू मानती हैं कि अगर एनी बेसेण्ट अध्यक्ष नहीं बनी होती तो मेरा भी रास्ता नहीं खुलता। गाँधी ने महिलाओं को इतना जागरूक तो तब तक बना ही दिया था।
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गाँधी का राष्ट्रीय आन्दोलन बहुआयामी मुद्दों पर केन्द्रित रहा। महिला के शरीर, महिला-पुरुष के सेक्सुअल सम्बन्ध पर भी खुलकर विचार किया गया। गाँधी ने महिलाओं को ब्रह्मचर्य का एक मंत्र दिया। वह महिला जिसे अब तक प्रजनन क्षमता तथा घरेलू चहारदीवारी तक सीमित माना जाता था, ब्रह्मचर्य के माध्यम से उसे सार्वजनिक जीवन का रास्ता दिखाया गया। गाँधी के ब्रह्मचर्य के प्रयोग ने राष्ट्र, राजनीति तथा यौन सम्बन्धों के बीच एक नया सम्बन्ध तथा एक नई परिभाषा गढ़ने की कोशिश की। गाँधी का मानना था कि वह व्यक्ति जो यौन इच्छाओं को नियमित कर सकता हो, वही देश, राष्ट्र के काम आ सकता है। गाँधी इस स्थिति को औरत की कमजोर स्थिति से जोड़ते हैं। गाँधी बार-बार यह कह चुके हैं कि पुरुष को शक्ति या सत्ता चाहिए जबकि कामवासना का इस्तेमाल भी कई बार वह स्त्री को नीचा दिखाने के लिए करता है। पुरुष अपनी कामवासना को किसी भी मूल्य पर हासिल करना चाहता है। गाँधी महिलाओं को ललकारते हैं कि इससे परे भी दुनिया है। महिलाएँ सिर्फ बच्चा पैदा करने की मशीन नहीं हैं, जिन्दगी में बड़े उद्देश्य हैं, समाज सेवा है, जिनको करने के लिए वे हैं। पुरुष को भी अगर देश सेवा करनी है, समाज सुधार में संलिप्त रहना है तो उन्हें अपनी इच्छा से नपुंसक हो जाना चाहिए। स्वयं कामवासना को नियंत्रित करना अपने को सीमाओं में बाँधना नहीं है। यह अपने अस्तित्व को एक नई दिशा में काम करने का माध्यम भी है। गाँधी प्रेम पर आधारित स्वैच्छिक व सहयोग के साथ काम को महत्व देते थे। नर्स का काम गाँधी जी को बहुत पंसद था।

इस सबके बावजूद गाँधी मातृत्व से इनकार नहीं करते हैं, जो पोषण और गुणों को प्रदान करता है। पर महिला को मातृत्व कुछ ही समय तक देना है, बाकी तो समाज सेवा के लिए अपने को लगाना है। हालांकि गाँधी के ये विचार सनकीपन तक की आलोचना के शिकार हुए। पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध हुए। विशेष रूप से मध्यमवर्गीय और उच्चवर्गीय महिलाओं की क्षमता घर से बाहर निकलकर समाज सेवा के कामों- चरखा कातने, गाँव में रहने, दंगों के दौरान राहत कार्य करने, शौचालय साफ करने, स्वच्छता कार्यक्रम चलाने में उनकी क्षमता काम आई। एक महिला नेतृत्वकारी पीढ़ी का उदय हुआ। सुशीला नायर, मृदुला साराभाई, राजकुमारी अमृतकौर, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, रेनुका राय, अशोका गुप्ता, प्रेमा कंटक, सुचेता कृपलानी जैसी एक नई महिला, नई ऊर्जा से भरी हुई महिला का उदय हुआ। जैसा कि रामचन्द्र गुहा लिखते हैं कि गाँधी से पहले के सारे आन्दोलन पुरुष-प्रधान थे। गाँधी जी के आन्दोलनों में महिलाओं की अच्छी खासी उपस्थिति दिखाई देती है। ऐतिहासिक आवश्यकता की अनुभूति के साथ महिलाओं ने नये संभावित दायित्वों को सम्भालना है। ब्रह्मचर्य, शुद्धता, सेवाभाव, सामाजिक दायित्व तथा सत्ता का सहारा लेकर गाँधी ने अपने समय में एक नया आधुनिक नारीवाद रचा, जिसमें स्वतंत्र और सार्वजनिक क्षेत्र के लिए उत्साह के साथ महिलाएँ उभरी, हालांकि ये महिलाएँ स्त्री के यौनिक-स्वातंत्र्य या सामाजिक स्वातंत्र्य के लिए प्रतिबद्ध नहीं थी। गाँधीवादी महिलाओं ने पारम्परिक लैंगिक भूमिका को तोड़ा लेकिन उन्होंने मूल पितृसत्ता की जड़ों पर प्रहार नहीं किया। उन्होंने समाज सेवा के लिए अपने को समर्पित कर दिया लेकिन अपने स्व की स्थापना के लिए समाज से बलिदान की माँग नहीं की।

अन्त में जैसा कि वीरभारत तलवार कहते हैं, गाँधी जी ने नारी आन्दोलन का समर्थन नारीवादी दृष्टिकोण से नहीं किया…पर उनके समर्थन से स्त्री आन्दोलन आगे बढ़ा, इससे राष्ट्रीय आन्दोलन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी। वास्तव में गाँधी के आन्दोलनों में महिलाओं ने वक्ता, यात्री, प्रचारक और स्वयंसेवक बनकर उत्कृष्ट प्रदर्शन किए। हजारों तथा लाखों की संख्या में शिक्षित तथा अशिक्षित, गृहिणी तथा विधवाओं ने, छात्राओं तथा प्रौढ़ाओं ने सार्वजनिक सभाएँ आयोजित की, खादी बेची, साहित्य का प्रकाशन किया, विदेशी वस्त्रों की दुकानों में पथराव किया, हर प्रकार के पुलिस दमन को झेला और जेल गईं। महिलाओं ने अपने जेवर तक दान में दे डाले। गाँधी के सविनय अवज्ञा के दौरान 1930 में मुम्बई में चुनाव बूथ पर चुनाव के खिलाफ धरने पर बैठी 400 महिलाओं को एक साथ गिरफ्तार कर लिया गया। नमक आन्दोलन के दौरान हजारों महिलाओं ने नमक के लिए सत्याग्रह किया।

आन्दोलन का स्वरूप परिर्वितत होकर स्त्रियोन्मुखी हो गया। पुरुषों के दृष्टिकोण में भी परिवर्तन आया। सहयोगी पुरुषों ने महिलाओं की क्षमता को पहचाना। उन्होंने न केवल दोस्त की भाँति महिला को स्वीकार किया बल्कि दार्शनिक और कभी-कभी निर्देशक के रूप में उनका अनुसरण किया। उनके विचारों से वे प्रभावित हुए। आश्रम में, जुलूस में, धरने में तथा जेल में पुरुषों के साथ काम करने से एक नई महिला का जन्म हुआ, जो माँ, बहन और पत्नी की भूमिका से भिन्न था। गाँधी ने महिलाओं को एक बड़े उद्देश्य-समाज सेवा तथा राष्ट्र की स्वतंत्रता से जोड़ा- लेकिन वह एक और भी बड़ा उद्देश्य एक नई ऊर्जावान महिला का निर्माण करने में सफल हुआ। अधिक क्या कहना, नाथूराम गोडसे ने गाँधी की हत्या क्यों की? इस प्रश्न के उत्तर में गोडसे ने जो कारण बताये, उसमें एक यह भी था कि गाँधी ने जनसामान्य को और साथ में पर्दानशीन तथा घर तक सीमित महिलाओं को राष्ट्रीय आन्दोलन में झोंक दिया।
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संदर्भ
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  3. वीर भारत, तलवार, राष्ट्रीय नवजागरण और साहित्य, हिमाचल पुस्तक भण्डार, नई दिल्ली 1993
  4. कुमकुम सांगरी, पॉलिटिक्स ऑफ द पौसिबिल, तूलिका, नई दिल्ली 2001
  5. रामचन्द्र गुहा, गाँधी बिफोर इण्डिया, पैंग्विन इण्डिया, 2013
  6. रामचन्द्र गुहा, मेकर्स ऑफ मार्डन इण्डिया, 2010
  7. विभूति पटेल, गाँधी जी एण्ड एम्पावरमैण्ट ऑफ वूमैन, www.mkgandhi.org/
    articles/women empowerment
  8. वी. गीथा, पैट्रिआर्की, स्त्री, कलकत्ता, 2007