सशक्तीकरण के रूप

उमा भट्ट

नवम्बर 2014 के आखिरी सप्ताह  में मुझे पिथौरागढ़ जिले में कार्यरत संगठन हिमालयन ग्रामीण विकास समिति के कार्यक्षेत्र के कुछ गाँवों में महिलाओं की बैठकों में भाग लेने का अवसर मिला। तल्ला जोहार में हुपली, गंगोलीहाट में कोठेरा, राई गड़सारी एवं फुटसिल तथा गणाईं में देवराड़ी बोरा गांव में महिला समूहों की कलस्टर बैठकें थीं। प्रत्येक माह के अन्त में निश्चित तारीखों में अलग-अलग क्षेत्रों में कलस्टर की बैठकें होती हैं। प्रत्येक कलस्टर में कई समूहों की महिलाएं आती हैं। समूह यानी स्वयं सहायता समूह। बोलचाल में इन्हें एस एच जी (सेल्फ हेल्प ग्रुप) कहने का फैशन   है। सभी गैर सरकारी संगठन जो महिलाओं के बीच काम करते हैं, एस.एच.जी. बनाते हैं। प्रत्येक समूह में 20 या उससे कम महिलाएं सदस्य होती हैं। 20 से अधिक होने पर पंजीकरण कराना पड़ता है। ये समूह पंजीकृत नहीं होते। इनमें से प्रत्येक सदस्य प्रतिमाह निश्चित धनराशि जमा करती है जिसे ये बैंक में जमा करते हैं। लेन-देन पूरा चेक के माध्यम से होता है ताकि महिलाओं के खाते हों, उन्हें बैंकों में जाने की आदत बने। समूह का पैसा जमा करने महिलाएं स्वयं जाती हैं। समूहों के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष आदि चुनकर कार्यकारिणी बनाई जाती है। इस जमा राशि से कोई भी सदस्याण ले सकती है। सभी समूहों ने इसके लिए अपने-अपने नियम बनाये हैं जिनका ये पालन करती हैं। महिलाओं ने इस धन से जर्सी गाय, बकरी, खरीदी हैं, शादी-ब्याह में मदद ली है, कभी दुख-बीमारी में यह धन काम आया है। प्रति माह की सदस्यता राशि कम से कम 20 रु़ से शुरू कर कहीं कहीं 200 रु़ तक पहुंच गई है। समूहों में परस्पर एक दूसरे से अच्छा काम करने की प्रतिस्पद्र्घा भी देखी जा सकती है।

राई गड़सारी गांव की कलस्टर बैठक में 17 गावों के महिला समूहों की अध्यक्ष, सचिव व कोषाध्यक्ष आईं थीं। उन्होंने बताया कि वे किस पद पर हैं, कितने सदस्य उनके समूह में हैं और उन्होंने कितनी बचत की है। राईं आगर में इन्होंने सहकारिता बनाई है, जिसके इस समय 224 सदस्य हैं।  बैंक में खाता खोला है। शौचालय, पानी, बकरी पालन, सब्जी उत्पादन और दूध डेरी का काम इन्होंने किया है। 9 लीटर दूध की बिक्री से शुरू करके इस समय 90 लीटर दूध जाता है। चचड़ेत गांव की लीला मेहरा ने अपने गांव के विकास की कहानी सुनाई। पहले पानी खुले धारों से आता था। गांव में कहीं शौचालय नहीं थे। बीमारियां बहुत थीं। हिमालयन ग्राम विकास समिति के साथी आये तो बैठकें हुईं। उनके सहयोग से गांव में पानी की टंकी और शौचालय बने। इस पर गांव के पुरुषों ने बहुत विरोध किया। समिति के सदस्यों तथा महिलाओं को गालियां दीं पर महिलाएं डटी रहीं। अब इनके गांव में डायरिया का कोई मामला नहीं है। तीन बचत समूह इनके गांव में हैं। पहले शराब की दुकान राईं आगर में थी। वहां विरोध हुआ तो बन्द हो गई परन्तु गड़सारी में खुल गई। तब यहां की महिलाओं ने विरोध किया तो यहां से दुकान हटा दी गई लेकिन कुछ दूरी पर चौड़मन्यां गांव में खुल गई। अब वहां लोग परेशान हैं। एक गांव से हटकर दुकान का दूसरे गांव के निकट चला जाना, यह समाधान नहीं है। राईं आगर में रेता बजरी खुदान भी चल रहा है। 20 साल पहले यहां पर खुदान हुआ था पर तब से बन्द था। अब कहा जा रहा है कि ठेकेदार के पास हाईकोर्ट का आदेश है खोलने के लिए। तीन सप्ताह से काम चालू है और 40-50 मजदूर काम कर रहे हैं। प्रभावित गांव बिलड़ा आगर की आशा देवी चाहती थीं कि इस मुद्दे पर चर्चा हो और कोई कार्यक्रम लिया जाय। पर हाईकोर्ट के नाम से लोग आगे बढ़ने को डर रहे हैं। आशा सहकारिता बोर्ड की सदस्य है और उसने डेरी में बहुत अच्छा काम किया है।

कोठेरा गांव में महाकाली कलस्टर फेडरेशन की बैठक में 10 बचत समूह शामिल हैं। इसमें मनकोट गांव भी है जिसे निर्मल गांव का 2 लाख का पुरस्कार मिला है। पुरस्कार की राशि पूरे गांव में बांट दी गई ताकि प्रत्येक परिवार गैस का चूल्हा खरीद सके क्योंकि इस गांव में जंगल और लकड़ी की बड़ी समस्या है। 2003 में 25 रु़क की सदस्यता के साथ यहां महिला समूह बनने प्रारम्भ हुए। पहले काफी विरोध हुआ लेकिन धीरे धीरे काम होता गया। गांव में पानी की समस्या थी। श्रमदान करके पेयजल योजना लाई गई है। अब गांव में पानी के लिए पोस्ट बने हैं। शौचालय भी बन गये हैं। पॉली हाउस भी बनाये हैं सब्जी उत्पादन के लिए। सभी समूहों ने अच्छी बचत कर ली है। महिलाओं में अपने समूह की बचत बताने का उत्साह है। चाय और पशु आहार की एजेंसी भी ली है जिसके लिए प्रत्येक समूह ने पांच-पांच हजार रुपये जमा किये। इन्होंने लाभांश को भी प्रोत्साहन स्वरूप महिलाओं में बांटा है।

फुटसिल में उस दिन मनरेगा का काम चल रहा था। इसलिए महिलाओं को आने में विलम्ब हुआ। यहां की महिलाओं ने चारे के लिए नेपियर घास लगाई थी। डेरी का काम भी उनका अच्छा चल रहा है। इन स्वयं सहायता समूहों की यह उपलब्धि कही जायेगी कि इससे महिलाओं के हाथ में पैसा आया है। वे अपने नाम पराण ले सकती हैं। हालांकि यह राशि बहुत कम होती है पर यह उनकी अपनी बचत है। गाढ़े वक्त में यह उनके काम आती है। इस पर वे भरोसा करती हैं। परिवार का भी उनपर भरोसा बड़ा है। इन क्रिया कलापों से महिलाओं का आत्मविश्वास बड़ा है और समाज में भी उनके प्रति विश्वास बड़ा है। एक महिला, जो अपने समूह की सचिव हैं, ने बताया कि जब पहली बार मुझे बैंक जाकर अपने बचत समूह का पैसा जमा करना था तो मैं यही सोचती रही कि मैं यहां क्यों चली आई। इससे तो अच्छा था कि मैं जंगल जाकर लकड़ी काटती। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब बैंक जाना, बैठकों में जाना, अपनी बात रखना अच्छा लगता है।

 महिलाओं को प्रोत्साहित करने के लिए दूसरी जगहों पर भी संस्था की ओर से ले जाया जाता है। टिहरी, गोपेश्वर, जयपुर, अलवर, देहरादून आदि जगहों पर जाकर उन्होंने विभिन्न्न संस्थाओं के कामों को समझा है। बैठकों के लिए महिलाओं को इकट्ठ करना, कार्यकर्ताओं के लिए यह एक कठिन काम होता है। बार-बार कहे जाने पर बड़ी कठिनाई से वे एकत्र हो पाती हैं। पर इकट्ठ हो जाने पर विभिन्न विषयों पर बातचीत करना उन्हें अच्छा लगता है। वे कहती हैं, महिलाओं के काम का कभी अन्त ही नहीं होता, इसलिए बैठक में आने में देरी हो जाती है।

स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से जो संगठन बने हैं, उन्होंने मुख्यत: स्वच्छता, शौचालय, साग सब्जी उत्पादन, दूध की डेरी आदि के लिए काम किया है। ग्रामीण विकास समिति इसकी प्रेरणा रही है संस्था ने जिन कामों के लिए प्रेरणा दी, उन कामों में वे अग्रसर हुईं हैं। गांव स्तर पर नेतृत्व का विकास हुआ है लेकिन इससे आगे कलस्टर स्तर पर और उससे भी आगे क्षेत्र के स्तर पर नेतृत्व का विकास होने से महिलाएं आगे बढ़ सकेंगी। तल्ला जोहार के 17 गावों में 2000 से काम हो रहा है। इस कलस्टर में कुल 917 सदस्य हैं। पानी और शौचालय के काम के बाद इन्होंने स्वस्थ घर सर्वेक्षण का काम भी किया है। देवराड़ी बोरा में भी यह काम हुआ है। चार साल तक हर तीसरे महीने घर-घर जाकर निरीक्षण किया कि पानी ढका गया है कि नहीं, खाना ढककर रखा है कि नहीं, घर में शौचालय है कि नहीं, आदि। अब तो लोग स्वयं ही स्वच्छता रखने लगे हैं। महिलाएं हंसकर कहती हैं, मोदी जो बात आज कह रहे हैं, वह तो हम पांच साल पहले ही कर चुके हैं। हमें तो ईनाम मिलना चाहिए।       

ये कार्य मुख्यत: आर्थिक दिशा में सुधार की ओर ले जाते हैं। जिनसे  महिलाओं में आत्मविश्वास बड़ा है, उनके गांव साफ-सुथरे हुए हैं, पानी की समस्या कम हुई है, चारे की समस्या भी आंशिक रूप से हल हुई है। चाय और चारे की एजेन्सी महिलाओं ने ली है, यह उनकी नई भूमिका है। डेरी का प्रबन्धन भी आंशिक रूप से वे कर रही हैं। पर इन सब कामों में उन्हें किसी न किसी संस्था के प्रोत्साहन या सहयोग की जरूरत अभी है। प्रत्येक कलस्टर में संस्था के कार्यकर्ता हैं। ये प्राय: महिलाएं हैं। महिला कार्यकर्ताओं को तैयार करना, उन्हें संस्था में बनाये रखना, उनकी क्षमताओं का विकास करना यह भी एक समस्या है। क्योंकि प्राय: वे अस्थायी रूप से काम करती हैं।

महिला हिंसा के मुद्दे इन इलाकों में नहीं हैं, ऐसा कहना भूल होगी, पर ये समूह उसके प्रति जागरूक नहीं हैं। पुरुषों द्वारा संचालित संस्थाओं में महिला हिंसा के मुद्दों को उठाने से विवाद का भय बना रहता है। इन कलस्टरों के नाम धार्मिक प्रतीकों से जुड़े हैं। महाकाली,  नन्दा देवी, भगवती, पार्वती, अम्बिका, नौलिंगदेवता, आदि के नाम पर ये स्वयं सहायता समूह या कलस्टर बने हैं। गौरा देवी या इन्दिरा गांधी जैसे आधुनिक प्रतीक भी लिए गये हैं। धार्मिक प्रतीक संस्कृति का अंग बन जाते हैं और संस्कृति हमारी पहचान बन जाती है। धर्म ने हमारा, विशेषकर महिलाओं का कितना अहित किया है, इस बात को बिल्कुल नजरअन्दाज करते हुए देवियों के नाम पर संगठनों, समूहों का नामकरण कर महिलाओं को गौरवान्वित करना यह परम्परा भी तोड़नी होगी। इसके लिए पहल महिलाओं को ही करनी होगी। ऐसा नहीं है कि यहां परम्पराएं नहीं टूट रहीं हैं। तल्ला जोहार के हुपली गांव की धना देवी के पति को जब किसी आपसी विवाद में जेल जाना पडा और उनके खेत बंजर रहने की नौबत आ गई तो धना देवी ने स्वयं साहस करके हल जोता ओर अपने खेतों में बुवाई की।

समूहों के लिए निर्धारित कामों से अलग महिलाएं सोचने  लगी हैं, इस बात का आभास हुआ। फुटसिल गांव में महिलाओं ने शिक्षा की बात उठाई। सरकारी स्कूलों में अध्यापक नहीं हैं। केवल एक अध्यापक है और वह सारी कक्षाओं को नहीं पढ़ा सकता। इसके लिए अधिकारियों से बात करने का सुझाव आया। विशेषत: दलित महिलाएं इस बात से परेशान थीं कि सम्पन्न लोगों के बच्चे प्राइवेट स्कूलों में जाने लगे हैं इसलिए सरकारी स्कूलों की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इस समस्या के लिए उनका समूह या कलस्टर कितना आगे आयेगा, कहा नहीं जा सकता। इसी प्रकार गणाईं के देवराड़ी बोरा गांव में एक महिला ने यह बात उठाई कि हमें रोजगार के लिए कोई स्थायी काम लेना चाहिए। इस क्षेत्र के कई गांव परम्परागत रूप से बुनाई का काम करते थे। यह सुझाव आया कि यहां भी करघा लगाकर बुनाई का काम शुरू किया जाय। इसके लिए इस क्षेत्र में कार्यरत संस्था अवनि से मार्गदर्शन लिया जाय।

निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि इन स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से महिलाओं ने नये कार्यक्षेत्रों में प्रवेश किया है जिससे उनमें आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का संचार हुआ है। वे अपनी बात कहने में सक्षम हुईं हैं। आर्थिकी से आगे बढ़कर गांव समाज की अन्य समस्याओं, जैसे शिक्षा, शराब, पानी, रोजगार आदि की ओर उनका ध्यान जाने लगा है और इसके लिए भी उन्होंने प्रयास किये हैं। लेकिन इससे आगे सामाजिक और राजनीतिक चेतना भी उन्हें अपने भीतर पैदा करनी होगी। संगठन को व्यापक बनाना और नेतृत्व का विकास करना इसके लिए जरूरी होगा।  महिला हिंसा के मुद्दों को पहचानना और उनके लिए संघर्ष करना भी सीखना होगा, जो बहुत आसान नहीं है और जो महिलाओं के सामने असली चुनौती है।