परम्परागत हक-हकूकों के छीने जाने का परिणाम है जंगलों की आग

चन्द्रकला

आजकल पाडूमा चौदिसी फैलीछ धुंध
अंदाधुंद,काळा झंगरणया धुवाँ कि धुंध
आखोंमा अगास मा धुंध ,जुकड़ा मा जीवन मा धुंध
जगदा जंगलून मोसेंदा भविष्य पर धुंध
धुंधळी नी या धुंध……

जंगलों में लगी हुई आग और चारों और फैले धुंध ने उत्तराखण्ड के पहाड़ों में जो ताण्डव मचाया है, उसका दर्द कवि नरेन्द्र नेगी की उपरोक्त पंक्तियों में झलक रहा है। विभिन्न सूचनाओं से जानकारी मिली कि उत्तराखण्ड के जंगलों में 2200 हैक्टेयर से ज्यादा इलाकों में आग फैली। लगभग 257 जंगल आग की चपेट में आये। तकरीबन 800 गांव आग से प्रभावित हुए, 17 से ज्यादा लोगों की जान गई। इन आंकड़ों में बेजुबान जंगली जानवरों, पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों व जीव-जन्तुओं का कहीं उल्लेख नहीं है।

इस वर्ष शीतकालीन बारिश न होने से सूखी घास ने तेजी से आग पकड़ी। पहले से इस दिशा में कोई भी सरकारी प्रयास नहीं किए गये। लेकिन ज्यों-ज्यों आग का फैलाव बढ़ता गया, यह जंगल दर जंगल फैलती चली गयी। राज्य सरकार आग को रोकने में नाकाम रही। आपदा नियंत्रण टीमों, वन विभाग के कर्मचारियों के सतही प्रयासों के बावजूद आग काबू से बाहर होती चली गयी। स्थानीय ग्रामीणों के इस आपदा में कोई विशेष प्रयास नहीं दिखे। महिलाओं की मौजूद्गी तो न के बराबर ही दिखाई दी। केन्द्र द्वारा आग को नियंत्रित करने के लिए हैलीकाप्टर भेजे गये। आग की धुंध में यह प्रयास भी विफल होते दिखे। पहाड़ों में फैली धुंध ने कई सवाल खड़े कर दिए।

फरवरी से जून मध्य तक पहाड़ों में आग लगने का समय होता है। आग लगने के कई कारण होते हैं। जंगलों के वीरान होते चले जाने, मनुष्यों की आवाजाही बाधित करने से आग की घटनाओं में बढ़ोत्तरी होती है। ग्रामीणों द्वारा आग, भूस्खलन व जंगली पेड़-पौधों की हिफाजत, जंगल को बचाने के प्रयास भी कम होते चले गये हैं। जंगलों में घास व पेड़-पौधे स्पंज का काम करते हैं। ये बारिश को सोखकर धीरे-धीरे उसे छोड़कर भूजल के स्रोत को बढ़ाते हैं। कई बार चक्रीय परिवर्तन में बारिश पूर्व में भी कम होती रही है किन्तु पहले ग्रामीणों द्वारा जंगलों के भीतर में चाल/खाल यानी ऐसे गड्ढे जो बारिश से भर जाते है और जमीन के नम बने रहने से पानी के स्रोत नहीं सूखते। जानवरों को पीने व नहाने का पानी हमेशा मिलता रहता था। लेकिन अब यह प्रथा तकरीबन लुप्त होती जा रही है। उत्तराखण्ड के लगभग सत्तर फीसदी भू-भाग वनाच्छादित हैं जो दुर्लभ वन सपंदा और  बहूमूल्य जड़ी-बूटियों से युक्त हैं। पहाड़ों में रहने वाले हमेशा से ही पूरी तरह जंगलों पर निर्भर रहे हैं। अपने बुजुर्गों के जगलों को सहेज कर रखने की परम्परा यहां मौजूद रही है। लेकिन सरकारों द्वारा जब पहाड़वासियों के परम्परागत हक-हकूकों पर रोक लगानी शुरू हुई है और ग्रामीणों की जंगलों में आवाजाही को रोकने के लिए सख्त कानून बनाए गये। इन कानूनों के परिणामस्वरुप ही घास, लकड़ी अथवा कोई भी जंगली उत्पाद लाना गैर कानूनी घोषित कर दिया गया। यहां तक कि पालतू जानवरों की आवाजाही भी बाधित कर दी गयी। वन अधिनियम 1980 ने तो ग्रामीण जनता को पूरी तरह जंगलों से बेदखल कर दिया है। पार्क, सेन्चूरी, अभयारण्य व जंगलों के भीतर रिजॉर्ट बनाने वालों पर सरकारें कोई कार्रवाई नहीं करती लेकिन स्थानीय लोगों के जंगलों से जुड़े जीवन को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया है। जंगलों पर आधारित कुटीर उद्योग खत्म कर दिये गये है। बाघ, भालू, जंगली सूअर, लंगूर, बन्दर आदि जानवरों को सहेज कर गा्रमीणों के फसल, जान-माल व पशुओं के लिए खतरा पैदा कर दिया गया है। यही कारण है कि अब गांव वालों का जंगलों से लगाव खत्म होता जा रहा है। पहले की तरह जंगलों की देखभाल करने का जज्बा अब पहाड़ के लोगों में नहीं रहा। पहले मौसम के अनुसार ग्रामीण गर्मियों में ऊँचाई वाले जंगलों में रहते थे और सर्दियों में निचले मैदानी हिस्सों में रहते थे। पहाड़ों की उपेक्षा, बुनियादी जरूरतों का अभाव, बेरोजगारी इत्यादि समस्याओं के कारण पहाड़ों से होने वाले पलायन के कारण भी जंगलों की देखभाल करने वाला कोई नहीं रहा। सरकार ने हाईकोर्ट में जो हलफनामा दाखिल किया उसके अनुसार 189.79 वन क्षेत्र के आग फैलने की जानकारी दी गयी हैं। जंगल की आग से लगभग 18 लाख एक हजार 698 रुपये के नुकसान का अनुमान लगाया गया है। हालांकि यह सरकारी ऑकड़े हैं। वनाग्नि क्षेत्र में 1259.39 हेक्टेयर रिर्जव फॉरेस्ट और शेष सिविल वन क्षेत्र हैं।
(Forest fire)

जंगलों की महत्वपूर्ण पहरेदार महिलाओं के आज इनसे विमुख होने के कारण पहाड़ के पेड़-पौधे व पानी सूखता जा रहा है। कभी पतरौल से लड़ने वाली, जंगली जानवरों का सामना करने वाली महिलाएं अब नहीं रहीं। कभी धूप, सर्दी, बरसात बारोमास जंगल ही उनके ठिकाने हुआ करते थे। पहाड़ की महिलाओं के पहाड़ जैसे दुख के साक्षी होते थे ये जंगल और उसमें मौजूद प्राणी। पति के मिलन व विछोह का दर्द, ससुराल के तानों व अत्याचार की कहानी सुनने वाले पहाड़ी जंगलों के पेड़-पौधों से जितना लगाव महिलाओं को होता था और किसको हो सकता था भला! जंगलों और पेड़ों से लगाव रखने का ही परिणाम था कि महिलाएं अपने पेड़ों को बचाने के लिए  ठेकेदारों से लड़ी और अन्तत:पेड़ों से चिपककर उनकी जान बचाई और चिपको आन्दोलन एक मिसाल बन गया। लेकिन अब महिलाओं और जंगल का नाता टूटता चला जा रहा है। अधिकांश महिलाएं खेतों के बंजर हो जाने,बारिश के समय पर न होने, जंगली जानवरों के फसल उजाड़ देने, पहाड़ में जीवन निरन्तर कठिन होते जाने, बुनियादी सुविधाओं के अभाव, पति की नौकरी व बच्चों की पढ़ाई की खातिर पहाड़ों को छोड़कर शहर में आ बसने के लिए मजबूर हो रही हैं। जंगलो में महिलाओं व पालतू जानवरों की आवाजाही कम होने से सूखी पत्तियों विशेषकर लेंटाना की झाड़ियों और चीड़ के पेड़ से गिरने वाले पिरूल ने जमीन को ढक दिया हरी घास न उगने से गर्मी शुरू होते ही इन जंगलों में आग तेजी से फैलने लगती है। लेकिन गांव वालों को भी इस आग की जानकारी तभी मिलती है जब आग जंगलों में फैल चुकी होती है और काबू से बाहर होने लगती है। उत्तराखण्ड के 18 प्रतिशत जंगलों पर चीड़ का राज है जो आग को फैलाने का सबसे बड़ा स्रोत है।

ग्रामीणों की जंगल में आवाजाही कम होने से जंगलों का एक बड़ा नुकसान और हुआ है। लीसा-लकड़ी चोरों, माफियाओं , ठेकेदारों,और शिकारियों की पौ-बारह हो गयी है। वन विभाग को भी अपनी लापरवाही,घपलों व घोटालों को छुपाना ज्यादा आसान हो गया है। जंगलों को बर्बाद कर ये लोग अपने फायदे के लिए कुछ भी कर सकते हैं, यही लोग आपदा के समय घड़ियाली आंसू बहाते हैं। जंगलों में लगने वाली आग के पीछे महज एक प्रतिशत ही प्राकृतिक कारण होते हैं, 99 % मानवजनित कारणों से ही आग लगती है।

पहाड़ के जंगलों  में लगने वाली आग और उससे होने वाले नुकसान को कम करने के लिए जरूरी है कि ग्रामीणों के हक-हकूक बहाल किये जायें, जंगलों के हिफाजत में वन विभाग और ग्रामीणों की बराबर की भागीदारी हो। पलायन रोकने के लिए पहाड़ों में उद्योग लगाये जांय, बुनियादी सुविधाओं शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार की तरफ विशेष ध्यान दिया जाय। फसल,फलों को जंगली  जानवरों से तभी बचाया जा सकता है जब बंजर खेत आबाद होंगे। यह तभी सम्भव है जब पहाड.से पलायन रुकेगा,युवा पीढ़ी अपने जंगल,जमीन और पानी को न केवल प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए आगे आए बल्कि पहाड़ों की प्राकृतिक संपदा को लूटने वालों की भी खिलाफत करे।
(Forest fire)
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