फिल्म: लोग क्या कहेंगे

प्रदीप पाण्डे

डिजिटल युग का एक फायदा यह हुआ है कि पहले जिन विषयों को फिल्म जगत व्यावसायिकता के नजरिए से नहीं उठाता था या उन विषयों पर फिल्में बना भी दीं तो उनको वितरक मिलने में दिक्कत होती थी पर अब आप उनको घर बैठे देख सकते हैं। आज ऑनलाइन वेब पोर्टल्स में फिल्में, वेब सीरीज या यू ट्यूब  के माध्यम से इन्टरनेट में बहुत-सी ऐसी सामग्री है, जिनमें कई अनछुए मसलों को बहुत बढ़िया ढंग से उठाया गया है। ऐसी ही एक फिल्म है ‘लोग क्या कहेंगे (What will people say)।

नार्वे और पाकिस्तान की पृष्ठभूमि में बनी यह फिल्म अपनी बात बगैर किसी नाटकीयता या मेलोड्रामा के कहती है। फिल्म मुख्यत: हिंदी-उर्दू में है पर कहीं-कहीं नार्वेजियन भाषा में भी संवाद हैं। एक पाकिस्तानी परिवार नार्वे में बसा हुआ है। उनकी जिन्दंगी ठीक-ठाक चल रही है। उनकी बड़ी बेटी निशा जो किशोरावस्था में है, नार्वे के परिवेश में ढल गयी है। दोस्तों के साथ घूमना, नाईट क्लब जाना आदि उसके लिए स्वाभाविक है। उसका एक ब्वॉय फ्रेंड भी है मगर घर का माहौल रूढ़िवादी है। माँ ज्यादा ही दकियानूस है। उसे घर आये मेहमानों के सामने बेटी का स्लीवलेस टॉप पहनकर जाना  गवारा नहीं। वह चाहती है कि बेटी अपने मूल देश की संस्कृति के अनुरूप रहे, पिता भी यही सोचते हैं। इसलिए बेटी अपनी स्वतंत्रता का उपभोग छुप कर करती है। मगर एक दिन उसकी चोरी पकड़ी जाती है, जब उसका ब्वॉय फ्रेंड रात को उसके कमरे में आया होता है। पिता आगबबूला होकर लड़के को पीटते हैं और बेटी पर भी अपना गुस्सा उतारते हैं। घर के शोर-शराबे के कारण पड़ोसी बाल कल्याण विभाग को फोन कर इसकी सूचना दे देते हैं और अगले दिन यह बात नार्वे के बाल कल्याण महकमे तक पहुँच जाती है, जो निशा को शालीनता के साथ अपनी कस्टडी में रखते हैं। पर माँ-बाप को परिवार की इज्जत की चिंता हो जाती है। वे अब अपने मित्रों के भी दबाव में हैं कि उनकी बेटी का आचरण बहुत गलत है और यह उनके समाज के अन्य बच्चों पर बुरा असर डालेगा। उधर बेटी को घर की याद सताने लगती है और माँ-बाप भी उससे घर वापस आने को कहते हैं। बाल कल्याण विभाग वाले बेटी को आश्वस्त करते हैं कि वह यहीं रहे, घर में खतरा हो सकता है। पर वह घर जाने को कहती है। उसके भाई और पिता गाड़ी लेकर उसे लेने आते हैं और उसे घर नहीं बल्कि पाकिस्तान पहुंचा दिया जाता है।

पाकिस्तान के जिस माहौल में अपने मामा के घर में निशा भेज दी जाती है, वह नार्वे से एकदम उलट अर्धसामन्ती और रूढ़िग्रस्त है। यहाँ लड़कियों की आजादी एक टेबू है और लड़कियों को बंधनों में रखना एक आम स्वीकार्य परंपरा। निशा बहुत परेशान हो जाती है। भागना चाहती है मगर उसकी बगावत दबा दी जाती है। उसे सामान्य स्कूल में पढ़ने भेजा जाता है, घर के चौका-बर्तन और अन्य कामों में लगाया जाता है। वह पाकिस्तानी समाज के मुताबिक ढलने लगती है। इसी दौर में उसका और उसके ममेरे भाई का झुकाव एक-दूसरे की तरफ हो जाता है और एक रात जब वे घर से बाहर निकल जाते हैं तो पुलिस उन्हें पकड़ लेती है और ब्लैकमेल कर घर वालों से एक मोटी रकम वसूल कर लेती है। उसके ननिहाल वाले नार्वे में उसके पिता को फोन कर लड़की को वापस ले जाने को कहते हैं। लड़की का पिता पाकिस्तान आता है। निशा का पिता प्रस्ताव रखता है कि इसकी शादी इसके इसी ममेरे भाई से कर दी जाए, पर लड़का एक आज्ञाकारी बालक की तरह कहता है कि ‘वह वही करेगा जो उसके घर वाले तय करेंगे‘। इस वार्तालाप के दौरान निशा का बाप उस पर थूक भी देता है।
Film: Log Kya Kahenge

निशा को वापस नार्वे लाया जाता है। उस पर बंधन दुगुने कर दिए जाते हैं। बात फिर नार्वे के बाल कल्याण विभाग तक पहुँचती है मगर निशा के घरवाले झूठे आश्वासन देकर बेटी को घर ले आते हैं। पिता उसे कालेज से लाता और ले जाता है। इस बीच उसकी शादी भी तय कर दी जाती है और लड़के वाले कहते हैं कि उनके डॉक्टर बेटे से शादी होने के बाद बेटी पढ़ाई बंद कर देगी और घर संभालेगी।

अंतिम दृश्य में निशा को रात अपने घर की खिड़की के रास्ते निकलकर एक खुले रास्ते की ओर भागते हुए दिखाया गया है और उसका पिता चुपचाप अपनी खिड़की से उसे जाता हुआ देखता रहता है।

यह फिल्म कुछ तीखे सवाल छोड़ जाती है, मसलन क्या किशोरावस्था में किशोर-किशोरियों का परस्पर आकर्षण एक सहज मानवीय प्रतिक्रिया है या कोई अप्राकृतिक या अस्वाभाविक घटना। फिल्म में जब निशा पाकिस्तान के एक लड़कियों के स्कूल में पढ़ने जाती है तो वहाँ उससे उसकी कक्षा की लड़कियां उत्कंठावश पूछती हैं कि ‘क्या वह नार्वे में इग्लू में रहती है’। ‘क्या उसके किसी लड़के से सम्बन्ध रहे’। ‘क्या वह किसी लड़के से अन्तरंग रही’ आदि-आदि। यानी बंधनों में जकड़ने या परम्परावादी स्कूल में पढ़ाने से स्वाभाविक वृत्तियों का शमन नहीं हो सकता। फिल्म कई अंतर्द्वंद सामने लाती है- एक खुले और बंद समाज के किशोरों की सामान्य इच्छाओं और प्रतिबंधों के बीच, घर के वातावरण, बाहरी समाज की मान्यताओं और उम्र के साथ होने वाली सामान्य इच्छाओं के बीच के अंतर्विरोध को दिखाती है। क्या घर की इज्जत लड़की को बंधनों में रखने से ही सुनिश्चित होती है। पकिस्तान हो या भारत दोनों देशों के मध्यमवर्गीय समाजों का एक बहुत बड़ा हिस्सा एक दोहरी जिन्दगी जीने को अभिशप्त है। यहाँ परिवार के नियंताओं का नजरिया परंपरा के नाम पर लड़कियों पर अंकुश लगाता है मगर लड़कों पर नहीं। घर के बड़े लोग परिवार की लड़कियों के भला सोचने की बात तो करते हैं मगर उनको पूरी तरह अपनी सोच के मुताबिक तय आदर्शों के अनुसार ढालना चाहते हैं। बच्चों खास तौर पर लड़कियों की अपनी सोच कोई अर्थ नहीं रखती।

इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी यही है कि इसमें कहीं भी महिला स्वतंत्रता का शोर नहीं है मगर फिल्म ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है, इसका महत्व अपने आप उभरने लगता है। ठीक उसी तरह रूढ़ियों के खिलाफ बगैर बोले यह फिल्म उनकी बखिया उधेड़ देती है, फिल्म पूरे वक्त अपनी रफ्तार बनाये रखती है और कहीं भी ऊब पैदा नहीं करती।

फिल्म में निशा का रोल मारिया मोज्दा ने निभाया है। निशा के पिता मिर्जा की भूमिका में आदिल हुसैन तथा निशा की माँ के रूप में एकावली खन्ना हैं। इनका किरदार बहुत जीवंत रूप में सामने आया है। अन्य कलाकार भी बहुत प्रभावी रहे हैं। निर्देशिका इरम हक हैं। उनकी भी आपबीती यही है कि उनको भी उनके माँ-बाप ने ‘अपहृत’कर डेढ़ साल तक पाकिस्तान पहुंचा दिया था। ऐसी कई कहानियां समाचार-पत्रों में आती रही हैं पर फिल्म में इस सच्चाई को बड़ी खूबसूरती के साथ दर्शाया गया है।
Film: Log Kya Kahenge

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