समाजवादी समाज में परिवार की स्थिति

परिवार को लेकर समय-समय पर समाज की अवधारणाएं बदलती रही हैं। परिवार कभी सुरक्षा देने वाला और कभी व्यक्तित्व विकास में बाधक लगता रहा है। चलन में भी कभी संयुक्त परिवार, कभी एकल परिवार और न्यूक्लियर परिवार रहे हैं। वर्तमान में सभी पारम्परिक रूपों से भिन्न सहजीवन का चलन आ रहा है। विभिन्न विचारधाराएं भी इनमें पोषित होती रही हैं। समाजवादी समाज में परिवार को लेकर भिन्न अवधारणा पोषित हुई। प्रस्तुत अंश रूसी मूल के मॉरिस हिन्दुस, जो संयुक्त राज्य अमेरिका में पले-बढ़े थे, की 1929 में प्रकाशित पुस्तक ह्यूमैनिटी अपरूटेड के सातवें अध्याय फैमिली टैस्ट एण्ड ट्रायल के भावानुवाद पर आधारित है।

अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति के बाद सोवियत सत्ता ने निजी सम्पत्ति को समाप्त करने और विवाह में धार्मिक दखलंदाजी की अनिवार्यता को समाप्त करने का कदम उठाया था। ये ऐसे कदम थे जिनसे परम्परागत रूसी परिवार की आधारशिला ही हिल गई थी।

निश्चित तौर पर महिलाओं के ये नए हालात परिवार के स्थायित्व के लिए गम्भीर महत्व रखते थे। अब रूसी महिला पुराने दिनों के किसी भी काल की तुलना में आजादी का जीवन जीती थी और कुछ मामलों में वह दुनिया के किसी भी देश की तुलना में सबसे ज्यादा आजाद थी। यहाँ यह जोर देना जरूरी है कि युगों पुरानी चली आ रही मानव निर्मित सभी अक्षमताएँ कम से कम कानूनी तौर पर खत्म कर दी गईं थीं। शुचिता अब सम्मान या प्रशंसा का तमगा नहीं रह गया था। इसको खो देना अब बदनामी या प्रताड़ना का स्रोत नहीं समझा जाता था। हालांकि जिस हद तक पुरानी परम्परा व्यक्ति की चेतना का हिस्सा होती थी, उस हद तक यह बरकरार था। महिलाएँ अपनी प्रतिष्ठा, अपना सम्मान या यहाँ तक कि अपने भोजन पाने मात्र को बचाये रखने के लिए बुरा बर्ताव सहने के लिए किसी भी तरह बाध्य नहीं थीं। उन्हें आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर होने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। रूस में यह बहस कभी नहीं होती थी कि क्या कैरियर परिवार में हस्तक्षेप करता है, बल्कि इसके उल्टे होता था कि क्या परिवार कैरियर के लिए बाधा बनता था। महिलाएँ अपने लिए आर्थिक स्वाधीनता हासिल कर रही थीं। महिलाओं के लिए आर्थिक स्वाधीनता हासिल करना और समाज की उत्पादक शक्तियों में योगदान देना सामाजिक उपलब्धि और व्यक्तिगत गौरव की ऊँचाई माना जाता था। समाजवाद में महिलाएँ अधिकाधिक बड़े पैमाने पर आर्थिक स्वाधीनता हासिल कर रही थीं।

इस सबसे निश्चित तौर पर महिलाएँ ज्यादा आत्मविश्वासी, ज्यादा चाहत रखने वाली, महज परिवार को बचाने के लिए असुविधा या अपमान को कम बर्दाश्त करने वाली हो गई थीं।

जब इस लेखक ने साइबेरियाई छात्रों के एक समूह को यह बताया कि अमेरिका का एक आम व्यक्ति अपनी नौजवानी में किसी भी तरह अपने जीवन का मुख्य मकसद परिवार को मानता है तो वह उसकी ओर अविश्वास से देखने लगे। उनको यह विचार मानव व्यक्तित्व को संकुचित और उत्साहहीन करने वाला तकरीबन बकवास-सा लगा। इससे भिन्न भी कैसे हो सकता था? अपने शुरूआती दिनों से ही खासकर गाँवों के बाहर का नौजवान क्रान्तिकारी प्रभावों के अन्तर्गत आ जाता था। उसकी मानसिकता को आमतौर पर घर के बाहर की, पारिवारिक दायरे से बाहर की एजेन्सियों कोमोसोमोल संगठनों में अनवरत महसूस कराया जाता था कि जीवन का सर्वोच्च मकसद नये समाज के उद्देश्यों का प्रोत्साहन है। परिवार और घर का मजाक भी नहीं बनाया जाता था। रूसी नौजवान को परिवार को उस तरह नकारने की शिक्षा नहीं दी जाती थी जिस प्रकार निजी सम्पत्ति और धर्म को इतिहास के कूड़ेदान के लिए उपयुक्त प्रतीक के तौर पर बताया जाता था। वे तो महज इस बात के अभ्यस्त हो जाते थे कि बड़े कार्यभार, बड़े कारनामे, बड़े प्रतिष्ठित कार्य परिवार के दायरे के बाहर आते हैं और कि वे यह सब इस सबसे बड़े, सभी को अपने आगोश में लेने वाले तथा सभी परिवारों में सबसे नेक सामूहिकतावादी समाज में समझते थे।
(Family in Social Society)

रूसी नौजवान वस्तुत: न सिर्फ आर्थिक तौर पर बल्कि सामाजिक व भावनात्मक तौर पर क्लब, फैक्ट्री के दायरे से बाहर आने वाले बहुत सारे ऐसे दूसरे समूहों पर निर्भर करते थे जो नये समाज के आदर्शों और उपलब्धियों के वाहक और निर्माता दोनों थे। कहीं भी परिवार अन्तिम आदर्श, सर्वोच्च लक्ष्य के बतौर नहीं था। इसलिए नौजवान परिवार की पूजा करने की भावना और परिवार के प्रति विशेष जिम्मेदारी की भावना के बगैर ही विकसित हुआ था।

नये सामाजिक मकसद की पृष्ठभूमि में परम्परागत परिवार के लिए एक बड़ा खतरा यह भी था कि घर के भौतिक और बहुत सारे दूसरे कार्यों का सामाजिकीकरण हो गया था। क्रान्तिकारियों के लिए घर एक आर्थिक व यहाँ तक कि सामाजिक अमानवीयता थी। उनका कहना था कि सामूहिक रसोई न सिर्फ सस्ती थी, जहाँ पर विशेष तौर पर प्रशिक्षित रसोईये भोजन पकाते थे बल्कि वह अलग-अलग गृहिणियों को रसोई के दमघोटू काम से मुक्ति भी दिलाती थी। इसी प्रकार सामूहिक लौण्ड्री, बच्चों के लालन-पालन की नर्सरियों से घर में महिलाओं की घरेलू जानलेवा व दमघोटू काम के बोझ से मुक्ति मिल गई थी और जो अब उन्हें मन और व्यक्तित्व को विकसित करने में समर्थ बनाती थी जिसे वे अब नये समाज के कुछ उपयोग में लगा सकती थीं। लेनिन ने कहा था, ‘‘कोई भी राष्ट्र स्वतंत्र नहीं हो सकता, जब तक उसकी आधी आबादी रसोई में गुलाम है।’’ 

रूस में बच्चों के लिए राज्य नर्सरियों के जिक्र मात्र से किसी पश्चिमवासी या किसी अमरीकी व्यक्ति में भयावहता जैसी भावना पैदा होती है। इसका अंशत: एक कारण यह है कि इन देशों में समाचार पत्रों में ऐसी रिपोर्टें प्रकाशित होती हैं और सभागारों में ऐसी बातें कही जाती हैं कि रूसी क्रान्तिकारी बच्चों को माता-पिताओं से अनिवार्य रूप से तथा हमेशा के लिए अलग करने का मकसद रखते हैं। यह निश्चित ही बकवास है। क्रान्तिकारियों ने कभी भी इस अनिवार्यता की बात नहीं की। सिवाय उन मामलों के जहाँ माता-पिता बच्चों की देखभाल करने में नाकारापन दिखाते हैं या उनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं। राज्य नर्सरियों का विचार इस धारणा पर आधारित था कि इससे न सिर्फ माँ को बल्कि बच्चों को भी व्यापक तौर पर फायदा होता है। इस परियोजना को न सिर्फ माता-पिता की स्वीकृति मिली है बल्कि उनको विशेष तौर पर माँ का सक्रिय सहयोग भी मिला है। नर्सरी माँ की सुविधाजनक पहुँच के भीतर शायद उसकी रहने वाली सड़क में ही स्थित होती थी। नए मकानों में नर्सरी उसी भवन के एक कमरे में या इमारत के अहाते में होती थी। माता-पिता को बच्चों से सम्पर्क रखने की, उनके साथ खेलने की, नियमित अंतराल पर उन्हें घर ले जाने की और उनके भौतिक व आत्मिक विकास में मदद करने की पूरी आजादी थी। नर्सरी में बच्चों को कम नहीं बल्कि किसी भी परिवार की तुलना में ज्यादा और बेहतर सुरक्षा मिलती थी। वहाँ विज्ञान की नवीनतम खोजों के अनुसार अच्छा भोजन, स्नान और पहनने को मिलता था। बीमारी के समय वह बच्चे के विशेषज्ञ डॉक्टर की तत्काल देख-भाल पाते थे। वहाँ न तो बच्चों को मनमानी करने दी जाती थी, न ही उनके साथ दुर्व्यवहार होता था और न ही उनको दबाया जाता था। सर्वोपरि उन्हें बुराई विशेष तौर पर शराबखोरी के सम्पर्क से दूर रखा जाता था। यह लत उस समय तक जन समुदाय के बीच, सर्वहारा और किसानों के यहाँ तो और भी ज्यादा बुरी तरह से व्याप्त थी।

न सिर्फ बच्चों की देखभाल सामूहिक व राज्य-नर्सरियों के आधार पर की जाती थी बल्कि फैक्टरियों और औद्योगिक बस्तियों में सामूहिक रेस्तराओं, लान्ड्रियों, क्लबों, पार्कों, नर्सरियों, थियेटरों तथा अन्य संस्थाओं में मजदूर अधिकाधिक समय घर से बाहर वृहत्तर समाज में लगाने लगे थे। चूँकि परिवार का जीवन अधिकाधिक बाहर के स्थानों पर स्थानान्तरित हो गया था, इसलिए रूस में अलग-अलग परिवारों के लिए बड़े-बड़े मकानों की जरूरत नहीं रह गई थी।
(Family in Social Society)

चूँकि नई यौन नैतिकता और नए विवाह कानूनों में समाजवादी रूस में बाहरी मजबूरी के बामुश्किल कोई तत्व रह गए थे, सिवाय बच्चों की देखभाल सम्बन्धी माता-पिता की सामूहिक जिम्मेदारी के। इसलिए समाजवादी रूस में वैवाहिक जीवन ज्यादा आनन्दमय हो गया था। जोड़े नागरिक विवाह समारोह में गए बगैर साथ-साथ रह सकते थे। वे रजिस्ट्री कार्यालय में ‘‘अपने को दर्ज कराये बिना’’ साथ-साथ रह सकते थे। सरकार इसकी चिन्ता नहीं करती थी और दोस्त उन्हें बहिष्कृत नहीं करते थे। जब यह लेखक मास्को में ऐसे जोड़ों से मिला था, उन जोड़ों में कम्युनिस्ट और गैर कम्युनिस्ट दोनों थे, तब उसने यह पाया कि उनमें इस सम्बन्ध में रंचमात्र भी शर्मिंदगी नहीं थी। बल्कि इसके विपरीत व ऐसी स्वतंत्र जोड़ी को सबसे उचित मानते थे जो प्रेम की सच्ची भावना और एक-दूसरे के प्रति सम्मान पर आधारित हो।

जब इस लेखक ने दो बच्चों की एक माँ से पूछा, जो इंजीनियर के साथ रह रही थी, कि क्या ऐसे साथ रहना गलत नहीं लगता तो महिला ने जवाब दिया ‘‘सच में आप असभ्य आदमी की तरह बात कर रहे हैं।’’ उस महिला का यह जवाब लेखक को चोट पहुँचाने के लिए नहीं था बल्कि उसकी यह सहज अभिव्यक्ति थी।

वास्तव में समाजवादी रूस में तलाक भी उतना ही आसान था जितना कि विवाह। यदि जोड़ा रजिस्ट्री किताबों में दर्ज नहीं है तो पुरुष और महिला बिना किसी औपचारिकता के अलग हो सकते थे। यदि उन्होंने अपने को दर्ज करा लिया है तो उन्हें सिर्फ रजिस्ट्री कार्यालय में अपने अलग होने की सूचना दर्ज करानी होती थी। पति या पत्नी दूसरे की सहमति लिए या बिना लिए तलाक ले सकता था। रूस में सभी तलाक बहुत सरल थे। कोई कानूनी प्रतिनिधित्व आवश्यक नहीं था। शिकायत की कोई सूची की जरूरत नहीं थी। इस रजिस्ट्री में मौजूद क्लर्क बहुत सवाल नहीं पूछता था। वह हमेशा अलग होने के आधार की माँग नहीं करता था। वह पुनर्मिलन कराने का प्रयास नहीं करता था। यदि वह ऐसा प्रयास करता था तो उसकी भर्त्सना हो सकती थी। वह महज एक क्लर्क, एक कार्यालय कर्मचारी होता था।

हाँ, कानून तभी आता था, जब बच्चे होते थे। बच्चे चाहे विवाह से हों या बिना विवाह के। वे सभी कानूनी व जायज होते। माता-पिता को उनकी देखभाल करनी होती थी। नियम के बतौर बच्चा माँ के पास रहता था और पिता को गुजारा भत्ता तब तक देना होता था जब तक बच्चा 18 वर्ष की उम्र तक नहीं पहुँच जाता था। उसे अपनी आय का एक तिहाई देना होता था। यदि एक बच्चे से ज्यादा हुए तो उसे और ज्यादा देना होता था लेकिन यह उसकी आमदनी के आधे से ज्यादा नहीं होता था।
(Family in Social Society)

ऐसे भी उदाहरण थे जिसमें प्रक्रिया उल्टी होती थी। जहाँ पति के पास बच्चा होता था और माँ गुजारा भत्ता देती थी।

ऐसी स्थिति में जहाँ परिवार में कोई बच्चा नहीं होता था और पति व पत्नी दोनों का स्वास्थ्य ठीक होता था तो किसी भी पक्ष को कोई गुजारा भत्ता नहीं देना होता था। लेकिन यदि पत्नी काम करने में असमर्थ होती थी तो वह अपने पति की आय का एक तिहाई गुजारा भत्ता के तौर पर पाती थी। लेकिन यह एक साल से ज्यादा समय के लिए नहीं होता था। ठीक इसी तरह, यदि पति काम करने में असमर्थ होता था और पत्नी काम करती होती थी तो उसे अपनी आय का एक तिहाई अपने पति को गुजारा भत्ता के तौर पर देना होता था। यह भी एक वर्ष से अधिक नहीं देना होता था। रूस में ऐसी भी महिलाएँ हैं जो उच्च वेतन पाने वाले पुरुषों के साथ सहजीवन करने के चलन में इसलिए लगी हुई हैं ताकि वे बच्चे के लिए अधिक गुजारा भत्ता पा सकें और जब वे ऐसे कई पुरुषों के साथ रह लेती हैं तब उनकी अच्छी आमदनी सुनिश्चित हो जाती हैं और उनकी चिन्ताएँ दूर हो जाती हैं। रूस में ऐसे भी पुरुष हैं जो विवाह और तलाक इतनी बार करते हैं जितनी बार वे नये कपड़े खरीदते हैं।

पिछले वर्ष एक रूसी शहर में एक व्यक्ति पर तलाक की हुई तीन पत्नियों को गुजारा भत्ता देने के आरोप में मुकदमा चलाया गया था। इन तीनों महिलाओं के पास एक-एक बच्चा था। जब वह न्यायालय में हाजिर हुआ तो उसने बेबाकी से कहा कि उसने इस कारण से काम करना छोड़ दिया है कि यदि उसे अपनी तीन पूर्व पत्नियों में प्रत्येक को अपनी तिहाई आमदनी भुगतान करनी पड़ी तो उसे खुद अपने लिए कुछ नहीं बचेगा। तब वह काम ही क्यों करेगा? उसे नहीं पता था कि चाहे कितनी ही महिलाएँ और बच्चे उससे गुजारा भत्ता पाने की हकदार हों वे उसकी आमदनी की आधे से ज्यादा की कानूनन हकदार नहीं हैं।

लेकिन रूस में तलाक का मतलब परिवार का टूटना नहीं है। इसका सहज कारण यह है कि तलाकशुदा लोग फिर से जोड़ा बना लेते हैं, यहाँ तक कि वे एक-दूसरे के साथ फिर मिलकर जोड़ा बना लेते हैं और नया परिवार स्थापित कर लेते हैं। वस्तुत: विज्ञान के लोग हमें बताते हैं कि मानव समाज का ढांचा चाहे जो भी रहा हो, परिवार हालांकि उसका रूप बदलता रहा है, हमेशा मौजूद रहा है। एल.टी. हाब्हाउस के अनुसार, ‘‘प्रेम और समूचा परिवार अंतर्भूत आधार रखते हैं, इसका अर्थ है कि वे मस्तिष्क और शिराओं के भीतर मौजूद प्रवृत्तियों पर आधारित हैं।’’  हैब्लाक इलिस परिवार के बारे में अपनी हाल की घोषणा में इसी विचार को दोहराते हैं। उनके अनुसार, ‘‘इसका अस्तित्व प्रजाति की बनावट में भी बुना हुआ हो सकता है।’’

इन घोषणाओं के समक्ष परिवार की धारणा निर्विवाद लगती है। जब तक पुरुष और महिलाएँ एक-दूसरे की उपस्थिति के समक्ष उल्लासित होते हैं और एक-दूसरे के प्रति स्नेह और साथ रहने के भाव को प्राप्त करते हैं, तब तक वे जोड़ों को बनायेंगे और किसी किस्म का परिवार कायम रखेंगे। प्रेम अन्तत: एकान्तिक होता है। इसे आवास का वैयक्तिक स्थान चाहिए और जो बाहरी समाज से अलग करता हो। इसके अतिरिक्त ऐसा भी समय आता है जब व्यक्ति व्यापक भीड़ से दूर अलग रहना चाहता है और वह खुद के भीतर सिमटना चाहता है, वह अपने छोटे-से कोने में अपनी खुद की आत्मा से और जो उसके साथ अंतरंगता से जुड़े हुए हैं, उनसे सलाह लेना चाहता है। इसी तरह उसका पैतृक सहजबोध अपनी माँगें पेश करता रहेगा। मनुष्य की ये अंतर्जात चाहतें या प्रवृत्तियाँ बाहरी दुनिया से अक्सर ही अलग-थलग रहने की आवश्यकता यानी कि पारिवारिक जीवन की आवश्यकता पैदा करती हैं।
(Family in Social Society)

साभार- नागरिक समाचार पत्र

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