सती दहन का आंखों देखा वर्णन : दस्तावेज

इब्नबतूता
अनु. मदनगोपाल

इब्नबतूता मोरक्को के उन घुम्मकड़  यात्रियों में प्रमुख हैं जिनके यात्रा वृत्तांतों से हम मध्ययुगीन समाज के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी पाते हैं। अनुमान लगाया जाता है कि इन्होंने करीब 75,000 किलोमीटर यात्रा की होगी। स्टीम इंजन के आविष्कार से पहले इतनी लम्बी यात्रा करने वाला कोई दूसरा नजर नहीं आता। वे भारत भी आये। उनके यात्रा संस्मरणों में तत्कालीन भारतीय राजनीति और समाज की भी झलक मिलती है। वे दिल्ली सल्तनत काल में जब भारत पहुंचे तब यहाँ मोहम्मद बिन तुगलक का शासन चल रहा था। नेशनल बुक ट्रस्ट नेइब्नबतूता की भारत यात्रा या चौदहवीं शताब्दी का भारतनाम से उनके यात्रा वृतान्त को प्रकाशित किया है, जिसका अनुवाद श्री मदनगोपाल ने किया है। यहाँ पर उनके द्वारा तत्कालीन समाज में प्रचलित सती प्रथा, और सती होने की प्रक्रिया के वर्णन को उद्धृत किया जा रहा है जिससे दिखता है कि यह प्रथा किस कदर अमानवीय थी।

मैं शेख महाशय के डेरे से लौटने पर क्या देखता हूं कि जिस स्थान पर हमने तम्बू लगाये थे उस ओर से लोग भागे चले जाते हैं। इनमें हमारे आदमी भी थे, पूछने पर उन्होंने उत्तर दिया कि एक हिन्दू का देहान्त हो गया है, चिता तैयार की गयी है और उसके साथ उसकी पत्नी भी जलेगी। उन दोनों के जलाए जाने के उपरान्त हमारे साथियों ने लौटकर कहा कि वह स्त्री तो लाश से चिपट कर जल गयी।

एक बार मैंने भी एक हिन्दू स्त्री को बनाव-सिंगार किये घोड़े पर चढ़कर जाते हुए देखा था। हिन्दू और मुसलमान इस स्त्री के पीछे चल रहे थे। आगे-आगे नौबत बजती जाती थी और ब्राह्मण (जिनको यह जाति पूजनीय समझती है) साथ-साथ थे। इस घटना का स्थान सम्राट की राज्य सीमा के अंतर्गत होने के कारण बिना उनकी आज्ञा प्राप्त किये जलाना संभव नहीं था। आज्ञा मिलने पर स्त्री जलाई गयी। कुछ काल पश्चात मैं ‘अबरही’ नगर में गया, जहाँ के निवासी अधिक संख्या में हिन्दू थे पर हाकिम मुसलमान था। इस नगर के आसपास के कुछ हिन्दू ऐसे भी थे, जो बादशाह की आज्ञा की अवहेलना किया करते थे। इन्होंने एक बार छापा मारा, आमिर (नगर का हाकिम) हिन्दू मुसलमानों को लेकर इनका सामना करने गया तो घोर युद्घ हुआ और हिन्दू प्रजा में सात व्यक्ति खेत रहे। इनमें से तीन के स्त्रियाँ भी थीं और उन्होंने सती होने का विचार प्रकट किया। हिन्दुओं में प्रत्येक विधवा के लिए सती होना आवश्यक नहीं है परन्तु पति के साथ स्त्री के जल जाने पर वंश प्रतिष्ठित माना जाता है और उसकी भी पतिव्रताओं में गणना होने लगती है। सती न होने पर विधवा को मोटे-मोटे वस्त्र पहनाकर महाकष्टमय जीवन तो व्यतीत करना ही पड़ता है साथ ही वह पतिपरायण भी नहीं समझी जाती।

हाँ, तो फिर इन तीनों स्त्रियों ने तीन दिन तक खूब गाया-बजाया और नाना प्रकार के भोजन किये, मानो संसार से विदा ले रहीं हों। इनके पास चारों ओर की स्त्रियों का जमघट लगा रहता था। चौथे दिन इनके पास घोड़े लाये गए और ये तीनों बनाव-सिंगार, सुगंधी लगाकर उन पर सवार हो गयीं। इनके दाहिने हाथ में एक नारियल था, जिसको ये बराबर उछाल रहीं थी और बाएं हाथ में एक दर्पण था, जिसमें ये अपना मुख देखती थी। चारों ओर ब्राह्मणों तथा सम्बन्धियों की भीड़ लग रही थी। आगे-आगे नगाड़े तथा नौबत बजती जाती थीं। प्रत्येक हिन्दू आकर अपने मृत माता-पिता-बहिन-भाई तथा अन्य सम्बन्धी या मित्रों के लिए इनसे प्रणाम कहने को कह देता था और ये ‘हाँ-हाँ’ कहती और हंसती चली जाती थी।

मैं भी मित्रों के साथ यह देखने को चल दिया कि ये किस प्रकार से जलती हैं। तीन कोस तक जाने के पश्चात हम एक ऐसे स्थान में पहुंचे जहाँ जल की बहुतायत थी और वृक्षों की सघनता के कारण अन्धकार छाया हुआ था। यहाँ चार गुम्बद (मंदिर) बने हुए थे और प्रत्येक में एक मूर्छित प्रतिष्ठित थी। इन चारों (मंदिरों) के मध्य में एक ऐसा सरोवर (कुंड) था, जिस पर वृक्षों की सघन छाया होने के कारण धूप नाम को भी न थी।

घने अन्धकार के कारण यह स्थान नरकवत प्रतीत हो रहा था। मंदिरों के निकट पहुँचकर इन स्त्रियों ने स्नान किया और कुंड में डुबकी लगाई। वस्त्र, आभूषण आदि उतारकर रख दिए और मोटी साड़ियाँ पहन लीं। कुंड के पास नीचे स्थल में अग्नि दहकाई गयी। सरसों का तेल डालने पर प्रचंड शिखाएँ निकलने लगीं। पन्द्रह पुरुषों के हाथों में लकड़ियों के बंधे हुए गट्ठे थे और दस पुरुष अपने हाथों में बड़े-बड़े लकड़ी के कुंदे लिए खड़े थे। नगाड़े-नौबत, शहनाई बजाने वाले स्त्रियों की प्रतीक्षा में खड़े थे। स्त्रियों की दृष्टि से बचाने के लिए लोगों ने अग्नि को एक रजाई की ओट में कर लिया था परन्तु इनमें से एक स्त्री ने रजाई को बलपूर्वक खींचकर कहा कि क्या मैं नहीं जानती कि यह अग्नि है, मुझे क्या डराते हो? इतना कहकर वह अग्नि को प्रणाम कर तुरंत उसमें कूद पड़ी, बस नगाड़े, ढोल, शहनाई और नौबत बजने लगी। पुरुषों ने अपने हाथों की पतली लकड़ियाँ डालनी प्रारंभ कर दी और फिर बड़े-बड़े कुंदे भी डाल दिए गए जिससे स्त्री की गति बंद हो जाए। उपस्थित जनता भी चिल्लाने लगी। मैं इस हृदय-द्रावक दृश्य को देखकर मूर्छित हो घोड़े से गिरने को ही था कि मेरे मित्रों ने मुझे संभाल लिया और मेरा मुख पानी से धुलवाया और होश में आकर मैं वहां से लौट आया।

इब्नबतूता की भारत यात्रा या चौदहवीं शताब्दी का भारत’ से साभार
(Eyesight description of Sati Dahan)

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