सऊदी अरब और मलेशिया : दो अनुभव

मौलश्री जोशी

पिछले कुछ वर्षों में नौकरी के सिलसिले में मलेशिया और सउदी अरब जाना हुआ। दोनों ही देश इस्लामिक हैं परन्तु दोनों देशों के रहन-सहन और महिलाओं की परिस्तिथितियों में एक विरोधाभास महसूस हुआ। 2009 में मेरा सउदी अरब जाना हुआ जब मेरे पति अमित वहाँ एक विश्वविद्यालय में दो वर्ष के लिए पढ़ाने गए। मैं सिर्फ कुछ माह के लिए छुट्टियाँ बिताने के लिए वहाँ गयी। हवाई अड्डे पर अमित मुझे लेने आये और साथ लाये एक अनोखा तोहफा -बुरका जिसे वहां की भाषा में आबाया कहते हैं। सउदी अरब के कई अचम्भित करने वाले नियमों में एक नियम यह है कि कोई भी महिला वहाँ बिना आबाया पहने सार्वजनिक स्थान पर नहीं जा सकती। वहाँ की महिलाएँ सर से पैर तक काले लिबास में ढकी रहती हैं। कुछ नजर आता है तो बस उनकी आँखें। आप्रवासी महिलाओं के लिए सर ढकना अनिवार्य नहीं है- हाल ही में जब अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अपनी पत्नी मेलानिया के साथ सऊदी अरब की यात्रा पर थे तो मेलानिया भी सउदी की इस परंपरा को निभाते दिखी थीं।

अभी मुझे सउदी अरब में कुछ घंटे ही हुए थे कि चेतावनी के रूप में एक और नियम सामने आया। वहां पर किसी भी महिला को अकेले सार्वजनिक स्थान पर जाने की इजाजत नहीं। सउदी अरब में महिलाओं का खुद कोई अस्तित्व नहीं। एक महिला की पहचान उसके पति, पिता या पुत्र से है जो उसके संरक्षक माने जाते हैं। महिलाओं को न मत डालने का अधिकार है, न ही वाहन चलाने का। यहाँ तक कि महिलाएँ पहचान पत्र भी नहीं बनवा सकतीं क्योंकि उनको अपना चेहरा दिखाने की पाबन्दी है। हालांकि इधर कुछ वर्षों में वहाँ की महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद की है परन्तु अब भी आजादी उनसे कोसों दूर है। बिना संरक्षक के यदि कोई महिला सार्वजनिक स्थान पर दिखे तो उसको धार्मिक पुलिस (मुतव्वा) गिरफ्तार कर लेती है। संरक्षक सिर्फ पति, पिता, पुत्र या सगा भाई ही हो सकते हैं। अन्य पुरुष रिश्तेदार इस दायरे में नहीं आते।  यह नियम मेरे लिए कुछ कष्टकारी था क्योंकि अमित तो सुबह से शाम तक अपने काम में व्यस्त रहने के कारण मुझे बाहर नहीं ले जा सकते थे और मेरे पहाड़ों में घूमने वाले पैर भला कैसे इस बंदिश को सहते तो मैंने सोचा कि मेरा नौ वर्ष का पुत्र तो है मेरे साथ, क्यों न उसके साथ बाहर घूमने चली जाऊँ। तो मैं निकल पड़ी एक दिन अपने नन्हे को लेकर। शाम को अपने इस कारनामे के लिए बड़ी फटकार लगी क्योंकि संरक्षक को कम से कम 18 वर्ष का होना जरूरी होता है। एक दिन दोपहर को खाना बनाते समय हाथ पर कांच लग गया और नस कटने की वजह से कुछ ज्यादा ही खून बह गया और मरहम पट्टी करने पर भी खून बहना बंद नहीं हुआ। अस्पताल घर के पास ही था, तुरंत जा सकती थी, परन्तु संरक्षक की अनुपस्थिति में जाती तो अस्पताल की जगह जेल पहुँच जाती।
(Experience : Saudi Arabia and Malaysia)

सउदी अरब में सार्वजनिक स्थानों पर पुरुष और महिलाएँ एक साथ इकट्ठा न हों, इसके लिए खास इंतजाम रहता है। जैसे, यदि कोई पुरुष अपनी पत्नी के साथ किसी रेस्टोरेंट में जाए तो उसको अलग बंद हिस्से में बैठना पड़ता है पर यदि वह पुरुष अकेले जाये तो बैचलर सेक्शन में बैठता। कुछ इसी तरह समुद्र तट के भी दो हिस्से होते हैं- एक फेमिली सेक्शन और दूसरा बैचलर सेक्शन। सउदी के समुद्र तट भी वहाँ के रेगिस्तान की तरह सुनसान और वीरान ही होते हैं- न बच्चों का कोलाहल, न लहरों के साथ खेलते हुए लोगों का शोरगुल, हर तरफ एक सन्नाटा-सा पसरा रहता है। कई बार जब मैं वहां की महिलाओं को देखती तो उनकी जिन्दगी के बारे में जानने की उत्सुकता होती, कि वे क्या सोचती हैं, क्या महसूस करती हैं, कैसी दिखती हैं पर उनके आबाया के पार सिर्फ उनकी गहरे काजल और लाइनर से सजी पर कुछ खाली-खाली आँखें ही नजर आतीं।

कुछ समय से सउदी अरब में महिलाओं से सम्बंधित कानून में परिवर्तन किये जाने की कोशिश की जा रही है। महिलाओं को गाड़ी चलाने का अधिकार कई वर्षों के संघर्ष के बाद 2017 में दिया गया हालांकि इसे लागू जून 2018 में किया जायेगा। 2015 में महिलाओं ने पहली बार चुनाव में अपने मताधिकार का प्रयोग किया। अब भी कुछ अधिकारों से महिलाएं वंचित हैं जैसे बिना पुरुष की सम्मति से बड़े फैसले लेना। 2017 में सउदी के शासक ने नियम जारी किया कि महिलाओं को विश्वविद्यालय में दाखिला लेने या शल्य चिकित्सा करवाने के लिए खुद निर्णय लेने का हक है पर बाकी बड़े फैसले अब भी पुरुषों की सहमति के बिना लेना संभव नहीं है। सउदी अरब में महिलाएँ पुरुषों के किसी भी खेल को देखने स्टेडियम नहीं जा सकती। पिछले वर्ष इस नियम में भी राहत दिखाते हुए सउदी के शासकों ने महिलाओं को स्टेडियम जाने की इजाजत दी। इस लिहाज से 2017 सउदी की महिलाओं के लिए एक महत्वपूर्ण साल साबित हुआ है। परन्तु अभी भी बहुत कुछ बाकी है। महिलाओं और पुरुषों का साथ उठना-बैठना अभी तक र्विजत है। कुछ वर्ष पहले एक खबर आयी थी कि एक महिला अपने सहकर्मी के साथ स्टारबक्स में काफी पीने चली गयी। तभी वहां आकर पुलिस ने उसको गिरफ्तार कर लिया। अब भी महिलाएं वहां अपनी मर्जी के वस्त्र नहीं पहन सकतीं, सार्वजनिक स्विमिंग पूल में तैर नहीं सकतीं, अब भी पासपोर्ट पर उनके पुरुष अभिभावक के हस्ताक्षर जरूरी हैं, तलाक के बाद बच्चों की कस्टडी नहीं ले सकतीं, अपना बैंक अकाउंट नहीं खोल सकतीं। बलात्कार की शिकार महिलाओं को अपने पर हुए गुनाह साबित करना नामुमकिन होता है क्योंकि एक महिला की गवाही पुरुष की गवाही से कम मानी जाती है अधिकतर ऐसे मामलों में पीड़ित महिला को ही कोड़ों की मार सजा के रूप में खानी पड़ी है। सउदी की महिलाओं को अब भी अपने हक के लिए बहुत संघर्ष करना बाकी है। एक महिला होने के नाते मैं तो ये ही दुआ करुँगी कि वहाँ की महिलाओं को उनके सारे अधिकार जल्दी ही मिलें।

एक अलग ही दुनिया है सउदी अरब,सोने के पिंजरे की तरह जिसमें दुनिया की सभी सुख सुविधाएं होने के बाद भी एक सूनापन है। वहाँ रहकर मुझे अहसास हुआ कि हम कितने भाग्यशाली हैं कि ऐसे देश में जन्मे जहाँ ऐसी कोई बंदिश नहीं और खुली हवा में साँस लेने की आजादी है।
(Experience : Saudi Arabia and Malaysia)

2010 में मुझे और अमित को मलेशिया के एक विश्वविद्यालय में नौकरी करने का अवसर मिला। सउदी अरब की ही तरह मलेशिया भी मुस्लिम बहुल देश है। जाते समय मन में तरह-तरह के विचार आये। एक बार सोचा कि न जाऊँ। कहीं वहाँ भी सउदी की भांति बंदिशें होंगी तो कैसे रह पाऊँगी। पर क्योंकि अमित सिर्फ एक वर्ष के लिए ही वहाँ रहने वाले थे तो सोचा कि एक वर्ष तो कट ही जायेगा। मगर मलेशिया में रहना मेरे लिए एक बहुत ही सुखद अनुभव साबित हुआ। वहाँ की परिस्थितियाँ सऊदी से बिलकुल भिन्न हैं। मलेशिया एक बहुसांस्कृतिक और बहुजातीय समाज का आदर्श उदहारण है जहां अलग-अलग मजहब के लोग शांति से रहते हैं। जगह-जगह पर कई खूबसूरत हिन्दू और बौद्घ मंदिर हैं और किसी प्रकार की धार्मिक रोक-टोक नहीं है। मलेशिया में न केवल ईद पर बल्कि दीवाली, पोंगल, बुद्घ पूर्णिमा और क्रिसमस पर भी सार्वजनिक अवकाश होता है और इन सभी त्योहारों को धूमधाम से मनाया जाता है। दीवाली पर जैसी आतिशबाजी मैंने मलेशिया में देखी, वैसी तो शायद भारत में भी नहीं देखी थी। मलेशिया के लोग बड़े ही खुशदिल और सरल प्रकृति के होते हैं और महिलाओं का बेहद सम्मान करते हैं। वहाँ की महिलाओं पर किसी प्रकार की बंदिश नहीं है। अधिकतर सरकारी संस्थानों में महिलाएँ ही काम करती दिखती हैं। महिलाएं गाड़ी चलाती हैं,  टैक्सी चलाती हैं यहाँ तक कि राजनीति में भी बेहद अहम भूमिका निभाती हैं। मैं मलेशिया में छ: वर्ष से भी अधिक रही। परन्तु कभी भी मुझे किसी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा। बल्कि इतने वर्षों में मलेशिया मेरे लिए मेरा दूसरा घर बन गया। मलेशिया में रहते हुए कुछ वहां के रीति-रिवाजों को समीप से देखने का भी दिलचस्प अनुभव हुआ। एक बार मैं एक विवाह समारोह में शामिल हुई। दूल्हे के आगमन पर ढोल-नगाड़े वहाँ भी बजाये जाते हैं। दूल्हे को जब छाता ओढ़ाकर लाते देखा तो अपने कुमाऊं की शादी याद आ गयी। वापस आते समय मेजबान परिवार से एक मिठाई का-सा डब्बा मिला। खोलकर देखा तो उसमें बड़ी खूबसूरती से सजाये गए दो उबले अंडे थे। जिस प्रकार हमारे समाज में शादी के घर से आते समय मेहमानों को मिठाई या हमारे पहाड़ में गोला देने का रिवाज है, वहाँ उबले अंडे देने का रिवाज है। वहाँ अंडा फर्टिलिटी का द्योतक माना जाता है जिसकी वजह से शादी के मौके पर उसकी वही अहमियत होती है जो मोतीचूर के लड्डू की हिंदुस्तानी शादी में होती है। 

आज भी जब मैं अपने मलेशिया प्रवास के दिनों को याद करती हूँ तो मन खुशी से भर जाता है। सउदी अरब एक ऐसा रेगिस्तान था जहाँ बेशकीमती हीरे-मोती बिखरे पड़े थे, पर उसकी वीरान खूबसूरती कुछ समय बाद मन को अकेलेपन और अवसाद से भर देती थी। वहीं मलेशिया एक रंग-बिरंगे गुलदस्ते की भांति था, जिसे बार-बार देख कर भी मन न भरे।
(Experience : Saudi Arabia and Malaysia)

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