एवरेस्ट के लिए अभियान : पर्वतारोहण-23

चन्द्रप्रभा ऐतवाल

25 अप्रैल को सुबह उठकर तैयार हुई और आस-पास के मोरेन में घूमने लगी। आज और दिनों से जल्दी नींद खुल गयी तो डायरी लिखने बैठ गयी। आज सभी आक्सीजन मास फिट करने के बारे मे सीखने लगे, फिर उसे पहनकर थोड़ी देर तक चलते रहे और फोटो भी खींचे, किन्तु 3 बजे से मौसम खराब होना शुरू हो गया।

27 अप्रैल को जैसे ही उठी तो हमारे सदस्य और लीडर को आइस फाल की तरफ घूमने जाते देखा। मेरा भी मन किया। अत: नन्दू के साथ चल पड़ी। रास्ते में लीडर मिले। आइस फाल काफी बदल गया था। थोड़ी दूर जाने के बाद वापस आयी। आज ‘‘इगल फ्रास’’ (इगल का चरमरा) वालों के फोटो खींचे गये। मौसम आजकल जल्दी खराब हो रहा था।

29 अप्रैल को आक्सीजन मास्क पहनकर टेस्ट करने चल पड़े। पर मास्क में पूरा पानी भर रहा था। समझ में नहीं आया कि इस प्रकार कब तक आगे बढ़ना है, फिर काफी दूर जाने के बाद वापस आये। रास्ते में लीडर मिले और कहने लगे कि आगे बढ़ो। कुछ दूर जाने के बाद हमने अपना आक्सीजन मास्क दिखाया तो कहने लगे कि शायद मास्क में कुछ कमी है। इस प्रकार आधार शिविर वापस आये। थोड़ी देर में देखते हैं कि सारे सामान पहुंचाने वाले शेरपा वापस आ रहे हैं। पता चला कि आइस टूटने के कारण सारा रास्ता खराब हो गया है। बर्फ की दरार ज्यादा फट गयी है। 3़.30 बजे वाकी-टाकी से पता चला कि लपसंघ, मगन, अंगदोर्जी साउथ कौल (चतुर्थ शिविर) पहुंच गये हैं। सभी बहुत खुश हुये। रात खाने पर लीडर ने निर्णय किया कि पहला चोटी फतह दल 5 मई को और दल 8 मई को रवाना होगा। सभी को बड़ी खुशी हुई। इस खुशी के लिये पार्टी हुई।

30 अप्रैल को आराम करने हेतु लबूचै के लिये 7.30 पर रवाना हुये। गोरकचै तक तो केवल दो ही पथारोही मिले। उसके बाद बम्बई का 19 सदस्यों का दल मिला जिनमें विदेशी लोग भी थे। ग्रेगरी नामक ब्रिटिश 31 वर्ष पहले भी यहां आ चुका था। ये लोग गोम्बू व तन्जींग को जानते थे। आज बहुत से नये लोगों के चेहरे देखने को मिले। रास्ते में हंसते, बातें करते हुए 9.30 पर लबूचै पहुंचे। आज पहली बार नमकीन चाय पी। खाने का टेस्ट भी अच्छा लग रहा था। यहां पर लोगों की काफी भीड़-भाड़ थी।

1 मई को लबूचै में अच्छी नींद आयी। 7 बजे उठकर आराम से नाश्ता किया, फिर चट्टानी क्षेत्र तक घूमने गयी। बड़ा अच्छा लग रहा था। यहां काफी झाड़ियां थी। यहां पर एक स्मारक बना हुआ था, उसका फोटो खींचा। बेचारा कहां का था और मरने के लिये लबूचै आया। उसकी आत्मा को शान्ति मिले, सोचकर प्रार्थना करने लगी। आज चट्टान आरोहण भी किया। लबूचै में खाना भी खाया जा रहा है और नींद भी अच्छी आयी। मौसम साफ था, अत: हर काम करने में अच्छा लग रहा था। दिन के वक्त समय काटने के लिये सभी लोग अलग-अलग समूह बनाकर कोटपीस खेलते रहे।

2 मई को रीता व बचेन्द्री आधार शिविर जाने की तैयारी करने लगे। कर्नल प्रेमचन्द फिरोचै से नहीं आये थे। अत: मैं अभी लबूचै में ही थी। आज शोराव गांधी की पथारोहण पार्टी आयी, काफी अच्छा लगा। इसी से लगता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। काफी देर तक उन लोगों से बातें की। कुछ सदस्य आधार शिविर चले गये और कुछ नीचे से आये नहीं थे तो मुझे काफी उदासी सी लग रही थी। मैं बच्चों को चिट्ठी लिखने में अपना समय काट रही थी। थोड़ी देर तक चट्टानी चोटी की ओर चली गयी। जैसे ही कर्नल प्रेमचन्द के दल को देखा, वापस आयी। लॉज में भीड़-भाड़ बहुत थी, पर सभी अपने में मस्त थे।

3 मई को लबूचै से आधार शिविर के लिये रवाना हुये। रास्ते में बम्बई के पथारोहण दल में एक 10 वर्ष का बच्चा भी था। बच्चा बहुत स्मार्ट था, पर चढ़ाई में थक जाता है। वे लोग गोरखचै में ही रुक गये। हम लोग आधार शिविर आये। खाने के बाद पेट दर्द सा करने लगा, पर बाद में ठीक हो गया।
(Everest’s unconquerable victory)

4 मई को समिट दल के बारे में बताया गया। प्रथम समिट दल में कर्नल प्रेमचन्द, रीता व अंगदोर्जी तथा द्वितीय समिट दल में मुझे और फुदोर्जी को रखा गया। लीडर चाहते तो अनुभव और उम्र के हिसाब से मुझे प्रथम दल में रखते, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। अब मैं अपने सामान की तैयारी में लग गयी।

5 मई को सभी अपने दल के साथ 5.30 पर रवाना हुये। आज बोझ कम था, अत: सभी एक लाइन से चलने लगे। अचानक मीनू का क्रेम्पोन मेरी आंख के ऊपर लग गया। थोड़ी देर तक तो समझ में ही नहीं आया, पर जब खून आने लगा, तब जाकर मीनू माफी मांगने लगा। मैं सोच रही थी कि आज का मुहुर्त अच्छा नहीं हुआ। अपने मन को मारती हुई चली जा रही थी। प्रथम शिविर में पहुंचकर फिल्मवालों ने सब के काफी फोटो खींचे और इन्टरव्यू लिये। बहुत सारे फोटो लेने के बाद हम लोग द्वितीय शिविर के लिये चल पड़े। रीता को उल्टी होनी शुरू हो गयी। वह द्वितीय शिविर में पहुंचकर भी उल्टी करने लगी। रात आराम से खाना खाकर सो गये।

6 मई को सुबह 700 बजे तृतीय शिविर के लिये रवाना हुए। रास्ते में आराम से चल रही थी, पर जैसे ही लगाई हुई रस्सियों में पहुंची, अपनी स्पीड बढ़ गयी। तृतीय शिविर में ठीक समय पर पहुंच गयी थी। फुदोर्जी ने बहुत अच्छा सूप पिलाया। स्लीपिंग बैग खोल लिया था पर सोचा कि पहले बाहर होकर आऊं लेकिन जैसे ही बाहर गयी, मेरा पैर फिसल गया पर भगवान की कृपा से टेन्ट की रस्सी हाथ में आ गयी और उसे पकड़कर बच गयी। थोड़ी देर तक तो घबराहट होने लगी, क्योंकि हमारा तृतीय शिविर बर्फ को काटकर ढलान पर बनाया गया था। बर्फ गिरनी शुरू हो गयी थी, फिर आक्सीजन लगाकर सो गये। मैने पहली बार आक्सीजन लगाया था, अच्छा लग रहा था। रात अच्छी नींद आयी और सब कुछ सामान्य चल रहा था।

7 मई को तृतीय शिविर से साउथ कौल के लिये चल पड़े। तृतीय शिविर से लेकर साउथ कौल तक रस्सियां लगा रखी थीं। अच्छा लग रहा था, क्योंकि सुबह मौसम साफ था। बीच में यलो बैण्ड पड़ता है जहां चट्टान साफ दिखाई देती है। यलो बैण्ड ब्लाक पर्वत का हिस्सा है। इसकी सभी चट्टानें पीली हैं। इस कारण इसका नाम यलो बैण्ड पड़ गया। देखने में बड़ा अच्छा मोड़दार पर्वत है। इसके बाद बर्फ ही बर्फ है। अब हम जनेवा स्पर की तरफ बढ़ रहे थे। जनेवा स्पर पर काली चट्टान थी। कहते हैं कि जनेवा के लोग बहुत साल पहले यहां तक आकर वापस चले गये थे। इसी कारण इसका नाम जनेवा स्पर पड़ गया। यहां पर बहुत से टूटे हुए टेन्ट दिख रहे थे। यहां से बर्फ पड़नी शुरू हो गयी थी।

यलो बैण्ड से थकान शुरू हो गयी। हमने आक्सीजन लगा लिया था। जिससे हल्कापन महसूस हो रहा था, किन्तु बर्फ पड़ने के कारण चश्मे में बर्फ जमा हो जाती थी, जिससे चलने में तकलीफ हो रही थी और बार-बार चश्मे की बर्फ को साफ करना पड़ता था। अत: बिना चश्मे के ही चलने लगी। मौसम खराब होने के कारण आंखों में दर्द नहीं हुआ। यदि धूप में इस तरह की हरकत करती तो आंख जरूर खराब हो जाती। बर्फ के साथ ही साथ साउथ कौल पहुंचे। काफी थके हुए थे। शाम को फुदोर्जी व अंगदोर्जी ने हमारी सेवा की। सत्तू का सूप मिला और एक थरमस गर्म पानी देकर चले गये। रीता को रात में भी उल्टी होने लगी। रात आक्सीजन लगाकर सोने की कोशिश कर रहे थे, पर नींद ही नहीं आ रही थी। शायद अधिक थकान व ऊंचाई के कारण नींद न आयी हो।
(Everest’s unconquerable victory)

8 मई को अग्रिम दल को चोटी फतह करनी थी। अत: रीता का दल चल दिया। मैं और फुदोर्जी तैयार होकर बाहर निकले। मैं धीरे-धीरे चल रही थी। अग्रिम दल सामने दिख रहा था। हम भी उन्हीं के पीछे उसी रास्ते से चलते गये। कहीं पर भी रस्सियां नहीं लगी थी और नीली बर्फ जगह-जगह थी। बर्फ की दरार मुझे डरा रही थी। अभी मौसम अच्छा था। ऐसा लग रहा था सारे पहाड़ बादलों के बीच में हैं और एक बादलों वाला क्षेत्र पहाड़ों के ऊपर है। इस प्रकार नीचे की ओर आसमान ही आसमान सा लग रहा था।

साउथ कौल एक मैदानी क्षेत्र है जो चारों ओर फटे टेन्ट और आक्सीजन के सिलिण्डरों के ढेर का कचरा था। एक जगह आराम से फुदोर्जी व मैं बैठे और लीडर से द्वितीय शिविर पर बात की। फुदोर्जी ने मुझे छिरबी खिलायी। किन्तु थोड़ी दूर जाने पर मेरा आक्सीजन खत्म हो गया। अत: बिना उसे बदले ही बिना आक्सीजन के चलती चली गयी। वहां जाकर टेन्ट के लिये जगह बनाने लग गयी। इतने में कर्नल प्रेम लीडर से वाकी-टाकी पर कहने लगे कि मैं और चन्द्रा साउथ कौल वापस आ रहे हैं, क्योंकि रीता व फुदोर्जी अधिक फिट हैं। मेरी आंखों से एकदम आंसू बहने लगे, पर मुंह से एक शब्द नहीं निकला। कर्नल कहने लगे, रोती हो। खैर किसी तरह वापस आने के लिये उन लोगों से हाथ मिलाया और वापस हो गयी। जबकि मैं 200 फीट से अधिक की दूरी बिना आक्सीजन के चल रही थी और टेन्ट के लिये जगह बनाई, फिर भी मैं कर्नल को अनफिट लगी। बड़ा ही दु:ख हुआ। ऐसे समय पर मेरे साथ क्या बीती होगी, यह शब्दों में लिखना कठिन है। कर्नल प्रेम कहने लगे कि त्याग करना भी एक चीज है, पर कैसा त्याग ? जबकि कर्नल के दल को 8 मई को समिट करना था और हमारे दल को 9 मई को समिट करना था। अभी 9 मई आयी ही कहां थी। योजना के अनुसार अन्तिम शिविर में फुदोर्जी और मुझे रहना था और 9 मई को फतह करना था।

खैर धीरे-धीरे साउथ कौल वापस आये। बेचारे एन.डी. साउथ कौल में पानी पिलाने लगे। मैंने कहा, नहीं पीना, तो कर्नल प्रेम कहने लगे, मुझे नखरे पसन्द नहीं। उनके रूखे व्यवहार से मुझे बहुत दु:ख पहुंच रहा था, पर अपना दु:ख व्यक्त करने को कोई नहीं था। अत: क्रेम्पौन खोला और अपने आप टेन्ट में चली गयी, पर आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे और अभी तक मैने आक्सीजन नहीं लगाया था। आक्सीजन लगाने का मन भी नहीं कर रहा था और काफी निराशा छा रही थी। बहुत सी बातें सोचती जाती थी। इस प्रकार 6.30 का समय हो गया और मौसम भी खराब होता जा रहा था। अब बचेन्द्री को लेने एन.डी. आक्सीजन लेकर यलो बैण्ड तक गया, तब साथ लेकर आया। मगन को भी काफी ठण्ड लग रही थी। उससे अपने पैर मेरी पीठ पर मलने को कहा, जिससे उसकी ठण्ड दूर हो जाय और हाथ मलती रही। रात हम लोगों के पास स्लीपिंग बैग भी नहीं था। अपने फैदर सूट को पहनकर ही लेटे रहे। बचेन्द्री को बहुत ठण्ड लग रही थी और कांप भी रही थी, पर हम क्या कर सकते थे, उसे अपनी ओर आने को कह रही थी। रात आराम से सो गयी।

9 मई को अब पूर्ण रूप से वापस जाना है, यह सोचकर अपने को तैयार कर लिया। सुबह उठकर सामान ठीक किया और तैयार होकर बाहर निकली। बाहर हवा तेज चल रही थी। इस तरह दो-तीन बार बाहर आयी, पर कोई तैयार नहीं थे। फिर हवा से बचने के लिये अन्दर टेन्ट में घुस जाती थी। अन्त में मकालू को पुकारकर वापस जाने के लिये पूछा तो उसने कहा मैं वापस जाऊंगा, पर बाहर नहीं निकला। इस तरह मैं बार-बार बाहर-अन्दर कर रही थी। अन्त में मगन, बचेन्द्री सभी तैयार होकर टेन्ट से बाहर आये। अन्दर-बाहर करते हुए बिना आक्सीजन के मैं काफी थक गयी थी। मैंने अपने रूकसेक से टीड बैग निकालकर रास्ते में ही फैंक दिया। ऐसे समय में इन्सान को जान ही प्यारी होती है। इतने में यलो बैण्ड के पास मेरा क्रेम्पौन खुल गया। एक ही क्रेम्पौन से यलो बैण्ड में खड़ा होना मुश्किल हो रहा था। मकालू ने मेरी मदद की। अब रूकसेक उठाकर चलना ही मुश्किल हो रहा था। क्योंकि धूप तेज थी और थकान अधिक। मकालू को 200 रु. दिये, तब वह मेरा रूकसेक तृतीय शिविर तक उठाकर लाया और मेरी सेवा भी करने लगा।
(Everest’s unconquerable victory)

तृतीय शिविर में पहुंचने से पहले रस्सी पर एक आदमी को आते हुए देखा। मैने सोचा रतन सर होंगे। पानी लेकर हमारे लिये आ रहे होंगे, पर कोई भी व्यक्ति पास में नहीं पहुंचा। खैर किसी तरह तृतीय शिविर पहुंचे। कर्नल प्रेम टेन्ट के अन्दर बैठे थे। थोड़ा जूस पीकर आराम किया। फिर द्वितीय शिविर के लिये रवाना हो गये। द्वितीय शिविर में सभी आराम से बैठे हुए थे। किसी को थोड़ी दूर तक आने का मतलब ही नहीं बनता था। पता नहीं आजकल के कैसे पर्वतारोही है। मैंने अपने आप को समझाया और यह सोचा कि इनके सामने आंसू नहीं बहाऊंगी। रात बिना स्लीपिंग बैग के 26200 फीट की ऊंचाई पर सोने के कारण पीठ में दर्द हो रहा था। डॉक्टर को बताया पर कुछ भी उत्तर नहीं मिला। खैर रात बोरोलीन से मालिश करती रही। आज नींद ठीक से नहीं आयी और गर्मी बहुत लग रही थी। आज हम 22000 फीट की ऊंचाई पर थे। किसी तरह पानी पीकर रात काटी।

द्वितीय शिविर में पता चला कि अंगदोर्जी और रीता वापस आ गये है और फुदोर्जी ने बिना आक्सीजन के ही चोटी को फतह कर लिया है। सुनकर बड़ी खुशी हुई और अपने भाग्य पर रोना आया। खैर भगवान जो कुछ करता है, अच्छाई के लिये ही करता है। ऐसा सोचकर मन शान्त किया। फुदोर्जी ने बिना आक्सीजन के ही फतह किया। चलो इतने महान व्यक्ति के साथ कुछ देर चलने का मौका तो मिला, यही सोच रही थी।

10 मई को सुबह उठते ही कर्नल प्रेम कहने लगे कि चन्द्रा, चलो आधार शिविर चलते हैं। चलने की तैयारी करो, पर मुझे बहुत रोना आ रहा था, क्योंकि मन में सोच रही थी कि अब मुश्किल से ही आ पाऊंगी। अत: रोती हुई ही किसी से बाते किये बिना सबसे पहले रवाना हो गयी। काफी थकान लग रही थी। प्रथम शिविर में चाय पी और कुछ देर आराम किया, फिर क्रेम्पौन पहनकर बेस के लिये निकल पड़े। अब पैर चलना नहीं चाहते थे पर चलना तो पड़ेगा ही। प्रथम शिविर से आधार शिविर का रास्ता पूरा आइस फाल का था और पूरी तरह ताजी बर्फ से भरा था। पूरे रास्ते में रस्सियां लगी थीं। अत: अपने क्रम्पोन को चेक किया और रस्सी पर क्रैबिनर लगाकर आयी। कहीं-कहीं पर रस्सियां बर्फ में दब गयी थीं, उसे झाड़कर चलती थी। बर्फ नर्म होने के कारण क्रेम्पौन में बॉल बनते जा रहे थे।

इस प्रकार संभलते-संभलते हुए दम प्वाइन्ट पर पहुंचे। वहां बलगेरियन दल का एक सदस्य व शेरपा लोग मिले। शेरपा ने जूस मांगा, बेचारे का जूस बहुत काम आया और आगे बढ़ने लगी। इतने में एक शेरपा पीछे से चिल्लाया चन्द्रा, रूकसेक रख दो, मैं लेकर आऊंगा। बस उसका कहना था कि मैंने रूकसेक रख दिया। इससे काफी आराम मिला। धूप बहुत तेज थी, बर्फ खाने लगी। नरम बर्फ के कारण बॉल बनता ही जा रहा था। इसको झाड़ने में और थकान लगती थी। रास्ते में मीनू जूस लेकर आया। जूस पीकर अच्छा लगा। आज मगन मेरे साथ चल रहा था। उसने मेरा साथ नहीं छोड़ा, जबकि कितनी बार बोल चुकी थी कि तुम आगे निकल जाओ। जैसे ही आधार शिविर पहुंचे, मुझे बहुत ही ज्यादा रोना आया। क्योंकि अपनी पर्वतारोहण की जिन्दगी में पहली बार बिना चोटी फतह किये वापस आ रही थी।
(Everest’s unconquerable victory)

11 मई को बेस शिविर में आज का दिन खाने व सोने का ही रहा। बार-बार फिर से जाने का मन करता था, पर साथ जाने वाला कोई नहीं था। किससे बात करूं और कौन मुझे अपने साथ ले जायेगा, बस यह सोचती रहती थी। अपने पास इतना दम नहीं था कि अकेली ही चलूं। बस सोच-सोचकर ही रह जाती थी। आईस फॉल का इतना कठिन रास्ता है कि अकेली के बस की बात नहीं थी और मुझे सही दिशा दिखाने वाला भी कोई नहीं था। इतनी ऊंचाई पर हिम्मत दिलाने वाले साथी की भी आवश्यकता होती है।

12 मई को बचेन्द्री को फिर से बुलाया गया। मैं चाह कर भी न कह सकी कि मुझे भी जाना है।

13 और 14 मई के दिन बोरियत में ही बीत गये। किरण और जय आज प्रथम शिविर गये। मन कर रहा था कि उनके साथ ही मैं भी जाऊं, पर बोल नहीं सकी। लग रहा था कि अब मैं फिर कभी नहीं जा पाऊंगी। सोच-सोचकर दिमाग शून्य सा हो जाता था। 15 मई को खाने में मीट बना था। हमने मीट खा लिया, पर पता नहीं था कि आज बुद्घ पूर्णिमा है। आधार शिविर में पहाड़ों के बीच से चमकता हुआ चांद बहुत प्यारा लग रहा था। उसकी सुन्दरता का वर्णन शब्दों में नहीं कर सकती। तृतीय शिविर में आइस टूटने के कारण बचेन्द्री लोग भी जा नहीं पाये। एन.डी. शेरपा को चोट लगी थी। इस कारण वापस आ गया। हमारा तृतीय शिविर लगभग खत्म ही हो गया था। लपसंघ भी वापस आ गया।

बचेन्द्री द्वितीय शिविर में ही आराम कर रही थी। 21 मई को द्वितीय शिविर से तृतीय शिविर के लिये रवाना हुये। बचेन्द्री के साथ शेरपा सरदार अंगदोर्जी था। 22 मई को तृतीय शिविर से साउथ कौल के लिये चले, लेकिन सनम पलजोर और लाटु द्वितीय शिविर से सीधे साउथ कौल के लिये चले। इस प्रकार बचेन्द्री, अंगदोर्जी, दोर्जी लाटु और सनम पलजोर ने एवरेस्ट पर विजय पायी। सभी सदस्य खुश थे। चलो हमारा अभियान सफल हुआ। हम लोगों ने शिविर में खुशी मनाई और उनके लौटने की प्रतीक्षा करते रहे। अब शिविर वापसी की तैयारी में लगे रहे। नीचे से सामान ले जाने के लिये याक व कुली आना शुरू हो गये थे। वापसी में किसी प्रकार की परेशानी नहीं हुई।

लबूचै से कर्नल प्रेमचन्द, लपसंघ, फुदोर्जी और मैं गोकियो घाटी के लिये रवाना हुए। यह घाटी बहुत ही सुन्दर है। रास्ते में 19000 फीट के एक दर्रे को पार किया। यहां जगह-जगह पर याक पालने वाले मिले। गोकियो घाटी में रास्ते में एक सुन्दर झील है और गोकियो भी झील के किनारे पर बसा है। यहां याक के प्यारे-प्यारे बच्चे देखने को मिले।

गोकियो घाटी से दूसरे दिन गोकियो चोटी पर चढ़ाई की। गोकियो चोटी से एवरेस्ट, मकालू, चायू आदि सुन्दर चोंटियां दिखाई देती हैं। वापसी में रात में किसी लॉज में रहे। तांगमूचै का दर्शन नहीं कर पाये, क्योंकि हम लोग दूसरी घाटी से नमचै बाजार पहुंचे थे। गोकियो घाटी का सफर बहुत अच्छा था और बहुत से जानवरों को देखने का मौका मिला। भोजपत्र का जंगल भी देखा। फुदोर्जी गोकियो की झील से पानी भरकर लाया। इस प्रकार नमचै बाजार से लोकला तक पैदल आये। लोकला से जहाज द्वारा सीधे काठमांडू पहुंचे। काठमांडू में याक एण्ड यती होटल में ठहरे। यहां सरीन सर ने सब का स्वागत किया। बहुत से सदस्यों के परिवार वाले भी आये हुए थे।

काठमांडू से दिल्ली तक जहाज में आये। दिल्ली में पत्रकार लोग और बड़े-बड़े पर्वतारोही हमें लेने के लिए आये हुए थे। हम सभी बहुत खुश थे।
(Everest’s unconquerable victory)

1991 में बंगाली अभियान के साथ चीन की ओर से एवरेस्ट पर आरोहण करना था। मैं उस अभियान में भी सम्मिलित थी, किन्तु इस अभियान में मौसम ने साथ नहीं दिया। 22 दिन तक मौसम की मार झेलते रहे और 25000 फीट तक चढ़ाई कर पूरा दल वापस आया। इस अभियान का कुछ मलाल नहीं है। सभी सकुशल वापस आ गये थे।

इसके बाद 1993 में नेपाल और भारत के मिश्रित एवरेस्ट अभियान में भी सम्मिलित हुई। इस अभियान में 6 लड़कियों ने एवरेस्ट को पास से देखा। हालांकि शुरू में ऐसा कहा गया था जो 24000 फीट तक रात रहकर आयेगा, उसे चढ़ाई का मौका मिलेगा। मैं 24000 फीट तक एक रात रहकर आयी, पर बाद में लीडर को लगने लगा कि मेरी उम्र अधिक है। इस कारण चोटी आरोहण करना मुश्किल होगा। इस प्रकार तीन बार एवरेस्ट अभियान में सम्मिलित होने के बाद भी एवरेस्ट की चोटी को छूने का मौका नहीं मिला, जिसका मेरे मन में अभी तक मलाल है। मन करता है कि किसी न किसी अभियान के साथ फिर से जाया जाय, पर मौका मिलना बहुत कठिन है। हमेशा मन-मस्तिष्क में एवरेस्ट के विचार चक्कर काटते रहते हैं।

समाप्त
(Everest’s unconquerable victory)

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