जीवनकथा- नौ : आश्रम में पदार्पण

राधा भट्ट

कस्तूरबा महिला उत्थान मंडल कुमाऊँ की मुख्य प्रवृत्ति गाँधीजी प्रणीत नई तालीम का पर्वतीय जीवन के संदर्भ में प्रयोग करना था। इसके लिए लक्ष्मी आश्रम नाम से एक परिसर की स्थापना सरला बहिन जी ने की थी। इस परिसर में बहन जी ने खूब भावपूर्वक मेरा स्वागत किया। वे चाहती थीं कि उनके आश्रम में उत्तराखण्ड की पर्वतीय घाटियों से अनेकानेक बालिकाएँ, युवतियाँ और महिलाएँ आयें।

पहले दिन मैं बाबूजी के साथ आश्रम में पहुँची, दूसरे दिन बाबूजी मुझे वापस घर ले जाने के लिए मनाते रहे। मैं नहीं मानी। वे भावाश्रु बहाते हुए वापस गये। उनके जाने के बाद मैंने एकाध घंटा रोने में बिताया और कुछ समय उदास होकर बिताया। बाद में मैं आश्रम की दिनचर्या में शामिल हो गई। शाम के भोजन के बाद जब बालिकाएँ अपने-अपने कमरों में गृहकार्य (होमवर्क) व डायरी लिख रहीं थीं तब शिक्षिकाओं व कार्यकर्ता बहनों की बैठक बहनजी के कमरे में हुई। मैं भी उसमें गई या यूं कहूँ कि विमला दीदी मुझे अपने साथ ले गईं। मैं शिक्षिका तो नहीं थी पर उनके साथ बैठी। उसी बैठक में बहनजी ने तय किया कि मैं तीसरी कक्षा की दीदी रहूंगी। उन्हें पढ़ाऊंगी। मुझे नई तालीम के बारे में जानना जरूरी था इसलिए बहनजी ने कई पुस्तकों के नाम बताये, जिन्हें पुस्तकालय से मुझे ढूँढना था और पढ़ना था। उन्होंने आश्रम द्वारा लिखा गया नई तालीम शिक्षा क्रम भी मुझे अध्ययन के लिए दिया। उसमें जितना बौद्घिक विषयों की जानकारी दी गई थी उससे भी अधिक जीवन के प्रत्यक्ष कार्यों से मिलने वाली शिक्षा का वर्णन था।

उसके अगले दिन सुबह नाश्ते के बाद विमला दीदी व मैं शिक्षिकाओं के रूप में कुछ बालिकाओं के साथ जंगलों में जलावन की लकड़ियाँ लाने के लिए गईं। विमला दीदी बच्चियों को प्रत्येक वृक्ष, फूल व पत्ती के बारे में कुछ न कुछ बताती जा रही थीं। अन्त में एक ठिठ और उसके बीज यानी स्यूंत के बारे में बताने लगीं। स्यूंत में पंख क्यों होते हैं? बीज कितने प्रकार से फैलते हैं? आदि। मैं सुन रही थी। विमला दी इस प्रकार नई तालीम की पद्घति यानी मूल बुनियाद यानी ‘समवाय’ को दृष्टि देने वाली मेरी प्रथम शिक्षिका सहज में ही बन गईं।

दोपहर बाद ‘मिलन’ यानी ‘असेम्बली’ के बाद अपनी कक्षाओं में अलग-अलग स्थानों पर बालिकाएँ बिखर गईं। मेरी तीसरी कक्षा एक पेड़ के निकट धूप में बैठी, अपने कौतूहल में कहती जा रही थी कि ‘‘हमें नई दीदी पढ़ाने आने वाली है। प्रत्येक कक्षा को उनके पूरे विषय एक ही शिक्षिका पढ़ाती थी। तीसरी कक्षा के साथ तीन बालिकाएँ चौथी कक्षा की भी थीं। इस प्रकार समूह रूप में पढ़ाने की पद्घति यहाँ थी। कुल मिलाकर आठ बालिकाओं का समूह मेरे सामने था। उन्होंने सर्वप्रथम अपनी डायरियाँ मेरे सामने रख दीं, मुझे उन्हें जाँचना था। पर उसी समय नहीं अपने समय में। मैंने जीवन में पहली बार देखा कि डायरी लिखी जाती है। जब मैंने इन बच्चियों की डायरियाँ जाँचने के लिए खोलीं तो मुझे आश्चर्य हुआ कि उनकी अपने चारों ओर के जीवन को देखने-समझने की कितनी अच्छी क्षमता थी। बच्चियों ने ही बताया कि उनकी क्लास में सर्वप्रथम गणित का विषय होगा और बाद में शरीर विज्ञान और अन्त के आधे-पौने घंटे में प्रश्न होंगे। मैं थोड़ा चौंकी कि गणित और शरीर विज्ञान तो मैं समझती हूँ पर यह ‘प्रश्न’ क्या है?’’ उन्होंने ही कहा, बहुत दिनों से ‘प्रश्न’ वाला हमारा विषय नहीं हुआ है, हमारे पास बहुत सारे प्रश्न हैं, हम उन्हें आपसे पूछेंगी।

उनके प्रश्न अनेक थे और अनेक प्रकार के थे। मिट्टी किसने बनाई? आकाश में नीला-नीला क्या है? पेड़ों की पत्तियाँ झड़ क्यों जाती है? आदमी मर कर कहाँ जाता है? अनेक दिशाओं के प्रश्न। मैंने कुछेक के उत्तर दिये पर एक-दो प्रश्नों के बारे में तो कहना ही पड़ा कि किसी से पूछकर या अध्ययन करके कल को तुम्हें बताऊंगी। इस तरह पहले दिन की पढ़ाई पूरी हुई।

बच्चों के साथ उन्हीं की बराबरी में बैठकर पढ़ाने में मजा भी आया और मैंने स्वयं भी बहुत कुछ सीखा। शाम को मैं बच्चों के साथ मैदान में खेलने गई। बिना खेल संसाधनों के खेल में कितना मजा आ सकता है, इसका ये खेल नमूना ही थे। रात के भोजन के बाद हम सभी शिक्षिकाएँ बहनजी के पास बैंठीं। यह बैठना क्या? यह हमारी प्रशिक्षण क्लास ही थी। मुझ जैसी नौसिखिया शिक्षिकाओं को नई तालीम की अच्छी शिक्षिका बना देने का सारा कौशल व ज्ञान इन्हीं बैठकों में दिया जाता था। हम अपना दिनभर का अनुभव या जो हमसे नहीं हो पाया, सब सामने रखतीं थीं और अगले दिन का पाठ पढ़ाने के लिए जो जानता हो, वह भी पूछतीं थीं। बाद में बहिन जी हमें उनके द्वारा संचयनित सामग्री पेश करतीं थीं। विशेषत: प्रकृति, कृषि, गौपालन के अनेक विषयों के नये-पुराने परंपरागत व आधुनिक ज्ञान को हमने उनसे सीखा और उनके नोट्स भी बनाए। उनके पास एक्सिमोज व रेड इण्डियन्स की लोक कथाओं का अच्छा संकलन था, इन्हें भी हम अपनी कापियों में लिख लेतीं और समय आने पर बच्चों को सुनाती थीं। प्रतिदिन ही बहनजी कुछ नया पढ़तीं, कुछ नया संचित करतीं और संदर्भ आने पर हमें परोसतीं।
(Entry in Ashram)

मैं बच्चों को बाग-बगीचे, गौशाला व जंगल में उनके साथ काम करते हुए, रोज ही कुछ सिखाती। कुछ नहीं तो कहानियाँ सुनाती जो मुझे पहले से ही बहुत सारी याद थीं। यहाँ आकर उनमें और भी वृद्घि हो गई थी। बहनजी ने आश्रम के बच्चों के बीच कहानी सुनने-सुनाने का अच्छा स्वाद विकसित किया था। यह मुझे पसन्द था क्योंकि कहानी कहना और उसे इस प्रकार प्रस्तुत करना कि सुनने वालों के सामने एक चित्र जैसा ही उपस्थित हो जाय, मुझे स्वयं भी आनन्ददायी लगता था। मैं आज तो इस निर्णय पर पहुँची हूँ कि बच्चों के आनन्द यानी कहानी, खेल, भ्रमण और उनके साथ उन्ही का जैसा भोजन करने से उनके साथ जो निकटता आती है, उससे शिक्षक की पढ़ाई हुई बातों को बच्चे जल्दी व अच्छी तरह समझते हैं क्योंकि बच्चे शिक्षक के व्यक्तित्व से घुल-मिल जाते हैं और उसके हर शब्द और भाव से परिचित रहते हैं। आश्रम का वातावरण ऐसा ही था। कोई बालिका अपने घर को भी जाती तो आश्रम को छोड़ते हुए रोती थी। उसके जाने में बच्चियाँ भी रोतीं तो उन्हें समझाते हुए हम शिक्षिकाओं की आँखों से भी आँसू टपक पड़ते थे।

सप्ताह या पन्द्रह दिनों में एक बार अपनी कक्षा के साथ हम शिक्षिकाएँ बारी-बारी से अपनी कोसी घाटी (बोरारौ) के गाँवों में जाती थीं। गाँव से विद्यालय और विद्यार्थी का सतत सम्बन्ध बना रहे, यह बहनजी ने आश्रम शिक्षा का आवश्यक अंग मानकर रखा था। बाद में जब आश्रम विस्तृत रूप से पूरे उत्तराखण्ड के विभिन्न ग्राम क्षेत्रों से जुड़ गया तो अपनी घाटी के गाँवों के साथ वह नियमित सम्पर्क कम हो गया था। स्वच्छता, स्वास्थ्य और बच्चों में संस्कार-सृजन हमारी ग्राम सेवा के मुख्य लक्ष्य थे।

हमारी बड़ी कक्षाओं की छात्राओं के साथ मैं गाँव के रास्तों को साफ करती। रास्ते के किनारों पर किये गये शौच को हम फावड़ों से उठाकर एक गड्डे में डालते। कुछ शर्मदार पुरुष हमारे साथ झाड़ू लेकर जुड़ते पर शौच-सफाई को तो कोई भी हाथ नहीं बढ़ाता। कुछ तो ऐसे महिला-पुरुष होते जो हमें देखकर कहते, ‘‘सरला की लड़कियाँ सफाई करने आ गईं, घरों के पास का कचरा भी रास्ते में डाल देते। मुझे उनका यह कृत्य इतनी कोफ्त दे जाता कि मन उन्हें धिक्कारने लगता। पर बहनजी की सलाह तुरन्त याद आ जाती कि हमारी नम्र सेवा उन्हें अवश्य बदलेगी। उनका हृदय परिवर्तन होगा। वे स्वयं अपने परिसर को स्वच्छ रखने लगेंगे। गाँव में मुझे सबसे अच्छा लगता, वहाँ के बच्चों के साथ लगकर उन्हें धारे पर ले जाना, उनके हाथ-मुँह धुलाना और उन्हें सफाई की छोटी-छोटी बातें बताना या खेल खिलाना अथवा कहानी कहना। एक ओर यह बाल-संस्करण प्रवृत्ति चलती दूसरी ओर नारायणी दीदी अपनी छात्राओं की पेटी में से लोगों को आयुर्वेदिक दवाएँ बाँटती व उसी संदर्भ में उन्हें बीमारियों के कारण व उपचार की संक्षिप्त जानकारी भी देतीं। मेरी छात्राएँ इन सबसे कुछ प्रत्यक्ष सीखती थी और कुछ दूसरे दिन क्लास में जाकर प्रश्न करती थीं तब विस्तार से चर्चा करने पर जान लेती थीं।’’

हमारा साप्ताहिक अवकाश उन दिनों शुक्रवार को होता था। जब मेरी कक्षा की बारी आती हम घूमने किसी सुरम्य स्थान पर जातीं। दिनभर के इस भ्रमण में एक तो बच्चों के साथ आत्मीयता बढ़ती दूसरे नये स्थान की प्रकृति व उसके सौन्दर्य की अनुभूति करने का अवसर मिलता। यहाँ आश्रम में आने के बाद भी मैं कविताओं की रचना करती थी। कभी प्रकृति के सौन्दर्य में रचनाकार की अद्भुत कला व्यक्त करती तो कभी स्त्री की अदम्य अप्रकट शक्ति का वर्णन करती। जब देश में भूदान व ग्रामदान का क्रान्तिकारी आन्दोलन प्रारम्भ हुआ तो मेरी उड़ान उसमें व्यस्त हो गई- वह केवल हवाई उड़ान नहीं थी, उसमें वे प्रत्यक्ष अनुभव भी जुड़े थे, जो मैंने इस आन्दोलन के लिए पदयात्राएँ करते हुए प्राप्त किये थे। पदयात्राएँ कभी बहन जी के साथ उत्तराखण्ड के ग्रामों व नगरों की थीं तो कभी आश्रम बालिकाओं के शिक्षण प्रवास के रूप में कुमाऊँ की विभिन्न घाटियों में की थीं। उत्तराखण्ड से बाहर लम्बी पदयात्राएँ पूर्वी उत्तर प्रदेश और असम में बिनोबा जी के साथ की थीं। मैं अपनी कविताओं को आश्रम-विद्यालय की बालिकाओं द्वारा सम्पादित मासिक हस्तलिखित पत्रिकाओें में देती थी। बालिकाएँ भी कविता लिखने लगी थीं और उन्हें मुझे देती थीं कि मैं उन्हें कुछ ठीक कर दूँ। एक दिन बहनजी ने कहा, ‘‘कविताएँ बनाने से मानस कल्पनालोक में ज्यादा रहता है। धरातल पर व्यावहारिक जीवन में ऊर्जा लगनी चाहिए। अत: उस ओर ध्यान कम कर दो।’’ मैंने वही किया। उसके बाद कविताएँ बनाने का क्रम टूट-सा गया। यद्यपि आज भी ट्रेन में यात्रा करते समय मध्यप्रदेश के सघन वनों को देखते ही स्वत: ही कविता की पंक्तियाँ मन से फूट पड़ती हैं, उन्हें लिख भी लेती हूँ, पर संचित नहीं करती। हाँ, तो हम पुन: आश्रम जीवन के उन प्रारम्भिक वर्षों की ओर मुड़ें, जिसमें बहिनजी के मार्गदर्शन में एक ओर मेरा जीवन व व्यक्तित्व समृद्घ सुगठित हो रहा था, दूसरी ओर हमारा परिवार भी गाँधी विचार की ओर अपने सम्भव कदम बढ़ा रहा था। बाबूजी सर्वोदय विचार गोष्ठियों व शिविरों में भाग लेने जाने लगे थे। विचार को व्यवहार में उतारने के प्रयास स्वरूप घर में सर्वोदय पात्र रखा था, जिसमें प्रतिदिन इकट्ठा किया हुआ एक मुट्ठी अन्न वे वार्षिक धन के रूप में लक्ष्मी आश्रम को देते थे। अपने बगीचे से हुई वार्षिक कमाई का भी एक भाग वर्षों तक सम्पत्ति दान के रूप में देते रहे। जब आश्रम की वार्षिक छुट्टियों में किसी बालिका को छुट्टियों में अपने परिवार में जाने की सम्भावना नहीं रहती तो मेरे परिजन उसे छुट्टियों भर अपने साथ अपनी बेटी की तरह रखने को तैयार रहते थे। कुछ बालिकाओं ने अपनी छुट्टियाँ हमारे घर में बिताई थीं। बाबूजी ने जाति भेद को मन से ही नहीं, अपने जीवन से भी निकाल दिया था। मेरी बहनों ने भी आश्रम में आकर आगे की शिक्षा, जीवन कार्य गाँधी विचार की राह पर ले जाने का निश्चय किया। उनके समय में रामगढ़ में लड़कियों को 12वीं तक पढ़ने की सब सुविधाएँ थीं। बाबूजी उन्हें पढ़ाने में सक्षम भी थे व इच्छुक भी थे पर आश्रम जीवन का आकर्षण मेरी बहनों को मेरे साथ खींच लाया था। कारण था कि मैं छुट्टियों में घर जाकर उन्हें बताती थी कि हम कैसे केवल दो-तीन घंटे की कक्षा के अतिरिक्त बगीचे, जंगल व रसोई में मिलकर काम करते हुए सीखते हैं। हम सिलाई, कताई, बुनाई आदि सीखते हैं। कभी पर्वतों के शिखरों या नदियों के किनारे दिनभर घूमने भी जाते हैं, आदि-आदि। सर्वप्रथम मेरी बहन दुर्गेश ने मेरे साथ आने की जिद की। वह चौथी कक्षा में पढ़ रही थी। तब किसी लड़के ने उसे इतनी जोर से थप्पड़ मारा कि उसके एक कान में चोट आ गई। जो कई दिनों तक उसे तकलीफ देती रही। उस कान से उसे कम सुनाई देने लगा। वह सीधी-सरल बालिका थी। वह ऐसे स्कूल में जाने में डर गई और बाबूजी भी उसे वहाँ नहीं भेजना चाहते थे। अत: उसकी मेरे साथ आने की जिद उचित थी। वह आश्रम की एक अच्छी छात्रा सिद्घ हुई क्योंकि वह पढ़ने-लिखने में तो अच्छी थी ही, हस्तकला में भी कुशल थी। इसी प्रकार अन्य बहनों ने आश्रम में समग्र शिक्षा पाकर आश्रम को अपनी सेवाएँ शिक्षिकाओं के रूप दी और उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अपने इरादे भी पूरे किये। उनके जीवन की अपनी-अपनी उपलब्धियाँ हैं, जो एक अलग विषय है, किन्तु किस प्रकार एक परिवार का पूरा वातावरण आश्रम के माध्यम से गाँधी विचार को समर्पित हुआ, मात्र यही मुझे यहाँ पर बताना है।

क्रमश:
(Entry in Ashram)

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