धारा 497 खत्म करने के मायने

कमलेश जैन

सन् 1860 में बनी भारतीय दंड संहिता की धारा 497 विवाहित व्यक्ति द्वारा पराई स्त्री से शारीरिक सम्बन्ध को अपराध मानती है। 497 के अनुसार- ”कोई व्यक्ति, जो यह जानता है कि अनुक स्त्री किसी और की पत्नी है, उसके पति की सहमति या मिलीभगत के बगैर, उससे शारीरिक सम्बन्ध (बलात्कार नहीं) बनाता है तो वह परस्त्री गमन करता है। इसकी सजा ज्यादा से ज्यादा 5 वर्ष या जुर्माना या दोनों हो सकती है। इस अपराध में वह स्त्री अपराध को उकसाने वाली के बतौर सजा की पात्र नहीं है।”

साधारण शब्दों में कहा जाय तो परस्त्री गमन या व्यभिचार सिर्फ पुरुष द्वारा किया जाता है। इस कानून के तहत किसी स्त्री द्वारा किसी पराये पुरुष से शारीरिक  सम्बन्ध बनाने को अपराध नहीं माना जाता।

इस अपराध में पुरुष विवाहित या अविवाहित (single) हो सकता है पर स्त्री का विवाहित होना आवश्यक है। यदि स्त्री अविवाहित या तलाकशुदा होती थी, पुरुष पर स्त्री गमन का अपराधी नही होता था। कारण यह कि स्त्री किसी की पत्नी नहीं है। किसी स्त्री के साथ सम्बन्ध रखना तभी अपराध होता है जब वह किसी की पत्नी हो, इस वजह से उसका परिवार टूट जाता है या शांति भंग हो जाती है। यानी स्त्री का कोई मोल नहीं। जरूरी है परिवार की शांति बनाए रखना और उसका एकजुट रहना। कानूनन एक विवाहिता स्त्री पर-पुरुष-गमन नहीं कर सकती और ना ही इस अपराध के लिए उकसा सकती है। यह सिर्फ विवाह नाम की संस्था के प्रति किया गया अपराध है। (ए.आई.आर. 1954 मद्रास 427)।
(End of Article 497)

शुरू से ही यह बहस चलती रही कि यह धारा भारतीय संस्थान के अनुच्छेद 14 तथा 15 का उल्लंघन है। कारण यह लैंगिक न्याय की समानता के अधिकार के विरुद्ध है।

इस अपराध में चूँकि यह एक विवाहित पुरुष की पत्नी के साथ परगमन का था, अत: चोट सिर्फ इसी पुरुष को पहुँचती थी- कारण था अब तक पत्नी पति की सम्पत्ति समझी जाती थी। उनकी इच्छा या सहमति के बिना उसकी पत्नी से बच्चा पैदा करना उसकी सम्पत्ति को बलात चोरी करने जैसा मामला था। यहाँ पीड़ित पति था अत: मुकदमा करने का अधिकार भी सिर्फ उसी पत्नी को प्राप्त था। यहाँ तक दोषी व्यक्ति की पत्नी को भी यह अधिकार नहीं था कि वह अपने पति पर मुकदमा करे। कारण पति पत्नी की सम्पत्ति नहीं है, उसके चोरी करने अमानत में खयानत करने का कोई प्रश्न नहीं था।

फिलहाल 20-9-2018 को सर्वोच्च न्यायालय ने रिट पिटिशन (क्रिमिनल) 194 ऑफ 2017 के जो कि जोसेफ शाइन केरल के एन.आर.आई. व्यापारी जो कि केरल में रहते हैं द्वारा दायर की गई याचिका में चार न्यायमूर्तियों की पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला देते हुए कहा कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 497 जेण्डर जस्टिस में असमानता के कारण असंवैधानिक है तथा स्त्री पति की सम्पत्ति नहीं है। अब से भारतीय दंड संहिता की धारा 497 असंवैधानिक है और स्त्री पति के बराबर हैसियत रखती है, न कम और न ही ज्यादा।
(End of Article 497)

यह कानून 497 भारतीय दंड संहिता यह सोचकर बनाया गया कि विवाहिता स्त्री पति की जागीर है, जिसके पास सोच-विचार या निर्णय लेने की क्षमता नहीं है, वह सिर्फ दो पुरुष पति और परस्त्री-गमन करने वाले पुरुष के आपसी निर्णय के अनुसार पर-पुरुष के साथ शारीरिक रिश्ता बनायेगी। यदि उसने अपनी मर्जी से रिश्ता बनाया तो यह पर-पुरुष (पति) की बलात चेष्टा होगी। यहाँ पत्नी गौण थी, उसका अपना कोई अधिकार, इच्छा-अनिच्छा नही थी।

अदालत ने कहा- इसका मतलब है पति को यह लाईसेंस प्राप्त है कि वह जैसे चाहे पत्नी के साथ बरताव करे जो कि अत्यन्त अमानवीय और गैरबराबरी की बात है। यह तो पत्नी के सम्मान को ही चूर-चूर करने वाली बात हुई। यहाँ महिला पति की गुलाम है। यह बहस नकार दी गई कि यह कानून विवाह नामक संस्था को बचाने के लिए बनाया गया था।

धारा 497 को असंवैधानिक करार करने के लिए 1985 में ही वर्तमान जज श्री चन्द्रचूड़ के पिता श्री वाई.पी. चन्द्रचूड़ मुख्य न्यायाधीश तथा दो और जजों की बेंच ने इसी सवाल का जवाब ना में दिया था। उसे निरस्त करते हुए वर्तमान जज चन्द्रचूड़ तथा और जजों की बेंच ने धारा 497 को असंवैधानिक घोषित कर दिया है।
(End of Article 497)

ब्रिटिश कानून की तर्ज पर जब यह कानून बना था तब स्त्री  ब्रिटेन में एक ‘कैटल’ (मवेशी) की तरह समझी जाती थी, जो मालिक के खूंटे पर बँधी होती थी। कोई व्यक्ति यदि चुपके से बिना पूछे उसे खोल कर ले जाता तो वह चोरी मालिक की होती थी। इसी तरह पत्नी उस समय इतनी निरीह, दयनीय होती थी कि उसके पास निर्णय शक्ति, इच्छा या अधिकार नाम की कोई चीज नहीं होती थी। इसलिए यह समझा गया कि पशु की तरह कोई उसके साथ अवैध सम्बन्ध स्थापित कर सकता है और वह इसका प्रतिवाद करने योग्य भी नहीं। इस हालत में उस पर पर-पुरुष गमन का मुकदमा कैसे चलाया जा सकता था। भारत में स्त्रियों का विवाह तब होता था जब वह महज एक बच्ची होती थी, युवावस्था में ही उन पर ध्यान नहीं दिया जाता था। कारण पति की कई पत्नियाँ होती थीं। 155 वर्षों बाद यह स्थिति तो रही नहीं। समय, शिक्षा, सिविल राजनीतिक अधिकारों के बढ़ते प्रभाव की वजह से अब परिस्थितियों में जमीन आसमान का अन्तर आ गया है अत: अब भारतीय दण्ड संहिता धारा 497 का कोई औचित्य नहीं रह गया है। अब यदि यह सोचा जाय कि विवाहित स्त्री की अपनी मर्जी से भी किसी ओर से रिश्ता बनाये जाने पर पति एक पीड़ित है और दूसरा व्यक्ति एक बहकाने वाला तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। आज स्त्री एक ‘व्यक्ति’ है आज वह समाज, राज्य के हर कोने में है, सारे अधिकारों में बराबरी के स्तर पर है वह राजनीति से लेकर देश के हर व्यवसाय में है। वह भारी ट्रांसपोर्ट से लेकर हवाई जहाज उड़ा रही है। देश के प्रधानमंत्री, विदेशमंत्री, मुख्यमंत्री से लेकर चपरासी तक का पद उनके पास है।

जब स्त्रियाँ कानून के सामने नदारद थीं, पति की छाया के पीछे रहती थीं, वह समय कब का चला गया। अत: इस प्रावधान का कानून की किताबों में रहने का कोई औचित्य ही नही हैं।

यह सब जानने के बाद समाज के पास इस कल्पना के लिए कोई छूट नहीं है। यह सोचना कि इस धारा को खत्म करने से स्त्री का सम्मान गिरा है या विवाह संस्था ही नष्ट हो जायेगी या अवैध सम्बन्धों को खुलेआम करने की छूट मिल गई, यह अज्ञान से भरे कुतर्क के अलावा कुछ नहीं है।
(End of Article 497)

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