सशक्तीकरण धरातल पर

ब्रजेश जोशी 

हमारा सामाजिक ढाँचा ही स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग भूमिकाएँ निर्धारित करता है। स्त्री और पुरुष का आचरण स्वाभाविक अन्तर के बजाए सामाजिक सांस्कृतिक अपेक्षाओं से अधिक निर्धारित होता है। स्त्री और पुरुष के लिए मूल्यों का जो अंतर स्थापित किया गया उसके दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम निकले। आज हर स्तर पर महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है। चाहे वह कला, साहित्य, सांस्कृतिक अधिकार कोई भी क्षेत्र हो। वर्तमान में विश्व का कोई भी देश यह दावा नहीं कर सकता कि उसके यहाँ नारी किसी भी रूप में उत्पीड़ित नहीं है। वर्तमान में स्त्री तृतीय विश्व की भाँति है, जहाँ अधिकार सीमित और कर्तव्य असीमित हैं उससे अपेक्षाएँ बहुत हैं।

लंबे संघर्ष के बाद महिलाओं ने समाज में अपने लिए कुछ जगह बनायी है। महिलाओं की स्थिति में बदलाव आ रहा है। बदलाव की दिशा सकारात्मक है किन्तु इसकी गति बहुत धीमी है। लोकतांत्रिक व्यवस्था का तकाजा यही है कि समाज में सभी वर्गों को स्वतंत्रता और समानता का अधिकार मिले। महिलाओं के सशक्तीकरण का प्रश्न ही सामाजिक न्याय, लोकतंत्र और समेकित सामाजिक विकास के दर्शन पर आधारित है।
सशक्तीकरण का अर्थ

सशक्तीकरण एक बहुआयामी प्रक्रिया है। यह महिला में उतनी जागरूकता लाती है कि वह शक्ति को प्राप्त करे एवं उसमें सामाजिक, र्आिथक संसाधनों पर नियंत्रण प्राप्त करने की क्षमता का विकास हो। यह उन्हें अपने जीवन को स्वयं निर्देशित करने के लिए प्रेरित करती है तथा घर एवं बाहर के निर्णयों में उसकी भागीदारी को बढ़ाती है। यह शक्ति सम्बन्धों को चुनौती देती है। यह पुरुष सम्प्रभुता के स्थान पर महिला सम्प्रभुता स्थापित करने का प्रयास नहीं बल्कि समानता के आधार पर एक सामंजस्यपूर्ण भागीदारी की माँग है। यह संसाधनों तक महिलाओं की पहुँच को सम्भव बनाती है। सशक्तीकरण का आशय सिर्फ शक्ति का अधिग्रहण नहीं है बल्कि इसमें शक्ति प्रयोग की क्षमता का विकास किया जाता है। महिलाओं को परावलम्बन की भावनाओं से मुक्त करना, उनकी हीन भावना को समाप्त करना ही सशक्तीकरण है। यदि समाज में नारी भयमुक्त हो अथवा सम्मान खोए बिना ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके, उसकी इच्छा-अनिच्छा की परिवार एवं समाज के स्तर पर कद्र की जाय, उसे अपना वाजिब हक मिले, देश की प्रगति में इसका पर्याप्त योगदान हो तो हम कह सकेंगे कि महिला सशक्त हो गई है।
वर्तमान स्थिति

एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष एक लाख पच्चीस हजार महिलाएँ गर्भधारण के कारण या बच्चों के जन्म से सम्बद्ध किसी कारण से मौत का शिकार हो जाती हैं। प्रत्येक वर्ष एक करोड़ बीस लाख लड़कियाँ जन्म लेती हैं लेकिन इनमें से तीस प्रतिशत लड़कियाँ अपना पन्द्रहवाँ जन्मदिन नहीं देख पातीं। 72 प्रतिशत गर्भवती ग्रामीण महिलाएँ निरक्षर हैं। कक्षा एक में प्रवेश लेने वाली प्रत्येक 10 लड़कियों में से केवल छ: लड़कियाँ ही पाँचवीं कक्षा तक पहुँचती हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों के बाद भी हमारी कामकाजी जनसंख्या में से 70 प्रतिशत महिलाएँ अकुशल कार्यों में लगी हैं तथा उसी हिसाब से मजदूरी पा रही हैं। इसके अतिरिक्त महिलाओं के कुछ कार्य ऐसे हैं जिनकी गिनती नहीं होती। जैसे खाना बनाना, घर की सफाई, बच्चे का पालन-पोषण आदि ऐसे अनगिनत कार्य हैं जिनका कोई महत्व नहीं है। आँकड़े स्पष्ट करते हैं कि महिलाएँ एक दिन में पुरुषों से ज्यादा कार्य करती हैं। इतना सब कुछ करने और सहने के बाद भी उसे महत्वहीन समझा जाता है। वर्तमान दुनिया में काम के घंटों में 60 प्रतिशत से अधिक का योगदान स्त्रियाँ करती हैं। वे सिर्फ कुछ ही प्रतिशत सम्पत्ति की मालिक हैं। 50 प्रतिशत कामकाजी महिलाएँ कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का सामना करती हैं। विकसित देशों की प्रजातांत्रिक संस्थाओं में भी महिलाओं का उनकी संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं है।
(empowerment on the ground)

महिलाओं पर अत्याचार एवं हिंसा सम्बन्धी प्राप्त आँकड़ो (एन.सी.बी.आर.) के अनुसार प्रति 23 मिनट में अपहरण, प्रति 26 मिनट में उत्पीड़न, प्रति 42 मिनट में दहेज, प्रति 52 मिनट में बलात्कार की घटनाएँ घटित हो रही हैं।

आवश्यक उपाय

1. समाज की मानसिकता में परिवर्तन लाया जाय। स्त्री को सिर्फ औरत की निगाह से न देखा जाय। साथ ही साथ स्त्री की स्वयं की मानसिकता में भी परिवर्तन की आवश्यकता है। वह स्वयं को अबला नहीं सबला समझे। इसमें गैर सरकारी संगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका है।
2. वे सामाजिक परंपराएँ जो स्त्री की स्थिति को निम्न बनाती हैं, उनका उन्मूलन किया जाय।
3. महिला शिक्षा की दिशा में ठोस प्रयास किये जांय।
4. महिलाओं को र्आिथक रूप से आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास किया जाय।
5. उपभोक्तावाद के प्रलोभनों से महिलाओं को मुक्त किया जाय एवं नारी गरिमा का सम्मान हो।
6. इस क्षेत्र से जुड़े कानूनों का वास्तविक क्रियान्वयन हो। पुलिस एवं प्रशासन को इसके लिए मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार किया जाय।
7. महिलाओं के विरुद्ध अपराधों पर प्रभावी रोक लगायी जाय। जिससे उनमें सुरक्षा की भावना कम हो और वे हर क्षेत्र में आगे बढ़ सकें।
8. स्वरोजगार योजनाओं को अधिक महत्व दिया जाय।
9. उत्पीड़ित महिलाओं को सरकारी एवं गैर सरकारी संगठनों द्वारा पर्याप्त सहायता दी जाय।
10. महिलाओं में आत्मविश्वास जगाया जाय, जिससे वे कर्तव्यों के साथ-साथ अधिकारों को भी समझें एवं उन्हें पाने के लिए सजग रहें।

नारी अब सिर्फ वाद-विवाद का विषय नहीं है। नारी सशक्तीकरण, सम्मान और अधिकार प्राप्त करने का नारा बन गया है। यहाँ यह विषय नहीं है कि स्त्री को कितने अधिकार प्राप्त हैं। प्रश्न तो यह है कि उस पर कितना अमल हो रहा है। अब यह सिर्फ अधिकार की लड़ाई नहीं रह गई है। स्त्री की उपेक्षा करके मानव पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता। नारी सशक्तीकरण के  लिए आवश्यक है कि आज का प्रत्येक वर्ग उसमें भागीदारी करे। नारी परिवार एवं समाज की नींव है। इसे सुदृढ़ करना हम सभी का कर्तव्य है। एक ऐसा प्रयास किया जाय जिसमें सम्पूर्ण समाज जागृत हो उठे। सदियों की उपेक्षा को एक दिन में नहीं बदला जा सकता। किन्तु नियोजित प्रयास किया जाय तो यह सम्भव है।

राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में समय-समय पर आयोजित संगोष्ठियों एवं सेमिनारों में महिला सशक्तीकरण सम्बन्धी विचारों से इस बात को बल मिला है कि यह वर्तमान समाज की आवश्यकता है। लेकिन सिर्फ लंबे-चौड़े भाषण एवं वाद-विवाद से महिलाओं का उत्थान होने वाला नहीं है। हमें जड़ों को सींचना होगा। नारी की खोई प्रतिष्ठा एवं सम्मान लौटाना होगा।

जब हम समतापूर्ण समाज का समर्थन करते हैं तो नारी को इस परिधि से बाहर रखने का कोई औचित्य नहीं है। क्योंकि वह इसी समाज का हिस्सा है। हम देश एवं समाज के विकास की बात करते हैं तो क्या आधी आबादी को उपेक्षित रखकर कोई विकास संभव है। नारी सशक्तीकरण अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर करने की आवश्यकता है।
(empowerment on the ground)
उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika
पत्रिका की आर्थिक सहायता के लिये : यहाँ क्लिक करें