एवरेस्ट हेतु चुनाव शिविर

चन्द्रप्रभा ऐतवाल

भारतीय पर्वतारोहण संस्थान ने इस शिविर को चलाने की जिम्मेदारी नेहरू पर्वतारोहण संस्थान को ही सौंप रखी थी। इसमें भारत के बड़े-बड़े पर्वतारोही, महिला एवं पुरुष, सम्मिलित थे। हालांकि महिलाओं की संख्या बहुत ही कम थी। इस चुनाव शिविर में 1975 के उप प्रधानाचार्य श्री कर्नल बजाज भी शामिल थे। भारत के चुने हुए इन पर्वतारोहियों को देखकर अन्दर ही अन्दर डर भी लगता था। ऐसा लगता था कि कुछ पर्वतारोही तो केवल मस्ती हेतु आये थे।

हमें सभी काम अपनी जिम्मेदारी से करने थे। कभी गांठों का अभ्यास करना तो कभी अपने-अपने अनुभव के व्याख्यान देने होते थे। एक सप्ताह तक नेहरू पर्वतारोहण संस्थान से 8 किमी. की दूरी पर स्थित प्रशिक्षण क्षेत्र तक सामान उठाकर चलते थे। फिर वहां चट्टान-आरोहण का अभ्यास करते थे। ज्यादातर मानव निर्मित चट्टानों में आरोहण का अभ्यास करते थे। ओवर हैंगिंग पर जुमारिंग का अभ्यास करते थे। लम्बी चट्टानों पर रैप्लिंग करते थे। कभी-कभी अपने बीमार साथी को पहाड़ से कैसे लाया जाता है, इसका भी अभ्यास करते थे। किसी को पीठ पर लादकर, कभी स्टे्रचर पर तथा कभी रस्सियों की मदद से सीढ़ी पर बांधकर पहाड़ से उतारा जाता था। इस प्रकार के अभ्यास आपस में मिल-जुलकर करते थे।

फिर हम गंगोत्री तक बस द्वारा पहुंचे। दूसरे दिन से बड़ी-बड़ी लम्बी चट्टानों पर चढ़ने व उतरने का अभ्यास करने लगे। एक दिन गंगोत्री बस अड्डे के ऊपर चट्टान पर चढ़ने का अभ्यास कर रहे थे कि अचानक मेरा हाथ छूट गया और मैं सीधे नीचे गिरने ही वाली थी कि मेरे साथियों ने जमीन पर पहुंचने से पहले ही रोककर थाम लिया। इस घटना को मैं कभी भी भूल नहीं सकती। यदि जमीन पर पहुंच जाती तो पैर की हड्डी या कमर टूटना पक्का था, पर मेरे दोस्तों ने मुझे बचा लिया, जो कि उनकी समझदारी थी।

गंगोत्री में दो-तीन दिन तक चट्टान आरोहण का अभ्यास करने के बाद रुद्रगैड़ा नदी के किनारे-किनारे गंगोत्री-प्रथम, द्वितीय तृतीय की ओर बढ़े। रास्ते में रुद्रगैड़ा नदी को एक लकड़ी के कच्चे पुल से पार किया। पहले हम नदी के बांई ओर चल रहे थे। नदी पार करने के बाद दाहिनी ओर चलते गये और बीच में एक शिविर लगाया। दूसरे दिन गंगोत्री-प्रथम चोटी के आधार शिविर में पहुंच गये। आधार शिविर चट्टान और बर्फ के पास ही एक सुन्दर-सी जगह है। यहां हवा कम है और हमारा लक्ष्य गंगोत्री-प्रथम की चढ़ाई करने का था लेकिन कुछ सदस्य गंगोत्री-द्वितीय की चढ़ाई करने की सोच रहे थे।

एक आधार शिविर में सारे सामान को ठीक से रखा और दूसरे दिन से सामान पहुंचाने का कार्य शुरू कर दिया था। जहां हमने द्वितीय शिविर बनाना था, वहां तक सभी सदस्य पहुंच नहीं पाये। कोई-कोई तो सामान को आधे रास्ते में छोड़कर वापस आ गये थे। बहुत कम लोग ही प्रथम शिविर तक पहुंच पाये थे। इस प्रकार जो सामान पहुंचाने का कार्य करते हुए प्रथम शिविर तक पहुंचे थे, उनका एक दल बनाया गया। उस दल को दूसरे दिन प्रथम शिविर में रहने के लिये कहा गया और जो आधे रास्ते में ही सामान छोड़कर आये थे, उस दल को दूसरे दिन सामान पहुंचाने हेतु जाने को कहा गया। लाटू दोर्जी, बोधा, डॉ. मीनू मेहता, सनम पलजोर, मगन बीसा और मैं प्रथम शिविर में रहे। दूसरे दिन हमारे दल ने प्रथम शिविर से द्वितीय शिविर सामान पहुंचाने का कार्य किया और अन्य दल वाले आधार शिविर से प्रथम शिविर के लिये सामान पहुंचाने का कार्य कर रहे थे।

तीसरे दिन हमारा दल द्वितीय शिविर गया और आधार शिविर से दूसरा दल प्रथम शिविर के लिये आया। आज हवा बहुत तेज थी। हमारे दल के कुछ सदस्य द्वितीय शिविर से आगे रास्ता खोलने हेतु गये और कुछ सदस्य खाना तैयार करने और टेन्ट लगाने आदि कार्य हेतु शिविर में ही रहे। पर बड़ी ही मुश्किल से तीन टेन्ट लगा पाये कि हवा से टेन्ट भी उड़ने लगा। इस कारण रास्ता खोलने वाले सदस्यों के वापस आने तक हम चाय-खाना कुछ भी बना नहीं पाये, क्योंकि हवा बहुत ही तेज चल रही थी। जिससे स्टोव जलाने में कठिनाई हो रही थी।
(Election Camp for Everest)

बेचारा लाटू, शिविर में आकर चाय पीना चाहता था पर हम लोग हवा के कारण चाय बना नहीं पाये। यदि टेन्ट के अन्दर बनाते तो आग लगने का डर था। अत: लाटू ने शिविर में पहुंच कर नेपाली में खूब गाली दी। नेपाली समझने वाली मात्र मैं ही थी, पर मैं चुप रही। न हमारी गलती थी और न उनकी। क्योंकि वे थके थे, अत: चाय तो मिलनी ही चाहिए थी, पर हवा के कारण हम बेबस थे। आधी रात के बाद जब हवा कम हुई, तब टेन्ट के अन्दर ही सूप बनाया। बोधा के पास केक था, उसे खाया। चॉकलेट को पकाकर पिया। रात का काफी समय निकल गया था। अत: ठीक से सोना व खाना नहीं हो पाया। सुबह जल्दी उठकर चाय तैयार की। नाश्ता खा कर चोटी फतह करने के लिये चल पड़े।

जहां तक रस्सियां लगा रखी थीं, वहां तक सभी अपने आप अलग-अलग चलते रहे। कहीं-कहीं पर ढाल काफी तेज थी। अत: लगाई हुई रस्सियों में जुमार की सहायता से चलते रहे। जैसे ही लगाई हुई रस्सियां खत्म हुईं, हम लोग एक-दूसरे से बंध गये और एक-दूसरे की मदद करते हुए चल पड़े। लगभग 2 बजे हम लोगों ने गंगोत्री-प्रथम पर विजय पायी। अब मौसम भी खराब होने लगा। इस कारण चोटी पर अधिक समय तक नहीं रुके। बस उस परम पिता को धन्यवाद देकर, वापस लौटना शुरू किया।

उस दिन चोटी से सीधे प्रथम शिविर में आये। प्रथम शिविर से बहुत से सदस्य द्वितीय शिविर आये थे। आधार शिविर से भी काफी सदस्य प्रथम शिविर आये हुए थे। इस प्रकार जिन्हें भी मौका मिलता था, वे चोटी की ओर जाने की कोशिश कर रहे थे। कुछ सदस्य प्रथम शिविर में एक रात रुककर आधार शिविर वापस आ गये। कुछ सदस्य बीमार होकर आधार शिविर से ही वापस गंगोत्री या उत्तरकाशी चले गये थे। दूसरे दल के सदस्य भी चोटी फतह करके वापस आधार शिविर आये थे। अब लगभग सभी आधार शिविर में दो दिन तक आराम करने के बाद मानव निर्मित चट्टानों पर चढ़ाई कर रहे थे और कोई 19,900 फीट ऊँची रुद्रगैड़ा चोटी पर चढ़ने के लिये गये। इस चोटी को भी दो-तीन दलों ने फतह किया। ज्यादातर आधार शिविर वाले दल इस चोटी को फतह करके भी खुश हो रहे थे, क्योंकि गंगोत्री-प्रथम की ऊँचाई 20,890 फीट थी।

इस प्रकार दोनों चोटियों पर चढ़ाई करने के बाद गंगोत्री वापस आये, पर गंगोत्री में मौसम बहुत खराब हो गया था। 26 अक्टूबर को दशहरे के दिन बहुत बर्फ पड़ी थी। इस कारण हम लोग गंगोत्री में ही रुक गए। गंगोत्री में बहुत-सी शादियां देखीं, पर एक बूढ़े की शादी बच्ची-जैसी लड़की से हो रही थी, उस समय हमारा बस चलता तो उस बच्ची को मण्डप से उठा देते, पर कुछ भी नहीं कर सके। उसे देखकर स्त्री की दशा तथा गरीबी के कारण पर अफसोस हो रहा था। गंगोत्री में पहली बार इतनी बर्फ अक्टूबर के माह में देखी थी। गंगोत्री में रात में काफी देर तक बाजार में घूमते रहे, क्योंकि पूरा गंगोत्री सफेद चादर ओढ़ा हुआ बहुत ही सुन्दर लग रहा था। दूसरे दिन अपने सारे सामान को बांधकर तैयार किया। नाश्ता करके दोपहर के भोजन के साथ बस से उत्तरकाशी के लिये रवाना हुए। रास्ते में गंगनानी में गर्म कुण्ड में नहाया और महीने भर की गन्दगी को साफ किया।

उत्तरकाशी में दूसरे दिन सामान वापस किया। जिसने जो सामान खोया था, उसकी दुगुनी कीमत चुकानी पड़ी। लापरवाही का दण्ड तो मिलना ही था। रात को सांस्कृतिक कार्यक्रम किया, जिसमें सभी सदस्य मस्ती में थे। जिसे जो कुछ आता था, उसने वह सभी के सामने दिखाया। इस प्रकार 1982 का चुनाव शिविर भी खत्म हो गया। 1982 में एवरेस्ट के चुनाव का दूसरा शिविर दार्जिलिंग में भी चलाया गया। उस शिविर में भी भारत के चुने हुए पर्वतारोही शामिल थे। वहां भी चोटी पर चढ़ाई करने की योजना थी। वहां भी वही हाल था, किसी ने चोटी पर चढ़ाई की और कोई बिना चोटी चढ़े ही वापस आये। ऐसा र्दािजलिंग के हिमालय पर्वतारोहण संस्थान की रिपोर्ट में हमने पढ़ा था ।
(Election Camp for Everest)

क्रमश:
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