शिक्षा, शिक्षक और लिंगभेद

Education Teachers and Gender Discrimination
फोटो: सुधीर कुमार

भारत में वैदिक काल से ही स्त्रियों के लिए शिक्षा का व्यापक प्रचार था। प्राचीन आदर्श स्त्रियों के प्रति श्रद्घा और सम्मान का रहा है। इस समय स्त्रियाँ घर-परिवार को ही देखती नहीं आ रहीं थीं अपितु समाज, राजनीति, धर्म, कानून, न्याय सभी क्षेत्रों में वे पुरुष की सहयोगी के रूप में प्रेरक व सहायक भी रही। मुगलकाल में भी अनेक महिला विदुषियों का उल्लेख मिलता है। विद्वानों का मानना है कि प्राचीन भारत में महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा हासिल था। पतंजलि और कात्यायन जैसे प्राचीन भारतीय व्याकरणविदों का कहना है कि प्रारम्भिक वैदिक काल में महिलाओं को शिक्षा दी जाती थी। विद्यालय गुरुकुल आचार्यकुल, गुरुगृह नामों से विदित थे। आचार्य के कुल में निवास करता हुआ गुरुसेवा और ब्रह्मचर्य व्रतधारी विद्यार्थी वेद का अध्ययन करता था। ब्रह्मचर्य का पालन सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य था। स्त्रियों के लिए भी आवश्यक समझा जाता था। आजीवन ब्रह्मचर्य पालन करने वाली विद्यार्थी को ब्रह्मवादिनी कहा जाता था।
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मध्यकाल में स्त्रियों की शिक्षा के बजाय राजकुमारों की शिक्षा का जिक्र अधिक मिलता है। राज्य व्यवस्था, सैनिक संगठन, युद्ध संचालन, साहित्य, इतिहास, व्याकरण, कानून आदि का ज्ञान गृह शिक्षक से प्राप्त होता था। राजकुमारियाँ भी शिक्षा पाती थीं। स्त्री शिक्षा के दायरे को मुगलकाल में देखते हैं तो कुछ महिलाओं ने राजनीति, साहित्य, शिक्षा और धर्म के क्षेत्रों में सफलता हासिल की। रजिया सुल्तान दिल्ली पर शासन करने वाली एकमात्र महिला साम्राज्ञी बनी। गोंड की महारानी दुर्गावती ने 1564 में मुगल सम्राट अकबर के सेनापति आसफ खान से लड़कर अपनी जान गंवाने से पहले पंद्रह वर्षों तक शासन किया। मुगल राजकुमारी जहाँआरा और जेबुन्निसा सुप्रसिद्घ कवयित्री थीं।

महिलाओं की शिक्षा के लिए ज्योतिबा फुले ने 1848 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था। लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री को इस योग्य बना दिया। उच्च वर्ग के लोगों ने आरम्भ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की, किंतु जब फुले आगे बढ़ते गये तो उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के लिए तीन स्कूल खोल दिए। 1853 में शिक्षा की प्रगति की जाँच के लिए एक समिति बनी, जिसमें नारी शिक्षा की सिफारिश की गई। पुनर्जागरण के दौर में भारत में स्त्री शिक्षा को नए सिरे से महत्व मिलने लगा। ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा सन् 1874 में स्त्री शिक्षा को स्वीकार किया गया और विभिन्न सरकारी और गैरसरकारी प्रयासों के कारण साक्षरता की दर 02 प्रतिशत से 6 प्रतिशत हो गई।

यूरोपीय विद्वानों ने 19वीं सदी में यह महसूस किया कि महिलाओं की शिक्षा पर विचार करना चाहिए। अंग्रेजी शासन के दौरान राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, ज्योतिबा फुले आदि कई सुधारकों ने महिलाओं के उत्थान के लिये लड़ाइयाँ लड़ीं। हालांकि इस सूची से यह पता चलता है कि राज युग में अंगे्रजों का कोई भी सकारात्मक योगदान नहीं था। कुछ मिशनरियों की पत्नियाँ मार्था मोल्ट नी मीड और उनकी बेटी एलिजा काल्डवेल नी मौल्ट को दक्षिण भारत में लड़कियों की शिक्षा और प्रशिक्षण के लिए आज भी याद किया जाता है। कर्नाटक में कित्तूर रियासत की रानी कित्तूर चेनम्मा, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, अवध की सहशासिका बेगम हजरत महल ने अपनी दक्षताओं के चलते अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह किया था। चंद्रमुखी बसु, कादंबिनी गांगुली और आनंदी गोपाल जोशी आदि कुछ भारतीय महिलाओं ने शैक्षणिक डिग्रियाँ हासिल कीं। भारत की आजादी के संघर्ष में महिलाओं ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। भिकाजी कामा, एनी बेसेंट, प्रीतिलता वाडेकर, विजयलक्ष्मी पंडित, राजकुमारी अमृत कौर, अरुणा आसफ अली, सुचेता कृपलानी और कस्तूरबा गाँधी प्रसिद्घ स्वंतत्रता सेनानियों में शामिल हैं।
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भारत का संविधान सभी भारतीय महिलाओं को समान अधिकार, राज्य द्वारा कोई भेदभाव नहीं करने, अवसर की समानता, समान कार्य के लिए समान वेतन की गारंटी देता है। इसके अलावा यह महिलाओं और बच्चों के पक्ष में राज्य द्वारा विशेष प्रावधान बनाए जाने की अनुमति देता है। 1947 से लेकर भारत सरकार ने लड़कियों को पढ़ने का मौका देने, पाठशाला में दाखिला और उनका स्कूल में नामांकन बढ़ाने के लिए अनेक योजनाएं बनाईं। 1986 में शिक्षा संबंधी राष्ट्रीय नीति ने प्रत्येक राज्य को सामाजिक रूपरेखा के साथ शिक्षा का पुनर्गठन करने का निर्णय लिया था। शिक्षा का अधिकार, एन.सी.एफ़ 2005 सभी सिफारिशें एवं दस्तावेजों ने अनिवार्य स्त्री शिक्षा की पैरवी की।

यदि इतिहास उठाकर देखते हैं तो महिलाओं को जब भी मौका मिला है, समाज में उन्होंने अपनी प्रस्तुति समझदारी व कौशल के साथ दी है। अब सवाल यह उठता है कि उनकी स्थिति में कैसा और कितना सुधार हो रहा है? हम प्रत्येक वर्ष महिला दिवस और महिलाओं के नाम पर अनेक योजनाएं लागू कर रहे हैं लेकिन अशिक्षा व सामाजिक ढाँचे के कारण वे अपने मानवीय अधिकारों से अभी भी वंचित हैंै। ऐसे समाज में पुरुष स्वयं को शिक्षित, सुयोग्य एवं समुन्नत बनाकर स्त्री को अशिक्षित एवं परतंत्र रखना चाहता है। पितृसत्तात्मक समाज स्त्री को अशिक्षित रखकर उसके अधिकार तथा अस्तित्व का बोध नहीं होने देना चाहता है। स्त्री को अच्छी शिक्षा के स्थान पर उसे घरेलू कामकाज में ही दक्ष कर देना पर्याप्त समझा जाता है और यह दृष्टिकोण तो वर्र्षांे से चला आ रहा है। शैक्षणिक शोषण के अन्तर्गत बेटियों को विद्यालय भेजने की जगह उनसे घरेलू कामकाज करवाना, अभिभावकों द्वारा बालिका मजदूरी, बेटी को पराया धन के रूप में मान्यता, बेटे व बेटी में अंतर करके बेटी को शिक्षा से वंचित कर देना आदि मानसिकताओं को लेकर स्त्री शोषण होता आया है। आमतौर पर घर-परिवार में यही मान्यता बनी रहती है कि नारी को घर का कामकाज ही देखना होता है तो उसे शिक्षा की क्या आवश्यकता है? परिवार का मानस एक ऐसी रूढ़िवादिता से ग्रसित हो जाता है जिसमें स्त्री को न तो पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, न उसे वैसी सुविधा प्रदान की जाती है।

हालांकि वर्तमान समय में राष्ट्रीय स्तर पर यह महसूस किया जा रहा है कि स्त्री शिक्षा की दिशा में ठोस प्रयास के बिना समाज का सन्तुलित विकास संभव नहीं है। इसलिए स्त्री शिक्षा की दिशा में लगातार प्रयास किये जा रहे हैं। महिलाओं को शिक्षित बनाने का वास्तविक अर्थ उसे प्रगतिशील बनाना है ताकि वह तर्क कर निर्णय ले सके। भारत में महिला साक्षरता नए जमाने की अहम जरूरत है। महिलाओं के शिक्षित हुए बिना हम सशक्त भारत की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। परिवार से लेकर समाज तक, देश की उन्नति में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है। लोकतंत्र को सफल बनाने का एकमात्र रास्ता यही है कि महिला व पुरुष को बराबरी का हक दिया जाए। चूंकि शिक्षा का अर्थ केवल अक्षर ज्ञान नहीं है। शिक्षा का अर्थ जीवन के प्रत्येक पहलू की जानकारी होना है व अपने मानवीय अधिकारों का प्रयोग करने की समझ होना है।

एक महिला अपने जीवन में माँ, बेटी, बहन, पत्नी कई रिश्तों को निभाती है। किसी भी रिश्ते में बंधने से पहले वह महिला देश की आजाद नागरिक है तथा वह उन सब अधिकारों की हकदार है जो पुरुषों को मिले हुए हैं। उन्हें अपनी इच्छानुसार शिक्षा ग्रहण करने का हक है, जिससे वह अपने मनपसंद क्षेत्र में कार्य कर सके और महिलाओं को अपने पैरों पर खड़ा करने तथा आत्मनिर्भर बनाने में शिक्षा सहायता करती है साथ ही महिलाओं के प्रति समाज की उस संकीर्ण सोच को खारिज करती है, जिसमें उसे बोझ की तरह देखा जाता है। हमारी क्रियान्वयन करने वाली व्यवस्थाएं तथा कानून के साथ-साथ हमारी सोच में स्त्री के प्रति सकारात्मक भाव रखना होगा। तभी सशक्त समाज का निर्माण सम्भव है।
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डॉ. चन्द्रा भण्डारी, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन, देहरादून

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