गोरे रंग पे इतना गुमान न कर

प्रदीप पाण्डे

कोई 35-40 साल पहले एक गीत चला था ‘गोरे रंग पे न इतना गुमान कर गोरा रंग दो दिन में ढल जायेगा’ लेकिन गोरा रंग गुमान के योग्य है व गोरा ना होना आपकी सफलता में बाधक है यह और कोई नहीं हमारा मीडिया दिन-रात, सुबह-शाम बतला रहा है और हे पार्थ यह घोर कलियुग है इस चरण में हकीकत वही होती है जो मीडिया कहता है। यही कारण है कि त्वचा को गोरा बनाने के लिए होड़ लगी है। बाजार में तरह-तरह के क्रीम पाउडर, दवायें, इंजेक्शन व ट्रीटमेंट मौजूद है जो आपको सुन्दर (कृपया पढ़ें गोरा) बनाने का दावा कर रही है।

हमारी चमड़ी का जो रंग है उससे निजात पाने व जो नहीं है उसे पाने का यह महायज्ञ क्यों किया जा रहा है इसके पीछे समाज विज्ञानी कुछ कारण गिनाते हैं जैसे- भारत में उच्च जातियाँ प्राय: गोरी थीं या हम पर कोई 200 साल तक राज करने वाले अंग्रेज गोरे थे व फिल्म व विज्ञापनों में छाई हस्तियाँ गोरी ही होती हैं इसलिए एक औसत बुद्धि के हिन्दुस्तानी के मन में गोरेपन को श्रेष्ठ समझने की मनोवृत्ति ने जन्म लेना ही था।

यह मनोवृत्ति कि गोरापन श्रेष्ठता का प्रतीक है, तमाम तर्कों के बावजूद समझ से परे है क्योंकि हमारी सभ्यता/समाज में सांवला रंग अतीत में हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता था। हमारे भगवान शिव, राम, कृष्ण, काली माता श्याम वर्ण के थे। श्याम सांवरिया प्रियतम का पर्याय था लेकिन पिछले 6-7 दशकों में जिस तरह हम आधे-अधूरे आधुनिक हुए हमने इस सूत्र वाक्य को आत्मसात कर लिया कि जो भी पश्चिम से है अच्छा है। इसलिए हमने अपनी भाषाओं को अंग्रेजी भाषा के आगे तिलाजंलि देनी शुरू कर दी और देसी इलाज को अंग्रेजी दवाओं के आगे और इसी क्रम में हम अपनी त्वचा तक को उन्हीं की त्वचा जैसा बनाने के प्रयास में लीन हो गये बगैर इस बात का गुणा भाग किये कि अपन के पास भी कुछ अच्छा, संजोने लायक है या सब बेकार है।

भारत में 1978 में त्वचा को गोरा बनाने वाली क्रीम ‘फेयर एण्ड लवली’ की शुरूआत हुई। आज यह गाँव-गाँव में फैल चुकी है और फेयरनेस क्रीम में सर्वोपरि है। इसका सालाना कारोबार 3 अरब रुपये का हो चुका है, पिछले साल भारतीय महिलाओं व पुरुषों ने गोरेपन को बढ़ाने वाली क्रीमों की 233 टन मात्रा इस्तेमाल कर डाली। अध्ययन बता रहे है कि कोई 60% महिलाएँ इनका प्रयोग करती हैं। पिछले पाँच सालों में फेशियल क्रीम, मोइश्चराजर व गोरेपन का दावा (या वादा) करने वाली क्रीमों की मांग तेजी से (60%) बढ़ी है।

शादियाँ पहले भी होती थीं, दुल्हनें पहले भी सजती थीं मगर अब पार्लर बीच में आ जाता है। गाँव हो या शहर जहाँ संभव हो या तो दुल्हन पार्लर जायेगी या ब्यूटीशियन घर आकर दुल्हन को सजायेगी। भले ही अगले दिन वास्तविकता सामने आ जाये। ग्लैमर की दुनिया की साम्राज्ञी, सुपर मॉडल सिन्डी क्रोफोर्ड ने एक बार हँसते हुए कहा, ‘हकीकत की दुनियाँ में जहाँ चमकीली लाइट्स नहीं होती हैं, मेकअप नहीं होता मैं खुद सिन्डी क्रोफोर्ड जैसी नहीं लगती।’ मॉडलों, सुपर मॉडलों को सोलह श्रृंगार जरूर करने चाहिए क्योंकि यह उनकी रोजी-रोटी के लिए जरूरी है मगर एक सामान्य मध्यमवर्गीय लड़की बाजार के प्रचार से कि अमुक क्रीम लगा और सुपर स्टार बन जा, के प्रसार से वशीभूत हो अपनी त्वचा का नैसर्गिक रंग उड़ाने के लिए पागल हो जाये तो यह बात लाख समझने की कोशिश करने पर भी मेरे समझ में नहीं आ पाती।

यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि गोरी चमड़ी वाले यूरोपीय न अमेरिकी लोग गोरे रंग की बजाय तांबई रंग (Tan) पसंद करते हैं। इसके लिए वे खुले बदन धूप में लेटे रहते हैं वे भारतीयों की इस बात के लिए मजाक बनाते हैं कि अच्छा खासा रंग छोड़ गोरेपन के लिए पागल क्यों हुए जा रहे हैं ये लोग।

श्वेत वर्ण क्या वाकई श्रेष्ठता का प्रतीक है या महज परिस्थितियों की देन है। इस पर हाल ही में दो शोध सामने आये हैं। लंदन के इंस्टीट्यूट ऑफ र्केसर रिसर्च में कोशिक विज्ञान के प्रोफेसर मेल ग्रीव्स ने दो साल पहले एक शोधपत्र- प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने अफ्रीकी एल्बिनों लोगों पर किये 25 अध्ययनों के आधार पर बताया कि त्वचा का स्याह रंग त्वचा र्केसर को रोकने का प्राकृतिक इंतजाम है। त्वचा में काले रंग का कारण एक पिगमैंट (रंजक) है जिसे मेलानिन कहते हैं। त्वचा में जितनी मात्रा में मेलानिन होगा त्वचा उतनी ही काली होगी लेकिन श्याम वर्ण त्वचा सूरज की किरणों से होने वाले नुकसान जिसमें र्केसर भी शामिल है, को रोकने में सहायक होती है।

ग्रीव्स ने अपने शोध से दर्शाया है कि अफ्रीका महाद्वीप में मानव के विकास क्रम में जब वह अपने शरीर के सघन बालों से मुक्त होने लगा तो उसकी गोरी त्वचा पर केंसर का खतरा मंडराने लगा इसलिए विकास के क्रम में उसकी गोरी त्वचा में मेलानिन की मात्रा बढ़ने लगी और वह काली होने लगी। इस शोध से यह रोचक तथ्य भी सामने आया कि अफ्रीकी महाद्वीप से मानव ने जब यूरोप में प्रव्रजन किया तो वह काली चमड़ी लेकर गया लेकिन यूरोप में तपिश कम थी तो त्वचा के केंसर का खतरा भी कम होने लगा और उसकी त्वचा पुन: गोरी हो गयी।
(don’t be so proud of white color)

इसी बीच एक और शोध सामने आया है जो बताता है कि आज से 40000 साल पहले तक यूरोप में सिर्फ काली त्वचा वाले लोग मिलते थे जो अफ्रीका से गये थे। कोई 8000 साल पहले काकेशिया व निकट पूर्व (वर्तमान टर्की) से गोरे रंग के मानवों  का यूरोप की धरती में प्रवास शुरू हुआ और इन दोनों के अंर्तसंबंधों के कारण यूरोप में गोरे रंग का प्रसार हुआ तथा यह पूरे यूरोप में फैल गया।

इन दोनों शोधों में एक बात संजायती है। वह यह कि यूरोपीय लोग हमेशा गोरे नहीं थे व दूसरा यह कि गोरा रंग परिस्थितियों (जलवायु) की देन है। एक तीसरी बात यह भी कि काला रंग हमारी त्वचा रोगों व केंसर से रक्षा का एक प्राकृतिक इंतजाम है। इसलिए त्वचा के रंग से श्रेष्ठता प्रमाणित नहीं होती, न ही यह निकृष्टता का प्रतीक है।

तकनीकी के विकास ने आज गोरापन लाने के लिए क्रीम पाउडर के अलावा कई और रास्ते खोल दिये हैं। इनमें से कई आपके पर्स या जेब को काफी हल्का करते हैं। जैसे फोटो फेशियल का रेट रुपये 6000/-, विटामिन सी पील फेशियल रुपये 3000/- इसके अलावा लेजर ट्रीटमेंट जो त्वचा की गहराई में असर करता है व त्वचा को काला बनाने वाले कारकों को नाकाम बनाता है और भी मंहगा है। (और इस तरह यह बात पुन: रेखांकित होती है कि अच्छी शिक्षा, अच्छे न्याय, अच्छी चिकित्सा की तरह अच्छे गोरेपन के लिए भी अमीर होना जरूरी है।) क्योंकि गोरेपन का दावा करने वाली सस्ती क्रीम व नुस्खे नुकसानदायक भी हो सकते हैं। मसलन इनमें से कुछ में हाइड्रोक्वीनान होता है जिससे त्वचा में जलन व आंखों में मोतियाबिन्द हो सकता है। कुछ रसायन त्वचा को बदरंग बना सकते हैं। इनसे त्वचा का रंग हरा नीला हो सकता है। त्वचा से मछली जैसी बदबू आ सकती है क्योंकि कुछ में स्टीरॉयड्स की मात्रा एक्जिमा के लिए प्रयुक्त होने वाली क्रीमों से 1000 गुना ज्यादा तक पायी गयी है। एक जोरदार सच्चाई यह भी है कि गोरेपन के लिए, सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली पश्चिमी कम्पनियाँ इनका निर्माण प्राय: विकासशील देशों में ही करती है और इनका थोड़ा बहुत उत्पादन वे अपने देश में करती है। उसे भी वे सारा का सारा विकासशील देशों को ही निर्यात कर देती हैं।

सामान्य बुक स्टालों में मिलने वाली महिला पत्रिकाएँ भी आपको लाखों उपाय बताती हैं कि गोरा कैसे बनें, किसका उबटन लगायें, किस चीज का लेप लगाये, कैसे चेहरे को नाजुक बनाये रखें (गोया ऐसा न कर सके तो हीरा जनम अमोल कौड़ी बदले चले जायेगा)। गाँव देहात की औरतें गर्भावस्था में दूध दही मक्खन का सेवन ज्यादा करना चाहती हैं ताकि संतति गोरी पैदा हो। वैवाहिक विज्ञापनों में गोरी बहू की ख्वाहिश ही नजर आती है।
(don’t be so proud of white color)

मगर इस बीच एक अच्छी शुरूआत भी हुई है, उजली त्वचा की चाहना के विपरीत ब्लैक इज ब्यूटीफुल (जो काला है वह सुन्दर है) मुहिम चल पड़ी है। इसके पैरोकारों का जोर देकर कहना है कि- श्रेष्ठता व योग्यता बुद्घि, कौशल व प्रतिभा से आंकी जानी चाहिये ना कि गोरे रंग से। त्वचा का रंग प्रकृति की देन है। अगर आप श्वेत वर्ण के हैं तो वाह-वाह और अगर आप काले हैं तो भी वाह-वाह। त्वचा का रंग न गर्व का विषय हो सकता है और न ही शर्म का। इस मुहिम के पैरोकारों में प्रतिभावान अभिनेत्री नंदिता दास का नाम अग्रणी है। नंदिता साँवली है मगर वह फिल्मों में ऐसा कोई भी मेकअप करने से सर्वथा इंकार कर देती है जो उसको गोरा दर्शायें। एक साक्षात्कार में नंदिता दास ने कहा, ‘कई बार मुझसे मेरे निर्देशक या मेकअप मैन कहते हैं, मैडम हम आपको बगैर किसी झंझट के गोरा बना देंगे। हम इसमें एक्सपर्ट हैं मगर मैं इंकार कर देती हूँ। एक बार मेरे निर्देशक ने कहा, यह रोल एक पढ़ी लिखी शहरी महिला का है। इसलिए तुम गोरेपन वाला मेकअप कर लो, मैंने मना किया व कहा, आप क्या साबित करना चाहते हैं कि काली/साँवली महिलाएँ पढ़ी-लिखी नहीं होतीं। निर्देशक को मेरी बात माननी पड़ी।’ नंदिता दास कहती है, गोरेपन के नुस्खों के प्रचार में इन मॉडलों को इस तरह पेश किया जाता है कि लगता है परिश्रम, अध्यवसाय, अच्छी आदतें सब छोड़ें। गोरे बनो सफलता तुम्हारे कदमों में होगी। इस मिथक को तोड़ना जरूरी है।

महिला के जीवन का मोल तभी है जब वह गोरी नजर आए जब वह सुन्दर नजर आए, तो यह विचार उसके तमाम अन्य हुनरों, कौशलों को कुन्द कर सकता है। साथ ही यह विचार बताता है कि उसका एक मात्र लक्ष्य है अपने सौन्दर्य के कारण स्वीकृति पाना। स्वीकृति भी मुख्यत: पुरुष वर्ग की, तो ये एक घोर महिला विरोधी बात हुई। हम पढ़ें, लिखें, मेहनत करें, योगासन प्राणायाम कर स्वस्थ रहे, सुबह उठें, घूमें, सोच समझकर खायें, बुरी चीजों के सेवन से बचें, ये तो समझ में आता है पर मात्र गोरापन ले आओ बाकी सब अपने आप ठीक हो जायेगा पहले दर्जे का कुविचार लगता है।

काला ही सुन्दर है या काला भी सुन्दर है मुहिम कब तक असर लाती है देखना होगा मगर यहाँ पर मुझे अपनी ईजा (माता) की एक बात याद आ रही है। जब हम ईजा के बार-बार समझाने पर भी कोई गलती बार-बार करते है तो वह खीज कर कहती-

”मूरख को समझाये के
ज्ञान गाँठ को जाय
कौआ भये न ऊजला
सौ मन साबुन खाय”

”मूर्ख को समझाने में अपना संचित ज्ञान ही खतरे में पड़ता है, कव्वे को 100 मन साबुन से भी नहला दो, वह गोरा होने से रहा।”

यह बात रंग को श्रेष्ठता का सूचक समझने वालों को जितनी जल्दी समझ आये, उतना ही अच्छा।
(don’t be so proud of white color)
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