क्या सच में धर्म हमें प्रेम करना सिखाता है?

कमल जोशी

धर्म जीवन के लिए जरूरी है़, इससे मनुष्य पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना रहता है कि उसे सामूहिक हित में नियम-कायदों पर चलना है। कोई है-जो उस पर एकांत में भी नजर रख रहा है। ईश्वर और उससे जुड़े धर्म की यह परिकल्पना आदिमानव ने तब की होगी जब वह समाज बनाने की ओर अग्रसर हो रहा होगा। उस आदिमानव ने आज तक की जो यात्रा की है उसमें अधिकांश लोगों के लिए धर्म का वास्तविक मूल खो गया है। या तो वे ईश्वर से, चाहे किसी भी मजहब के हों, डरते हैं या उसे खुश करने की जुगत में रहते हैं कि कहीं वह नाराज होकर बुरा न कर दे। कुछ इसे आडम्बर बना कर सामाजिक प्रतिष्ठा में इजाफा करना चाहते हैं। और अब तो पिछले कुछ दशकों से धर्म के नाम पर राजनैतिक लोग अपनी सत्ता को कायम रखना चाहते हैं।

पर जो लोग अब भी धर्म को अपना समझ लेते हैं और अपनी ओर से इसे ईमानदारी से निभाते हैं, क्या वे भी शोषण या अन्याय कर रहे होते है़ं? इसका जवाब मेरी एक मित्र द्वारा सुनाई गयी एक घटना से मुझे मिला। धर्म किस तरह अत्याचारी बन जाता है, मानवीय संवेदना खो देता है, यह किस्सा उसका उदाहरण है। और इस तरह के उदाहरण हर धर्म के कर्मकांडों में मिल जाते हैं।

मेरी इस मित्र के पति का जब नगालैंड में स्थानान्तरण हुआ तो उसका भी साथ जाना लाजिमी था। नगालैंड उसके लिए नयी जगह थी। नगालैंड प्रवास के दौरान उसका बहुत-सी नई चीजों से आमना-सामना हुआ। अनवरत और अंतराल पर आते भूकंप, समाज का खुलापन, सीमेट्री में घूमते प्रेमी जोड़े और कुत्ता तथा सांप का भोजन करते लोग…. यह सब उसके लिए नया था।

उसने पाया कि वहाँ आधुनिक सुविधाओं से एक तरह से वंचित और बेहद मासूम समाज है। सरकारी तंत्र और सुविधाओं का उतना विस्तार न होने की वजह से कुछ इलाकों के लोग पूर्णत: ईसाई मिशनरी सहायता पर निर्भर रहते। मिशनरी उनकी सहायता व सेवा तो करती, साथ ही ईसाई धर्म के गुण बताती।

यहीं उसने देखा कि कैसे धर्म लोगों को सद्मार्ग पर चलने का रास्ता और डर दोनों सिखाता है, धर्म की अँधेरी कोठरियों में किस पर क्या दबाव पड़ता है या मानव भावनाओं को कैसे कुचला जाता है! कैसे रात-दिन दिमाग को प्रभु की अंध भक्ति की तरफ मोड़ा जाता है। यह सब जान कर उसका दिल मसोस उठा। उसके ही शब्दों में-

अक्सर मिशनरी में आने वाले बालक-बालिकाएं अत्यंत गरीब परिवारों के होते हैं। आर्थिक रूप से कमजोर माँ-बाप अपने बच्चे धर्म-विस्तार के काम के लिए देकर उनकी रोटी और ठीक-ठाक जीवन का आश्वासन पाते हैं और धर्म के काम आने का सुख और इज्जत भी। लेकिन कभी-कभी धनी परिवारों में भी किसी इच्छा के पूरे होने पर एक बच्चे को मिशनरी को समर्पित किये जाने की कामना की जाती है। और उसका शिकार अक्सर लड़कियाँ होती हैं। शिकार इसलिए कि मन्नत कुछ इस तरह मानी जाती कि चपेट में सिर्फ लड़की आये क्योंकि धनिक परिवारों में विरासत का सवाल सिर्फ लड़के से हल होता है़….।

ऐसे ही एक परिवार में बच्चे बच नहीं रहे थे। सो मन्नत मांगी गई कि यदि बेटी हुई और उसके बाद लड़का भी बच  गया तो तेरह साल की उम्र में लड़की को नन बनाने के लिए मिशनरी को सौंप दिया जायेगा। यह किस्सा ऐसी ही एक लाड़ली का है जो पैदा होने के पूर्व ही यीशु की सेविका मान ली गई।

परिवार मे लड़की पैदा हुई। इतनी खूबसूरत कि बिशप ने उसकी सुन्दरता को देखते हुए उसका नाम पुष्पा रखा। पर पुष्पा का भाग्य उसके जैसा खूबसूरत नहीं था। वह  और  उसके  पीछे  तीन  भाई  बच गए।
(Does religion really teach us to love?)

वह दस साल की हो चुकी थी और मंगलोर के अपने बड़े से घर में दिन भर तितलियों के पीछे भागा करती, मीठे  शहद-सा कटहल खाती। अमरक चूसती, झूला झूलती और स्कूल जाती। राह चलते  से लेकर टीचर तक उसकी सुन्दरता की सराहना करते। बाल मन अब किशोर अवस्था की तरफ था और तमाम किस्सों में खुद को ढूँढने लगा था लेकिन अब घरवालों के सुर बदलने लगे थे। दादी अक्सर उसे जोर से बाहों में जकड़ लेती और दो आंसू बहा लेती।  माँ कटी-कटी और चिड़चिड़ाने लगी थी। पिता उसे आर्द्र नजरों से देखते रहते। उसके पैरों की प्रिय पायल, जो सारे  दिन रुनझुन का शोर मचाती थी, उतार ली गयी। आजाद बुलबुल को पिंजरे में रहने को कहा जाने लगा। उसका बालमन आहत होता। लेकिन कुछ ही पलों में वह सब भूल फिर से डाली-डाली कुहुकने लगती।

एक दिन उसकी साथी छात्रा, जो कि उसके पिता के मित्र की बेटी थी, पूछ बैठी : ”तुम मिशनरी कब जाओगी? क्या एग्जाम देते ही या कोई डिग्री लेने के बाद ?” वह भड़क उठी, बोली- ”मैं क्यों जाऊंगी? मैं अपना घर और भाई-बहन क्यों छोड़ूं भला?”

घर आते ही दादी से अपनी सहेली की शिकायत करते हुए वह उसे पागल करार दे ही रही थी कि माँ के ठन्डे स्वरों ने उसे जमीन पर ला पटका।…. माँ क्या कह रही थी उसे नहीं पता। बस इतना सुनाई दिया कि कुछ ही दिनों में उसे हमेशा के लिए मंगलोर भेज दिया  जाएगा! वह जब होश में आई तो पूरा परिवार न सिर्फ निर्णय ले चुका था बल्कि उसे मानसिक रूप से तैयार करने को पूरे साजो-सामान के साथ खड़ा था। लेकिन वह अपनों की निर्दयता से आहत न कुछ सुन पा रही  थी  न समझ़….!

धर्मभीरु परिवार किसी अनिष्ट की आशंका से उसे पूजने में लग गया। नए जेवर पहनाये गए, नए कपड़े और तरह-तरह के व्यंजन बना कर खुश करने की कोशिश होती। घर पर वह कुछ दिनों की मेहमान थी और सबको मालूम था कि मिशनरी में जाते ही वह इन सारी चीजों से सदा के लिए वंचित हो जाएगी या रात-दिन के ‘आशीष और प्रवचन’ शायद उसे खुद ही विरक्त  कर दें।

पुष्पा को न अब स्वाद आता  था, न उल्लास! जाने वाले दिन सारे जेवर उतारे गए। बस, एक पायल ही थी जिसे पुष्पा ने उतारने से मना कर दिया, वह उसके मामा ने दी थी…. मिशनरी के वीराने में अंजानों के बीच अपनी कोमल कली को छोड़ते हुए माँ-बाप विह्वल हुए लेकिन सुकून से भरे घर लौट गए।

मिशनरी में सबसे पहले उसकी पायल उतरवाई गयी, बिंदी मिटाई गयी, चूड़ियाँ फिंकवायी गयीं। ये कुछ ऐसे घाव थे जो किसी को भी पुराना वक्त याद दिलाकर घायल कर सकते थे। सिसकती पुष्पा को पुष्पा से सिस्टर बनाने में मदर को बहुत मशक्कत करनी पड़ी। लेकिन एक हीरा निखर कर आया और वह इतनी काबिल हुई कि जल्दी ही उसे स्कूल का इंचार्ज बना दिया गया।

मेरी मित्र उसी स्कूल में पढ़ाती थी। उन्होंने आगे बताया-‘स्कूल के मामलों में कभी अध्यापकों के परिवार या अभिभावकों के घर-परिवार से मिलना पड़ता था। कभी-कभी अन्य मिशनरी स्कूल चला रहे फादर-प्रिंसिपल से भी। ऐसे में न जाने कब पुष्पा को लगा कि एक सफेद सफ्फाक पंखों वाला हंस जिसके पीछे वह दिन भर भागा करती थी, वह फादर विमल में समा गया है। वह विमल से मिलने के बहाने ढूंढने लगती। फादर विमल के साथ स्कूल वेलफेयर के मंसूबे बनते, उसके साथ ही एक्जीबिसन की योजना पर हफ्तों खर्च होते, नई क्लास ईजाद होती और धीरे-धीरे ऐसे ही एक साल बीत गया। हर वह बहाना ढूँढती जो फादर विमल के साथ वक्त गुजारने का मौका दे।

धार्मिकता में मानवीय संवेदनाओं और मनुष्य के आपसी प्रेम को नकारना आम है लेकिन वह प्रेम क्या जो उत्कट न हो। कुछ जलाये ना, या लोगों को अपनी चमक न दिखाए। प्रेमियों को रोकना तूफान रोकने से कम है क्या?
(Does religion really teach us to love?)

रोज शाम सिस्टर पुष्पा अपने ऑफिस में फालतू कामों के बहानों को लेकर बैठती और फादर विमल का वेस्पा स्कूटर भी आ जाता। लोग आवाजों से अंदाजा लगाने लगे कि कब आये और कब गए। कांच की विशाल खिड़कियों के पीछे सबके सामने सिर्फ एक-दूसरे को देख कर दो दिल जीते और चलने का वक्त होते ही मर जाते! हास्टल से आती सिस्टर पुष्पा तेज कदमों से आकर अफिस ठीक करती और जाते समय कदम घसीटती, खयालों में खोयी अपने कमरे में जा पड़ती। फादर विमल का रोज शाम को अपने स्कूल से गायब रहना प्रश्न खड़े करने लगा। इधर सुना कि फादर विमल दिल के अहसास और धर्म की कशमकश में पीने भी लगे।

बात मदर सुपीरियर तक पहुँची। सर झुकाए पुष्पा की इज्जत आँखों ही आँखों में तार-तार हुई। आखिर उसने इतना बड़ा पाप किया कैसे? धर्म के हिसाब से न वह मनुष्य थी, न एक स्त्री!? नन होकर यीशु के अतिरिक्त अन्य पुरुष से राग! दूसरे पुरुष से प्रेम कैसे कर सकती थी?

मदर एक कठोर निर्णय ले चुकी थी। बिशप ने भी साथ दिया। अगली सुबह सिस्टर पुष्पा की जगह मार्था ऑफिस संभाल रही थी। सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सका कि रातों-रात सिस्टर पुष्पा को सिक्किम के किसी अत्यंत सुदूर इलाके में भेज दिया गया था और फादर विमल को उन्हीं के होम टाउन केरल के पिछड़े इलाके में। एक सख्त हिदायत के साथ। दोनों भारत के दो सुदूर कोनों पर। असल में कौन कहाँ है किसी को ज्ञात नहीं। दोनों के अधिकार सीमित कर दिए गए और आगाह भी

अपनी मित्र से यह किस्सा सुन कर आहत हुआ। सोचता हूं जब फोन नहीं थे, एक-दूसरे का पता नहीं था तो कैसे खुद को संभाला होगा ? क्या वे दोनों अब भी जिन्दा होंगे एक-दूसरे के बिना? क्या फिर कभी किस्मत ने मिलाया होगा? इस इन्टरनेट के जमाने में क्या एक-दूसरे को खोज रहे होंगे या अब वे भी किसी पुष्पा और विमल को सुधारने में लग गए होंगे?

और कितनी पुष्पा होंगी जो धर्म के नाम पर बलि चढ़ती होंगी या विमल होंगे जो अपने ही जीवन का निर्णय खुद नहीं ले पाते होंगे !!

क्या सच में धर्म हमें प्रेम करना सिखाता है ?? क्या सचमुच ??????
(Does religion really teach us to love?)
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