दस्तावेज : नारी जीवन

शिव प्रसाद डबराल

डॉ. शिव प्रसाद डबराल (13 नवम्बर 1912-24 नवम्बर 1999) ने उत्तराखण्ड के इतिहास पर बहुआयामी शोध किया है। उत्तराखण्ड के इतिहास पर उनके ग्रन्थ प्रामाणिक माने जाते हैं। प्रागैतिहासिक काल से लेकर ब्रिटिशकाल तक के  इतिहास पर उनके ग्रन्थों की श्रृंखला है। प्रस्तुत आलेख उनकी उत्तराखण्ड का इतिहास भाग 12 गढ़वाल का इतिहास खण्ड 2 से लिया गया है जिसमें सामन्ती काल में नारी की स्थिति पर उन्होंने टिप्पणी की है।

कुछ जातियों में संभवत: नारियों की संख्या पुरुषों की संख्या से कुछ कम थी। कृषि और पशुचारण, दोनों में नारी आवश्यक सेवक एवं प्रमुख सहायक थी। कष्टकारी श्रम उसी के द्वारा सम्पादित होते थे। चार-पांच वर्ष की आयु से ही वह श्रम में भाग लेने लगती थी, तथा मौके और ससुराल में जीवनान्त तक, उषाकाल से लेकर रात्रि में देर तक श्रम में जुती रहती थी। घर-गृहस्थी उसी पर टिकी थी। उसकी अतिशय उपयोगिता ने बहु-पत्नी प्रथा को जन्म दिया था, तथा दोनों ने कन्या शुल्क लेने की प्रथा को। विवाह आठ-दस वर्ष की आयु से लेकर पन्द्रह-सोलह वर्ष की आयु तक हो जाते थे। रंडुवे, केवल कन्या सन्तान वाले, तथा सम्पन्न अधेड़ और बूढ़े भी रुपयों की थैली और आभूषणों को लेकर पन्द्रह-सोलह वर्ष की कन्याओं की खोज में चल पड़ते थे। पिता कन्या शुल्क लेकर सुदूर के गाँवों में भी पुत्रियों का विवाह कर देते थे। ससुराल में पुत्रियाँ मैके की खुद (याद) से व्यथित रहती थीं।  बड़ी उत्सुकता से तथा देवी-देवताओं की मनौती मानती हुई उस दिन की प्रतीक्षा करती रहती थीं, जिस दिन उनका भाई, चैत के महीने में उन्हें माता-पिता की कुशल सुनाने आएगा। मैत की खुद से व्यथित कफू, घुघती आदि पक्षियों एवं वायु के झोंकों, मेघों आदि से वे उनका सन्देश मैते में ले जाने की प्रार्थना करती थीं। मानो इसी से प्रेरणा लेकर कालिदास का यक्ष अपनी प्रियतमा के पास सन्देश भेजता है। पर गढ़वाल के पुराने लोकगीतों में सर्वत्र मैत की खुद की चर्चा है, पति या पत्नी के वियोगजन्य खुद की नहीं। तब तक प्रवास पर, दीर्घकाल के लिये, सुदूर चले जाने की प्रथा नहीं थी। कन्या शुल्क लेने की प्रथा सार्वभौम थी। उसे कन्या-विक्रय की प्रथा नहीं कह सकते। कन्या-शुल्क लेकर जिस किसी के पास पुत्री नहीं बेच सकते थे। उसका अपनी समकक्ष जाति वाले से ही विवाह होता था। ससुराल में अभाव और कष्ट का जीवन था। सास-ननदों की झिड़कियों से, शीत, हिम, वर्षा और ओलापात में भी, घास-लकड़ी के लिये वन में भटकने से, भेलों से गिरती हुई शिलाओं, उमड़ती हुई नदियों, सर्प, व्याघ्र, भालू आदि के उत्पातों से बहुओं का जीवन रोते-कलपते बीतता था। कई बहुएँ नदी में छलांग लगाकर या स्वयं फाँसी लगाकर मर जाती थीं। बहू को पशु के समान भारवाही समझा जाता था। गाँव में किसी के भी घर पर भारवहन के लिये बहुओं को भेजा जाता था।  जब देवी-देवता नरबलि माँगते थे तो प्राय: बहू की बलि दी जाती थी। बहू के दु:खी जीवन से सम्बन्धित अनेक लोकगाथाएँ आज तक चली आती हैं। दिनभर कठोर श्रम के पश्चात् भरपेट भोजन नहीं मिलता था। गेहूँ, चावल राजस्व चुकाने के लिये रखने पड़ते थे। उनको तो पुरुष भी नहीं चख सकते थे, फिर वे नारियों को कैसे मिलते? पुरुषों को दूध-घी कभी मिल भी जाता पर नारियों को छाँछ और दही से ही संतोष करना पड़ता था। रात को बहू, भीगी हुई ऊन या भाँग की चादर सुखाने के लिए झोपड़ी में फैला देती थी, और चूल्हे के पास चीड़ के पत्ते या पराल पर अपने बच्चों के साथ लेटकर, किसी चिथड़े से अपने को और बच्चों को ढककर रात बिताती थी। यदि कभी मायके आती थी तो सौतेली माँ के आतंक से उसे अगले ही दिन ससुराल लौटना पड़ता था। सभी वर्गों में, विशेष रूप से राजाओं, राजपरिवार के व्यक्तियों, उच्च ब्राह्मणों और राजपूतों में बहु पत्नी प्रथा व्यापक रूप से फैली थी। पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी विवाहिता पत्नियों को उनके नामान्त में क्रमश: सुन्दरी, मुन्दरी, खंजरी और मंजरी लगाकर पुकारा जाता था। उनके अतिरिक्त रखेलन, छ्योड़ी या ढाँटियां रखने के लिए भी ये भद्र पुरुष तड़पते थे। विधवा भावज को पत्नी बना लेने की प्रथा सार्वभौम थी। पत्नियाँ अपनी वर्ण की ही हो सकती थीं, पर ढ़ांटियाँ इस बन्धन से पूर्णत: मुक्त थीं। पत्नियों के इस जमघट में से अनेक राजरोग (क्षय), प्रसूत, खानसी, आन्त्रशोथ, वायु रोग, आत्महत्या आदि से अकाल में ही काल कवलित होकर नई नारियों के लिए स्थान रिक्त करती रहती थीं।

Document : Women's Life

कुछ युवतियाँ अपने प्रेमी के साथ भाग जाती थीं। उनके लिए लड़ाई-झगड़े, यहाँ तक कि युद्ध भी होते थे। प्रेमी के मारे जाने पर कुछ स्वयं युद्ध करतीं और शत्रु से बदला लेकर अपने प्रेमी-पति के साथ सती हो जाती थी। कई नारियाँ सतीत्व की रक्षा के लिए संघर्ष करती या आत्महत्या कर लेती थीं। रानियाँ प्राय: राजा की मृत्यु हो जाने पर सती हो जाती थीं। देवप्रयाग में सती हुई रानियों के स्मारक लेख थे। सलाण में, जैगाँव एवं डाडामंडी, भेल्डा नामक गाँवों में अभी कुछ समय पूर्व तक सतियों के लगभग दो दर्जन मठ थे पर उनके लेखों की छानबीन नहीं हो सकती। सभी विधवा रानियाँ सती नहीं होती थी। महिपति शाह की रानी कर्णावती ने, जो इतिहास में नाककाटी राणी के नाम से प्रसिद्ध है, राजा की मृत्यु के पश्चात् 1635 से 1640 तक शासन किया था और शाहजहाँ के एक सेनानायक नजावत खाँ के आक्रमण को विफल कर दिया था। मेदिनी शाह की दो रानियों, सिरमोरी जी और बड़त्वाली जी ने सती न होकर अपने पुत्र फतेशाह के पालन-पोषण का भार उठाया था। प्रदीप शाह की माता कनकदेवी ने अपने अबोध पुत्र की रक्षा के लिए कठैतगर्दी में बड़े साहस से उत्पातियों का उच्छेदन किया था। तीलू रौतेली ने कैन्तूरा छापामारों को रोकने में अपने प्राण दिये थे। राज्य के गाँवों में न जाने कितनी नारियाँ विपत्ति में इसी प्रकार साहसपूर्वक संघर्ष करती थीं। पर्दे की प्रथा नहीं थी। नारियाँ बड़ी श्रद्धालु और अंधविश्वासी थीं। ग्राम देवी-देवताओं तथा भूत-प्रेत, आंछरी, मसाण, भराड़ी आदि के प्रकोप से मुख्यत: नारियाँ ही पीड़ित होती थीं। गणतुवा, जागरी आदि की मान्यताएँ मुख्यत: उन्हीं पर टिकी थीं। देवी-देवताओं का आवेश आने पर वे नाचती-कूदतीं भी थीं। वे परम्परागत ढंग से त्योहार मनातीं तथा अन्य र्धािमक कृत्य करती थीं। वास्तव में परिवार में पुरातन काल से चले आने वाले र्धािमक कृत्य उन्हीं के द्वारा संपादित होते थे। यद्यपि परिवार का निर्वाह नारी पर ही मुख्य रूप से निर्भर था फिर भी उसे पुरुष से अत्यन्त क्षुद्र समझा जाता था। पति आवेश में आकर पत्नी की नाक काट सकता था, पीटते-पीटते उसे घर से बाहर धकेल सकता था। हीन वर्ण की नारी से व्यभिचार करने पर पुरुष चान्द्रायण से पुन: अपने जाति भाइयों में मिल सकता था। किन्तु यदि नारी हीन वर्ण के पुरुष से व्यभिचार करती तो उसे चान्द्रायण का अधिकार न था। उसे तब शेष जीवन हीन वर्ण में रहकर ही बिताना होता था। कन्या के जन्म के समय हर्ष कम ही होता था। उसे छोरी, कुत्ती, लौंडी-जैसे नामों से पुकारा जाता था। शताब्दियों की मान्यताओं के कारण आज भी नारियाँ स्वयं कहती हैं- ‘जनानी त मरद की जुत्ती छ’।

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