कोरोना महामारी और मजदूर महिलाएं

Corona Epidemic and women Labor
फोटो : बीबीसी
ज्योत्स्ना राज

‘कोविड महामारी’ इस शब्द से पूरी तरह परिचय उस दिन हुआ जब भारत में एक दिन का ‘जनता कर्फ्यू’ लगा, जो जहां था, उसे वहीं रोक दिया गया। कितना भी आकस्मिक काम क्यों न हो, आप कहीं नहीं जा सकते। यहां तक कि अपने प्रियजनों की मौत पर भी नहीं जाने दिया गया और इसके अगले ही दिन लॉकडाउन घोषित कर दिया गया। लोगों को एहसास भी नहीं हो पाया कि इसके परिणाम कितने भयावह होने वाले हैं। यह लॉकडाउन शब्द एक ऐसा शब्द है, जो मजदूरों के हक-अधिकारों के लिए होने वाले संघर्षों से निपटने के लिए तालाबंदी के रूप में सुनाई देता था। जहां पूंजीपति वित्तीय व बाजार के संकट से निपटने के लिए कारखानों में तालाबंदी कर मजदूरों की रोजी-रोटी छीन लेता था। (Corona Epidemic and women Labor)                                      

पूरे देश में घोषित लॉकडाउन ने मजदूर वर्ग के सामने चुनौती खड़ी कर दी है। सबसे बड़ी चुनौती है- उनके कार्यस्थलों का बंद हो जाना। जहां से उनकी रोजी-रोटी ही खत्म कर दी गई है। एक तरह से देखा जाए तो उन्हें विस्थापित कर दिया गया। ये विस्थापित मजदूर जिन्होंने कुछ दिन तो इंतजार किया कि शायद उनके कार्यस्थल खुल जायें, ये अचानक पैदा हुआ संकट शायद हल हो जाए, पर जब उनकी जमा-पूंजी भी खत्म हो गई और जीवन टिकाए रखने का संकट खड़ा हो गया तब मालिकों ने भी पल्ला झाड़ते हुए उन्हें घर वापस लौटने के लिए मजबूर कर दिया।                                  

मजदूरों का कोई देश नहीं होता। वे अंतरर्राष्ट्रीय होते हैं। इसी चारित्रिक विशेषता के कारण ही यह नारा सृजित और मशहूर हुआ कि ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’! हमारे देश में करोड़ों की संख्या में यह आबादी एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में, एक देश से दूसरे देश में अपनी श्रमशक्ति बेचने चली जाती है और अपने श्रम से अपार पूंजी पैदा कर देती है। कुछ राज्यों व शहरों को ‘हाइटेक स्टेट’ या ‘हाइटेक सिटी’ में तब्दील करने की क्षमता रखती है। और यही बात साबित करती है कि जहां रोजगार होता है, वे वहीं बस जाते हैं। अपने आप को, अपने अस्तित्व को वहीं से जोड़कर रखते हैं। लेकिन उनकी क्षमताओं का दोहन करके किसी आपदा के आते ही सबसे पहले उन्हें ही बाहर फेंक दिया जाता है। जिसका ताजा उदाहरण कोरोना महामारी के दौरान उनकी रोजी-रोटी छीन कर सबसे पहले उन्हीं पर प्रहार किया गया और झटके से उन्हें प्रवासी घोषित कर दिया गया। एक क्रूर सच्चाई यह भी है कि पूंजी जहां जायेगी, श्रम का वहां जाना लाजिमी है। मजदूरों का शोषण करके ही पूंजी जिंदा रह सकती है। इसलिए मजदूर सिर्फ मजदूर है जो अपनी श्रमशक्ति बेचता है। जो कोरोना की मार से कम बल्कि सरकारों की गलत और जनविरोधी नीतियों के चलते एक बार फिर बेघर व बेरोजगार कर दिया गया है। इन बेरोजगारों की फौज अपने लाव-लश्कर के साथ फिर से वहीं लौटने को मजबूर हुई जहां वे पहले से ही बेरोजगार थे।

इन बेरोजगार मजदूरों के काफिले में उनके साथ वे महिलाएं भी शामिल हैं, जो खुद किसी कारखाने या फैक्ट्री में मजदूर हुआ करती हैं। साथ ही वे महिलाएं हैं, जो अपने मजदूर साथी के साथ रहती हैं। महिलाओं का एक ऐसा तबका भी है जिनके घर के पुरुष बाहर कमाने गए और कोरोना वायरस की वजह से वहीं फंस गए। ऐसे में इन औरतों ने अपने बचत की रकम तथा अपने गहने बेचकर रुपये भेजे ताकि उनके घरों के लोग वापिस लौट सकें। कोरोना की वजह से औरतों के साथ और त्रासदियां भी जुड़ती चली गयीं। हम सभी जानते हैं कि भारतीय परिवेश में मजदूर वर्ग और किसानों पर कई तरह की सत्ताएं लाद दी गयी हैं, और इस देश की आधी आबादी पर एक अतिरिक्त सत्ता का बोझ भी है, वह है पितृसत्ता। जिसका स्थूल से लेकर सूक्ष्म स्वरूप तक पूरे भारतीय परिवेश में व्याप्त है।

पितृसत्ता का एक रूप कारखानों में दिखता है। जहां औरतें किसी कारखाने, फैक्ट्री या अफिस में काम करती हैं तो उनके काम की पकृति लगभग 80 प्रतिशत सहायक वाली होती है। उन्हें मशीन चलाने का मौका बमुश्किल ही दिया जाता है। यह मानकर ही उनकी भर्ती की जाती है कि वे अकुशल मजदूर हैं। धागा कटिंग से लेकर पैकिंग तक का जो भी काम होता है, इन महिला कामगारों के हिस्से में आता है। जिसका नतीजा है अकुशल मजदूरी। कुछ महिलाएं किसी तरह मशीन चलाने लगती हैं, तब भी उन्हें कम मजदूरी मिलती है। फैक्ट्री के अंदर महिला-पुरुष कामगारों के बीच समान काम की समान मजदूरी नहीं दी जाती। महिलाओं द्वारा इस बारे में सवाल करने पर वही वाहियात जवाब कि ‘औरतों की तनख्वाह कौन-सा घर चलाने के लिए होती है, घर तो मुख्यत: मर्दों की कमाई से चलता है।’ यह जुमला फैक्ट्रियों से लेकर प्राइवेट स्कूल-कॉलेज, यहां तक कि कॉरपोरेट सेक्टर में काम करने वाली महिलाओं को भी सुनना पड़ता है।  

औरतों की एक और स्थिति है। वे विशुद्ध घरेलू कामों में सुबह से शाम तक व्यस्त रहती हैं। पति, भाई और बेटों के काम पर जाने से पहले जरूरत की सारी चीजें तैयार करती हैं ताकि वे समय से काम पर पहुंच सकें, किन्तु उसके इस श्रम पर किसी की भी दृष्टि नही जाती, इसकी कोई कीमत नहीं आंकी जाती। जबकि यही वह श्रम है, जहां से पुरुष मजदूर ऊर्जा लेकर अपनी श्रमशक्ति बेचने कारखाने में जाता है और इन महिलाओं के आवश्यक श्रम को गैर-उत्पादक श्रम से जोड़ दिया जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि उस पुरुष मजदूर की मजदूरी में यह अनदेखा श्रम भी शामिल है। अब जबकि कोरोना वायरस के चलते उनके घरों के मर्दों का काम छूट गया है, वे बेरोजगार हो गये हैं तो इन महिलाओं की स्थिति और भी गम्भीर हो गई है। घर की तंगहाल स्थिति और पितृसत्तात्मक मूल्यों के चलते महिलाओं पर घरेलू हिंसा पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गयी है। 

अब हम बात करते हैं उन औरतों की जिनके घरों के पुरुष बाहर कमाने गए हैं। कुछ भारत के विभिन्न राज्यों में तथा कुछ विदेशों में (खासकर खाड़ी के देशों में)। ऐसे में कई बार यह स्थिति खड़ी हो जाती है कि वे महीनों पैसे नहीं भेज पाते और पीछे से उनका परिवार आर्थिक तंगी का शिकार होने लगता है। इन स्थितियों में ये औरतें उनके घरों में मुहैया कराये जाने वाले कामों में जुट जाती हैं।    

अपने घरेलू कामों को जल्द से जल्द निपटा कर वे अपने बच्चों सहित उन कामों को करतीं हैं जिससे उनकी आर्थिक तंगी कुछ कम हो सके। ये काम वे या तो खुद जाकर लाती हैं या ठेकेदार उनके घरों पर दे जाता है। लम्बे समय से चली आ रही ठेकेदारी प्रथा के कोढ़ की वजह से यह भी संभव हो गया है। इन कामों को औरतों से कराने के लिए ठेकेदार को कोई ‘शेड’ अर्थात काम करने की वह जगह जहां यूनिट के रूप में काम होता है, मुहैया नहीं कराना पड़ता है, उसे बिजली नहीं उपलब्ध करानी होती है, ऊपर से पीस रेट के हिसाब से उसे मजदूरी भी बहुत कम देनी होती है। जिस काम की मजदूरी एक फैक्ट्री के अंदर 400 रु़ प्रतिदिन है तो उसी काम को ठेकेदार 100 या 150 रु़ प्रतिदिन में करा लेता है। 

घरों में पीस रेट पर काम करने वाली औरतों को लगता है कि चलो घर बैठे ही काम मिल जाता है। इस तरह से मैं घर और काम दोनों को एक साथ देख लेती हूं। घर की डांवाडोल स्थिति को कुछ तो इन पैसों से ठीक कर सकती हूं। इस तरह उनके श्रम का भरपूर शोषण किया जाता है। इसके अलावा अनजाने में ही वे श्रम कानूनों से वंचित रह जाती हैं, सामूहिकता की ताकत से वंचित रह जाती हैं। कोरोना महामारी के चलते उनके इस तरह के कामों पर भी कुठाराघात हुआ है। यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि आज जो तकलीफेंपुरुष मजदूरों को उठानी पड़ रही हैं, उससे कहीं ज्यादा तकलीफ महिला कामगारों को उठानी पड़ रही है। 

बेरोजगार कर दिए गए मजदूरों के साथ जो महिलाएं विस्थापित होने के लिए मजबूर हुईं, उनकी दशा और भयावह हो गई है। कुदरत ने औरतों को एक ताकत बख्शी है, वह है उनके मां बनने की ताकत, जिससे पूरी मानव जाति का विकास संभव हो पाया। वही ताकत कोरोना महामारी के दौरान उनके लिए अभिशाप बन गई। पलायन के दौरान जबरदस्त मानसिक तनाव के कारण वक्त से पहले ही ‘माहवारी’ का आ जाना बहुत स्वाभाविक है, ऐसी स्थिति में लॉकडाउन के चलते कहीं कोई सेनेटरी नैपकिन भी उपलब्ध नहीं, माहवारी के दर्द से निजात पाने की कहीं कोई दवा नहीं। इससे भी बढ़कर जो महिलाएं गर्भवती थीं, वे सड़क पर ही  बच्चा जनने को मजबूर हो गईं। और तो और ‘कोविड प्रोटोकॉल’ के चलते ‘लेबर-पेन’ से छटपटाती महिलाओं को अस्पताल में दाखिले से पहले कोरोना टेस्ट कराना जरूरी हुआ, जिसकी प्रक्रिया लम्बी होने के कारण अस्पताल के गेट पर ही ‘प्रसव’ के कई केस सुनने में आ रहे हैं। ज्यादातर मामलों में नवजात शिशु की मौत तथा कई बार मां और बच्चे दोनों की मौत की खबरें लगातार सुनाईं दे रही हैं। जिसका ताजा उदाहरण अभी हाल में ही कानपुर और नोएडा हैं।

इन तमाम घटनाओं का विश्लेषण करें तो स्पष्ट रूप से कुछ बातें कही जा सकती हैं कि भारत जैसे देश की राज्य मशीनरी इस महामारी के दौरान भी चंद पैसे वाले घरानों को, कॉरपोरेट्स को, खस्ताहाल भारतीय अर्थव्यवस्था से उबारने की पैंतरेबाजी में लगी हुई है। आम भारतीय जनता से इन हुक्मरानों को कोई लेना देना नहीं है। और अब तो अघोषित रूप से मौजूदा सरकार ने ये ऐलान कर दिया है कि हम लॉकडाउन खत्म कर रहे हैं, तुम बच सकते हो तो अपने निजी प्रयासों से बच जाओ, नहीं तो हमारी कोई जवाबदेही नहीं है। लम्बे समय से लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था ने हमारे देश के हालात बहुत खराब कर दिए हैं और बहुत ही चालाकी से सरकार ने इसका ठीकरा ‘कोरोना महामारी’ पर फोड़ दिया है।

इन हालातों में आज की सबसे बड़ी जरूरत एकजुटता की है ताकि इस भयावह दौर को खत्म करने की शुरूआत की जा सके।