भारत में राष्ट्रवाद एवं धर्मनिरपेक्षिता का अंतर्विरोध

बृजेश जोशी

भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है अथवा नहीं, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। इस देश के संविधान का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष है और आज जब हिन्दू धर्म प्रधान राष्ट्रवाद की वकालत करने वाली भारतीय जनता पार्टी केन्द्र में शासन कर रही है तो राष्ट्रवाद एवं धर्म-सैद्धान्तिक रूप से देखा जाय तो राष्ट्रवाद एक मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक विचारधारा है, जिसमें एकत्व के आधार पर राष्ट्रीय भावना का विकास होता है। भाषा, जाति, धर्म, संस्कृति, भौगोलिक एकता के आधार पर राष्ट्र का विचार उत्पन्न होता है।

भारत में राष्ट्रवाद का ऐतिहासिक दृष्टि से प्रारम्भ मौर्यकाल में आचार्य चाणक्य और सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य से होता है। मध्यकाल में शिवाजी व राणा प्रताप तथा आधुनिक भारत में 1857 के स्वाधीनता संग्राम में इसका विशद रूप देखने को मिलता है। पाश्चात्य राष्ट्रवाद में इटली का फासीवाद और जर्मनी का नाजीवाद जातीय श्रेष्ठता की संकीर्णताओं से ग्रसित था। भारत में इस प्रकार के विचारक हुए जिन्होंने अल्पसंख्यकों के पृथक् प्रतिनिधित्व या उन्हें विशेष रूप से दी जाने वाली सुविधाओं की मुखालफत (विरोध) की। इन समर्थकों में पं. मालवीय, वीर सावरकर, दीनदयाल उपाध्याय, श्यामाप्रसाद मुखर्जी थे। जो उग्र हिन्दू राष्ट्रवाद की भावना से ग्रसित थे। धर्म के विकास को नृशास्त्रियों ने मानव-जाति का विकास माना है। (रोमिला थापर-प्राचीन विश्व का इतिहास)। लेकिन धर्म के इतिहास का सिंहावलोकन करने पर पता चलता है कि धर्म के नाम पर जितना रक्तपात और शोषण हुआ है, उतना शायद ही किसी के नाम पर हुआ हो। पाश्चात्य मध्य युग में ईसाई धर्म और उसके पोप-पादरियों का इतना अधिक आतंक और राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ गया था कि कई देशों में इन्होंने राजनीतिक सत्ता भी हथिया ली। इसलिए राजसत्ता को इन्हें अलग करना पड़ा। इस विरोधी भावना ने पश्चिम में धर्म-निरपेक्षता को जन्म दिया। जबकि भारत में धर्म और राजनीति में एक विशेष सहयोग बना रहा। भारत में एक नहीं, अनेक धर्म हैं। अत: भारत का धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में सर्वधर्म समभाव का भाव ही अभीष्ट रहा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 में भी उल्लेख है कि राज्य भारत के किसी भी नागरिक को धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर अलग नहीं करेगा। उनके साथ भेदभाव नहीं करेगा।

धर्मनिरपेक्षता ने ‘मुस्लिम और काफिर’, ‘आर्य और मलेच्छ’ आदि वर्गों में बँटी धार्मिक कट्टरता को कम करके सर्वधर्म समभाव और सहिष्णुता का पाठ विश्व को पढ़ाया है। किन्तु आज उसी भारत में सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता आदि को लेकर बहस अपने चरम पर है। भारत माता की जय बोलने पर राष्ट्रवादी होने का तमगा मिल सकता है। 207 फीट की ऊँचाई पर तिरंगा फहराने से कुछ और बड़ा अलंकरण मिलने की उम्मीद बन सकती है। हमारी धर्मनिरपेक्षता का प्रमुख अंग समाजवादी है। जिसमें निम्न वर्ग व उच्च वर्ग के बीचकी खाई को कम करने के लिए प्रयास होने चाहिए किन्तु यथार्थ में हम इन बुनियादी तत्वों से स्वयं को अलग करते जा रहे हैं। एक राजनीतिक दल दूसरे पर आक्षेप लगाता है, दूसरा तीसरे पर। इस प्रकार की गोलबंदी इन तकनीकी पहलुओं की पड़ताल करने के लिए आवश्यक है। देश के दो प्रमुख राजनीतिक दल इन मुद्दों पर जनता को सिर्फ गुमराह ही कर रहे हैं। भगवा दल उग्र राष्ट्रवाद की जड़ें हिन्दुस्तान की प्रमुख शैक्षणिक संस्थाओं में पसारने का कोई भी मौका नहीं गँवाना चाहता है। जिसकी बानगी जेएनयू, एनआईटी कश्मीर में देखी जा चुकी है। दूसरी ओर देश की सबसे पुरानी पंजे वाली पार्टी है जो अपना शिकंजा अल्पसंख्यकों एवं दलितों पर कसना चाहती है, जिसमें वह नाकाम ही रही है, क्योंकि उनका नेतृत्व ही धरातल से गायब है। भारत में ये दल धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने को व्याकुल हैं, जहाँ नैतिक शिक्षा के नाम पर किसी विशेष धर्म के सिद्धान्तों, विश्वासों, कर्मकाण्डों की शिक्षा प्रदान की जाती है। यह सब वोट बैंक की राजनीति के लिए आवश्यक हथियार बन चुके हैं। लेकिन दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों को उनकी बुनियादी सुविधाएँ मिल भी रही हैं या नहीं यह गंभीर विषय है। हमारे हुक्मरान सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता आदि पर लंबी-चौड़ी बहस तो करते हैं पर इसे कैसे स्थापित किया जाय यह उत्तर उनके पास नहीं है। राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता को प्राय: राजनीतिक दल अपने-अपने चश्मों से देखने लगे हैं, कानून के सम्मान की बात करने वाले ये ही लोग पटियाला हाउस कोर्ट में (कन्हैया की सुनवाई के दौरान) हाथ में तिरंगा लिये और भारत माँ की जय-जयकार करते हुए, बेरहमी से हिंसा का रुख अख्तियार करते हैं। शायद अब राष्ट्रवादियों को भय लगने लगा है कि भारत-माता कमजोर हो चुकी है और कुछ नारों के उठने से चकनाचूर हो जायेगी। राष्ट्रवाद एक तबके के लिए ही प्रासंगिक हो गया है, ऐसा नहीं है किन्तु धर्म के नाम पर, चाहे वह कोई भी धर्म क्यों न हो, यदि राजनीति की जायेगी तो ये संवैधानिक तत्व कमजोर पड़ जायेंगे। वास्तविक रूप में यदि राष्ट्रवाद को समझना है तो धर्मनिरपेक्षता को अपनाना होगा और सकारात्मक कदम उठाते हुए नीति का राज चलाना होगा। यही भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती और आकर्षण भी है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जैसे भारतीय परम्परा में एक ईश्वर को मानते हुए भी अनेक देवतओं के सह-अस्तित्व को स्वीकारा गया है, उसी प्रकार अनेक धर्म और जाति वाले इस देश में अपने-अपने धर्म, जाति को मानते हुए दूसरे धर्म और जाति का सम्मान करते हुए राष्ट्रहित में कार्य करने की आवश्यकता बताई गई है। वैश्वीकरण के इस युग में आज विश्व की जिस प्रकार से समाज रचना हो रही है, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और समाजवाद उसके मुख्य तत्व हैं। स्वस्थ राष्ट्रवाद व स्वस्थ धर्मनिरपेक्षता में कोई अंर्तिवरोध नहीं है। पर भारत में वर्तमान समय में यह तथाकथित अंर्तिवरोध आ गया है। जिसका कारण बनावटी, स्वार्थपूर्ण और अज्ञान है। इन दोनों के वास्तविक स्वरूप को न समझ पाने के कारण और कुछ लोगों द्वारा जानबूझकर अपने हित-साधन में किए गए दुष्प्रचार के कारण ही यह अन्र्तिवरोध उत्पन्न हुआ है। लोकतांत्रिक देश होने के कारण इन विषयों पर बहस, वाद-विवाद द्वारा नए कदम धरातलीय स्तर से उठाने चाहिए। किसी को कुछ कहने, बोलने से रोकने पर परहेज भी करना होगा।
(Contradiction of Nationalism and Secularism in India)
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