सामुदायिक स्वास्थ्य और आशा

उमा भट्ट

2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NHRM) के तहत आशा कार्यक्रम का एक ढांचा बना जिसकी अन्तिम कड़ी आशा थी। इस प्रकार पूरे देश में स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रूप में आशा की संकल्पना का उद्देश्य था, प्रत्येक व्यक्ति तक स्वास्थ्य सुविधाओं का पहुंचना। यह कार्यक्रम पूरे देश में लागू हुआ, लेकिन कुछ प्रदेश अभी इस योजना से छूटे हैं। उत्तराखण्ड के ग्रामीण क्षेत्रों में 2005 से तथा शहरी क्षेत्रों में अप्रैल 2007 से इस कार्यक्रम की शुरूआत हुई। यह केन्द्र सरकार की योजना है जिसे लागू करना राज्य सरकार का दायित्व है। इसका उद्देश्य स्वास्थ्य सेवाओं में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करना और स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारकों पर कार्यवाही करना है।

स्वास्थ्य सेवाओं में समुदाय की भागीदारी कराने की कोशिशें पूरी दुनियां में चल रही हैं परन्तु चीन, बांगलादेश और ईरान के प्रयोग अधिक व्यापक और सफल रहे हैं। चीन में 1950 में कम्यूनिटी हेल्थ वर्कर की धारणा को स्वीकार करते हुए इसे लागू किया गया और इन कार्यकर्ताओं को बेयरफुट डॉक्टर कहा गया। बांगलादेश में ग्रामीण स्वास्थ्य में सुधार के लिए 1972 में सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (SHC) कार्यक्रम लागू हुआ। वहां इन्हें स्वास्थ्य सेविका कहा गया। लेकिन कम वेतन और अधिक काम की वजह से असन्तोष भी बना रहा। 1978 से ईरान में भी सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यक्रम चलाया गया जिसके अच्छे परिणाम दिखाई दिये और मातृ-शिशु-मृत्यु दर में कमी आई। हमारे देश में 1980 में महाराष्ट्र के आदिवासी क्षेत्रों में गैर सरकारी संगठन सर्च (SEARCH) ने ग्राम स्वास्थ्य कार्यकर्ता (VHW) के जरिये सामुदायिक स्वास्थ्य पर काम करना प्रारम्भ किया। 2002 में छत्तीसगढ़ में मितानिन कार्यक्रम शुरू हुआ जो आशा की ही तरह था और इससे मातृ-शिशु मृत्युदर में काफी कमी आई। यह एक प्रकार से आशा का पूर्ववर्ती कार्यक्रम था। मितानिन ही बाद में आशा कही गईं। इस कार्यक्रम में विश्व के अधिकांश देशों में महिला कार्यकर्ता हैं पर ईरान, मिस्र, भूटान, थाइलैण्ड जैसे देशों में पुरुष कार्यकर्ता भी हैं।

आशा इस कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण स्तम्भ है। मुख्यत: वह प्रजनन और बाल स्वास्थ्य के लिए है पर उसे इस तरह प्रशिक्षित किया जा रहा है कि वह अन्य रोगों की रोकथाम में भी सहायक हो सके। आशा के साथ-साथ ग्रामीण स्वास्थ्य स्वच्छता एवं पोषण समिति भी एक महत्वपूर्ण कड़ी है जो ग्राम पंचायत स्तर पर गठित होती है। समिति में कम से कम 15 सदस्य होने चाहिए। ग्राम पंचायत के निर्वाचित सदस्यों, आशा कार्यकर्ता, ए.एन.एम., आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, गाँव स्तर के स्कूल के शिक्षक, स्वयं सहायता समूह, युवा समितियों के सदस्य आदि में से इस समिति के सदस्य चुने जाने चाहिए। समिति के सदस्यों में आधी संख्या महिलाओं की होनी चाहिए। इसमें आमंत्रित सदस्य भी हो सकते हैं। सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए।

प्रथम चरण में आशाओं को प्रसव तथा मातृ-शिशु स्वास्थ्य का काम दिया गया था पर बाद में गैर संचारी रोगों की पहचान, निदान और दीर्घकालिक प्रबन्ध का काम भी दे दिया गया। 2013 में पूरे देश में 8.9 लाख आशा कार्यकर्ता हैं तथा 5.5 लाख ग्रामीण स्वास्थ्य स्वच्छता एवं पोषण समितियां बन चुकी हैं। इस प्रकार स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं और समितियों का जाल बन गया है जो स्वास्थ्य की देखभाल के साथ गांव स्तर तक की स्वास्थ्य सम्बन्धी सूचनाओं के संकलन का एक सशक्त जरिया बन चुका है। एएनएम का क्षेत्र प्रति 3000 की जनसंख्या है जबकि आशा 500 या 1000 की जनसंख्या पर हैं। छत्तीसगढ़, उड़ीसा, गुजरात, राजस्थान एवं केरल में इस कार्यक्रम के तहत सबसे प्रभावशाली काम हुआ है। बिहार में इन्हें आशा बहू, झारखण्ड में आशा सइयां और पश्चिमी बंगाल में आशा दीदी कहा जाता है।

2005 में कार्यक्रम की शुरूआत के बाद समय-समय पर इसके संचालन के लिए निर्देश जारी हुए। 2013 में केन्द्रीय स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा ‘सामुदायिक प्रक्रियाओं के लिए दिशा निर्देश’ शीर्षक से विस्तृत दिशा निर्देश इस कार्यक्रम के  सन्दर्भ में जारी हो चुके हैं जिसके अनुसार आशा का अर्थ अधिकृत सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (एक्रेडिटेड सोशल हेल्थ एक्टीविस्ट) है। वह स्वास्थ्य सेवा प्रदाता है जिसका काम अपने क्षेत्र के घरों का दौरा करना, ग्रामीण स्वास्थ्य स्वच्छता एवं पोषण समिति की बैठकों में भाग लेना, स्वास्थ्य केन्द्र का दौरा करना, रिकार्ड रखना है। आशा का चयन प्रति 1000 की जनसंख्या पर होता है लेकिन जनजातीय, पहाड़ी, रेगिस्तानी इलाकों में प्रति बस्ती अथवा 500 की जनसंख्या पर एक आशा का चयन किया जा सकता है। शहरी इलाकों में एक वार्ड में दो आशा हैं। अपने ही गांव या क्षेत्र से आशा चुनी जाती है तथा 25 से 45 आयु वर्ग की विवाहित, विधवा, तलाकशुदा या परिवार से अलग रह रही महिला को वरीयता दी जाती है। यद्यपि उसे आठवीं कक्षा तक शिक्षित होना चाहिए पर कई मामलों में इसमें ढील दी गई है। इस परियोजना का ढांचा ग्राम स्तर से उप विकास खण्ड, विकास खण्ड, जिला तथा राज्य स्तर तक बनाया गया है। राज्य स्तर पर जैसे राज्य नोडल अधिकारी, राज्य आशा और सामुदायिक प्रक्रिया मेंटरिंग समूह, राज्य प्रशिक्षक, राज्य आशा और सामुदायिक संसाधन केन्द्र हैं, उसी प्रकार उप विकास खण्ड, विकास खण्ड तथा जिला स्तर पर भी हैं।
(community Health and Asha )

आशाओं को निरन्तर प्रशिक्षण दिया जाता है। आशा के रूप में चयन होने पर आठ दिन का प्रारम्भिक प्रशिक्षण होता है। बीस दिन का दक्षता प्रशिक्षण चार चरणों में दिया जाता है। वर्ष में कम से कम एक बार 15 दिन का पुनश्चर्या प्रशिक्षण दिया जाता है जिसका उद्देश्य नई दक्षताएं हासिल करना है। राज्य, जिला, विकास खण्ड तथा उप विकास खण्ड के स्तर पर प्रशिक्षकों की टीम तथा प्रशिक्षण स्थल हैं। चिकित्सक, बाल विकास विभाग के अधिकारी, गैरसरकारी संस्थाओं के सदस्य प्रशिक्षण दल में होते हैं। मुख्यत: टीकाकरण, गर्भवती की देखभाल, शिशु की देखभाल आदि का प्रशिक्षण दिया जाता है। सभी स्तरों पर गैर सरकारी संगठनों तथा सिविल सोसाइटी की इसमें भागीदारी है। कई राज्यों में प्रशिक्षण का काम पी़ पी़ पी़ मोड पर हो रहा है। स्वास्थ्य विभाग के साथ महिला एवं बाल विकास विभाग से भी यह कार्यक्रम जुड़ा है।

आशा का काम प्रतिदिन तीन से चार घन्टे के हिसाब से सप्ताह में 4 या 5 दिन होना चाहिए और इससे उसकी मुख्य आजीविका प्रभावित नहीं होनी चाहिए। यदि उसका पूरा दिन आशा के कामों में निकल जाता है तो उसे इसका मुआवजा दिया जाना चाहिए। विभिन्न राष्ट्रीय कार्यक्रमों जैसे पल्स पोलियो, मलेरिया, स्वास्थ्य कार्ड आदि का काम जब उससे लिया जाता है तो इसके लिए उसे प्रोत्साहन राशि दी जाती है। प्रशिक्षण में जाने पर उसे यात्रा भत्ता दिया जाता है। सरकारी अस्पतालों में उसके लिए रात्रि विश्राम कक्ष की व्यवस्था की बात दिशा निर्देशों में कही गई है। आशाओं को कोई परेशानी होने पर उनके लिए शिकायत निवारण समितियां भी बनी हैं जिसमें दो सदस्य गैर सरकारी संगठनों से, दो सदस्य महिला एवं बाल विकास विभाग से तथा एक सदस्य मुख्य चिकित्साधिकारी द्वारा नामित होता है। समिति द्वारा समाधान न हो पाने पर आशा राज्य स्तर पर अपनी शिकायत ले जा सकती है। आशाओं की सक्रियता के आधार पर उनको ए बी सी डी गे्रड भी दिया जाता है और काम न करने पर निकाला भी जा सकता है। आशा के कामों में महिलाओं के स्वास्थ्य के अलावा जेंडर सम्बन्धी समस्याओं को भी रखा गया है। 2013 के दिशा निर्देशों में यह स्पष्ट लिखा गया है कि पोषण में भेदभाव, घरेलू हिंसा, महिला उत्पीड़न की आशा को समझ होनी चाहिए तथा महिला सम्बन्धी कानूनों की जानकारी होनी चाहिए। हिंसा तथा जेंडर के मामलों में महिलाओं को एकजुट करना, आवाज उठाने के लिए समर्थन देना, हिंसा के खतरे वाली महिलाओं की पहचान करना, उनके बीच चर्चा करना आदि भी आशा के कर्तव्यों में शामिल है।

आशा के लिए वेतन या मानदेय की व्यवस्था नहीं है। उसे प्रति प्रसव ग्रामीण क्षेत्र में 600 रुपया तथा शहरी क्षेत्र में 400 रुपया मिलता है। इसके लिए उसे गर्भवती की पूरी देखभाल करनी पड़ती है। प्रसव से पूर्व तथा प्रसव के बाद शिशु का टीकाकरण कराने के लिए 150 रुपया मिलता है। अपने-अपने इलाके की स्वास्थ्य सम्बन्धी रिपोर्ट तैयार करने के लिए 650 रु़ प्रतिमाह मिलता है। इसे ग्रुप एक्टिविटी कहा जाता है। इस रिपोर्ट में देखा जाता है कि 0-1 तथा 1-6 आयु वर्ग में कितने बच्चे हैं। शुरूआत में आशा के लिए ये ही काम थे पर बाद में पल्स पोलियो, मलेरिया पखवाड़ा, परिवार नियोजन, जन्म-मृत्यु पंजीकरण, स्वास्थ्य कार्ड बनाना आदि का काम भी इन्हें दे दिया गया। इन अतिरिक्त कार्यों के लिए भी उसे पैसा मिलता है।
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आये दिन अखबारों में आशा कार्यकर्ताओं के आन्दोलन की खबरें छपती रहती हैं। आखिर इनकी समस्याएं क्या हैं। बातचीत करने पर ये कहती हैं कि हमें मानदेय मिलना चाहिए, मुआवजा या प्रोत्साहन राशि नहीं। काम बहुत है और जमीनी स्तर पर है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में नये-नये काम जुड़ते जाते हैं और आशाओं को सौंप दिये जाते है। प्रारम्भ में कहा गया था कि यह समाज सेवा है, समाज सेवा की तरह काम करोगे पर बाद में कई काम आशाओं पर थोप दिये गये। इनका कहना है कि काम तो लगातार बढ़ते जा रहे हैं पर वेतन या मानदेय कुछ नहीं है। जो पैसा मिलता है, वह बहुत कम है।

परियोजना की शुरूआत में सरकारी अस्पतालों से ही इनका सम्बन्ध था पर बाद में पी पी पी मोड पर काम होने से गैरसरकारी संस्थाओं के माध्यम से प्रशिक्षण, डाटाबेस का रखरखाव आदि होने लगा। इनका सम्बन्ध महिला चिकित्सा अधिकारी से भी है, मुख्य चिकित्साधिकारी से भी और आशा संसाधन केन्द्र चलाने वाली गैरसरकारी संस्था से भी। अत: यह दुविधा बनी रहती है कि इनकी जवाबदेही किसके प्रति है। आशाएं कहती हैं, जिला चिकित्सा अधिकारी, मुख्य चिकित्साधिकारी, आशा संसाधन केन्द्र की तो हमें सुननी ही पड़ती है, ग्राम प्रधान तथा वार्ड मेम्बर की भी सुननी पड़ती है। वे भी धमकी देते हैं कि ठीक से काम नहीं करोगे तो हटा देंगे। कुछ प्रधान तथा वार्ड सदस्यों ने आशा से अपने क्षेत्र में चुनाव प्रचार करने के लिए भी कहा। टीकाकरण के समय एएनएम इनके कागजों पर हस्ताक्षर करके प्रमाणित करती है। प्रसव के समय आशा उपस्थित है या नहीं, इसे नर्स प्रमाणित करती है। गर्भवती की पूरी देखभाल करने के बाद यदि प्रसव के समय आाशा उपस्थित न हो पाई तो ‘नो आशा’ लिख दिया जाता है जिससे उसको भुगतान नहीं होता। गर्भवती को दिखाने ले जाते समय इन्हें डॉक्टर से अपने कागजों पर हस्ताक्षर करवाने पड़ते हैं, तभी माना जायेगा कि वह गर्भवती को दिखाने लाई थी। इस तरह भुगतान के लिए इन्हें कागजी कार्रवाई पूरी करनी पड़ती है। प्रसव के समय आशा को उपस्थित रहना पड़ता है। यदि गर्भवती महिला रात के 12 बजे भी बुलाये तो जाना पड़ता है लेकिन अस्पताल में रात को रुकने की सुविधा नहीं दी जाती। कभी-कभी रात के 12 या 2 बजे उसे अस्पताल से अपने घर वापस आना पड़ता है। यद्यपि यह निर्देश है कि आशा के लिए रात्रि विश्राम की व्यवस्था अस्पतालों में होनी चाहिए। बिहार में इसी प्रकार के एक मौके पर एक आशा बहू के साथ मरीज के परिवार के व्यक्ति ने बलात्कार किया और जान से मार दिया। यद्यपि दिशानिर्देशों में जेन्डर के प्रति संवेदनशील होने तथा ऐसे मामलों में आवाज उठाने की बात कही गई है पर बागेश्वर में एक आशा संगीता ने शराब के विरोध में आवाज उठाई तो उसे शराब माफिया द्वारा मार दिया गया। सरकार मानती है कि निश्चित मानदेय दिये जाने पर आशा निर्धारित काम नहीं करेगी। इसलिए काम करने पर ही पैसा मिलेगा की नीति बना दी गई है। जन्म दर कम होने से भी इन्हें नुकसान है। काम न करने पर आशा को निकाला जा सकता है। पटना में 2016 में 111 आशा कार्यकर्ताओं को शून्य कार्य निष्पादन के आधार पर निकाल दिया गया था।

कार्यक्रम की शुरूआत में आशा रखी गई। उनका चयन चिकित्साधिकारी द्वारा गैरसरकारी संगठनों के माध्यम से किया गया। बाद में जब आशाओं की संख्या बढ़ती गई तथा संकलित आंकड़े भी एकत्र होते गये तो आशा सहयोगी या आशा सुगमकर्ता रखी गईं,  जिनका चयन योग्यता तथा उम्र के आधार पर आशाओं के बीच से ही किया जाता है। प्रति 20 आशाओं पर एक सुगमकर्ता होती है। सुगमकर्ता को 5000 रुपया मानदेय दिया जाता है। आशा सुगमकर्ता के लिए योग्यता बारहवीं उत्तीर्ण होना है। इससे आशाओं में असन्तोष फैलने लगा। उन्हें लगा कि जमीनी स्तर पर काम हमें करना पड़ता है, सुगमकर्ता तो आशा द्वारा संकलित आंकड़ों को ऊपर तक पहुंचाने का काम करती हैं। हालांकि आशा सुगमकर्ताओं से भी अपेक्षा रखी जाती है कि वे महीने में 20 दिन कार्यक्षेत्र में भ्रमण करें तथा एएनएम, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, ग्रामीण स्वास्थ्य स्वच्छता एवं पोषण समिति, स्वयं सहायता समूह तथा पंचायत के सदस्यों के बीच समन्वय स्थापित करें। आशाओं का कहना है कि सुकमकर्ता को निश्चित मानदेय मिलता है तो हमें क्यों नहीं। अगर समाज सेवा की बात थी तो सबके लिए होनी चाहिए थी। आशा कार्यकर्ताओं ने आशा सुगमकर्ताओं की नियुक्ति में अड़चनें डालने की कोशिश की। जब ये आन्दोलन की राह पर चल पड़ीं तो इन्हें सलाह मिली कि अपनी यूनियन बनानी चाहिए परन्तु नियमित कर्मचारी न होने के कारण ये यूनियन नहीं बना सकती थीं अत: यूनियन बनाकर ऐक्टू तथा सीटू या भारतीय मजदूर संघ से सम्बद्घ हो गईं। देश भर में इनकी अलग-अलग यूनियन हैं जो केन्द्रीय स्तर पर आशा फैडरेशन से जुड़ी हैं तथा देश के विभिन्न शहरों में जिसके सम्मेलन होते रहते हैं। उत्तराखण्ड में इनकी यूनियन है- उत्तराखण्ड आशा हेल्थ वर्कर्स यूनियन। स्थानीय स्तर पर भी ये अपने सम्मेलन करती हैं। उत्तराखण्ड आशा हेल्थ वर्कर्स यूनियन में इस समय 3000 सदस्य हैं जबकि उत्तराखण्ड में 11 हजार आशा कार्यकर्ता हैं। अलग-अलग संघ होने से आशा बंट गई हैं। लेकिन अपनी मांगों को लेकर आशा बार-बार आन्दोलन करने को मजबूर हुई हैं। कर्नाटक स्टेट आशा वर्कर्स एसोशिएशन बंगलुरु ने मांग की है कि अन्य भत्तों के अतिरिक्त प्रतिमाह 5000 रु़ वेतन आशा को मिलना चाहिए। साथ ही आशा को पहचान पत्र भी दिया जाना चाहिए क्योंकि घर-घर का भ्रमण करने पर लोग उनसे पहचान पत्र मांगते हैं। मई 2017 में आजमगढ़, उत्तर प्रदेश में एक आशा कार्यकर्ता ने मुख्यमंत्री की गाड़ी रोककर अपना ज्ञापन दिया जिसमें पिछले छह माह से रुके हुए वेतन के भुगतान की मांग की गई थी।
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इनकी यह भी शिकायत है कि भोजनमाता या आंगनबाड़ी कार्यकर्ता की चर्चा होती है पर आशा की कोई चर्चा नहीं होती। जबकि इनका काम कम महत्वपूर्ण नहीं है। अन्य महिलाओं को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाने वाली आशा को स्वयं के लिए या अपने परिवार के लिए कोई चिकित्सा सुविधा प्राप्त नहीं है। उसको अस्पताल की पर्ची के लिए भी पैसे देने पड़ते हैं, उसका स्वास्थ्य कार्ड नहीं बन रहा है। मृत्यु होने पर मुआवजा या बीमा की सुविधा भी उसके लिए नहीं है, इस तरह का असन्तोष कई आशा कार्यकर्ता प्रकट करती हैं।

भिन्न- भिन्न राज्यों ने आशाओं को प्रोत्साहित करने के लिए कदम उठाए हैं। 2013 में कर्नाटक सरकार ने राज्य की 35000 आशाओं को मोबाइल फोन दिये। दिल्ली की एक संस्था ने यह देखते हुए कि आशा को प्रतिदिन हर मौसम में 4-5 किमी चलना पड़ता है, 150 आशाओं को एक प्रयोग के तहत कस्टमाइज्ड साइकिलें दीं, जिनमें मोबाइल स्टैण्ड, मोबाइल फोन तथा हैडलाइट चार्ज होने की व्यवस्था, दवाएं तथा जरूरी सामान रखने के लिए थैला, हैड लाइट, छाता रखने की जगह, आदि सुविधाएं थीं। बाद में देखा गया कि इससे आशाओं के काम में गुणवत्ता आई, यात्रा समय में कमी आई और दौरा किये गये घरों की संख्या बढ़ी।  2011 में उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री भुवनचन्द्र खण्डूरी ने इनको सालाना 5000 रु़ प्रोत्साहन के तौर पर दिये जाने की घोषणा की। 2 किश्तों में राशि दी गई पर पूरे 5000 नहीं दिये गये। 2014 में मुख्यमंत्री हरीश रावत ने भी 5000 रु़ देने की घोषणा की पर वह भी पूरी नहीं मिल पाई। कह दिया जाता है कि बजट नहीं है। फरवरी 2013 में प़ बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य सरकार की ओर से अप्रैल 2013 से आशा को 1300 रु़ मासिक वेतन देने की घोषणा की जो केन्द्र द्वारा दिये जा रहे भत्तों के अतिरिक्त  थी।  

देश भर में लगभग 9 लाख आशा कार्यकर्ता तथा साढ़े पांच लाख स्वास्थ्य समितियां होने पर भी स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार नहीं हो पा रहा है। कार्यक्रम का एक छोर आशा है तो दूसरा छोर ग्रामीण स्वास्थ्य, स्वच्छता एवं पोषण समितियां हैं। ग्रामीण स्चास्थ्य की सफलता इन समितियों पर भी निर्भर है। आशा, एएनएम तथा आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के बीच भी समन्वय स्थापित नहीं हो पाता। इन सबके द्वारा मिलकर गांव के स्वास्थ्य के लिए योजना बनाने की बात सैद्घान्तिक रूप में कही गई है। लेकिन घोटालों, भ्रष्टाचार, राजनीतिक उठापटक और स्वार्थपरता के दलदल में धंसे हुए प्रशासन और सरकारों के चलते सिद्धांत और व्यवहार की खाइयों को पाटने का काम कौन करेगा।
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सरकारी पक्ष कहता है कि कार्यक्रम की सफलता इस बात पर निर्भर है कि आशा व्यक्तिगत रूप से समाज में सम्पर्क बनाने में कुशल हो, उसमें नेतृत्व की क्षमता हो, बातचीत में कुशल हो, लोगों को प्रेरित करती हो, अपनी जिम्मेदारियां उसे पता हों और उनका निर्वाह करती हो। लेकिन यही अपेक्षाएं दूसरे-दूसरे लोगों, कर्मचारियों, अधिकारियों, नागरिकों, जनप्रतिनिधियों से भी तो होती हैं। इतनी सब व्यवस्थाएं होने पर क्यों सब तरह की सेवाओं में अपेक्षित परिणाम नहीं निकल रहे हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों की ओर से आशा कार्यकर्ताओं की मांगों की अनदेखी करना कहां तक उचित है। आशाओं को लगता है कि उन्हें उनके काम के अनुरूप पैसा नहीं मिल रहा है। सरकारें यदि आशा को वेतन नहीं देती तो उनकी सुविधाएं तो बढ़ा सकती हैं। कस्टमाइज्ड साइकिल जैसे प्रयोग तो किये जा सकते हैं। सरकार तथा गैरसरकारी संस्थाओं की ओर से उनकी दक्षता और कार्यक्षमता को बढ़ाने के लिए कारगर उपाय किये जाने की जरूरत है न कि उनकी उपेक्षा, अवहेलना या मांगों की अनदेखी किये जाने की। आज सरकारों की ओर से अपनी मांगों को लेकर आन्दोलन कर रहे किसी भी समूह के प्रति उपेक्षा, लापरवाही और दमन का रास्ता अख्तियार करने को एक रणनीति बना लिया गया है लेकिन उससे देश की दशा सुधरने वाली नहीं है। आशाओं को भी यह दिखाई देता है कि सांसदों, विधायकों के भत्ते या तनख्वाह बढ़ाते समय जिस सरकारी फण्ड में कहीं कोई कमी नहीं होने पाती, वही फण्ड आशाओं को साल में एक बार 5000 रु. की प्रोत्साहन राशि देते समय क्यों खत्म हो जाता है। रही समाजसेवा की बात तो विधायक और सांसद तो सबसे बड़े समाजसेवक हैं।

समाज में स्त्रियों के साथ होने वाले भेदभाव (जेन्डर) के लिए आवाज उठाने की बात उनके दिशा निर्देशों में कही गई है। हिंसा के खतरे वाली महिलाओं की पहचान करना, महिलाओं के हक में आवाज उठाना, उन्हें संगठित करना, कानूनों की जानकारी होना और देना यह भी उनके कर्तव्यों में शामिल है। इसके लिए आशा कार्यक्रम की ओर से कहीं प्रयास होने या करने की बात तो सुनने में नहीं आती है। यदि ऐसा होता तो जैसे 2005 से अब तक जैसे मातृ-शिशु मृत्यु दर में कमी आई है, उसी तरह महिला-हिंसा की घटनाओं में भी कमी आ सकती थी। एक स्त्री का स्वास्थ्य समाज में स्त्रियों के साथ होने वाले भेदभाव को खत्म किये बिना कैसे ठीक हो सकता है।

समुदाय और स्वास्थ्य सेवाओं के बीच की खाई को पाटने का काम एक प्रकार से आशा का है, इसलिए उसे निरन्तर प्रोत्साहन के साथ-साथ समाज में प्रतिष्ठा दिये जाने की आवश्यकता है।

यह महत्वपूर्ण है कि देश भर में लगभग नौ लाख महिलाएं जिनके लिए न्यूनतम अर्हता कक्षा 8 तक की शिक्षा है, जिनके चयन में एकल महिला को वरीयता दी जा रही है, इस कार्यक्रम से जुड़कर दक्षता और प्रतिष्ठा प्राप्त करती हैं तो यह महिला सशक्तीकरण के लिए एक ठोस कदम तो है ही।
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