बच्चे और उनके अधिकार

Children and their Rights
फोटो: सुधीर कुमार

यूं तो सम्पूर्ण विश्व बच्चों के कानूनी अधिकारों को लेकर सजग व सर्तक है। बावजूद इसके सबसे ज्यादा अपराधों से ग्रसित और पीड़ित बच्चे ही हैं। तमाम तरह के कानूनों, अधिकारों और हकों के बाद ऐसा कोई दिन नहीं, जिस दिन बच्चों के शोषण की खबरें न आती हों।
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बच्चे, उनकी खुशियां, उनके खेल, चंचलता, बालपन और प्राकृतिक सम्बन्ध सदैव रहेंगे। पुरातन काल से आज तक समय बदला, परिस्थितियां बदलीं। इस परिर्वतन के कारण सामाजिक ताना-बाना निरन्तर बदलता रहा और भविष्य में भी बदलता रहेगा। कहा जाता है कि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। किसी भी समाज के विकास की प्रक्रिया का प्रथम चरण बाल्यावस्था होती है। यह अवस्था ही मजबूत प्रक्रिया को भविष्य में चरणबद्ध तरीके से आगे बढ़ने के लिये स्थापित करती है। सभी का अपना बचपन होता है।

सम्पूर्ण जीवन पर बचपन का प्रभाव पड़ता है, परन्तु सभी वयस्क अपने बचपन को भूलकर बच्चों के बचपन को जानबूझकर या अनजाने में अपने क्रियाकलापों से प्रभावित करते रहते हैं। हमें बच्चों की समस्याओं को समझना होगा। घर में माता-पिता, नाते-रिश्तेदार, विद्यालय के शिक्षक, वहां का वातावरण, खेल के मैदान में या खुद की उम्र से बड़े समाज में अनजान या पहचान के लोगों से बच्चा निरन्तर प्रभावित होता रहता है। यहीं से प्रारम्भ होता है परेशानी और शोषण का दौर। यह शोषण भयंकर अपराध के रुप में परिवर्तित होकर बच्चों के जीवन को तबाह कर देता है।

बच्चों के बारे में समाज में सदियों से एक धारणा बनी हुई है कि बच्चे सिर्फ बच्चे होते हैं। उन्हें अपने बारे में सोचने समझने, निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। क्योंकि अगर वह ऐसा करते हैं तो अपने लिए मुसीबत खड़ी कर लेंगे। इसी सोच के परिणामत: बच्चे सदियों से अनेक तरह की परेशानियों व अत्याचारों से पीड़ित होते आ रहे हैं। बच्चों के साथ होने वाले अत्याचार के अनेक रूप देखे जा सकते हैं; जैसे भिक्षावृत्ति, भू्रण हत्या, बाल यौन शोषण, अपहरण, बाल व्यापार, बाल विवाह, शिक्षा से वंचित बालिकाओं के साथ लैंगिक भेदभाव, स्कूल में शिक्षकों के द्वारा मारपीट, बंधुवा मजदूरी, बालश्रम, स्वास्थ्य का अभाव, जाति धर्म, भाषा, क्षेत्र के नाम से प्रताड़ना आदि।
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ऐसा केवल भारत में ही नहीं, बल्कि बच्चे इन समस्याओं से पूरे विश्व में ग्रसित हैं। अन्तर्राष्ट्रीय कानून के तहत बच्चे की परिभाषा में ऐसे सभी बच्चे आतें हैं जिन्होंने 18 वर्ष की आयु पूर्ण न की हो और यह बच्चे की सर्वमान्य परिभाषा है। इस आधार पर पूरे विश्व में बच्चों को शोषण से बचाने के लिए 20 नवम्बर 1989 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा बाल अधिकारों के आधार समझौते का प्रस्ताव पारित किया गया। जिस पर भारत सरकार द्वारा 11 दिसम्बर 1992 को हस्ताक्षर कर बच्चों के प्रति अपनी संवेदना और प्रतिबद्धता व्यक्त की गई।

बाल अधिकार समझौते में बच्चे की परिभाषा, राज्य के कर्तव्य-दायित्व से लेकर सरकारों के हस्ताक्षर करने के प्रावधानों तक कुल 54 अनुच्छेद हैं। इन अनुच्छेदों के अनुसार बाल-अधिकारों को चार भागों में, जीने का अधिकार, विकास का अधिकार, सुरक्षा का अधिकार व सहभागिता के अधिकार में, देखा जा सकता है। इन अधिकारों के तहत बच्चों के साथ जाति, धर्म, रंग, लिंग व आर्थिक आधार पर भेद नहीं किया जा सकता है और सभी बच्चों को समान रूप से ये अधिकार प्राप्त हैं। हर बच्चे को जीवन जीने के लिए, जन्म लेने, पोषण, माता-पिता का प्यार, टीकाकरण सहित सभी स्वास्थ्य सुविधाएं पाने का अधिकार है।

हमारे समाज में जिस तरह से बच्चों के शोषण की घटनाएं सामने आ रही हैं, उसके लिए संरक्षण का प्रावधान है। बच्चों को नशे, छेड़छाड़, मारपीट, बाल व्यापार, वेश्यावृत्ति, बालश्रम, युद्घ में बच्चों का इस्तेमाल से संरक्षण प्रदान करती है। इसी बात को समझकर भारत सरकार ने बाल समझौते के दो अतिरिक्त प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किये जो कि बाल व्यापार व बाल वेश्यावृत्ति तथा सशस्त्र संघर्ष में बच्चों को शामिल करने से रोकने से सम्बन्धित हंै। समझौते में यह भी शामिल है कि बच्चे अपने बारे में फैसला ले सकते हैं, संगठन बनाकर अपनी अभिव्यक्ति कर सकते हैं। यह भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि 1954 में बाल अधिकारों के बारे में जेनेवा घोषणा हुई उसके बाद 1959 को महासभा द्वारा पारित बाल अधिकारों में जेनेवा घोषणा को सम्मिलित किया गया।
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बाल अधिकार घोषणा के अनुसार शारीरिक तथा मानसिक रूप से अपरिपक्व होने के कारण बच्चे की सुरक्षा के विशेष उपायों और देखभाल की आवश्यकता है। इसमें जन्म से पूर्व तथा बाद में भी समुचित कानूनी संरक्षण शामिल है। बच्चों के संरक्षण और सम्पूर्ण विकास के लिए प्रत्येक राष्ट्र की परम्पराओं और सांस्कृतिक मूल्यों का पूरा ध्यान रखते हुए प्रत्येक देश में खासतौर पर विकासशील देशों में बच्चों को जीने के स्थितियों में सुधार के लिए आपसी अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग बहुत महत्व रखता है।

बच्चों के प्रति शोषण को रोकने के लिये अनेक तरह के कानून व अधिकार हैं। इनके बावजूद बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराध लगातार बढ़ते जा रहे हैं। ये कानून भी तब काम करते है जब अपराध अपनी सीमा पार करके पुलिस और अदालत के दरवाजे के अन्दर प्रवेश कर जाते हैं। यहां न्याय तो मिलता है परन्तु अबोध मन और शरीर पर पड़े गहरे घाव पूरी उम्र बच्चे को सताते हैं, चाहे वह किसी भी अवस्था में प्राप्त हों। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बच्चों के साथ अलग तरह का शोषण होता है और कई तरह के शोषण और अपराध का तो पता ही नहीं चलता या पता चलता भी है तो दबा दिया जाता है। कानून और समाज की बात तो छोड़िए, कई बार स्वयं माता-पिता को भी जानकारी नहीं होती कि उनका बच्चा किस परेशानी से गुजर रहा है। बच्चों के साथ काम करने के मेरे अनुभव में हर दिन हर बच्चा एक नयी तरह की परेशानी व शोषण से संघर्ष करता नजर आता है और हम अब भी चुप हैं। हमारी ये चुप्पी बच्चों से उनका बचपन छीन लेगी क्योंकि बच्चों को सुरक्षित बचपन देना पूरे समाज की जिम्मेदारी है। वरना इनकी आँखों में बचपन की रंगीन दुनिया की जगह चिन्ता की रेखाओं से भरपूर होगी और शायद हम किताबों में पढ़ेंगे- एक था बचपन।

-गायत्री दरम्वाल, विमर्श, तल्लीताल, नैनीताल

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